Friday, April 23, 2021

Panchayati Raj gives the message of public participation and equality

 राष्ट्रीय पंचायती राज दिवस  पर विशेष

जनभागीदारी और बराबरी का संदेश देता पंचायती राज

अरुण कुमार कैहरबा

शुरू से आम जनता को अनपढ़ और गंवार मान कर उन पर शासन करने की बातें की जाती रही हैं। राजतांत्रिक, जमींदारी और औपनिवेशिक राज व्यवस्थाओं में जनता का शोषण करने की गरज से तानाशाही ढ़ंग से यह घोषित किया गया कि आम जनता शासन करने के योग्य है। आम जनता की क्षमता का अवमूल्यन करने के पीछे वर्चस्वशाली लोगों का डर और साजिश दोनों ही छिपे हैं। वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था भी लोगों को बांटने और आम लोगों को दबाए रखने के लिए इजाद की गई और प्रयोग की गई। इस व्यवस्था में जन्म के आधार  पर वर्ण व जाति तय हो जाती है और उसे नियम के अनुसार ही अपनी जाति व वर्ण के मुताबिक ही अपना काम-धंधा तय करना होता है। शिक्षा, सत्ता, धन, युद्ध कौशल आदि शक्ति के साधनों से शूद्र वर्ण को वंचित रखा गया। पितृसत्ता ने सभी वर्णों व जातियों में महिलाओं को शक्ति से समान रूप से वंचित रखा। हालांकि प्राचीन भारत में कुछ स्थानों पर समृद्ध स्व-शासन व ग्राम शासन प्रणाली का भी जिक्र है। आम लोगों की इन्सानियत व क्षमता की कद्र लोकतांत्रिक शासन प्रणाली के द्वारा की जाती है। लोकतंत्र में बिना किसी जाति, धर्म, क्षेत्र, भाषा-बोली और लिंग भेद के सभी लोगों को समान माना जाता है। लोकतांत्रिक भावना के अनुकूल भारत में पंचायती राज व्यवस्था की दिशा में आगे बढऩे का एक क्रम रहा है। इसमें संविधान का 73वां संशोधन एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। इस संविधान संशोधन अधिनियम को एक अधिसूचना के द्वारा 24 अप्रैल, 1993 को लागू किया गया। इसी की याद में देश में प्रति वर्ष पंचायती राज दिवस मनाया जाता है। संविधान संशोधन की मूल भावना के अनुरूप हम कितने सफल हुए हैं? इस सवाल का हल खोजने की जिम्मेदारी तो देश के हर नागरिक के सिर है।


पंचायती राज व्यवस्था की दिशा में स्वतंत्रता आंदोलन में महात्मा गाँधी ने ग्राम स्वराज की अवधारणा प्रस्तुत की थी। आम जनता के सशक्तिकरण के लिए विकास की प्रक्रिया में सबकी हिस्सेदारी होनी चाहिए। इसके लिए आजाद भारत में सामुदायिक विकास कार्यक्रम के बाद 1959 में पंचायती राज की शुरूआत हुई। पंचायती राज का उद्देश्य था-लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण और नियोजित कार्यक्रमों में स्थानीय लोगों को शामिल करना। बलवंत राय मेहता समिति ने पंचायती राज की त्रि-स्तरीय प्रणाली की सिफारिश की। पंचायती राज संस्थाओं के कार्य की समीक्षा करने के लिए 1977 में अशोक मेहता समिति का गठन किया गया।  इस समिति ने द्वि-स्तरीय पंचायती राज प्रणाली प्रस्तुत की। 1985 में जी.वी. के. राव समिति बनाई गई। 1986 में बनाई गई एल.एम. सिंघवी समिति ने ग्राम सभा को महत्व दिया। ग्राम सभा को लोकतंत्र के केन्द्र बिंदु के रूप में देखा गया। लेकिन पूरे देश में पंचायती राज का एक सशक्त स्वरूप नहीं था। पूरे देश में पंचायती राज को एक समान और पूरी शिद्धत के साथ लागू करने की दिशा में 73वां संविधान संशोधन महत्वपूर्ण है। इस अधिनियम ने लोकतंत्र और सत्ता के हस्तांतरण को पंचायत के जरिये भारतीय संविधान का एक स्थाई भाग बना दिया। शहरों की तुलना में विकास के मामले में पिछड़े गाँवों को आगे लाने की दिशा में यह एक अहम कदम था।
इस संविधान संशोधन की सबसे मुख्य विशेषता ग्राम सभा है। स्थानीय जरूरतों के आधार पर विकास कार्य शुरू करने के लिए ग्राम सभा को सक्रिय संस्थान के रूप में काम करने का दायित्व सौंपा गया। गाँव का प्रत्येक नागरिक ग्राम सभा का हिस्सा है। ग्राम सभा के जरिये व्यवस्था की शक्ति लोकतंत्र की भावना के अनुकूल आम जनता के हाथ में आ गई। संशोधन की दूसरी विशेषता पंचायती राज प्रणाली का त्रि-स्तरीय ढ़ांचा है। गांव में पंचायत, जिले में जिला परिषद और मध्य में पंचायत समिति। समाज के सबसे दबे-कुचले लोगों और महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए सीटों के आरक्षण की व्यवस्था इस संविधान संशोधन ने की। एक तिहाई सीटें महिलाओं और अनुसूचित जाति, पिछड़ा वर्ग के लोगों के लिए आरक्षित की गई। पंचायतों के लिए सीधे चुनाव की व्यवस्था की गई। गाँव में पंच, सरपंच, पंचायत समिति सदस्य और जिला परिषद सदस्य का चुनाव लोगों के सीधे मताधिकार के आधार पर होता है। पंचायत समिति और जिला परिषद के जनता द्वारा चुने गए सदस्य अपने अध्यक्ष का चुनाव करते हैं। वर्ष 2015 में हरियाणा सरकार ने हरियाणा पंचायती राज अधिनियम में संशोधन करके पंचायती राज संस्थाओं का चुनाव लडऩे वाले उम्मीदवारों के लिए शैक्षिक योग्यता निर्धारित कर दी। इस फैसले को उच्चतम न्यायालय में भी चुनौती दी गई। लेकिन अंतत: सरकार के निर्णय को ही स्वीकृति मिली। आज हरियाणा में पढ़े-लिखे पंच, सरपंच, पंचायत समिति सदस्य और जिला परिषद के सदस्य गांवों की सत्ता पर काबिज हैं और पढ़े-लिखे लोगों को राजनीति में शामिल होने का हौंसला मिला है। आज की बात करें तो हरियाणा में पंचायती राज संस्थाओं का कार्यकाल पूरा हो चुका है, लेकिन चुनाव नहीं करवाए गए हैं। कोरोना महामारी के बीच में विभिन्न राज्यों में चुनाव सम्पन्न करवाए गए हैं, लेकिन पंचायती राज संस्थाओं के चुनाव नहीं करवाए गए। जबकि ये आसानी से करवाए जा सकते थे। पूर्व में चुने के गए प्रतिनिधियों से आर्थिक शक्तियां ले ली गई हैं। एक तरफ कोरोना महामारी फिर से अपना जोर मार रही है, दूसरी तरफ पंचायती संस्थाएं मुखिया विहीन हैं। राज्य सरकारों द्वारा प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों तरह से पंचायती राज संस्थाओं पर वर्चस्व स्थापित किए रखना एक बड़ी चुनौती है।
आम लोगों की भागीदारी के कानूनी और सांवैधानिक प्रावधान के बावजूद आज यदि पंचायती राज संस्थाओं की स्थिति की समीक्षा की जाए, तो काफी निराशाजनक स्थिति उभर कर आती है। सबसे पहले तो चुनावों में निर्भयता और निष्पक्षता से आम आदमी आज भी हिस्सा ले पाने में सक्षम नहीं हुआ है। उम्मीदवारों द्वारा सत्तासीन होने के लिए लोगों को प्रलोभन दिए जाते हैं। गाँव स्तर पर वैचारिक प्रक्रियाएं लगातार बाधित हो रही हैं। अधिकतर स्थानों पर ग्राम सभा एक कागजी संगठन बना हुआ है। ग्राम उदय-भारत उदय अभियान के तहत गांवों में ग्राम सभाओं के आयोजन किए गए हैं, जिसमें बहुत प्रयासों के बावजूद महिलाओं, दलितों और गरीबों की उत्साहजनक हिस्सेदारी नहीं हो पा रही है। गांव की चौधर संभालने वाली महिलाओं की बजाय उनके पति उच्च स्तरीय बैठकों में हिस्सा लेते हुए मिल जाते हैं। पंचायती राज संस्थाओं के बेहतर क्रियान्वयन में हमारे समाज की जाति-व्यवस्था और पितृसत्तात्मक सोच आज भी आड़े आती है। लंबे समय से राजनीति पर काबिज रहे साधन-सम्पन्न लोग आज भी आम लोगों की पंचायतों में हिस्सेदारी का स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं। पंचायतों में बैठे पग्गड़धारी लोग महिलाओं, युवाओं और समाज के कमजोर तबकों के पंचायतों में शामिल होने को अस्पृश्य मानते हैं। लेकिन ऐसा नहीं है कि हमने लोकतंत्र को सही मायने में सफल बनाने के लिए दो कदम भी आगे नहीं बढ़ाए हैं। कानूनी प्रावधान से आम लोगों में अपने अधिकार हासिल करने की लालसा बढ़ी है और अपने समाज की बेहतरी के लिए हस्तक्षेप करने की इच्छा भी बलवती हो रही है।
अरुण कुमार कैहरबा
हिन्दी प्राध्यापक, स्तंभकार, लेखक
घर का पता-वार्ड नं.-4, रामलीला मैदान,
इन्द्री, जि़ला-करनाल, हरियाणा
मो.नं.-9466220145

WORLD BOOK DAY पुस्तकें, पुस्तकालय, अध्ययन संस्कृति व बाजार

 विश्व पुस्तक दिवस पर विशेष

पुस्तकें, पुस्तकालय, अध्ययन संस्कृति व बाजार

कोरोना के दौर में अकेलेपन से निकलने में सहायक हैं किताबें

अरुण कुमार कैहरबा
JANSATTA 23-4-2021

आज जब पूरी दुनिया में कोरोना महामारी फिर से अंधकार फैला रही है। महामारी के कारण अधिकतर स्कूल बंद कर दिए गए हैं। भारत के विभिन्न राज्यों में बोर्ड की परीक्षाएं रद्द करनी पड़ी हैं या फिर स्थगित कर दिया गया है। महामारी का भय, अकेलापन और घर पर रहने की मजबूरी में जो हमारा सबसे सच्चा साथी बन कर ज्ञान के प्रकाश द्वारा अंधेरे को दूर कर सकता है, वे किताबें ही हैं। किताबों के द्वारा हम घर बैठे दुनिया भर की सैर कर सकते हैं। किताबों के अध्ययन के द्वारा हम विचारों व कल्पनाओं के विकास से अपना दायरा व्यापक बना सकते हैं। ‘अंधकार में सूरज बन कर सबको दे उजियारा पुस्तक, जब भी भटकें सही दिशा से बने भोर का तारा पुस्तक।’ किसी कवि की ये पंक्तियां हमारे जीवन में किताबों की अहमियत को बयां करती हैं। किताबें केवल समय काटने का साधन ही नहीं हैं, बल्कि एक बेहतर सहयोगी, सद्भावनापूर्ण, तर्कशील, विचारशील व ज्ञान आधारित नागरिक समाज के निर्माण में ये महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। बढ़ती मारधाड़ व आपाधापी का इलाज अध्ययन संस्कृति के जरिये हो सकता है। क्योंकि किताबें मनुष्य की पाशविकता को सोखकर संवेदनशील बनाती हैं। शिक्षा भी यही काम करती है। शिक्षा किताबों के संसार से हमारा परिचय कराती है। किताबें हमारी जिज्ञासाओं को शांत करती हैं। हमारी मानसिक व बौद्धिक जरूरतें पूरी करने में इनकी अहम भूमिका है। ये हमें सपना देखना सिखाती हैं। इन सपनों को साकार करने का रास्ता भी दिखाती हैं। किताबें हमें प्रश्र पूछना सिखाती हैं। ये हमें आत्मविश्वास देती हैं। इनके जरिये ही बच्चे व युवा जीवन की ऊंचाईयां हासिल करते हैं।
शैक्षिक संस्थानों से यह अपेक्षा की जा सकती है कि वे विद्यार्थियों को बेहतर किताबें उपलब्ध करवाएंगी। पढऩे-पढ़ाने की संस्कृति का विकास करेंगी। लेकिन बदकिस्मती है कि ऐसा हो नहीं रहा। बेहतर नागरिक बनने-बनाने की बजाय यहां पर किताबें पढऩे-पढ़ाने का मकसद परीक्षा की वैतरणी को पार करना हो गया है। उद्देश्य की यह संकीर्णता यहीं तक सीमित नहीं रहती, आगे बढ़ते हुए यह संकीर्णता कुंजियों के अध्ययन-अध्यापन और रट्टापद्धति में सिमट गई है। अध्यापकों और सुविधाओं की कमी के चलते भी उद्देश्य व्यापक होने की बजाय संकीर्ण होते गए हैं और शिक्षा विद्यार्थियों की सृजनशीलता को पल्लवित-पुष्पित करने की बजाय उसे कुंद करने पर तुल गई है।
बच्चों को तो छोड़ ही दें, अध्यापकों में भी पढऩे की संस्कृति का अभाव है। अधिकतर अध्यापक प्राय: पढ़ाए जाने वाली विषय-वस्तु का कामचलाऊ ज्ञान रखते हैं और लिपिकीय कार्य की भांति ही अपने शिक्षण कार्य को भी अंजाम देते हैं। यही कारण है कि स्कूलों में पुस्तकालयों की स्थिति बेहद चिंताजनक है। अधिकतर सरकारी स्कूलों में पुस्तकालयों का प्रावधान होता है। प्राथमिक पाठशालाओं में भी पुस्तकालय के नाम पर किताबें तो होती ही हैं। लेकिन अध्यापक उन्हें अक्सर संदूक या पेटी में भरे रखते हैं। खुद ही किताबों को पढऩे में रूचि नहीं रखने के कारण उन्हें किताबों को संदूकची की कैद से मुक्त करवाने में भी दिलचस्पी नहीं रहती है। किताबें खुद ही जब कैद हो जाएंगी तो वे मुक्ति का माध्यम कैसे बनेंगी? उच्च एवं वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालयों में पुस्तकालय को विद्यार्थियों की जरूरतों के अनुसार सम्पन्न बनाने के लिए हर वर्ष अनुदान दिया जाता है। लेकिन जरूरतों की बजाय पुस्तकालयों में लुगदी साहित्य का ढ़ेर लगता जाता है। जैसे हर स्थान पर बाजार ने घुसपैठ की है, उसी प्रकार किताबों का भी एक भरापूरा बाजार है। लुगदी साहित्य मतलब जिसकी उपयोगिता शिक्षा कर्म में लोगों को ना हो, बल्कि बाजार के लाभ के लिए हो। ऐसे साहित्य का बाजार स्कूलों को विभिन्न प्रकार के प्रलोभन देता है और अपना वर्चस्व बनाए रखता है। मुनाफे के लालच में कुंजीनुमा किताबों के प्रकाशक स्कूलों में पहुंचते हैं। स्कूलों को कमीशन देते हैं और अपनी किताबें डाल कर चलते बनते हैं। ऐसे में बच्चों के सर्वांगीण विकास और अध्ययन संस्कृति के विकास के प्रति तो उदासीनता स्पष्ट हो जाती है। स्कूलों में पुस्तकालय सबसे कम महत्व का स्थान है। निजी स्कूलों की स्थिति इससे भी अधिक चिंताजनक है। अधिकतर स्कूलों में तो पुस्तकालय देखने को भी नहीं मिलता। कॉलेजों व विश्वविद्यालयों में भी पुस्तकालयों और किताबें पढऩे की स्थिति ज्यादा अच्छी नहीं है। खुद किताबें तलाशने और पढऩे की प्रति कम ही विद्यार्थियों का रूझान होता है। कम ही अध्यापक विद्यार्थियों को खुद पढऩे के लिए प्रेरित कर पाते हैं।
सरकारों द्वारा स्मार्ट सिटी और स्मार्ट विलेज की अवधारणाओं को जमकर उछाला जा रहा है। आदर्श गांव-शहर के विविध आयामों पर चर्चा भी होती है। इन्हें नेताओं द्वारा भी अपने भाषणों में मुद्दा बनाया जाता है। लेकिन पुस्तकालय व किताबें पढऩे की संस्कृति उनके भाषणों से नदारद रहती है। देश भर में विकास के नाम पर तरह-तरह के उपाय किए जा रहे हैं। सडक़ों का निर्माण, ग्राम सचिवालय, वाई-फाई की सुविधा, बड़े-बड़े भवन आदि बन रहे हैं। पैसा खर्च करने के लिए एक से एक योजनाएं अमल में लाई जाती हैं। हरियाणा व कुछ राज्यों में एक समय ऐसा आया, जब पंचायतों, पंचायती राज संस्थाओं के पास रूपये खर्च करने का कोई जरिया नहीं रहा तो वे श्मशान पक्के करवाने और श्मशान के रास्ते पक्के करवाने के लिए सरकार से अनुदान मांगने लगी। आजकल गांव-शहर के हर वार्ड में नेताओं के चित्र वाले बड़े-बड़े प्रवेश द्वार बनाने का चलन चला है। लाखों रूपये के प्रवेश द्वार कस्बों के हर पार्षद को बनाने के लिए दिए गए हैं। उतने ही रूपयों से पुस्तकालय बनाए जा सकते हैं। लेकिन कितने ही कस्बों और शहरों में पुस्तकालय बनाने की तरफ ध्यान नहीं दिया जाता। कईं बार तो ऐसा भी लगता है जैसे किताबों और किताबों से होने वाले सशक्तिकरण से हमारे राजनेता भय खाते हैं। इसीलिए तो बने-बनाए पुस्तकालयों को विकास की भेंट चढ़ा कर खत्म तक कर दिया जाता है। हरियाणा के करनाल में पाश पुस्तकालय को मेडिकल कॉलेज के नाम पर ध्वस्त कर दिया जाना इसी प्रकार का उदाहरण है। जबकि वह पुस्तकालय मेडिकल कॉलेज में भी रखा जा सकता था।
गांवों में तो पुस्तकालय खोलने के बारे में सोचा भी नहीं जाता। हरियाणा और पंजाब जैसे राज्यों में कईं पंचायतें बहुत ही सम्पन्न हैं, जिनकी सालाना आमदनी करोड़ों-अरबों में है। वहां पर बड़े-बड़े बारात घर बन रहे हैं। पंचायतों और लोगों द्वारा बहुत ही महंगे आयोजन होते हैं। लेकिन पंचायतें गांव में एक अदद पुस्तकालय खोलने के बारे में नहीं सोचती हैं। लोग भी ना जाने कैसी चीजों में उलझ गए हैं कि मिलकर एक पुस्तकालय खोलने के बारे में नहीं सोचते। जहां से बच्चे व युवा ज्ञान व आनंद के लिए पढऩे का हुनर सीखें। मूल्यहीनता की स्थिति में इस सारे विकास को हम बेकार होते हुए देख रहे हैं, लेकिन मूल्यों व बेहतर संस्कारों के लिए स्थायी उपाय की तरफ नहीं सोच पा रहे हैं। आज स्मार्ट गांव व शहर बनाने के लिए अध्ययन संस्कृति के विकास और पुस्तकालय की अनिवार्यता के विचार को जोर-शोर से उठाए जाने की जरूरत है। समाज में किताबों की अहमियत को लेकर विचार-विमर्श का माहौल बनाया जाना चाहिए। अध्ययन संस्कृति और विचार-विमर्श की संस्कृति का गहरा संबंध है। किताबें हमारे बीच आएंगी। उन्हें पढ़ा जाएगा तो संवादहीनता और मुद्दाविहीन समाज में मुद्दे केन्द्र में आएंगे और उन पर चर्चा भी हो पाएगी। 21वीं सदी में विकास के दावों और अंधविश्वास, जात-पात, साम्प्रदायिकता व भेदभाव की उपस्थिति की सबसे बड़ी वजह किताबों की अनुपस्थिति है। इसी कारण से हम बहुत से संतों-महापुरूषों के नाम लेते हैं। उनकी पूजा भी करते हैं, लेकिन उनके विचारों को जानते तक नहीं। मोबाइल और सोशल मीडिया के बढ़ते प्रचलन ने भी किताबें पढऩे का काफी समय ले लिया है। बहुत से बच्चों व युवाओं को इसकी लत भी लग रही है। कोरोना के समय में खासतौर से उनमें चिड़चिड़ापन और अवसाद बढ़ रहा है। अनेक प्रकार की मानसिक समस्याओं के मकडज़ाल में उलझते बच्चों व युवाओं को इससे निकालने के लिए भी किताबें बेहतर विकल्प हैं। आईये हर गांव में पुस्तकालय और हर विद्यार्थी के हाथ में किताब, उसके अध्ययन और विचार-विमर्श को मुद्दा बनाएं। रंगकर्मी स$फदर हाश्मी के शब्दों में कहें तो- ‘किताबें कुछ कहना चाहती हैं, तुम्हारे पास रहना चाहती हैं।’

अरुण कुमार कैहरबा,
हिन्दी प्राध्यापक, लेखक, स्तंभकार
वार्ड नं.-4, रामलीला मैदान, इन्द्री,
जि़ला-करनाल, हरियाणा-132041
मो.नं.-9466220145
JANSANDESH TIMES 21-4-2021

Thursday, April 22, 2021

पृथ्वी का हम रूप निखारें, जल-जंगल से इसे संवारें! #EarthDAY

 विश्व पृथ्वी दिवस पर विशेष

कुदरत के नजदीक आएं, प्यारी धरती को बचाएं!

पृथ्वी का हम रूप निखारें, जल-जंगल से इसे संवारें!

अरुण कुमार कैहरबा

जमीन, भू, भूमि, धरा, धरणी, अचला, पृथ्वी, वसुधा, वसुंधरा, रत्नगर्भा सहित कितने ही सुंदर नामों वाली प्यारी धरती मनुष्य और जीव-जंतुओं की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करती है। इसके बिना हम जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते। लेकिन विकास की जाने कौन-सी दौड़ और हवस है, जिसके कारण मनुष्य धरती के वातावरण को लगातार नुकसान पहुंचा रहा है। आज धरती के वातावरण और जन जीवन को बचाने के लिए हमारे सामने अनेक चुनौतियाँ पैदा हो गई हैं। सूरज की पैराबैंगनी किरणों से धरती की रक्षा करने वाली ओजोन परत को खतरा पैदा हो गया है। ग्लोबल वार्मिंग के कारण धरती का तापमान बढ़ रहा है। बर्फ के ग्लेशियर लगातार पिघल रहे हैं। जल स्तर लगातार नीचे जा रहा है। पानी के स्रोत दूषित होते जा रहे हैं। धरती पर अपशिष्ट कूड़े के अम्बार लगे हुए हैं। हर रोज पैदा होने वाले कचरे की तुलना में कचरे के प्रबंधन की पर्याप्त व्यवस्था नहीं है। कचरा प्रबंधन में भ्रष्टाचार जले पर नमक के समान है। सुनामी, सूखा और बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं के लिए भी मनुष्य की उदासीनता को जिम्मेदार बताया जा रहा है, तो हर एक का दायित्व है कि धरती, उसकी वन सम्पदा, जल सम्पदा, पहाड़ व प्रकृति को बचाने के लिए व्यक्तिगत और सामूहिक तौर पर पर्यास किए जाएं।

मानव सहित पृथ्वी लाखों प्रजातियों का घर है। पृथ्वी सौरमण्डल का एकमात्र ग्रह है जहां पर जीवन सम्भव है। सात महाद्वीपों में बांटी गई पृथ्वी पर सबसे उच्चतम बिंदु माउंट एवरेस्ट है, जिसकी ऊँचाई 8848 मीटर है। दूसरी ओर सबसे निम्नतम बिंदु प्रशांत महासागर में स्थित मारियाना खाई है, जिसकी समुद्र के स्तर से गहराई 10 हजार 911 मीटर है। पृथ्वी आकार में 5वां सबसे बड़ा ग्रह है और सूर्य से दूरी के क्रम में तीसरा ग्रह है। आकार एवं बनावट की दृष्टि से पृथ्वी शुक्र के समान है। यह अपने अक्ष पर पश्चिम से पूर्व 1610 किलोमीटर प्रतिघंटा की चाल से 23 घंटे 56 मिनट और 4 सकेण्ड में एक चक्कर पूरा करती है। पृथ्वी की इस गति को घूर्णन या दैनिक गति कहते हैं। इस गति से ही दिन व रात होते हैं। पृथ्वी को सूर्य की एक परिक्रमा पूरी करने में 365 दिन, 5 घंटे, 48 मिनट 46 सेकेण्ड का समय लगता है। सूर्य के चातुर्दिक पृथ्वी की इस परिक्रमा को पृथ्वी की वार्षिक गति अथवा परिक्रमण कहते हैं। पृथ्वी को सूर्य की एक परिक्रमा पूरी करने में लगे समय को सौर वर्ष कहा जाता है। प्रत्येक सौर वर्ष, कैलंडर वर्ष से लगभग 6 घंटा बढ़ जाता है। जिसे हर चौथे वर्ष में लीप वर्ष बनाकर समायोजित किया जाता है। लीप वर्ष 366 दिन का होता है। जिसके कारण फऱवरी माह में 28 दिन के स्थान पर 29 दिन होते हैं। जल की उपस्थिति तथा अंतरिक्ष से नीला दिखाई देने के कारण पृथ्वी नीला ग्रह भी कहा जाता है।

पृथ्वी की उत्पत्ति 4.6 अरब वर्ष पूर्व हुई थी। जिसका 70.8 प्रतिशत भाग जलीय और 29.2 प्रतिशत भाग स्थलीय है। उत्पत्ति के एक अरब वर्ष बाद यहाँ जीवन का विकास शुरू हो गया था। तब से पृथ्वी के जैवमंडल ने यहां के वायु मण्डल में काफ़ी परिवर्तन किया है। समय बीतने के साथ ओजोन पर्त बनी जिसने पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र के साथ मिलकर पृथ्वी पर आने वाले हानिकारक सौर विकिरण को रोककर इसको रहने योग्य बनाया। लेकिन बढ़ती जनसंख्या तथा औद्योगीकरण व शहरीकरण में तेजी से वृद्धि ने 20वीं सदी में पर्यावरण को क्षति की प्रक्रिया को तेज कर दिया था। प्रदूषण के कारण पृथ्वी अपना प्राकृतिक रूप खोती जा रही है। पृथ्वी के सौंदर्य को जगह-जगह बेतरतीब फैले कचरे के अम्बारों और ठोस अपशिष्ट पदार्थों ने लील लिया है। आधुनिक युग में सुविधाओं के विस्तार ने भी स्थिति को विकराल बना दिया है। मनुष्यों की सुविधा के लिए बनाई गयी पॉलीथीन सबसे बड़ा सिरदर्द बन गई है। पॉलीथीन जमीन और जल दोनों के लिए घातक सिद्ध हुआ है। इनको जलाने से निकलने वाला धुआँ ओज़ोन परत को भी नुकसान पहुँचाता है जो ग्लोबल वार्मिंग का बड़ा कारण है। देश में प्रतिवर्ष लाखों पशु-पक्षी पॉलीथीन के कचरे से मर रहे हैं। इससे लोगों में कई प्रकार की बीमारियाँ फैल रही हैं। इससे भूगर्भीय जलस्रोत दूषित हो रहे हैं। पॉलीथीन कचरा जलाने से कार्बन डाईऑक्साइड, कार्बन मोनोऑक्साइड एवं कार्बन डाईऑक्सीन्स जैसी विषैली गैसें उत्सर्जित होती हैं। इनसे सांस, त्वचा आदि की बीमारियाँ होने की आशंका बढ़ जाती है। भारत की ही बात करें तो यहाँ प्रतिवर्ष लगभग 500 मीट्रिक टन पॉलीथिन का निर्माण होता है, लेकिन इसके एक प्रतिशत से भी कम का पुनर्चक्रण हो पाता है। अनुमान है कि भोजन के धोखे में इन्हें खा लेने के कारण प्रतिवर्ष एक लाख समुद्री जीवों की मौत होती है। विश्व में प्रतिवर्ष प्लास्टिक का उत्पादन 10 करोड़ टन के लगभग है और इसमें प्रतिवर्ष उसे 4 प्रतिशत की वृद्धि हो रही है। भारत में औसतन प्रत्येक भारतीय के पास प्रतिवर्ष आधा किलो प्लास्टिक अपशिष्ट पदार्थ इक_ा हो जाता है। इसका अधिकांश भाग कूड़े के ढ़ेर पर और इधर-उधर बिखर कर पर्यावरण प्रदूषण फैलाता है।
ग्रीन हाऊस गैसों का असंतुलन भी पर्यावरण के लिए खतरनाक साबित हो रहा है। मानव निर्मित ग्रीन हाउस गैसों के उत्पादन में कमी लाने के लिए दिसंबर,1997 में क्योटो प्रोटोकोल लाया गया। इसके तहत 160 से अधिक देशों ने यह स्वीकार किया कि उनके देश में ग्रीन हाउस गैसों के प्रोडक्शन में कमी लाई जाएगी। यह आश्चर्य की बात है कि 80 प्रतिशत से अधिक ग्रीन हाउस गैस का उत्पादन करने के लिए जिम्मेदार अमेरिका ने अब तक इस प्रोटोकोल को स्वीकार नहीं किया है। वैश्वीकरण, उदारीकरण और निजीकरण के दौर में बढ़ रहे पर्यावरण विरोधी विकास के कारण पृथ्वी के औसत तापमान में वृद्धि में लगातार बढ़ोत्तरी हो रही है, जिससे प्रकृति का मौसम चक्र भी अनियमित होता जा रहा है। पृथ्वी के तापमान में पिछले सौ सालों में 0.18 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान की वृद्धि हो चुकी है। वैज्ञानिकों का मानना है कि यदि धरती का तापमान इसी तरह बढ़ता रहा, तो 21वीं सदी के अंत तक धरती पर जीवन दूभर हो जाएगा।
प्राकृतिक संतुलन और पर्यावरण को बचाने के लिए 1970 से पृथ्वी दिवस मनाए जाने की शुरूआत हुई थी। जिसके बाद से हर वर्ष 22 अप्रैल को विश्व पृथ्वी दिवस मनाया जाता है। आईए इस दिन को औपचारिकता की बजाय विमर्श की शुरूआत का दिन बनाएँ। पर्यावरण की चिंताओं को छोड़ कर किए जा रहे अंधाधुंध विषम विकास के विरोध के लिए जागरूकता का वातावरण पैदा करें। पृथ्वी दिवस के लिए इस बार का विषय-आओ पृथ्वी को सुधारें रखा गया है। पृथ्वी को सुधारने व इसकी गरिमा को बहाल करने के लिए हमें प्रकृति के नजदीक जाना होगा। जल, जंगल को बचाना होगा। इनके अंधाधुंध दोहन पर रोक लगानी होगी। कूड़े के निपटान को वैज्ञानिक बनाना होगा। प्रदूषण पर रोक लगानी होगी। पशु-पक्षियों को बचाना होगा। अपने दैनिक जीवन में भी ऐसे उपाय किए जाने की ज़रूरत है, जिससे पर्यावरण को बचाया जा सके। चाहे वह पौधारोपण-पौधापोषण का काम हो या फिर पॉलीथीन का कम से कम प्रयोग।
अरुण कुमार कैहरबा
पर्यावरण कार्यकर्ता, प्राध्यापक, लेखक, स्तंभकार
वार्ड नं.-4, रामलीला मैदान,
इन्द्री, जिला-करनाल, हरियाणा
मो.नं.- 9466220145
VIR ARJUN 22-4-2021

JAGAT KRANTI 22-4-2021


Saturday, April 10, 2021

MAHAMANA JYOTIBA PHULE - A GREAT SOCIAL REFORMER & PHILOSOPHER

 जयंती विशेष

महात्मा ज्योतिबा फुले: सामाजिक परिवर्तन की लड़ाई के अगुवा

स्कूलों के जरिये लड़कियों व दलितों की शिक्षा की खोली राह

अरुण कुमार कैहरबा


NAVSATTA

महात्मा ज्योतिबा फुले 19वीं सदी के ऐसे चमकदार व्यक्तित्व हैं, जिन्होंने शिक्षा, समाज सुधार, साहित्य, शोषितों की मुक्ति के क्षेत्र में अपने विचारों व कार्यों के जरिये जो रोशनी फैलाई, उससे तत्कालीन समाज तो प्रभावित हुआ ही उसके बाद के समय से आज तक उनका प्रभाव लगातार बढ़ता गया है। महाराष्ट्र के पुणे में जन्मने और सत्यशोधक समाज के जरिये महाराष्ट्र व आस-पास में उनके द्वारा किए गए कार्यों से उनके विचारों की रोशनी आज पूरे देश में फैल रही है। उनकी जयंती व पुण्यतिथि पर देश भर में संगोष्ठियां आयोजित की जाती हैं। वे भारत में सामाजिक परिवर्तन की लड़ाई के अगुवा हैं। उन्होंने दलित-वंचित समाज को वर्ण-व्यवस्था के भेदभावकारी व शोषणकारी चंगुल से आजादी के लिए निर्णायक संघर्ष का नेतृत्व किया। इसके साथ ही उन्होंने देश की पहली महिला शिक्षिका व अपनी पत्नी सावित्रीबाई फुले के साथ मिलकर महिलाओं की मुक्ति के लिए भी अथक आंदोलन चलाया। देश के समाज सुधार आंदोलन पर उनके प्रभाव को इस बात से समझा जा सकता है कि संविधान-निर्माता डॉ. भीमराव अंबेडकर महात्मा फुले को अपना गुरु मानते थे।

ज्योतिबा फुले का जन्म 11 अप्रैल 1827 को महाराष्ट्र के पूना में चिमणाबाई व गोविंदराव फुले के घर पर हुआ। राजाराम  फुले ज्योतिबा के बड़े भाई थे। अभी ज्योतिबा एक वर्ष के भी नहीं हुए थे कि उनकी माता का देहांत हो गया। लेकिन गोविंदराव ने अपने बेटों के लिए दूसरा विवाह नहीं किया। गोविंदराव की मौसेरी बहन सगुणाबाई भरी जवानी में विधवा हो गई थी। सगुणाबाई के ना तो माता-पिता थे और ना ही कोई भाई-बहन। आखिर मौसेरे भाई गोविंदराव ने अपने घर में जगह दी। सगुणाबाई बहुत अच्छे स्वभाव की महिला थी। बूआ होने के बावजूद उसने जोतिबा को मां से भी बढक़र लाड-प्यार व शिक्षा दी। उस समय पूना में अंग्रेजों द्वारा संचालित गिने-चुने स्कूल थे। स्कूलों में ऊंची जाति के बालक शिक्षा ग्रहण करते थे। बड़ा भाई राजाराम खेत में कड़ी मेहनत करते थे। गोविंदराव ने ज्योतिबा को पढ़ाने की ठानी और स्कूल में दाखिल करवा दिया। जाति-व्यवस्था में सवर्ण जातियों का शिक्षा पर वर्चस्व था। ऐसे में शूद्र माली जाति के लडक़े का शिक्षा ग्रहण करना बहुत से लोगों की आंखों में खटकने लगा। जातिवादी लोगों की तरह-तरह की बातों का असर यह हुआ कि जोतिबा का स्कूल छुड़वा दिया गया। स्कूल छूटने पर भी जोतिबा ने पढऩा नहीं छोड़ा। तीन साल लगातार स्कूल से दूर रहने के बाद पड़ोस के गफ्फार बेग मुंशी व फादर लेजिट के समझाने पर गोविंदराव ने जोतिबा को दौबारा स्कूल भेजना शुरू किया।
JAGAT KRANTI 11-4-2021




13 साल की उम्र में ज्योतिबा का विवाह नायगांव के खंडू पटेल की सात वर्षीय बेटी सावित्री बाई से हुआ। विवाह के बाद भी ज्योतिबा पिता के काम में हाथ बंटाने के साथ-साथ शिक्षा ग्रहण करते रहे। प्राथमिक शिक्षा के बाद माध्यमिक शिक्षा के दौरान जोतिबा को अंग्रेजी भी पढ़ाई जाने लगी। इसी बीच उनके साथ एक दिल दहला देने वाली घटना घटी। ब्राह्मण मित्र की बारात में उन्हें माली जाति का होने के कारण अपमान झेलना पड़ा। इससे जात-पात के आधार पर ऊंच-नीच को लेकर उनके मन में विचारों का तूफान उठ खड़ा हुआ और उन्होंने जाति के जिन्न को दफना देने का संकल्प किया। जब उन्होंने दसवीं पास की तो यह अछूत मानी जाने वाली जातियों में यह ऐतिहासिक था। उससे भी अधिक जोतिबा के मन में समाज की दशा, महिलाओं-दलितों की दुर्दशा को लेकर चल रहा विचार मंथन था। उन्होंने सरकारी नौकरी नहीं करने के साथ-साथ अछूत मानी जाने वाली जातियों के लडक़े-लड़कियों को शिक्षित बनाने की ठान ली थी। खुद के पढऩे के साथ वे अपनी जीवनसाथी सावित्रीबाई को पढ़ा रहे थे, जोकि शिक्षक प्रशिक्षण प्राप्त करने वाली देश की पहली महिला शिक्षिका बनी। दोनों ने महिलाओं के लिए साक्षरता की कक्षाएं शुरू की। महिलाओं के पास रात को ही खाली समय होता था, जिससे वे कक्षाएं रात को ही लगती थी।

अगस्त 1848 में उन्होंने अपनी पत्नी के साथ मिलकर लड़कियों का पहला स्कूल खोला। बता दें कि उस वक्त यह काम इतना आसान नहीं था, जितना आज हो सकता है। घर का प्रांगण बड़ा होने के बावजूद वे वहां पर स्कूल नहीं चला सकते थे। स्कूल के लिए उन्हें कोई जगह भी किराए पर नहीं मिल रही थी। जब लड़कियों की शिक्षा को गुनाह व धर्म विरूद्ध प्रचारित किया जा रहा था, ऐसे में फातिमा शेख के घर पर आठ लड़कियों के साथ पहला स्कूल शुरू किया गया। इसके लिए जोतिबा व सावित्रीबाई ने लोगों में शिक्षा की अलख जगाने के लिए काफी मेहनत की। कईं लोग उन पर तरह-तरह के लांछन लगा रहे थे। सावित्रीबाई पर कुछ लोगों द्वारा गोबर व गंदगी तक फेंकी गई। कुछ लोगों ने पिता गोविंदराव के कान भर दिए कि ये दोनों धर्म विरूद्ध कार्य कर रहे हैं। इस पर पिता ने उन्हें घर से निकाल दिया। लेकिन उन्होंने शिक्षा के जरिये समाज को सही राह दिखाने के काम से हार नहीं मानी। घर से निकाले जाने के बाद अपने विचारों को क्रियान्वित करने के लिए उनके लिए काम-धंधा करना जरूरी हो गया। उन्होंने ठेकेदारी की और सडक़ें व घर बनाए। आर्थिक दशा सुधरते ही उन्होंने नए स्कूल शुरू किए। एक स्कूल में जोतिबा की बूआ सगुणाबाई, दूसरे में फातिमा शेख शिक्षिका के रूप में सेवाएं देने लगी। सावित्रीबाई को प्रथम शिक्षिका माना जाता है तो फातिमा शेख को पहली मुस्लिम महिला शिक्षिका का दर्जा मिला। उन्होंने अछूत कहे जाने वाले लडक़ों के साथ स्कूल में होने वाले भेदभाव से मुक्ति के लिए लडक़ों के लिए भी स्कूल खोला। जोतिबा के शैक्षिक व समाज सुधार के कार्यों का चर्चा दूर-दूर तक फैला। 16 नवंबर, 1852 को मुंबई के गवर्नर ने पूना में समारोह करके उनका सार्वजनिक सत्कार-सम्मान किया। अंग्रेजों के द्वारा मिलने वाले सम्मान से सबसे बड़ा फायदा यह हुआ कि उनके स्कूलों को कुछ आर्थिक मदद मिलने लगी।
सरकारी सम्मान से उनके प्रति ईष्र्या रखने वाले लोग और परेशान हो गए। उन्होंने रोडे रामोशी व घोंडिबा कुम्हार नाम के दो व्यक्तियों को फिरौती देकर जोतिबा को मारने के लिए उनके घर भेज दिया। ज्योतिबा के व्यवहार व बातचीत से दोनों हत्यारों ने क्षमा याचना की और दोनों फुले के शिष्य बन गए। विचार और आचरण के क्षेत्र में बुनियादी परिवर्तन लाने के लिए महात्मा फुले ने 24 सितंबर, 1873 को ‘सत्यशोधक समाज’ की स्थापना की। फुले स्वयं इसके अध्यक्ष बने। सावित्रीबाई ने उसकी महिला शाखा की अध्यक्षता संभाली। दोनों ने विधवा पुनर्विवाह का अभियान छेड़ा। पति के गुजर जाने पर विधवा हुई महिलाओं का मुंडन कर दिया जाता था। इस अपमानजनक प्रथा के खिलाफ उन्होंने नाईयों को प्रेरित किया। एक ऐसे आश्रम की स्थापना की, जिसमें सभी जातियों की तिरस्कृत विधवाएं सम्मान के साथ रह सकें। उन नवजात शिशु कन्याओं के लिए भी एक घर बनाया, जो अवैध संबंधों से पैदा हुई थीं और जिनका सडक़ या घूरे पर फेंक दिया जाना निश्चित था।
उन्होंने मूर्ति पूजा का विरोध किया और जाति व्यवस्था की निंदा की। सत्य शोधक समाज ने तर्कसंगत सोच पर बल देते हुए शैक्षिक और धार्मिक नेताओं के रूप में ब्राह्मणों एवं पुरोहितों की जरूरत को खारिज कर दिया। उनका दृढ़ विश्वास था कि अगर आप स्वतंत्रता, समानता, भाईचारे, मानवीय गरिमा, आर्थिक न्याय जैसे मूल्यों पर आधारित नई सामाजिक व्यवस्था की स्थापना करना चाहते हैं तो सड़ी-गली, पुरानी, असमान व शोषणकारी सामाजिक व्यवस्था और मूल्यों को उखाड़ फेंकना होगा। यह अच्छी तरह से जानने के बाद उन्होंने धार्मिक पुस्तकों और भगवान के नाम पर परोसे जाने वाले अंधविश्वास पर हमला किया। उन्होंने महिलाओं और शूद्रों के मन में बैठी मिथ्या धारणाओं की चीर-फाड़ की।
फुले ने महिलाओं, शूद्रों व समाज के अगड़े तबकों में अंधविश्वास को जन्म देने वाली आर्थिक और सामाजिक बाधाओं को हटाने के लिए अभियान चलाए। उन्होंने कथित धार्मिक लोगों के व्यवहार का विश£ेषण करते हुए पाया कि वह राजनीति से प्रेरित था। उन्होंने धार्मिक शिक्षाओं का तार्किक विश्लेषण नहीं करने के विचार का खंडन किया। उन्होंने कहा कि सभी समस्याओं की जड़ अंधविश्वास है, जोकि पूजनीय माने जाने वाले धार्मिक ग्रंथों की गलत व्याख्या द्वारा निर्मित है। इसलिए फुले अंधविश्वास को समाप्त करना चाहते थे। उन्होंने सवाल उठाया कि अगर केवल एक ही परमेश्वर है, जिसने पूरी मानव जाति बनाई है तो उसने पूरी मानव जाति के कल्याण की चिंता के बावजूद वेद संस्कृत भाषा में ही क्यों लिखे? ऐसे में संस्कृत भाषा नहीं जानने वाले लोगों के कल्याण का क्या होगा? फुले इस बात से सहमत नहीं थे कि धार्मिक ग्रंथ भगवान ने लिखे हैं। ऐसा विश्वास करना अज्ञानता और पूर्वाग्रह है। सभी धर्म और उनके धार्मिक ग्रंथ मानव निर्मित हैं और अपने हितों को पूरा करने के लिए कुछ लोग इनका निर्माण करते हैं। फुले ही अपने समय के ऐसे समाजशास्त्री और मानवतावादी थे जिन्होंने ऐसे साहसिक विचार प्रस्तुत किए। फुले ऐसी सामाजिक व्यवस्था के आमूलचूल परिवर्तन के पक्षधर थे, जिसमें शोषण करने के लिए कुछ लोगों को जानबूझकर दूसरों पर निर्भर, अनपढ़, अज्ञानी और गरीब बना दिया जाता है। उनके अनुसार व्यापक सामाजिक -आर्थिक परिवर्तन के लिए अंधविश्वास उन्मूलन एक हिस्सा है। परामर्श, शिक्षा और रहने के वैकल्पिक तरीकों के साथ-साथ शोषण के आर्थिक ढांचे को समाप्त करना भी बेहद जरूरी है।
महात्मा फुले ने जागरूकता के लिए सत्यशोधक, दीनबंधु नाम के समाचार-पत्र निकाले। उन्होंने कईं किताबें लिखी। जिनमें तृतीय रत्न (नाटक), छत्रपति शिवाजी भोंसले का पोवाडा (1869), गुलामगिरी (1873), किसान का कोड़ा (1883), चेतावनी व अछूतों की कैफियत (1885), सार्वजनिक सत्य धर्म (1889) आदि प्रमुख हैं। उन्होंने 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम आदि घटनाओं पर अपनी राय रखी। भारत आए ब्रिटेन की महारानी के पुत्र डयूक ऑफ कैनाट के सामने भारत की दशा के बारे में बेबाकी से अपनी बात कही। 28नवंबर, 1890 को उनका देहांत हो गया तो सावित्रीबाई फुले ने सत्यशोधक समाज की बागडोर संभाली। आज जब सामाजिक रूढिय़ों की जकड़बंदी बढ़ती जा रही है। शादी-समारोहों में दहेज, दिखावा और ब्राह्मणवादी तौर-तरीकों का अनुसरण करने की होड़ लगी हुई है। बेहतर है कि पूरा समाज ज्योतिबा फुले को पथ-प्रदर्शक मान कर उनके बताए रास्ते का अनुसरण करते हुए सामाजिक न्याय के लिए संघर्ष का रास्ता अपनाए।

अरुण कुमार कैहरबा
हिन्दी प्राध्यापक, स्तंभकार, लेखक
घर का पता-वार्ड नं.-4, रामलीला मैदान, इन्द्री
जिला-करनाल, हरियाणा-132041
मो.नं.-9466220145
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PRAKHAR VIKAS

Wednesday, April 7, 2021

MANGAL PANDEY - A GREAT FREEDOM WARRIOR

 मंगल पांडे ने शहादत देकर किया स्वतंत्रता संग्राम का आगाज़

मंगल पांडे: द राइजिंग एक बेहतरीन सांस्कृतिक प्रस्तुति

अरुण कुमार कैहरबा
HIMACHAL DASTAK



अन्याय, अत्याचार, शोषण व दूसरों को गुलाम बनाने की प्रवृत्ति के साथ ही अन्याय व शोषण से मुक्ति की कोशिशें भी शुरू हुई। देश में व्यापार करने आई ब्रिटिश इस्ट इंडिया कंपनी साम-दाम-दंड-भेद की नीति के चलते धंधा करते-करते शासक बन गई। यहां के राजाओं को हर तरीके से परास्त करके शासन करने लगी और लोगों का शोषण करने लगी। लोगों को जब इसका अहसास हुआ तो आजादी की लड़ाई शुरू हुई। हालांकि देश को औपचारिक रूप से आजादी तो 15 अगस्त, 1947 को मिली, लेकिन बहुत पहले ही इसकी कोशिशें शुरू हो गई थी। स्वतंत्रता आंदोलन की शुरूआत 1857 में हो गई थी। पहले स्वतंत्रता संग्राम से लेकर आजादी मिलने तक कितने ही वीर-वीरांगनाओं ने अपने प्राणों की आहुति दी। उन्हीं में से एक अंग्रेज सेना के जोशिले सिपाही मंगल पांडे की शहादत को भी कभी भुलाया नहीं जा सकेगा। क्रांतिकारी ऐतिहासिक विरासत को याद करने और करवाने के लिए सांस्कृतिक-रचनात्मक अभिव्यक्तियों की अहम भूमिका होती है। 2005 में आई केतन मेहता निर्देशित एवं आमिर खान अभिनीत फिल्म- मंगल पांडे- द राइजिंग भी ऐसी ही सांस्कृतिक प्रस्तुति है।

आजादी की लड़ाई का शंखनाद करने वाले मंगल पांडे का जन्म 19 जुलाई, 1827 को उत्तर प्रदेश के बलिया के नगवा नामक स्थान में हुआ माना जाता है। उनके पिता का नाम दिवाकर पांडे व माता का नाम अभय रानी था। मंगल पांडे 1849 में ब्रिटिश इस्ट इंडिया कंपनी की सेना में भर्ती हुए। वे कलकत्ता की बैरकपुर छावनी में 34वीं बंगाल नेटिव इंफैंट्री की पैदल सेना के सिपाही थे और उनका नंबर-1446 था। वे बहादुर सिपाही थे। 1853 में सिपाहियों को एनफील्ड बंदूक दी गई। इस नई बंदूक में गोली दागने की आधुनिक प्रणाली का प्रयोग किया गया। लेकिन गोली भरने की प्रक्रिया पुरानी ही थी। बंदूक में गोली डालने से पूर्व कारतूस को दांतों से काटना  पड़ता था। इस कारतूस के बारे में धीरे-धीरे प्रचार हो गया कि ये कारतूस गाय व सूअर की चर्बी के बनाए गए हैं। इससे सेना में शामिल हिंदू सैनिकों के लिए गाय की चर्बी को मुंह से काटना धर्मविरूद्ध कार्य था और मुस्लिमों के लिए सूअर की चर्बी का इस्तेमाल हराम था। ऐसे में सैनिकों में आक्रोश फैल गया। सेना में धार्मिक भावनाओं के आहत होने से फैला असंतोष मंगल पांडे के आक्रोश की वजह से आजादी के आंदोलन से जुड़ा। 29मार्च के दिन तो मंगल पांडे का यह आक्रोश प्रचंड हो गया। उसने अंग्रेजी अधिकारियों पर हमला कर दिया। हालांकि सेना के अन्य जवान पांडे के तरीके से सहमत नहीं थे। इसके बावजूद उसने सैनिकों को निडरता का पाठ पढ़ाते हुए आजादी के आंदोलन का आगाज कर दिया। उसने सेना के दो अधिकारियों को धराशायी कर दिया। बाद में 6 अप्रैल, 1857 को कोर्ट मार्शल के जरिये मंगल पांडे को फांसी की सजा का निर्णय किया गया। फांसी 18 अप्रैल को दी जानी थी। लेकिन विद्रोह की आग फैलने की आशंका के कारण अंग्रेजों ने उसे 8 अप्रैल को फांसी दे दी। इस तरह से मंगल पांडे आजादी की लड़ाई में पहले क्रांतिकारी साबित हुए, जिसे अंग्रेजों ने फांसी की सजा दी। बाद में 1857 का स्वतंत्रता संग्राम पूरे देश में फैला। हालांकि उसे दबा दिया गया। लेकिन अंग्रेज सरकार के सामने यह पक्का हो गया कि अब ब्रिटिश इस्ट इंडिया कंपनी भारत पर अपना वर्चस्व बनाए नहीं रख पाएगी और अंग्रेजी सरकार ने सीधे भारत को अपने अधिकार में लेकर शासन करना शुरू कर दिया। भले ही 1857 का स्वतंत्रता संग्राम अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर पाया, लेकिन वही चिंगारी धीरे-धीरे प्रचंड रूप लेती गई, जिसके कारण 90 साल बाद देश को आजादी मिली।
फिल्म की बात करें तो फिल्म में मंगल पांडे की भूमिका को सिनेमा के परफैक्शनिस्ट आमिर खान बहुत शिद्दत से निभाते हैं। फिल्म सात अप्रैल को मंगल पांडे की फांसी के दृश्य से शुरू होती है। सभी जल्लाद उसे फांसी देने से मना कर देते हैं। इससे अंग्रेज अधिकारी परेशान हैं। फिल्म में ब्रिटिश अधिकारी विलियम गॉर्डन (टोबी स्टीफंस) मंगल पांडे के साथ अपनी दोस्ती के किस्से को याद करते हैं। एक युद्ध में किस तरह से मंगल पांडे उसके जीवन को बचाता है। पांडे और गॉर्डन रैंक और रेस से कहीं आगे पक्के दोस्त बन जाते हैं। गॉर्डन के आश्वासन पर एक बारगी तो मंगल पांडे कारतूस में चर्बी की बात को मानने से इन्कार कर देता है। सेना में वह कारतूस का इस्तेमाल करने की पहल करता है, जिसके लिए उसे अनेक प्रकार की बातें सुननी पड़ती हैं। बाद में वह खुद फैक्ट्री देखता है, जहां पर चर्बी से कारतूस तैयार किए जा रहे हैं। इससे पांडे के नेतृत्व में विद्रोह फूट पड़ता है और स्थिति अंग्रेज अधिकारियों के नियंत्रण से बाहर हो जाती है। विद्रोह के लिए निर्धारित तिथि का खुलासा अंग्रेजों को हो जाता है। तो कंपनी म्यांमार (बर्मा) से सेना बुलाकर विद्रोह को त्वरित रूप से रोकती है। इसके बावजूद मंगल पांडे आजादी के लिए अपने जुनून का प्रदर्शन करता है। वह अंग्रेज अधिकारियों पर गोलियां चलाता है, लेकिन जब उसे लगता है कि अब वह बचेगा नहीं तो वह बंदूक से खुद की जान लेने की कोशिश करता है। लकिन यह कोशिश असफल रहती है। आखिर उसे फांसी दी जाती है।
फिल्म में सती प्रथा, जाति प्रथा, महिलाओं की खरीद-फरोख्त और महिलाओं के शोषण के दृश्यों को मार्मिक ढ़ंग से दिखाया गया है। सती प्रथा पर प्रतिबंध के बावजूद जब बड़ी उम्र के पति की मृत्यु पर युवा पत्नी को जबरन सती किया जा रहा होता है तो गॉर्डन उस विधवा लडक़ी (अमिशा पटेल) को बचाता है और जान जोखिम में डाल कर अपने घर ले आता है। उस पर अनेक हमले होते हैं। लेकिन वह उस लडक़ी की जान बचाने के प्रति प्रतिबद्ध है। बाद में वह उससे प्यार करने लगता है। फिल्म में एक अन्य लडक़ी (रानी मुखर्जी) की बोली लगाई जाती है, जिसे लोल बीबी (किरण खेर) वेश्यावृत्ति के लिए खरीद लेती है। उसका नाम हीरा रखा जाता है। हीरा मंगल पांडे से प्रेम करने लगती है। फांसी से पूर्व वह जेल में उससे सिंदूर से मांग भरवाती है और विवाह करती है।
फिल्म ऐतिहासिक विद्रोह के चित्रों के बाद महात्मा गांधी के पैदल मार्च, 15 अगस्त 1947 में पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू द्वारा ध्वजारोहण के चित्रों के साथ समाप्त होती है। पूरी कहानी को ओमपुरी की आवाज में सुनना भी रोचक बन पड़ा है। फिल्म इतिहास के चित्रण और मनोरंजन दोनों मामलों में सफल साबित हुई है।

अरुण कुमार कैहरबा,
हिन्दी प्राध्यापक, स्तंभकार एवं लेखक
वार्ड नं.-4, रामलीला मैदान, इन्द्री,
जिला-करनाल, हरियाणा-132041
मो.नं.-9466220145

DAILY NEWS ACTIVIST 

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