संत कबीर जयंती पर विशेष
अंधविश्वास व पाखंडों के विरूद्ध सशक्त स्वर का प्रतीक है कबीर
समाज को बेहतरी की राह दिखाते कबीर
अरुण कुमार कैहरबा
हमारे देश में अनेक संतों व गुरुओं ने अपने समय के समाज को उसकी अच्छाईयों और बुराईयों के साथ सही-सही पहचाना। समाज को बदलने के लिए पाखंडों और बुराईयों के खिलाफ आवाज बुलंद की। संत, कवि, समाज-सुधारक कबीर उन्हीं में से एक हैं। उनका व्यक्तित्व साहित्यकारों और आम लोगों को एक साथ आकर्षित करता है। निश्चय ही इसका मुख्य कारण उनकी रचनाएँ ही हैं, जो आज भी कहावतों की तरह लोगों की जुबान पर चढ़ी हुई हैं। उनकी साखियों और पदों को उदाहरण की तरह प्रस्तुत ही नहीं किया जाता, बल्कि गाया भी जाता है। भक्तिकाल के इस कवि की लोकप्रियता का क्या कारण है? यदि इस सवाल पर सोचते हैं, तो लगता है-जैसे खरी-खरी कहने की प्रवृत्ति लोगों को पसंद आई है। लोग अंधविश्वासों, आडम्बरों, जाति-व्यवस्था, वर्ण व्यवस्था से बुरी तरह आहत हैं। जब कोई व्यक्ति पूरी शिद्दत और गम्भीरता से इनके प्रति विद्रोह करता हुआ दीखता है, तो वे उसके प्रति सम्मान का भाव प्रदर्शित करते हैं। सिर्फ यही बात नहीं है बल्कि कबीर की रचनाओं के माध्यम से उन्हें बुराईयों का विरोध करने का औजार भी मिलता है।
कबीर के जन्म, जन्म-स्थान व मृत्यु आदि के बारे में बहुत सी धारणाएँ हैं। कहा जाता है कि कबीर विधवा ब्राह्मणी के यहां 1398 को बनारस में पैदा हुए, जिसने लोकलाज से डर कर बच्चे को तालाब किनारे छोड़ दिया। नीरू और नामा नामक जुलाहा दम्पति ने वहां से बच्चे को उठा लिया और बच्चे का नाम कबीर रखा। जबकि कुछ विचारक कबीर का जन्म मुसलमान परिवार में हुआ मानते हैं। जन्म और पालन-पोषण पर एक दूसरे को काटने वाले विचारों पर ना भी जाएं तो भी एक बात दावे के साथ कही जा सकती है कि कबीर सांस्कृतिक एकता और सांझी संस्कृति की विरासत को धारण करते हैं और उसे आगे बढ़ाते हैं। कबीर का समय भारतीय इतिहास में अन्त:कलह, अराजकता और घोर राजनीतिक-सामाजिक उथल-पुथल और संक्रांति-काल माना जाता है। समाज में तंत्र, मंत्र, मूर्तिपूजा, पाखण्डों, आडम्बरों, कर्मकाण्डों का बोलबाला था। ऐसे समय में कबीर ने कर्मकाण्ड का विरोध किया। उन्होंने ईश्वर को पाखंडों के जाल से निकाल कर सबकी साँसों से जोड़ दिया। उन्होंने परमात्मा को पुरोहितवाद के हाथों की कठपुतली नहीं रहने दिया। कबीर की रचनाओं में तीरथ, मूर्ति पूजा, मंदिर, मस्जिद, जप-तप, व्रत-उपवास, सन्यास आदि कर्मकांडों में भगवान की खोज करने वालों को भगवान स्वयं कहता है- वे गलत दिशा में भटक रहे हैं। सही बात तो यह है कि भगवान सभी सांसों की सांस में है। भगवान के लिए इधर-उधर भटकने की जरूरत नहीं है।
कबीर ने भेदभाव पर आधारित व्यवस्था में सभी मनुष्यों की समानता और न्याय का पक्ष लिया। उन्होंने अपनी कविताओं में वर्ण व्यवस्था की मार झेल रहे समाज के सबसे कमजोर वर्ग के लोगों में हौंसले का संचार किया। कबीर ने श्रेष्ठता का दावा करने वाले लोगों को सबक सिखाया। उनका मानना था कि सभी मनुष्य बराबर हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो सबके जन्म लेने में फर्क होता। कबीर कहते हैं-
‘जे तू बामन बामनी जाया, तो आन बाट काहे नहीं आया।
जे तु तुरक तुरकनी जाया, तो भीतिरि खतना क्यूं न कराया।
एक बूंद एकै मल-मूत्र, एक चाम, एक गूदा।
एक जोति थै सब उतपना, कौ बामन कौ सूदा।’
कबीर कहते हैं कि सबमें एक ही परमात्मा का वास है-
कबिरा कुआँ एक है, पानी भरें अनेक।
भांडे ही में भेद है, पानी सब में एक।
जाति न पूछो साधु की पूछ लीजिये ज्ञान।
मोल करो तलवार का पड़ा रहने दो म्यान।।
कबीर अपने समय और समाज के शोधक हैं। वे धर्मग्रंथों के अध्ययन से अधिक महत्व ढ़ाई आखर के शब्द प्रेम को देते हैं। उन्होंने विभिन्न प्रकार का विरोध झेलते हुए भी सच कहने का साहस नहीं छोड़ा। जात-पात, झूठ और पाखंड के पीछे धकेले जा रहे संसार पर हैरानी जताते हुए कहते हैं-
साधो देखो जग बौराना, सांच कहौं तो मारन धावै, झूठे जग पतियाना।
कबीर दास का रचनाकाल 15वीं सदी था। उनके समकालीन और बाद में हुए लगभग सभी संत कवियों ने कबीर के जीवन और काव्य को प्रेरणादायी माना है और उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त की है। उनके समकालीन और गुरुभाई पीपा, दादूदयाल, धर्मदास, 17वीं सदी के गरीबदास, 19वीं सदी के पलटूदास सहित कितने ही निर्णुण संत काव्य धारा के कवियों में कबीर रचे-बसे हुए थे। यहां तक कि संविधान निर्माता डॉ. भीम राव अंबेडकर भी कबीर के जीवन और विचारों से प्रेरणा प्राप्त करते हैं। आधुनिक काल में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने उनकी कविताओं पर शोध किया और 1941 में ‘कबीर’ पुस्तक के माध्यम से उनकी रचनाओं का संकलन किया। मसी-कागद छूयो नहीं, कलम गहि नहीं हाथ कह कर अपनी निरक्षरता को स्वयं प्रमाणित करने वाले इस कवि पर वैसे तो द्विवेदी के बाद से लगातार शोध हो रहा है। कबीर के क्रांतिकारी विचार और उनकी भाषा लगातार उच्च कोटि के साहित्यकारों को अचरज में डालने वाली है। ‘अकथ कहानी प्रेम की: कबीर की कविता और उनका समय’ में विद्वान लेखक और कृति आलोचक पुरूषोत्तम अग्रवाल ने कबीर काव्य के सम्बन्ध में अनेक भ्रमों का निराकरण कर कबीर का एक महावृत्तान्त प्रस्तुत किया है।
हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार, ‘कबीरदास ने बोलचाल की भाषा का ही प्रयोग किया है। भाषा पर कबीर का जबरदस्त अधिकार था। वे वाणी के डिक्टेटर थे। जिस बात को उन्होंने जिस रूप में प्रकट करना चाहा है, उसे उसी रूप में कहलवा लिया- बन गया है तो सीधे-सीधे, नहीं दरेरा देकर। भाषा कुछ कबीर के सामने लाचार-सी नजऱ आती है। उसमें मानो ऐसी हिम्मत ही नहीं है कि इस लापरवाह फक्कड़ की किसी फऱमाइश को ना ही कर सके। और अकथ कहानी को रूप देकर मनोग्राही बना देने की तो जैसी ताकत कबीर की भाषा में है वैसी बहुत ही कम लेखकों में पाई जाती है।’ वे कबीर के व्यक्तित्व का विश£ेषण करते हुए कहते हैं-‘ऐसे थे कबीर, सिर से पैर तक मस्तमौला, स्वभाव से फक्कड़, आदत से अक्खड़, भक्त के सामने निरीह, भेषधारी के आगे प्रचण्ड, दिल के साफ, दिमाग से दुरूस्त, भीतर से कोमल, बाहर से कठोर, जन्म से अस्पृश्य, कर्म से वन्दनीय।’ उनका सिद्धांत है-
कबिरा सोई पीर है, जो जानैं पर पीर।
जो पर पीर ना जानई, सो काफिर बे पीर।।
कबीर का जीवन, रचनाएं व विचार आज भी प्रासंगिक है, क्योंकि आज भी समाज अंधविश्वास और कुरीतियों से निकला नहीं है। आज भी जात-पात और साम्प्रदायिकता लोगों की सोच को विकृत किए हुए है। आज लोगों को कबीर व उनकी क्रांतिकारी परंपरा को आत्मसात करने की जरूरत है। लेकिन दुखद यह है कि हमारे समाज सुधारकों व गुरुओं-संतों ने जो विचार कहे, लोग उनके विचारों को पढऩे की जहमत नहीं उठाते। उन विचारों को समझने के लिए मध्यस्थों पर निर्भर रहते हैं। जिस तरह से वे उनके विचारों को व्याख्यायित करते हैं, उसी तरह से लोग अपनी धारणा बना लेते हैं। यह विडंबना ही है कि कबीर के साथ भी ऐसा हो रहा है। जिन रीति-रिवाजों, कर्मकांडों व पाखंडों का उन्होंने विरोध किया, उन्हीं का प्रयोग कबीर को मानने वाले लोग करते हुए देखे जा रहे हैं। कबीर ने कहा था-कबिरा खड़ा बाजार में लिए लुकाठा हाथ। जो घर फूंके आपना सो चले हमारे साथ॥ घुमक्कड़ी में जीवन बिताने वाले कबीर के नाम पर मठ व मंदिर बना दिए गए हैं। जब-जब हम वास्तव में कबीर के पास पहुंचेंगे, तो हमें पक्के तौर पर अंधेरे को दूर भगाती रोशनी दिखाई देगी।
अरुण कुमार कैहरबाहिन्दी प्राध्यापक, स्तंभकार व लेखक
घर का पता-वार्ड नं.-4, रामलीला मैदान,
इन्द्री, जिला-करनाल (हरियाणा) पिन-132041
मो.नं.-9466220145
![]() |
JAGAT KRANTI 24-6-2021 |
![]() |
VIR ARJUN 24-6-2021 |
![]() |
HIMACHAL DASTAK |
![]() |
DAILY NEWS ACTIVIST 23-6-2021 |
No comments:
Post a Comment