Saturday, March 27, 2021

WORLD THEATRE DAY 27 MARCH

 विश्व रंगमंच दिवस पर विशेष

बदलाव की उम्मीदों और कल्पनाशीलता से भरा रंगमंच

जड़ता के खिलाफ विद्रोह करते हुए बेहतरी की परिकल्पना रचता है नाटक

सुनो कि नाटक बोलता है, भेद सबके खोलता है!

अरुण कुमार कैहरबा

प्रसिद्ध रूसी-अमेरिकी नाटककर्मी माइकल चेखव के अनुसार- ‘रंगमंच एक जीवंत कला है और यह सच्चाई, सजीवता और मानवता से बंधी होती है। रंगमंच उम्मीदों, कलात्मक भ्रम, कल्पनाशीलता से भरा है। इसमें हम दर्शकों को अपनी कल्पनाशीलता का इस्तेमाल करने के लिए प्रोत्साहित कर सकते हैं।’ थियेटर या रंगमंच जीवन के विविध रंगों को मंच पर प्रस्तुत करने की जीवंत विधा है। इसमें नृत्य, संगीत, चित्र, अभिनय सहित समस्त कलाओं और विभिन्न प्रकार के कौशलों का समावेश होता है। रंगमंच पर जब समाज की दशा को जीवंत किया जाता है तो दर्शक उसके साथ आसानी से जुड़ जाता है। रंगमंच सही गलत के भेद को बारीकी से चित्रित करता है। आम आदमी के मसलों के साथ खड़े होकर जनपक्ष को मजबूत करता है और जनविरोधी ताकतों की अमानवीयता को नंगा करता है। रंगमंच सवाल खड़े करता है। हर प्रकार की जड़ता और यथास्थिति के खिलाफ विद्रोह करता हुआ रंगमंच एक बेहतर समाज की परिकल्पना तैयार करता है। रंगमंच समाज का आईना ही नहीं है, बल्कि परिवर्तन का सशक्त औजार भी है।


रंगमंच सहित कला की अन्य विधाओं को समाज में हल्के ढ़ंग से देखा जाता है। जब कोई व्यक्ति विशेष अंदाज में अपनी बात रखने की कोशिश करता है तो प्राय: कह दिया जाता है- ‘क्यों नाटक कर रहा है।’ नाटक करना इतना सहज कार्य नहीं है, जितना आम दर्शक सोचते हैं। लंबे समय तक देह, दिल व दिमाग पर मेहनत करने के बाद कलाकार पैदा होता है और यही स्थिति एक प्रस्तुति पर भी लागू होती है। रंगमंच या नाटक जीवन से कम नहीं है। यह जीने का तरीका भी है। नाटक सिर्फ नाटक करने वालों के लिए ही नहीं, बल्कि सभी के लिए है। यह सभी को जीवन-दृष्टि देता है।
सदियों पहले भरत मुनि द्वारा ‘नाट्यशास्त्र’ की रचना से नाटक विधा का प्रारम्भ माना जाता है। इसमें रंगमंच के मंच संयोजन, वेश-भूषा व पाश्र्व गायन आदि सभी रूपों का विस्तृत वर्णन मिलता है। इस रचना की महत्ता को देखते हुए इसे पंचमवेद कहा जाता है। माना जाता है कि नाट्य विधा के प्रति भेदभाव की दृष्टि के कारण इसे वेद का दर्जा नहीं दिया गया। संभवत: इसी का परिणाम रहा कि समाज में कलाकारों व अभिनेताओं को हेय दृष्टि से देखा गया। लेकिन आज स्थितियां बदल रही हैं। आधुनिक भारत में रंगमंच के सिद्धांतों को प्रयोगात्मक रूप देने का श्रेय भारतेंदु हरिश्चन्द्र को जाता है। वे हिन्दी रंगमंच के पितामह कहे जाते हैं। भारतेन्दु ने भारत-दुर्दशा, नीलदेवी व वैदिक हिंसा हिंसा न भवति सहित अनेक नाटक लिखे और खेले। उनका नाटक अंधेर नगरी आज भी प्रासंगिक माना जाता है और आज भी अनेक नाटक मंडलियाँ उसका मंचन करती हैं। आज़ादी से पहले रंगमंच के विकास में पृथ्वीराज कपूर और आगा हश्र कश्मीरी का अहम योगदान रहा। रंगमंच एवं कलाओं के विकास में इंडियन पीपल्स थियेटर एसोसिएशन (इप्टा) की भूमिका को भुलाया नहीं जा सकता। इप्टा ने रंगमंच, जनगीतों और कलाओं को अंग्रेजी दासता एवं सामाजिक बुराईयों से मुक्ति का माध्यम बनाया। इप्टा प्रख्यात फिल्मी कलाकारों ए.के. हंगल, जोहरा सहगल और बलराज साहनी की अभिनय पाठशाला साबित हुई।
मौजूदा दौर में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की स्थापना और नाट्य प्रशिक्षण में इब्राहिम अल्काजी ने अहम भूमिका का निर्वाह किया। इस संस्थान के निर्देशक, शिक्षक व विद्यार्थी रही अनेक शख्सियतों ने रंगकर्म के क्षेत्र में अनेक प्रयोग किए। विजय तेंदुलकर, बादल सरकार, उत्पल दत्त, बलवंत गार्गी, गिरीश कार्नाड, के.एन. पणिक्कर, बीवी कारंत, रतन थियम, बंसी कौल, कीर्ति जैन, रामगोपाल बजाज, अनुराधा कपूर, मोहन महर्षि, नीलम मानसिंह, माया कृष्णा राव, रूद्रप्रताप सेन गुप्ता, भानु भारती, त्रिपुरारी शर्मा, केवल धालीवाल, साबित्री मां, कन्हाई लाल, नेमिचंद्र जैन, शांता गांधी, सत्तू सेन, शंभु मित्रा सहित अनेक नाटककारों एवं निर्देशकों ने भारतीय रंगमंच को आगे बढ़ाया। देवेन्द्रराज अंकुर ने कहानियों के रंगमंच को प्रसिद्ध किया। शारीरिक रंगमंच के क्षेत्र में अबनी विश्वास, खालिद तैयब, ज्योति डोगरा ने काम किया। इसके अलावा बंगाल के जात्रा, आसाम के अंकियानाट, मध्य प्रदेश के माच, कर्नाटक के यक्षगान, केरल के कलरीपयट्टू व कुडिय़ट्टटम व उड़ीसा के छाउ लोक नाट्य में भी अनेक लोक कलाकारों ने काम किया। लोक नाट्य की इन विधाओं को भी रंगकर्म के क्षेत्र में काम करने वाले कलाकार सीखते हैं।    
उद्देश्यपूर्ण नाटकों की श्रेणी में महान नाटककार, लेखक, प्रयोगधर्मी हबीब तनवीर की नाट्यधर्मिता के सन्दर्भ में जितना कहा जाये कम है। विदेशों में पढ़ाई करने के बावजूद तनवीर ने अपनी कर्मस्थली भारत के उन पिछड़े गांवों को बनाया जिनके बाशिंदों के लिए दो जून की रोटी जुटाना एक समस्या होती है। हबीब तनवीर ने नौ फिल्मों में अभिनय भी किया है, जिसमें रिचर्ड एटनबरो की ‘गाँधी’ भी शामिल है। उनका नाटक ‘आगरा बाजार’ काफी पसंद किया गया। भोपाल में ‘नया थिएटर’ की शुरुआत, भोपाल गैस त्रासदी पर भी एक फिल्म के साथ साथ उन्होंने भास्, विशाखादत्त, भवभूति जैसे पौराणिक संस्कृत नाटककारों से लेकर यूरोपियन क्लासिक्स शेक्सपियर, मोलियर, ब्रेख्त, लोर्का भी किये। सबसे महत्वपूर्ण बात ये कि उन्होंने छत्तीसगढ़ी लोक कथाओं और वहीं के स्थानीय लोगों के समूह बनाकर छत्तीसगढ़ी में ही नाटक किये। जिनमें- मिट्टी की गाड़ी, गाउ का नाम ससुराल मोर नाउ दामाद, चरणदास चोर व बहादुर कल्हरिन प्रसिद्ध नाटक हैं। इसी के साथ नाटक को जन-जन तक पहुंचाने के लिए स$फदर हाश्मी ने नुक्कड़ नाटक विधा को प्रचारित-प्रसारित किया। उनसे प्रेरित होकर अनेक नाट्य मंडलियों ने नुक्कड़ नाटक करना शुरू किया।
नाट्य विधा में असीम क्षमताएँ हैं। अनेक निर्देशकों ने अनगढ़ लोगों और बच्चों को लेकर नाटक किए। धीरे-धीरे वे अनगढ़ नाट्यकर्मी परिपक्व कलाकार के रूप में विकसित हो गए। नाटक करते समय कलाकार की देह, दिल व दिमाग सभी का विकास होता है। उनमें मिल कर काम करने की संस्कृति का विकास होता है। नाटक करने के लिए जब वे लोगों के बीच में जाते हैं, तो चर्चाओं के दौरान भी उनका विकास होता है। यही कारण है कि शिक्षण की विधि के रूप में तो नाटक का अधिकाधिक प्रयोग होना चाहिए। यही नहीं इसे एक विषय का दर्जा देकर नाटक व रंगमंच के विकास की दिशा प्रशस्त की जानी चाहिए। रंगमंच को शिक्षा का माध्यम और अभिन्न हिस्सा बनाया जाना चाहिए। लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि सांस्कृतिक कार्यक्रमों में नाट्य प्रस्तुतियों के अलावा शिक्षण-अधिगम की प्रक्रिया में इसका बहुत कम प्रयोग किया जाता है। सीबीएसई ने रंगमंच को ग्यारहवीं और बारहवीं में एक वैकल्पिक विषय के रूप में लागू किया है। हरियाणा के स्कूलों में भी गिने-चुने रंगमंच शिक्षक अनुबंध के आधार पर लगाए गए हैं, जोकि सालाना कार्यक्रमों का संयोजन आदि ही अधिक कर पाते होंगे। निष्ठा अध्यापक प्रशिक्षण कार्यक्रमों में कला समावेशी शिक्षा की बात की गई। लेकिन स्कूल स्तर पर बहुत कुछ किया जा सकता है और किया जाना चाहिए।
बुनियादी ढ़ांचे के अभाव में परंपरागत तौर पर की जाने वाली रामलीलाएं भी आज कईं स्थानों पर समाप्त हो चुकी हैं। देश के गाँवों को तो छोड़ ही दें, शहरों तक में भी ऑडिटोरियम की सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं। जहां ऑडिटोरियम या रंगशालाएं हैं, वे कलाकारों के लिए सुलभ नहीं हैं। रोहतक में पिछले दिनों नगर निगम ने श्रीराम रंगशाला में अपना कार्यालय बना लिया और रंगशाला में नाट्य प्रस्तुति करने के लिए मोटी फीस लाद दी गई, जिसको लेकर काफी समय तक कलाकार एकत्रित होते रहे। आमदनी के जरिये खोजने की मुहिम लेकर कार्य करने वालों के लिए रंगशालाएं भी ऐसे ही साधन हो सकते हैं। लेकिन हर जगह इस सोच के साथ काम नहीं चलता है। रंगशालाओं की जिम्मेदारी कलाकारों को देनी चाहिए। इस क्षेत्र में निवेश किया जाना चाहिए। इसका फल रूपयों के रूप में  नहीं मिलेगा।
यह भी सत्य है कि सरकार के भरोसे कलाओं का विकास नहीं हो सकता है। बाजारीकरण के द्वारा रंगमंच का कलावादी स्वरूप तो विकसित हो सकता है। लेकिन जनवादी रूप विकसित करने के लिए जनता के बीच जाना ही होगा। थियेटर कोई उपभोग की वस्तु नहीं है और ना ही वस्तुएं बेचने या चुनाव प्रचार के सशक्त प्रचार माध्यम के रूप में ही इसकी उपयोगिता है। इस विधा की प्रासंगिकता इसी में है कि जनता के असली मुद्दों से जुडक़र रंगमंच का विकास हो। गांव-गांव में ऐसी रंगमंडलियों की जरूरत है, जोकि समाज में पसरती जा रही जड़ता, उदासीनता, चुप्पी, भय व निराशा को समाप्त करके उत्साह का संचार करंे। सामूहिकता और संवाद की संस्कृति का विकास करंे।
कोरोना महामारी ने रंगमंच व रंगकर्मियों को बुरी तरह से प्रभावित किया है। रंगमंच एक सामूहिक कला है, जो लोगों को एकजुट होने का आह्वान करता है। प्रेक्षागृह में एक स्थान पर इक_े होकर ही नाटक देखा जाता है। कोरोना से बचने के लिए सामाजिक दूरी को प्रचारित किया गया। लॉकडाउन के कारण नाट्य प्रस्तुतियां नहीं हो पाई। हालांकि आज तक रंगमंच आमदनी का अहम जरिया नहीं बन पाया है। इसके बावजूद बहुत से कलाकार इसके जरिये ही संकटों में गुजर-बसर करने के प्रति प्रतिबद्ध हैं। कॉलेजों व विश्वविद्यालयों में होने वाले युवा महोत्सव व अलग-अलग संस्थाओं के समारोह आदि भी बहुत से नाट्य कलाकारों के लिए आमदनी का जरिया बन जाते हैं। लेकिन कोरोना के कारण एक साल से इस तरह के समारोह व नाट्य गतिविधियां सुचारू नहीं हो पाई हैं। कोरोना की दूसरी लहर फैल रही है। ऐसे में रंगकर्म की दशा-दिशा और रंगकर्म के जरिये गुजर-बसर करने वाले कलाकारों की सामाजिक-आर्थिक स्थितियों पर पुनर्विचार की जरूरत पैदा है। जिस तरह से अन्य काम-धंधों के नुकसान पर सरकार पीडि़तों की मदद करती है, उसी तरह से कलाकारों की मदद करने में सरकार को आगे आना चाहिए।


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