Saturday, March 27, 2021

कवि भवानी प्रसाद मिश्र की जयंती (29 मार्च) पर विशेष लेख।

 जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख..

सादगीपूर्ण व्यक्तित्व और सहज लेखन के धनी भवानी प्रसाद मिश्र

अरुण कुमार कैहरबा
DAILY NEWS ACTIVIST 27-3-2021

जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख
और उसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख।

इन पंक्तियों के रचनाकार भवानी प्रसाद मिश्र हिन्दी साहित्य में सादगीपूर्ण व्यक्तित्व और सहज लेखन के लिए जाने जाते हैं। साहित्य में वादों-विवादों से अलग वे नई राह बनाते हुए दिखाई देते हैं। वे देश के उन रचनाकारों में शुमार हैं, जिन्होंने देश की आजादी की लड़ाई में भी हिस्सा लिया। इसके लिए उन्हें जेल की यात्रा करनी पड़ी। महात्मा गांधी का असर अन्य अनेक रचनाकारों की तरह भवानी प्रसाद पर भी पड़ा था। उनकी रचनाओं की सहज लय को गांधी की चरखे की लय से जोड़ा जाता है। इसलिए उन्हें कविता का गांधी भी कहा जाता है।
भवानी प्रसाद मिश्र का जन्म 29 मार्च, 1913 को मध्यप्रदेश के होशंगाबाद के गांव टिगरिया में हुआ। पिता सीताराम मिश्र साहित्यिक रूचि के व्यक्ति थे। अपनी मां के बारे में उन्होंने अपनी ‘घर की याद’ कविता में स्वयं लिखा है- ‘और मां बिन-पढ़ी मेरी, दुख में वह गढ़ी मेरी, मां कि जिसकी गोद में सिर, रख लिया तो दुख नहीं फिर।’ भवानी बाबू ने पिता से साहित्यिक अभिरूचि और माता गोमती देवी से संवेदनशील दृष्टि प्राप्त की। उन्होंने बीए तक की शिक्षा ग्रहण की। गांधी जी के विचारों से प्रेरित होने के कारण उन्होंने पाठशाला खोली। राष्ट्रीय आंदोलन में हिस्सेदारी करने के कारण उन्हें जेल जाना पड़ा। लेकिन उनकी लेखनी ना तो जेल के बाहर रूकी थी, ना जेल में जाने के बाद। जेल में रहते हुए उन्होंने ‘घर की याद’ कविता लिखी, जिसमें उन्होंने अपने माता-पिता, चार भाई व चार बहनों का स्मरण किया है। कविता में भवानी की मां पिता से कह रही है-‘गया है सो ठीक ही है, वह तुम्हारी लीक ही है। पांव जो पीछे हटाता, कोख को मेरी लजाता।’ कविता में सावन के माध्यम से कवि अपने माता-पिता को संदेश भेजता है। घर में पढऩे-लिखने का माहौल था, सो कविताएं लिखने लगे। इसी तरह से बचपन से ही वे राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़ गए।
1932 में मिश्र जी पुष्प की अभिलाषा लिखने वाले माखन लाल चतुर्वेदी के संपर्क में आए। भारत छोड़ो आंदोलन में हिस्सा लेने के कारण 1942 में जेल में जाना पड़ा। 1945 में जेल से छूटने के बाद वर्धा आश्रम में 4-5 साल तक शिक्षक के रूप में कार्य किया। कुछ समय राष्ट्रभाषा प्रचार का काम किया। बेरोजगारी से निजात पाने के लिए फिल्मों के लिए लिखा। उन्होंने रेडियो में काम किया और रेडियो बायोग्राफी ऑफ गांधी का निर्देशन किया। संपूर्ण गांधी वांगमय का संपादन किया। कुछ समय गांधी शांति प्रतिष्ठान की पत्रिका-गांधी मार्ग, भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद की पत्रिका गगनांचल और कल्पना पत्रिकाओं का संपादन भी किया।
अपनी सहजता के बारे में मिश्र जी का ही वक्तव्य है-‘छोटी सी जगह में रहता था, छोटी सी नदी नर्मदा के किनारे, छोटे से पहाड़ विंध्याचल के आंचल में छोटे-छोटे लोगों के बीच एकदम अविचित्र मेरे जीवन की कथा है।’ यही सहजता ही उनके व्यक्तित्व और लेखन की सबसे बड़ी विशेषता है। सहजता उनकी जीवन साधना और काव्य-साधना के केन्द्र में है। सहजता-साधन भी है और साध्य भी। लंबे समय तक हैदराबाद, बंबई, दिल्ली जैसे शहरों में रहने के बावजूद वे शहरी नहीं हुए, गांव उनके भीतर बसा रहा। उन्होंने लिखा है- ‘चतुर मुझे कुछ भी नहीं भाया, न औरत न आदमी न कविता।’ यह सहजता उनकी कथन की सादगी में दिखाई देती है। उनकी कविताओं में बोलचाल के गद्यात्मक-से लगते वाक्य विन्यास को भी कविता में बदल देने की अद्भुत क्षमता है। चमत्कारिता व कलाकारिता दिखाने व चमकाने के लिए उन्होंने कभी कुछ ना लिखा और ना बोला। उन्होंने जो कुछ लिखा अपने अनुभवों से लिखा। उन्होंने स्वयं लिखा है- ‘मैंने अपनी कविता में प्राय: वही लिखा है, जो मेरी ठीक से पकड़ में आ गया है। दूर की कौड़ी लाने की महत्वाकांक्षा मैंने कभी नहीं की।’ लेखन उनके लिए जिंदगी संवारने का कर्म है।
भवानी प्रसाद मिश्र दूसरा सप्तक के महत्वपूर्ण कवि हैं। उनका पहला काव्य-संग्रह- ‘गीत फरोश’ 1956 में प्रकाशित हुआ। उसमें 68 कविताएं हैं। उनकी कविता बदल रहे सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों की खबर हमें दे जाती है। संग्रह की अंतिम कविता गीत फरोश कवियों की व्यवसायिक प्रवृत्ति और समाज की कला विमुखता पर कटाक्ष है। वे कहते हैं-‘जी हां हुजूर मैं गीत बेचता हूँ, मैं तरह-तरह के गीत बेचता हूँ। यह गीत जरा सूने में लिक्खा था, यह गीत वहां पूने में लिखा था। यह गीत पहाड़ी पर चढ़ जाता है, यह गीत बढ़ाए बढ़ जाता है, यह गीत भूख और प्यास भगाता है, यह गीत मसान में भूख जगाता है।’ यह कविता पूंजीवादी व्यवस्था में कवियों, कलाकारों की लाचारगी को दर्शाती है। जो साहित्यकार व कलाकार अपनी वैचारिकता के जरिये समाज की पीड़ा को वाणी प्रदान करता है, किस तरह से हमारा समाज उन्हें उनके कार्य का उचित सम्मान नहीं देता है। उसके सामने उसके भरण-पोषण का संकट खड़ा है। उसकी कला की बेकद्री को दर्शाने के लिए ही मिश्र जी ने यह कविता लिखी। इस कविता में गीतकार को अन्य जरूरी कपड़े व सब्जियों आदि की फेरी लगाने वाले के रूप में दिखाया गया है। बाजार में उपयोगिता के आधार पर उनकी रचनाओं का मूल्य आंका जाता है। जो समाज अपने साहित्यकारों व कलाकारों की कद्र नहीं करता, उस समाज की स्थिति की तरफ इशारा करना भी इस कविता का उद्देश्य रहा होगा।
उनका दूसरा काव्य-‘संग्रह चकित है दुख’ है, जिसमें 65 कविताएं हैं। इस संग्रह को कवि ने कमाया हुआ सत्य बताया है। इस संग्रह की कविता में प्रेम का चित्रण देखिए-‘इस एकाकार शून्य में तुमभर दिखती हो, गिरस्ती सेमेटे बचाए कुंकुम, जलते हुए भाल पर।’
मिश्र के अन्य काव्य-संग्रह-अंधेरी कविताएं, गांधी पंचशती, बुनी हुई रस्सी (1971), खुश्बू के शिलालेख, व्यक्तिगत, परिवर्तन जिए, अनाम तुम आते हो, इदं न मम, त्रिकाल संध्या, शरीर कविता फसले व फूल, मानसरोवर दिन, कालजयी (प्रबंध काव्य), संप्रति, नीली रेखा तक, तूस की आग आदि हैं। ‘जिन्होंने मुझे रचा’ संस्मरण और ‘कुछ नीति कुछ राजनीति’ उनका निबंध-संग्रह हैं। ‘तुकों के खेल’ उनकी बाल साहित्य की किताब है। उन्होंने रवीन्द्रनाथ टैगोर की कविताओं का अनुवाद किया।  सोफोक्लीज के नाटक एंटीगॉनी का पद्यानुवाद किया।
मिश्र जी की कविता का आधार फलक बहुत विस्तृत है। वे जीवन के वैविध्य को लेकर चलते हैं। वे सामान्य जन के दुख-दर्द के साथ-साथ आशा-आकांक्षा को भी अभिव्यक्ति देते हैं। वे अपने समय के काव्यांदोलनों व विचारधाराओं की संकीर्णताओं से मुक्त होकर आगे बढ़ते हैं। उनके काव्य में भारतीय चिंतन की निरंतरता देखने को मिलती है। मानवीय संवेदना उनके काव्य का उत्स है। भवानी जी का काव्य यथार्थ की भूमि पर गहरी संवेदना व समझ का प्रमाण देता है। वे आज के मानव को जगाना चाहते हैं। उनकी ‘इसे जगाओ’ शीर्षक कविता से उदाहरण देखिए-
‘भई, सूरज, जरा इस आदमी को जगाओ, भई पवन, जरा इस आदमी को हिलाओ, यह आदमी को जो सोया पड़ा है, जो सच से बेखबर सपनों में खोया पड़ा है, भई पंछी इसके कानों पर चिल्लाओ।’ उनकी कविता ‘कहीं नहीं बचे’ प्रकृति को हो रहे नुकसान को मार्मिकता के साथ उजागर करती है। एक स्थान पर उन्होंने कहा- ‘तौलकर कहूँ तो मेरी कविता वनस्पति जगत की संवेदना से बनी रची कविता है। इस संवेदना के विकास को ही मैं अपनी कविता का विकास मानता हूँ।’ कवि इस कविता में प्रकृति के साथ नृशंस छेड़छाड़ को घातक बताते हुए चित्रित करता है। यह सब मानव के लिए भी खतरनाक है, लेकिन मनुष्य इसे समझ नहीं पा रहा है। उनकी कठपुतली कविता में कठपुतली का मानवीकरण किया गया है। वह अपने चारों ओर बंधे धागों से परेशान हो जाती है और उसमें अपने मन के अनुसार काम करने की इच्छा पैदा होती है। तुरंत ही वह सोचती है कि यह कैसी इच्छा मेरे मन में पैदा हो रही है? बुनी हुई रस्सी पर 1977 में उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार, 1983 में मध्यप्रदेश सरकार का शिखर सम्मान मिला। भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री सम्मान प्रदान किया। 20 फरवरी, 1985 को उनका निधन हो गया। उन्होंने लिखने-पढऩे को आगे बढऩे का पैमाना माना-  
‘कुछ लिख के सो, कुछ पढ़ के सो।
जिस जगह जागा सवेरे, उस जग से बढ़ के सो।’

भवदीय,
अरुण कुमार कैहरबा,
हिन्दी प्राध्यापक, लेखक व स्वतंत्र पत्रकार
वार्ड नं-4, रामलीला मैदान, इन्द्री,
जिला-करनाल, हरियाणा-132041
मो.नं.-9466220145

WORLD THEATRE DAY 27 MARCH

 विश्व रंगमंच दिवस पर विशेष

बदलाव की उम्मीदों और कल्पनाशीलता से भरा रंगमंच

जड़ता के खिलाफ विद्रोह करते हुए बेहतरी की परिकल्पना रचता है नाटक

सुनो कि नाटक बोलता है, भेद सबके खोलता है!

अरुण कुमार कैहरबा

प्रसिद्ध रूसी-अमेरिकी नाटककर्मी माइकल चेखव के अनुसार- ‘रंगमंच एक जीवंत कला है और यह सच्चाई, सजीवता और मानवता से बंधी होती है। रंगमंच उम्मीदों, कलात्मक भ्रम, कल्पनाशीलता से भरा है। इसमें हम दर्शकों को अपनी कल्पनाशीलता का इस्तेमाल करने के लिए प्रोत्साहित कर सकते हैं।’ थियेटर या रंगमंच जीवन के विविध रंगों को मंच पर प्रस्तुत करने की जीवंत विधा है। इसमें नृत्य, संगीत, चित्र, अभिनय सहित समस्त कलाओं और विभिन्न प्रकार के कौशलों का समावेश होता है। रंगमंच पर जब समाज की दशा को जीवंत किया जाता है तो दर्शक उसके साथ आसानी से जुड़ जाता है। रंगमंच सही गलत के भेद को बारीकी से चित्रित करता है। आम आदमी के मसलों के साथ खड़े होकर जनपक्ष को मजबूत करता है और जनविरोधी ताकतों की अमानवीयता को नंगा करता है। रंगमंच सवाल खड़े करता है। हर प्रकार की जड़ता और यथास्थिति के खिलाफ विद्रोह करता हुआ रंगमंच एक बेहतर समाज की परिकल्पना तैयार करता है। रंगमंच समाज का आईना ही नहीं है, बल्कि परिवर्तन का सशक्त औजार भी है।


रंगमंच सहित कला की अन्य विधाओं को समाज में हल्के ढ़ंग से देखा जाता है। जब कोई व्यक्ति विशेष अंदाज में अपनी बात रखने की कोशिश करता है तो प्राय: कह दिया जाता है- ‘क्यों नाटक कर रहा है।’ नाटक करना इतना सहज कार्य नहीं है, जितना आम दर्शक सोचते हैं। लंबे समय तक देह, दिल व दिमाग पर मेहनत करने के बाद कलाकार पैदा होता है और यही स्थिति एक प्रस्तुति पर भी लागू होती है। रंगमंच या नाटक जीवन से कम नहीं है। यह जीने का तरीका भी है। नाटक सिर्फ नाटक करने वालों के लिए ही नहीं, बल्कि सभी के लिए है। यह सभी को जीवन-दृष्टि देता है।
सदियों पहले भरत मुनि द्वारा ‘नाट्यशास्त्र’ की रचना से नाटक विधा का प्रारम्भ माना जाता है। इसमें रंगमंच के मंच संयोजन, वेश-भूषा व पाश्र्व गायन आदि सभी रूपों का विस्तृत वर्णन मिलता है। इस रचना की महत्ता को देखते हुए इसे पंचमवेद कहा जाता है। माना जाता है कि नाट्य विधा के प्रति भेदभाव की दृष्टि के कारण इसे वेद का दर्जा नहीं दिया गया। संभवत: इसी का परिणाम रहा कि समाज में कलाकारों व अभिनेताओं को हेय दृष्टि से देखा गया। लेकिन आज स्थितियां बदल रही हैं। आधुनिक भारत में रंगमंच के सिद्धांतों को प्रयोगात्मक रूप देने का श्रेय भारतेंदु हरिश्चन्द्र को जाता है। वे हिन्दी रंगमंच के पितामह कहे जाते हैं। भारतेन्दु ने भारत-दुर्दशा, नीलदेवी व वैदिक हिंसा हिंसा न भवति सहित अनेक नाटक लिखे और खेले। उनका नाटक अंधेर नगरी आज भी प्रासंगिक माना जाता है और आज भी अनेक नाटक मंडलियाँ उसका मंचन करती हैं। आज़ादी से पहले रंगमंच के विकास में पृथ्वीराज कपूर और आगा हश्र कश्मीरी का अहम योगदान रहा। रंगमंच एवं कलाओं के विकास में इंडियन पीपल्स थियेटर एसोसिएशन (इप्टा) की भूमिका को भुलाया नहीं जा सकता। इप्टा ने रंगमंच, जनगीतों और कलाओं को अंग्रेजी दासता एवं सामाजिक बुराईयों से मुक्ति का माध्यम बनाया। इप्टा प्रख्यात फिल्मी कलाकारों ए.के. हंगल, जोहरा सहगल और बलराज साहनी की अभिनय पाठशाला साबित हुई।
मौजूदा दौर में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की स्थापना और नाट्य प्रशिक्षण में इब्राहिम अल्काजी ने अहम भूमिका का निर्वाह किया। इस संस्थान के निर्देशक, शिक्षक व विद्यार्थी रही अनेक शख्सियतों ने रंगकर्म के क्षेत्र में अनेक प्रयोग किए। विजय तेंदुलकर, बादल सरकार, उत्पल दत्त, बलवंत गार्गी, गिरीश कार्नाड, के.एन. पणिक्कर, बीवी कारंत, रतन थियम, बंसी कौल, कीर्ति जैन, रामगोपाल बजाज, अनुराधा कपूर, मोहन महर्षि, नीलम मानसिंह, माया कृष्णा राव, रूद्रप्रताप सेन गुप्ता, भानु भारती, त्रिपुरारी शर्मा, केवल धालीवाल, साबित्री मां, कन्हाई लाल, नेमिचंद्र जैन, शांता गांधी, सत्तू सेन, शंभु मित्रा सहित अनेक नाटककारों एवं निर्देशकों ने भारतीय रंगमंच को आगे बढ़ाया। देवेन्द्रराज अंकुर ने कहानियों के रंगमंच को प्रसिद्ध किया। शारीरिक रंगमंच के क्षेत्र में अबनी विश्वास, खालिद तैयब, ज्योति डोगरा ने काम किया। इसके अलावा बंगाल के जात्रा, आसाम के अंकियानाट, मध्य प्रदेश के माच, कर्नाटक के यक्षगान, केरल के कलरीपयट्टू व कुडिय़ट्टटम व उड़ीसा के छाउ लोक नाट्य में भी अनेक लोक कलाकारों ने काम किया। लोक नाट्य की इन विधाओं को भी रंगकर्म के क्षेत्र में काम करने वाले कलाकार सीखते हैं।    
उद्देश्यपूर्ण नाटकों की श्रेणी में महान नाटककार, लेखक, प्रयोगधर्मी हबीब तनवीर की नाट्यधर्मिता के सन्दर्भ में जितना कहा जाये कम है। विदेशों में पढ़ाई करने के बावजूद तनवीर ने अपनी कर्मस्थली भारत के उन पिछड़े गांवों को बनाया जिनके बाशिंदों के लिए दो जून की रोटी जुटाना एक समस्या होती है। हबीब तनवीर ने नौ फिल्मों में अभिनय भी किया है, जिसमें रिचर्ड एटनबरो की ‘गाँधी’ भी शामिल है। उनका नाटक ‘आगरा बाजार’ काफी पसंद किया गया। भोपाल में ‘नया थिएटर’ की शुरुआत, भोपाल गैस त्रासदी पर भी एक फिल्म के साथ साथ उन्होंने भास्, विशाखादत्त, भवभूति जैसे पौराणिक संस्कृत नाटककारों से लेकर यूरोपियन क्लासिक्स शेक्सपियर, मोलियर, ब्रेख्त, लोर्का भी किये। सबसे महत्वपूर्ण बात ये कि उन्होंने छत्तीसगढ़ी लोक कथाओं और वहीं के स्थानीय लोगों के समूह बनाकर छत्तीसगढ़ी में ही नाटक किये। जिनमें- मिट्टी की गाड़ी, गाउ का नाम ससुराल मोर नाउ दामाद, चरणदास चोर व बहादुर कल्हरिन प्रसिद्ध नाटक हैं। इसी के साथ नाटक को जन-जन तक पहुंचाने के लिए स$फदर हाश्मी ने नुक्कड़ नाटक विधा को प्रचारित-प्रसारित किया। उनसे प्रेरित होकर अनेक नाट्य मंडलियों ने नुक्कड़ नाटक करना शुरू किया।
नाट्य विधा में असीम क्षमताएँ हैं। अनेक निर्देशकों ने अनगढ़ लोगों और बच्चों को लेकर नाटक किए। धीरे-धीरे वे अनगढ़ नाट्यकर्मी परिपक्व कलाकार के रूप में विकसित हो गए। नाटक करते समय कलाकार की देह, दिल व दिमाग सभी का विकास होता है। उनमें मिल कर काम करने की संस्कृति का विकास होता है। नाटक करने के लिए जब वे लोगों के बीच में जाते हैं, तो चर्चाओं के दौरान भी उनका विकास होता है। यही कारण है कि शिक्षण की विधि के रूप में तो नाटक का अधिकाधिक प्रयोग होना चाहिए। यही नहीं इसे एक विषय का दर्जा देकर नाटक व रंगमंच के विकास की दिशा प्रशस्त की जानी चाहिए। रंगमंच को शिक्षा का माध्यम और अभिन्न हिस्सा बनाया जाना चाहिए। लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि सांस्कृतिक कार्यक्रमों में नाट्य प्रस्तुतियों के अलावा शिक्षण-अधिगम की प्रक्रिया में इसका बहुत कम प्रयोग किया जाता है। सीबीएसई ने रंगमंच को ग्यारहवीं और बारहवीं में एक वैकल्पिक विषय के रूप में लागू किया है। हरियाणा के स्कूलों में भी गिने-चुने रंगमंच शिक्षक अनुबंध के आधार पर लगाए गए हैं, जोकि सालाना कार्यक्रमों का संयोजन आदि ही अधिक कर पाते होंगे। निष्ठा अध्यापक प्रशिक्षण कार्यक्रमों में कला समावेशी शिक्षा की बात की गई। लेकिन स्कूल स्तर पर बहुत कुछ किया जा सकता है और किया जाना चाहिए।
बुनियादी ढ़ांचे के अभाव में परंपरागत तौर पर की जाने वाली रामलीलाएं भी आज कईं स्थानों पर समाप्त हो चुकी हैं। देश के गाँवों को तो छोड़ ही दें, शहरों तक में भी ऑडिटोरियम की सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं। जहां ऑडिटोरियम या रंगशालाएं हैं, वे कलाकारों के लिए सुलभ नहीं हैं। रोहतक में पिछले दिनों नगर निगम ने श्रीराम रंगशाला में अपना कार्यालय बना लिया और रंगशाला में नाट्य प्रस्तुति करने के लिए मोटी फीस लाद दी गई, जिसको लेकर काफी समय तक कलाकार एकत्रित होते रहे। आमदनी के जरिये खोजने की मुहिम लेकर कार्य करने वालों के लिए रंगशालाएं भी ऐसे ही साधन हो सकते हैं। लेकिन हर जगह इस सोच के साथ काम नहीं चलता है। रंगशालाओं की जिम्मेदारी कलाकारों को देनी चाहिए। इस क्षेत्र में निवेश किया जाना चाहिए। इसका फल रूपयों के रूप में  नहीं मिलेगा।
यह भी सत्य है कि सरकार के भरोसे कलाओं का विकास नहीं हो सकता है। बाजारीकरण के द्वारा रंगमंच का कलावादी स्वरूप तो विकसित हो सकता है। लेकिन जनवादी रूप विकसित करने के लिए जनता के बीच जाना ही होगा। थियेटर कोई उपभोग की वस्तु नहीं है और ना ही वस्तुएं बेचने या चुनाव प्रचार के सशक्त प्रचार माध्यम के रूप में ही इसकी उपयोगिता है। इस विधा की प्रासंगिकता इसी में है कि जनता के असली मुद्दों से जुडक़र रंगमंच का विकास हो। गांव-गांव में ऐसी रंगमंडलियों की जरूरत है, जोकि समाज में पसरती जा रही जड़ता, उदासीनता, चुप्पी, भय व निराशा को समाप्त करके उत्साह का संचार करंे। सामूहिकता और संवाद की संस्कृति का विकास करंे।
कोरोना महामारी ने रंगमंच व रंगकर्मियों को बुरी तरह से प्रभावित किया है। रंगमंच एक सामूहिक कला है, जो लोगों को एकजुट होने का आह्वान करता है। प्रेक्षागृह में एक स्थान पर इक_े होकर ही नाटक देखा जाता है। कोरोना से बचने के लिए सामाजिक दूरी को प्रचारित किया गया। लॉकडाउन के कारण नाट्य प्रस्तुतियां नहीं हो पाई। हालांकि आज तक रंगमंच आमदनी का अहम जरिया नहीं बन पाया है। इसके बावजूद बहुत से कलाकार इसके जरिये ही संकटों में गुजर-बसर करने के प्रति प्रतिबद्ध हैं। कॉलेजों व विश्वविद्यालयों में होने वाले युवा महोत्सव व अलग-अलग संस्थाओं के समारोह आदि भी बहुत से नाट्य कलाकारों के लिए आमदनी का जरिया बन जाते हैं। लेकिन कोरोना के कारण एक साल से इस तरह के समारोह व नाट्य गतिविधियां सुचारू नहीं हो पाई हैं। कोरोना की दूसरी लहर फैल रही है। ऐसे में रंगकर्म की दशा-दिशा और रंगकर्म के जरिये गुजर-बसर करने वाले कलाकारों की सामाजिक-आर्थिक स्थितियों पर पुनर्विचार की जरूरत पैदा है। जिस तरह से अन्य काम-धंधों के नुकसान पर सरकार पीडि़तों की मदद करती है, उसी तरह से कलाकारों की मदद करने में सरकार को आगे आना चाहिए।


Monday, March 15, 2021

WORLD CONSUMER RIGHTS DAY ARTICLE

 विश्व उपभोक्ता दिवस विशेष

बेलगाम बाज़ार, उपभोक्ता बेज़ार!

अरुण कुमार कैहरबा
DAILY NEWS ACTIVIST 15-3-21

सभ्यता के विकास के साथ-साथ बाजार एक बड़ी ताकत का रूप ले चुका है। विशेष तौर पर पूंजीवादी व्यवस्था में बाजार अपना क्रूर एवं शोषक रूप लेकर हाजिर होता है। एक ताकत के रूप में ही उसकी कोशिश होती है कि मनुष्य अपनी इंसानियत भूल कर उपभोक्ता का रूप धारण कर ले। ऐसे उपभोक्ता जिनके लिए बाजार में बेची जा रही वस्तुएं हासिल करना और उपभोग करना ही प्राथमिकता हो। उपभोक्ता संस्कृति पूंजीवादी व्यवस्था के तरकश के तीर की भांति काम करती है। एक तरफ निजीकरण, उदारीकरण और वैश्वीकरण के नाम पर वित्तीय पूंजी को असीमित छूट प्रदान की जाती है, दूसरी तरफ जीने के लिए खाने की बात को उलट कर खाने के लिए जीने को मनुष्य के जीवन का ध्येय बना देती है। बड़ी पूंजी को केंद्रीय महत्व प्रदान करने वाली राजनीतिक आर्थिक व्यवस्था में उपभोक्ताओं के अधिकार निश्चित तौर पर हाशिए पर रहते हैं। उपभोक्ताओं को खुले बाजार द्वारा प्रलोभन दिए जाते हैं। ऐसा उपभोक्ताओं को फंसाने, अधिकाधिक लाभ कमाने और अतिरिक्त माल को ठिकाने लगाने के लिए किया जाता है। ऐसी जटिल स्थितियों में ही विश्व उपभोक्ता दिवस जैसे जागरूकता बढ़ाने वाले दिन की प्रासंगिकता को समझा जा सकता है।
उपभोक्ता आंदोलन का प्रारंभ अमेरिका में हुआ। 15 मार्च, 1962 को अमेरिका के राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी ने कांग्रेस में उपभोक्ता अधिकारों को लेकर जोरदार भाषण दिया। उपभोक्ता इंटरनेशनल द्वारा 15 मार्च को पहली बार 1983 में अंतर्राष्ट्रीय उपभोक्ता अधिकार दिवस के रूप में मनाया गया। भारत में 9 दिसंबर 1986 को तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की पहल पर उपभोक्ता संरक्षण विधेयक संसद में पारित किया गया और राष्ट्रपति द्वारा हस्ताक्षरित होने के बाद देशभर में उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम लागू हुआ। इसके अनुसार कोई भी व्यक्ति जो अपने उपयोग के लिए सामान अथवा सेवाएं खरीदता है वह उपभोक्ता है। इस अधिनियम ने उपभोक्ता के रूप में हमें कुछ अधिकार प्रदान किए हैं-यदि उत्पादक एवं व्यापारी द्वारा अनुचित तरीके का प्रयोग किए जाने के कारण हमें नुकसान होता है अथवा खरीदे गए सामान में यदि कोई खराबी है या फिर किराए पर ली गई वस्तुओं में कमी पाई गई है या फिर विक्रता ने प्रदर्शित मूल्य से अधिक मूल्य लिया है, इसके अलावा यदि किसी कानून का उल्लंघन करते हुए जीवन तथा सुरक्षा के लिए जोखिम पैदा करने वाला सामान जनता को बेचा जा रहा है तो हम शिकायत कर सकते हैं। कानून के तहत जिला स्तर पर जिला उपभोक्ता फोरम में 20लाख रुपए कीमत की वस्तु या सेवा तक के मामले में शिकायत की जा सकती है। 20लाख से एक करोड़ रुपए तक के मामले राज्य उपभोक्ता आयोग और एक करोड़ रुपए से अधिक के मामले राष्ट्रीय आयोग के समक्ष रखे जाते हैं।


उपभोक्ता संरक्षण के कानून के बावजूद यथार्थ में बाजार एक बड़ी ताकत है, जिसमें उपभोक्ता जमाखोरी, कालाबाजारी, मिलावट, बिना मानक की वस्तुओं की बिक्री, अधिक दाम, गारंटी के बाद सर्विस नहीं देना, ठगी व कम नापतोल संकटों से घिरे हुए हैं। खाद्य वस्तुओं में मिलावट तो कर्इं बार जानलेवा होती है और कईं बार धीरे-धीरे असर करने वाला जहर। जीवनदायी दूध तक को यूरिया व जहरीले रसायनों के द्वारा कृत्रिम तरीके से बनाया जा रहा है। घी-तेल में मिलावट हो रही है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत खोली गई सस्ते राशन की दुकानों पर खराब हो चुका गेहूं बेचा जाता है तो कई बार कंकड़ वाली दालें। कालाबाजारी के कारण भी वितरण प्रणाली नाकाम हो रही है। यही नहीं नई उदार आर्थिक नीतियों के तहत शहरों में खुल रहे मॉल ऊंची दुकान फीके पकवान साबित हो रहे हैं। यहां पर आठ से दस रूपये में मिलने वाला समोसा धड़ल्ले से 50रूपये में बेचा जा रहा है। कंपनी द्वारा सभी प्रकार के टैक्स जोडक़र निर्धारित किए गए अधिकतम मूल्य से कई गुना अधिक मूल्य वसूला जाता है। सरकार से मान्यता लेकर आई बीमा कंपनियां लोगों के खून पसीने की कमाई को डकार कर गुम हो जाती हैं। मान्यता लेकर खोले गए निजी शिक्षण संस्थानों में न तो पूरा स्टाफ मिलता है और ना ही अन्य सुविधाएं। निजीकरण के कारण शिक्षा के नाम पर डिग्रियां बाजार में बिकने लगी हैं। संकट के बीच फंसे आम उपभोक्ताओं को जागो ग्राहक जागो का नारा आश्वस्त नहीं करता है उन्हें लगता है जैसे उन्हें भागो ग्राहक भागो कहकर चेतावनी दी जा रही है और डराया जा रहा हो।
जब से सरकार ने जनकल्याणकारी नीतियों को छोडक़र कथित उदारवादी नीतियों को अपनाया है तब से उपभोक्ताओं के अधिकारों के हनन का सिलसिला और अधिक तेज हो गया है। अंतरराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा श्रम कानूनों की जमकर धज्जियां उड़ाई जा रही हैं और अंधाधुंध विज्ञापनों द्वारा लागत से कहीं अधिक मूल्य पर सामान बेचकर लाभ कमाया जा रहा है। उपभोक्ताओं की जागरूकता तो जरूरी है ही लेकिन यह जागरूकता सिर्फ रिक्शा चालकों से मोलभाव करने में ही नहीं चलनी चाहिए। उपभोक्ता अधिकार के विविध आयाम है। उपभोक्ताओं के व्यापक पर्यावरण संरक्षण हितों की अनदेखी भी बाजार के द्वारा धड़ल्ले से की जाती है। इसलिए इस 2021 के उपभोक्ता अधिकार दिवस को ‘प्लास्टिक प्रदूषण पर लगाम’ लगाने पर केंद्रित किया गया है। पूरी दुनिया आज प्लास्टिक प्रदूषण संकट से जूझ रही है। हालांकि प्लास्टिक दैनिक जीवन के लिए बहुत उपयोगी वस्तु हो सकती है, लेकिन आज इसका निर्माण एवं उपभोग अनियंत्रित हो गया है। अगस्त, 2020 में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर जारी की गई रिपोर्ट-‘ब्रेकिंग द प्लास्टिक वेव’ बताती है कि यदि योजना व व्यवहार में नवाचार और बदलाव नहीं किए गए तो 2040 तक महासागरों में प्लास्टिक का कचरा तीन गुणा हो जाएगा। अब वैश्विक काविड -19 महामारी प्लास्टिक प्रदूषण को उजागर करने, संबोधित करने और उससे निपटने के लिए महत्वपूर्ण समय है, क्योंकि इस दौरान फेस मास्क, दस्ताने और खाद्य पैकेजिंग सहित एकल-उपयोग प्लास्टिक के उपयोग में बढ़ौतरी हुई है। चूंकि प्लास्टिक के प्रदूषण से निपटने का कोई एक तरीका नहीं है। इसलिए विश्व स्तर पर इस समस्या से निपटने के लिए सात स्तरीय मॉडल की पैरवी की जा रही है, जिसमें  प्लास्टिक के लिए रिप्लेस, पुनर्विचार, अस्वीकार करना, कम करना, पुन: उपयोग, रीसायकल और मरम्मत करन शामिल हैं।
कंस्यूमर इंटरनेशनल की महानिदेशक हेलेना लेउरेंट के अनुसार, ‘प्लास्टिक प्रदूषण हमारे पृथ्वी ग्रह के सामने सबसे अधिक दबाव वाले मुद्दों में से एक है। दुनिया भर में प्लास्टिक संकट के प्रति उपभोक्ता जागरूकता बढ़ रही है। बाजार को आकार देने में उपभोक्ताओं की महत्वपूर्ण भूमिका होती है, और हमें प्लास्टिक प्रदूषण से निपटने के लिए व्यवसायों और सरकारों द्वारा किए जा रहे उपायों का समर्थन करना चाहिए, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि सभी के लिए टिकाऊ उपभोग सुलभ हो।’
हिन्दी प्राध्यापक, लेखक व स्तंभकार
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JAGAT KRANTI 15-3-2021