Monday, June 28, 2021

शिक्षा से वंचित प्रवासी मजदूरों के बच्चों की शिक्षा के प्रति सभी निभाएं जिम्मेदारी

द्वार-द्वार दाखिला अभियान

बच्चों के दाखिले के लिए फैक्ट्रियों में पहुंचा अध्यापकों का काफिला

मजदूरों को समझाया, स्कूल में दाखिले किए

फैक्टरी मालिकों से भी मजदूरों के बच्चों को दाखिल करवाने की चर्चा की

विद्यार्थियों से जानी शिक्षा की प्रगति

यमुनानगर, 28 जून


गांव करेड़ा खुर्द स्थित राजकीय उच्च विद्यालय का द्वार-द्वार दाखिला अभियान सोमवार को भी जारी रहा। मुख्याध्यापक विपिन कुमार के मार्गदर्शन में हिन्दी प्राध्यापक अरुण कुमार कैहरबा, पंजाबी अध्यापिका सुखिन्द्र कौर, संस्कृत अध्यापिका रजनी शास्त्री व प्राथमिक शिक्षक सुल्तान सिंह ने बीच का माजरा और मिश्री का माजरा के पास स्थित फैक्ट्रियों में रह रहे प्रवासी मजदूरों के साथ सम्पर्क किया और उन्हें अपने बच्चों को स्कूल में दाखिला करवाने की अपील की। कुछ बच्चों के घर पर ही दाखिले किए गए। मजदूरों को स्कूल में आकर बच्चों का दाखिला करवाने की भी अपील की गई। अध्यापकों ने बच्चों का दाखिला करवाने के लिए फैक्टरी मालिकों से भी विचार-विमर्श किया और उन्हें मजदूरों को समझाने का अनुरोध किया।
स्कूलों से बाहर छूट रहे बच्चों का दाखिला करने, विद्यार्थियों का हालचाल जानने, कोरोना काल में उनकी शैक्षिक प्रगति पर चर्चा करने व मार्गदर्शन करने के लिए राजकीय उच्च विद्यालय करेड़ा खुर्द के अध्यापकों का काफिला सबसे पहले बीच का माजरा पहुंचा। यहां पर अभिभावकों से घर-घर जाकर सम्पर्क किया गया और उन्हें अपने बच्चों की शिक्षा में रूचि लेने पर बातचीत की गई। अरुण कैहरबा ने कहा कि शिक्षा से ही हम आगे बढ़ सकते हैं। आज के दौर में भी यदि बच्चे शिक्षा से वंचित रह गए तो देश व समाज आगे नहीं बढ़ पाएगा। उन्होंने कहा कि हमारे आसपास के बच्चों के प्रति केवल मां-बाप की ही जिम्मेदारी नहीं है, बल्कि उनकी भी उतनी ही जिम्मेदारी है, जिनके खेतों या फैक्ट्रियों में बच्चों के मां-बाप काम करते हैं। हर पढ़े-लिखे व्यक्ति की जिम्मेदारी है कि सभी बच्चे स्कूल में दाखिल होकर शिक्षा ग्रहण करें।


जब मजदूरों व बच्चों ने अध्यापकों को डॉक्टर मान कर चले जाने के लिए कहा-

मिश्री का माजरा के पास स्थित एक फैक्टरी के मजदूरों के रहने के लिए बनाए गए कमरों के पास उस समय असमंजस व दहशत की स्थिति पैदा हो गई, जब बच्चों ने अध्यापकों को डॉक्टर मान लिया। अध्यापकों के बार-बार अनुरोध करने पर भी कुछ महिलाओं व बच्चों ने एक ना सुनी। आशंकित महिलाओं ने कहा कि उन्हें पता है कि आप कोरोना के टीके लगाने आए हो, ऐसा हम बिल्कुल नहीं होने देंगे। हालांकि कईं बच्चों ने पढऩे की इच्छा व्यक्त की। लेकिन वे अध्यापकों को डॉक्टर मान कर चल रहे थे। बाद में काफी बातचीत के बाद अभिभावकों ने शिक्षा की अहमियत को माना और बच्चों को स्कूल में दाखिल करवाने का आश्वासन दिया। मजदूरों को मनाने के लिए अध्यापकों ने फैक्टरी मालिकों से भी चर्चा की और उन्होंने भी मजदूरों को अपने बच्चों को स्कूल में दाखिल करवाने के लिए समझाया। अरुण ने कहा कि यह घटनाक्रम स्वास्थ्य विभाग के सामने सभी का कोरोना वैक्सीनेशन करवाने के मार्ग की एक चुनौति है।  


क्या है सबसे बड़ी दिक्कत-

हिन्दी प्राध्यापक अरुण कैहरबा ने बताया कि फैक्ट्रियों में काम करने वाले प्रवासी मजदूरों के बहुत बड़ी संख्या में बच्चे आवाजाही, गरीबी, जागरूकता के कमी के कारण शिक्षा में वंचित रह जाते हैं। दूसरे राज्यों से आए मजदूर महिला-पुरूष अपने काम में लगे रहते हैं। उनके पास ना तो समय होता है और ना ही सोच कि वो अपने बच्चों को स्कूल में दाखिल करवाएं और उनकी शिक्षा पर ध्यान दें। एक बड़ी समस्या यह भी है कि मजदूरों के पास आधार-कार्ड, राशन कार्ड, बच्चों का जन्म प्रमाण-पत्र सहित कोई भी प्रमाण-पत्र नहीं होता है, जिससे उनके दाखिले में मुश्किलें आती हैं। ऐसे में फैक्ट्रियों में काम करने वाले प्रवासी मजदूरों के बच्चों के प्रमाण-पत्र बनाने और उनके दाखिले के लिए विशेष प्रयासों की जरूरत है। इसमें फैक्टरी मालिकों को अपनी सामाजिक जिम्मेदारी अवश्य ही निभानी चाहिए।
क्या कहते हैं समाजसेवी-
उद्यमी एवं समाजसेवी अनिल शर्मा व सुभाष कांबोज ने कहा कि वे बच्चों की शिक्षा के लिए हर संभव सहयोग करेंगे। उन्होंने कहा कि वे समय-समय पर मजदूरों से बातचीत करते हैं और उन्हें बच्चों को स्कूल में दाखिला करवाने के लिए प्रेरित करते हैं। सुभाष ने बताया कि कईं पुरूष मजदूरों की शराबखोरी की आदत के कारण बच्चों की शिक्षा पर ध्यान परिवार ध्यान नहीं दे पाते हैं। उन्होंने मजदूरों को एकत्रित करवाकर उन्हें बच्चों की शिक्षा के लिए प्रेरित किया।
क्या कहते हैं मुख्याध्यापक-
मुख्याध्यापक विपिन कुमार ने कहा कि उनका स्कूल आसपास के सभी बच्चों को स्कूल में दाखिल करवाने व गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के लिए हर संभव कोशिश कर रहा है। अध्यापक हर रोज आसपास के गांवों में जा रहे हैं और बच्चों को ऑनलाईन शिक्षा प्रदान करने के प्रयास किए जा रहे हैं।


Saturday, June 26, 2021

Door to door Admission campaign

अध्यापकों ने चलाया द्वार-द्वार दाखिला अभियान

प्रवासी व स्थानीय मजदूरों के बच्चों के किए दाखिले

स्कूली विद्यार्थियों के घर जाकर हाल-चाल जाना
बच्चों से पढ़ाई की स्थिति के बारे में पूछा
यमुनानगर, 26 जून






सरकारी स्कूलों में दाखिले का अभियान चला हुआ है। इसी अभियान के तहत गांव करेड़ा खुर्द स्थित राजकीय उच्च विद्यालय के अध्यापकों ने आस-पास के तीन गांवों में घर-घर संपर्क करके स्कूल से बाहर छूट गए प्रवासी व स्थानीय मजदूरों के बच्चों का दाखिला किया। हिन्दी प्राध्यापक अरुण कुमार कैहरबा, पंजाबी अध्यापिका सुखिन्दर कौर, संस्कृत अध्यापिका रजनी शास्त्री, प्राथमिक शिक्षिका वंदना शर्मा व ईएसएचएम विष्ण दत्त ने करेड़ा खुर्द, बाग का माजरा और तिगरी गांवों में जनसंपर्क किया। विभिन्न फैक्ट्रियों में काम करने वाले मजदूरों के स्कूलों में नहीं जा रहे बच्चों का दाखिला किया। स्कूल में दाखिल बच्चों के घरों में जाकर हाल-चाल पूछा। उन्हें कोरोना वायरस से बचने के लिए उचित व्यवहार से अवगत करवाया। पढ़ाई की स्थिति का भी मूल्यांकन किया। संसाधनों के अभाव में जो बच्चे ऑनलाइन शिक्षा का लाभ नहीं ले पा रहे हैं, उन्हें उचित मार्गदर्शन दिया।
तिगरी गांव के राजकीय प्राथमिक पाठशाला में पहुंच कर करेड़ा खुर्द के अध्यापकों ने दाखिला अभियान पर महत्वपूर्ण विचार-विमर्श किया। स्कूल के अध्यापक मोहिन्द्र कुमार, रेखा व विक्रम ने बताया कि कोरोना काल में उनका स्टाफ बच्चों को अच्छी शिक्षा देने के लिए प्रयत्नशील है। अरुण कैहरबा ने बताया कि ऑनलाइन शिक्षा के तहत व्हाट्सअप समूहों, गूगल मीट आदि माध्यमों से बच्चों को शिक्षा प्रदान करने की कोशिश तो की जा रही है, लेकिन स्मार्ट फोन व इंटरनेट पैक के अभाव में बहुत से बच्चे ऑनलाइन शिक्षा से लाभान्वित नहीं हो पाते हैं। ऐसे में स्कूल में शिक्षक व विद्यार्थियों में आमने-सामने होने वाली शैक्षिक प्रक्रिया व गतिविधियों का कोई विकल्प नहीं है।
मां-बाप ने रोया निजी स्कूलों के लालच का दुखड़ा-
घर-घर जा रहे शिक्षकों के सामने निजी स्कूल में पढऩे वाले बहुत से बच्चों के अभिभावकों ने निजी स्कूलों द्वारा फीस के रूप में मांगे जा रहे रूपयों पर चिंता जताई और बच्चों को सरकारी स्कूल में दाखिल करवाने की इच्छा जताई। अभिभावकों ने कहा कि ऐसे भयानक संकट में भी प्राईवेट स्कूलों का लालच मंद नहीं पड़ रहा है। उन्होंने बच्चों की मोटी फीस बना रखी है, जिसे अदा करना उनके बस की बात नहीं है। बहुत से मां-बाप ने बताया कि लॉकडाउन के कारण उनका काम-काज ठप्प हो गया है। ऐसे में प्राइवेट स्कूलों की ऊंची फीस वे कैसे चुका सकते हैं। अभिभावकों ने कहा कि अध्यापकों के सामने बिना एसएलसी के बच्चों का सरकारी स्कूल में दाखिला करने का अनुरोध किया।
सरकारी स्कूलों में ही मिलती है मुफ्त शिक्षा: अरुण

हिन्दी प्राध्यापक अरुण कुमार ने कहा कि संकट के समय में प्राइवेट स्कूल जहां बच्चों के अभिभावकों से फीस मांग रहे हैं। वहीं सरकारी स्कूल मुफ्त शिक्षा की बात कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि आर्थिक समस्याओं से घिरे लोगों के सामने सरकारी स्कूल व सरकारी अस्पताल उम्मीद की किरण हैं। मौजूदा समय की शैक्षिक चुनौतियों का सामना करने के लिए अध्यापकों की कोशिशें अभिभावकों को रोशनी दिखा रही हैं। गांव में पहुंचने पर सरकारी स्कूल के अध्यापकों का अभिभावक स्वागत करते हैं। वे अपनी समस्याएं भी सुनाते हैं और बच्चों के दाखिले भी करवाते हैं।
AMAR UJALA 27-6-2021

Wednesday, June 23, 2021

कबीरा सोई पीर है, जो जानैं पर पीर.. .. ..

 संत कबीर जयंती पर विशेष


अंधविश्वास व पाखंडों के विरूद्ध सशक्त स्वर का प्रतीक है कबीर

समाज को बेहतरी की राह दिखाते कबीर

अरुण कुमार कैहरबा

हमारे देश में अनेक संतों व गुरुओं ने अपने समय के समाज को उसकी अच्छाईयों और बुराईयों के साथ सही-सही पहचाना। समाज को बदलने के लिए पाखंडों और बुराईयों के खिलाफ आवाज बुलंद की। संत, कवि, समाज-सुधारक कबीर उन्हीं में से एक हैं। उनका व्यक्तित्व साहित्यकारों और आम लोगों को एक साथ आकर्षित करता है। निश्चय ही इसका मुख्य कारण उनकी रचनाएँ ही हैं, जो आज भी कहावतों की तरह लोगों की जुबान पर चढ़ी हुई हैं। उनकी साखियों और पदों को उदाहरण की तरह प्रस्तुत ही नहीं किया जाता, बल्कि गाया भी जाता है। भक्तिकाल के इस कवि की लोकप्रियता का क्या कारण है? यदि इस सवाल पर सोचते हैं, तो लगता है-जैसे खरी-खरी कहने की प्रवृत्ति लोगों को पसंद आई है। लोग अंधविश्वासों, आडम्बरों, जाति-व्यवस्था, वर्ण व्यवस्था से बुरी तरह आहत हैं। जब कोई व्यक्ति पूरी शिद्दत और गम्भीरता से इनके प्रति विद्रोह करता हुआ दीखता है, तो वे उसके प्रति सम्मान का भाव प्रदर्शित करते हैं। सिर्फ यही बात नहीं है बल्कि कबीर की रचनाओं के माध्यम से उन्हें बुराईयों का विरोध करने का औजार भी मिलता है।
कबीर के जन्म, जन्म-स्थान व मृत्यु आदि के बारे में बहुत सी धारणाएँ हैं। कहा जाता है कि कबीर विधवा ब्राह्मणी के यहां 1398 को बनारस में पैदा हुए, जिसने लोकलाज से डर कर बच्चे को तालाब किनारे छोड़ दिया। नीरू और नामा नामक जुलाहा दम्पति ने वहां से बच्चे को उठा लिया और बच्चे का नाम कबीर रखा। जबकि कुछ विचारक कबीर का जन्म मुसलमान परिवार में हुआ मानते हैं। जन्म और पालन-पोषण पर एक दूसरे को काटने वाले विचारों पर ना भी जाएं तो भी एक बात दावे के साथ कही जा सकती है कि कबीर सांस्कृतिक एकता और सांझी संस्कृति की विरासत को धारण करते हैं और उसे आगे बढ़ाते हैं। कबीर का समय भारतीय इतिहास में अन्त:कलह, अराजकता और घोर राजनीतिक-सामाजिक उथल-पुथल और संक्रांति-काल माना जाता है। समाज में तंत्र, मंत्र, मूर्तिपूजा, पाखण्डों, आडम्बरों, कर्मकाण्डों का बोलबाला था। ऐसे समय में कबीर ने कर्मकाण्ड का विरोध किया। उन्होंने ईश्वर को पाखंडों के जाल से निकाल कर सबकी साँसों से जोड़ दिया। उन्होंने परमात्मा को पुरोहितवाद के हाथों की कठपुतली नहीं रहने दिया। कबीर की रचनाओं में तीरथ, मूर्ति पूजा, मंदिर, मस्जिद, जप-तप, व्रत-उपवास, सन्यास आदि कर्मकांडों में भगवान की खोज करने वालों को भगवान स्वयं कहता है- वे गलत दिशा में भटक रहे हैं। सही बात तो यह है कि भगवान सभी सांसों की सांस में है। भगवान के लिए इधर-उधर भटकने की जरूरत नहीं है।
कबीर ने भेदभाव पर आधारित व्यवस्था में सभी मनुष्यों की समानता और न्याय का पक्ष लिया। उन्होंने अपनी कविताओं में वर्ण व्यवस्था की मार झेल रहे समाज के सबसे कमजोर वर्ग के लोगों में हौंसले का संचार किया। कबीर ने श्रेष्ठता का दावा करने वाले लोगों को सबक सिखाया। उनका मानना था कि सभी मनुष्य बराबर हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो सबके जन्म लेने में फर्क होता। कबीर कहते हैं-
‘जे तू बामन बामनी जाया, तो आन बाट काहे नहीं आया।
जे तु तुरक तुरकनी जाया, तो भीतिरि खतना क्यूं न कराया।
एक बूंद एकै मल-मूत्र, एक चाम, एक गूदा।
एक जोति थै सब उतपना, कौ बामन कौ सूदा।’
कबीर कहते हैं कि सबमें एक ही परमात्मा का वास है-
कबिरा कुआँ एक है, पानी भरें अनेक।
भांडे ही में भेद है, पानी सब में एक।
जाति न पूछो साधु की पूछ लीजिये ज्ञान।
मोल करो तलवार का पड़ा रहने दो म्यान।।
कबीर अपने समय और समाज के शोधक हैं। वे धर्मग्रंथों के अध्ययन से अधिक महत्व ढ़ाई आखर के शब्द प्रेम को देते हैं। उन्होंने विभिन्न प्रकार का विरोध झेलते हुए भी सच कहने का साहस नहीं छोड़ा। जात-पात, झूठ और पाखंड के पीछे धकेले जा रहे संसार पर हैरानी जताते हुए कहते हैं-
साधो देखो जग बौराना, सांच कहौं तो मारन धावै, झूठे जग पतियाना।
कबीर दास का रचनाकाल 15वीं सदी था। उनके समकालीन और बाद में हुए लगभग सभी संत कवियों ने कबीर के जीवन और काव्य को प्रेरणादायी माना है और उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त की है। उनके समकालीन और गुरुभाई पीपा, दादूदयाल, धर्मदास, 17वीं सदी के गरीबदास, 19वीं सदी के पलटूदास सहित कितने ही निर्णुण संत काव्य धारा के कवियों में कबीर रचे-बसे हुए थे। यहां तक कि संविधान निर्माता डॉ. भीम राव अंबेडकर भी कबीर के जीवन और विचारों से प्रेरणा प्राप्त करते हैं। आधुनिक काल में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने उनकी कविताओं पर शोध किया और 1941 में ‘कबीर’ पुस्तक के माध्यम से उनकी रचनाओं का संकलन किया। मसी-कागद छूयो नहीं, कलम गहि नहीं हाथ कह कर अपनी निरक्षरता को स्वयं प्रमाणित करने वाले इस कवि पर वैसे तो द्विवेदी के बाद से लगातार शोध हो रहा है। कबीर के क्रांतिकारी विचार और उनकी भाषा लगातार उच्च कोटि के साहित्यकारों को अचरज में डालने वाली है।  ‘अकथ कहानी प्रेम की: कबीर की कविता और उनका समय’ में विद्वान लेखक और कृति आलोचक पुरूषोत्तम अग्रवाल ने कबीर काव्य के सम्बन्ध में अनेक भ्रमों का निराकरण कर कबीर का एक महावृत्तान्त प्रस्तुत किया है।
हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार, ‘कबीरदास ने बोलचाल की भाषा का ही प्रयोग किया है। भाषा पर कबीर का जबरदस्त अधिकार था। वे वाणी के डिक्टेटर थे। जिस बात को उन्होंने जिस रूप में प्रकट करना चाहा है, उसे उसी रूप में कहलवा लिया- बन गया है तो सीधे-सीधे, नहीं दरेरा देकर। भाषा कुछ कबीर के सामने लाचार-सी नजऱ आती है। उसमें मानो ऐसी हिम्मत ही नहीं है कि इस लापरवाह फक्कड़ की किसी फऱमाइश को ना ही कर सके। और अकथ कहानी को रूप देकर मनोग्राही बना देने की तो जैसी ताकत कबीर की भाषा में है वैसी बहुत ही कम लेखकों में पाई जाती है।’ वे कबीर के व्यक्तित्व का विश£ेषण करते हुए कहते हैं-‘ऐसे थे कबीर, सिर से पैर तक मस्तमौला, स्वभाव से फक्कड़, आदत से अक्खड़, भक्त के सामने निरीह, भेषधारी के आगे प्रचण्ड, दिल के साफ, दिमाग से दुरूस्त, भीतर से कोमल, बाहर से कठोर, जन्म से अस्पृश्य, कर्म से वन्दनीय।’ उनका सिद्धांत है-
कबिरा सोई पीर है, जो जानैं पर पीर।
जो पर पीर ना जानई, सो काफिर बे पीर।।
कबीर का जीवन, रचनाएं व विचार आज भी प्रासंगिक है, क्योंकि आज भी समाज अंधविश्वास और कुरीतियों से निकला नहीं है। आज भी जात-पात और साम्प्रदायिकता लोगों की सोच को विकृत किए हुए है। आज लोगों को कबीर व उनकी क्रांतिकारी परंपरा को आत्मसात करने की जरूरत है। लेकिन दुखद यह है कि हमारे समाज सुधारकों व गुरुओं-संतों ने जो विचार कहे, लोग उनके विचारों को पढऩे की जहमत नहीं उठाते। उन विचारों को समझने के लिए मध्यस्थों पर निर्भर रहते हैं। जिस तरह से वे उनके विचारों को व्याख्यायित करते हैं, उसी तरह से लोग अपनी धारणा बना लेते हैं। यह विडंबना ही है कि कबीर के साथ भी ऐसा हो रहा है। जिन रीति-रिवाजों, कर्मकांडों व पाखंडों का उन्होंने विरोध किया, उन्हीं का प्रयोग कबीर को मानने वाले लोग करते हुए देखे जा रहे हैं। कबीर ने कहा था-कबिरा खड़ा बाजार में लिए लुकाठा हाथ। जो घर फूंके आपना सो चले हमारे साथ॥ घुमक्कड़ी में जीवन बिताने वाले कबीर के नाम पर मठ व मंदिर बना दिए गए हैं। जब-जब हम वास्तव में कबीर के पास पहुंचेंगे, तो हमें पक्के तौर पर अंधेरे को दूर भगाती रोशनी दिखाई देगी।
अरुण कुमार कैहरबा
हिन्दी प्राध्यापक, स्तंभकार व लेखक
घर का पता-वार्ड नं.-4, रामलीला मैदान,
इन्द्री, जिला-करनाल (हरियाणा) पिन-132041
मो.नं.-9466220145
JAGAT KRANTI 24-6-2021

VIR ARJUN 24-6-2021

HIMACHAL DASTAK

DAILY NEWS ACTIVIST 23-6-2021

Saturday, June 5, 2021

Environment day celebrated in GHS Karera Khurd (Yamunanagar)

 पेड़-पौधे ऑक्सीजन का सबसे बड़ा स्रोत: विपिन

राजकीय उच्च विद्यालय करेड़ा खुर्द में चलाया पौधारोपण अभियान

गुलमोहर और टिकोमा के पौधे रोपे

यमुनानगर, 5 जून

पेड़ हैं सांसें, पेड़ हैं जीवन, पेड़ों की रखवाली हो, जगह जगह हरियाली हो के संकल्प के साथ गांव करेड़ा खुर्द स्थित राजकीय उच्च विद्यालय में विश्व पर्यावरण दिवस पर पौधरोपण अभियान चलाया गया। मुख्याध्यापक विपिन कुमार ने गुलमोहर का पौधा रोप कर अभियान का शुभारंभ किया। कार्यक्रम का संयोजन हिन्दी प्राध्यापक अरुण कुमार कैहरबा ने किया। अभियान में संस्कृत अध्यापिका रजनी शास्त्री, प्राथमिक पाठशाला प्रभारी वीरेंद्र कुमार, वंदना शर्मा, लिपिक मंजू, एलए रवि कुमार, राजेंद्र कुमार, मिड डे मील वर्कर सुलोचना, बेबी, स्नेह ने हिस्सा लिया और गुलमोहर व टिकोमा के पौधे रोपे।

मुख्याध्यापक विपिन कुमार ने कहा कि मौजूदा कोरोना महामारी में हमें ऑक्सीजन और पर्यावरण की अहमियत का ठोस रूप में अंदाजा हुआ है। पेड़ पौधे ऑक्सीजन का सबसे बड़ा स्रोत हैं। वे मुफ्त में हमें प्राण वायु दे रहे हैं, लेकिन मनुष्य उनकी अहमियत को समझ नहीं पा रहा है। उन्होंने कहा कि जितने अधिक पेड़ पौधे हम लगाएंगे और उनकी देखभाल करेंगे उतना ही हमारा पर्यावरण शुद्ध होगा। 

हिंदी प्राध्यापक अरुण कुमार कैहरबा ने कहा कि उपभोक्तावादी संस्कृति ने हमारी जीवन शैली को पूरी तरह से विकृत कर दिया है। मनुष्य ने अधिक से अधिक उपभोग को अपना लक्ष्य बना लिया है। यही कारण है कि पेड़ों का अंधाधुंध कटाव किया जा रहा है। और इसके नतीजे भी हम भुगत ही रहे हैं। उन्होंने कहा कि पेड़ पौधों के बिना हम अच्छे जीवन और संस्कृति की कल्पना नहीं कर सकते। हर एक अवसर पर हमें पेड़ पौधे लगाने की परंपरा और रीत बनानी चाहिए। उन्होंने कहा कि विकास कंकरीट के जंगल उगाने से नहीं होगा, वास्तविक जंगल उगाने से ही सच्चा विकास होगा।

प्राथमिक पाठशाला के प्रभारी वीरेंद्र कुमार ने कहा के लगाए गए पौधों की सिंचाई, सुरक्षा और देखभाल हमारा लक्ष्य होना चाहिए। रजनी शास्त्री व वंदना शर्मा ने कहा कि पर्यावरण को बचाने के लिए हमें मिलकर पहल करनी होगी।