Saturday, March 27, 2021

कवि भवानी प्रसाद मिश्र की जयंती (29 मार्च) पर विशेष लेख।

 जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख..

सादगीपूर्ण व्यक्तित्व और सहज लेखन के धनी भवानी प्रसाद मिश्र

अरुण कुमार कैहरबा
DAILY NEWS ACTIVIST 27-3-2021

जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख
और उसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख।

इन पंक्तियों के रचनाकार भवानी प्रसाद मिश्र हिन्दी साहित्य में सादगीपूर्ण व्यक्तित्व और सहज लेखन के लिए जाने जाते हैं। साहित्य में वादों-विवादों से अलग वे नई राह बनाते हुए दिखाई देते हैं। वे देश के उन रचनाकारों में शुमार हैं, जिन्होंने देश की आजादी की लड़ाई में भी हिस्सा लिया। इसके लिए उन्हें जेल की यात्रा करनी पड़ी। महात्मा गांधी का असर अन्य अनेक रचनाकारों की तरह भवानी प्रसाद पर भी पड़ा था। उनकी रचनाओं की सहज लय को गांधी की चरखे की लय से जोड़ा जाता है। इसलिए उन्हें कविता का गांधी भी कहा जाता है।
भवानी प्रसाद मिश्र का जन्म 29 मार्च, 1913 को मध्यप्रदेश के होशंगाबाद के गांव टिगरिया में हुआ। पिता सीताराम मिश्र साहित्यिक रूचि के व्यक्ति थे। अपनी मां के बारे में उन्होंने अपनी ‘घर की याद’ कविता में स्वयं लिखा है- ‘और मां बिन-पढ़ी मेरी, दुख में वह गढ़ी मेरी, मां कि जिसकी गोद में सिर, रख लिया तो दुख नहीं फिर।’ भवानी बाबू ने पिता से साहित्यिक अभिरूचि और माता गोमती देवी से संवेदनशील दृष्टि प्राप्त की। उन्होंने बीए तक की शिक्षा ग्रहण की। गांधी जी के विचारों से प्रेरित होने के कारण उन्होंने पाठशाला खोली। राष्ट्रीय आंदोलन में हिस्सेदारी करने के कारण उन्हें जेल जाना पड़ा। लेकिन उनकी लेखनी ना तो जेल के बाहर रूकी थी, ना जेल में जाने के बाद। जेल में रहते हुए उन्होंने ‘घर की याद’ कविता लिखी, जिसमें उन्होंने अपने माता-पिता, चार भाई व चार बहनों का स्मरण किया है। कविता में भवानी की मां पिता से कह रही है-‘गया है सो ठीक ही है, वह तुम्हारी लीक ही है। पांव जो पीछे हटाता, कोख को मेरी लजाता।’ कविता में सावन के माध्यम से कवि अपने माता-पिता को संदेश भेजता है। घर में पढऩे-लिखने का माहौल था, सो कविताएं लिखने लगे। इसी तरह से बचपन से ही वे राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़ गए।
1932 में मिश्र जी पुष्प की अभिलाषा लिखने वाले माखन लाल चतुर्वेदी के संपर्क में आए। भारत छोड़ो आंदोलन में हिस्सा लेने के कारण 1942 में जेल में जाना पड़ा। 1945 में जेल से छूटने के बाद वर्धा आश्रम में 4-5 साल तक शिक्षक के रूप में कार्य किया। कुछ समय राष्ट्रभाषा प्रचार का काम किया। बेरोजगारी से निजात पाने के लिए फिल्मों के लिए लिखा। उन्होंने रेडियो में काम किया और रेडियो बायोग्राफी ऑफ गांधी का निर्देशन किया। संपूर्ण गांधी वांगमय का संपादन किया। कुछ समय गांधी शांति प्रतिष्ठान की पत्रिका-गांधी मार्ग, भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद की पत्रिका गगनांचल और कल्पना पत्रिकाओं का संपादन भी किया।
अपनी सहजता के बारे में मिश्र जी का ही वक्तव्य है-‘छोटी सी जगह में रहता था, छोटी सी नदी नर्मदा के किनारे, छोटे से पहाड़ विंध्याचल के आंचल में छोटे-छोटे लोगों के बीच एकदम अविचित्र मेरे जीवन की कथा है।’ यही सहजता ही उनके व्यक्तित्व और लेखन की सबसे बड़ी विशेषता है। सहजता उनकी जीवन साधना और काव्य-साधना के केन्द्र में है। सहजता-साधन भी है और साध्य भी। लंबे समय तक हैदराबाद, बंबई, दिल्ली जैसे शहरों में रहने के बावजूद वे शहरी नहीं हुए, गांव उनके भीतर बसा रहा। उन्होंने लिखा है- ‘चतुर मुझे कुछ भी नहीं भाया, न औरत न आदमी न कविता।’ यह सहजता उनकी कथन की सादगी में दिखाई देती है। उनकी कविताओं में बोलचाल के गद्यात्मक-से लगते वाक्य विन्यास को भी कविता में बदल देने की अद्भुत क्षमता है। चमत्कारिता व कलाकारिता दिखाने व चमकाने के लिए उन्होंने कभी कुछ ना लिखा और ना बोला। उन्होंने जो कुछ लिखा अपने अनुभवों से लिखा। उन्होंने स्वयं लिखा है- ‘मैंने अपनी कविता में प्राय: वही लिखा है, जो मेरी ठीक से पकड़ में आ गया है। दूर की कौड़ी लाने की महत्वाकांक्षा मैंने कभी नहीं की।’ लेखन उनके लिए जिंदगी संवारने का कर्म है।
भवानी प्रसाद मिश्र दूसरा सप्तक के महत्वपूर्ण कवि हैं। उनका पहला काव्य-संग्रह- ‘गीत फरोश’ 1956 में प्रकाशित हुआ। उसमें 68 कविताएं हैं। उनकी कविता बदल रहे सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों की खबर हमें दे जाती है। संग्रह की अंतिम कविता गीत फरोश कवियों की व्यवसायिक प्रवृत्ति और समाज की कला विमुखता पर कटाक्ष है। वे कहते हैं-‘जी हां हुजूर मैं गीत बेचता हूँ, मैं तरह-तरह के गीत बेचता हूँ। यह गीत जरा सूने में लिक्खा था, यह गीत वहां पूने में लिखा था। यह गीत पहाड़ी पर चढ़ जाता है, यह गीत बढ़ाए बढ़ जाता है, यह गीत भूख और प्यास भगाता है, यह गीत मसान में भूख जगाता है।’ यह कविता पूंजीवादी व्यवस्था में कवियों, कलाकारों की लाचारगी को दर्शाती है। जो साहित्यकार व कलाकार अपनी वैचारिकता के जरिये समाज की पीड़ा को वाणी प्रदान करता है, किस तरह से हमारा समाज उन्हें उनके कार्य का उचित सम्मान नहीं देता है। उसके सामने उसके भरण-पोषण का संकट खड़ा है। उसकी कला की बेकद्री को दर्शाने के लिए ही मिश्र जी ने यह कविता लिखी। इस कविता में गीतकार को अन्य जरूरी कपड़े व सब्जियों आदि की फेरी लगाने वाले के रूप में दिखाया गया है। बाजार में उपयोगिता के आधार पर उनकी रचनाओं का मूल्य आंका जाता है। जो समाज अपने साहित्यकारों व कलाकारों की कद्र नहीं करता, उस समाज की स्थिति की तरफ इशारा करना भी इस कविता का उद्देश्य रहा होगा।
उनका दूसरा काव्य-‘संग्रह चकित है दुख’ है, जिसमें 65 कविताएं हैं। इस संग्रह को कवि ने कमाया हुआ सत्य बताया है। इस संग्रह की कविता में प्रेम का चित्रण देखिए-‘इस एकाकार शून्य में तुमभर दिखती हो, गिरस्ती सेमेटे बचाए कुंकुम, जलते हुए भाल पर।’
मिश्र के अन्य काव्य-संग्रह-अंधेरी कविताएं, गांधी पंचशती, बुनी हुई रस्सी (1971), खुश्बू के शिलालेख, व्यक्तिगत, परिवर्तन जिए, अनाम तुम आते हो, इदं न मम, त्रिकाल संध्या, शरीर कविता फसले व फूल, मानसरोवर दिन, कालजयी (प्रबंध काव्य), संप्रति, नीली रेखा तक, तूस की आग आदि हैं। ‘जिन्होंने मुझे रचा’ संस्मरण और ‘कुछ नीति कुछ राजनीति’ उनका निबंध-संग्रह हैं। ‘तुकों के खेल’ उनकी बाल साहित्य की किताब है। उन्होंने रवीन्द्रनाथ टैगोर की कविताओं का अनुवाद किया।  सोफोक्लीज के नाटक एंटीगॉनी का पद्यानुवाद किया।
मिश्र जी की कविता का आधार फलक बहुत विस्तृत है। वे जीवन के वैविध्य को लेकर चलते हैं। वे सामान्य जन के दुख-दर्द के साथ-साथ आशा-आकांक्षा को भी अभिव्यक्ति देते हैं। वे अपने समय के काव्यांदोलनों व विचारधाराओं की संकीर्णताओं से मुक्त होकर आगे बढ़ते हैं। उनके काव्य में भारतीय चिंतन की निरंतरता देखने को मिलती है। मानवीय संवेदना उनके काव्य का उत्स है। भवानी जी का काव्य यथार्थ की भूमि पर गहरी संवेदना व समझ का प्रमाण देता है। वे आज के मानव को जगाना चाहते हैं। उनकी ‘इसे जगाओ’ शीर्षक कविता से उदाहरण देखिए-
‘भई, सूरज, जरा इस आदमी को जगाओ, भई पवन, जरा इस आदमी को हिलाओ, यह आदमी को जो सोया पड़ा है, जो सच से बेखबर सपनों में खोया पड़ा है, भई पंछी इसके कानों पर चिल्लाओ।’ उनकी कविता ‘कहीं नहीं बचे’ प्रकृति को हो रहे नुकसान को मार्मिकता के साथ उजागर करती है। एक स्थान पर उन्होंने कहा- ‘तौलकर कहूँ तो मेरी कविता वनस्पति जगत की संवेदना से बनी रची कविता है। इस संवेदना के विकास को ही मैं अपनी कविता का विकास मानता हूँ।’ कवि इस कविता में प्रकृति के साथ नृशंस छेड़छाड़ को घातक बताते हुए चित्रित करता है। यह सब मानव के लिए भी खतरनाक है, लेकिन मनुष्य इसे समझ नहीं पा रहा है। उनकी कठपुतली कविता में कठपुतली का मानवीकरण किया गया है। वह अपने चारों ओर बंधे धागों से परेशान हो जाती है और उसमें अपने मन के अनुसार काम करने की इच्छा पैदा होती है। तुरंत ही वह सोचती है कि यह कैसी इच्छा मेरे मन में पैदा हो रही है? बुनी हुई रस्सी पर 1977 में उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार, 1983 में मध्यप्रदेश सरकार का शिखर सम्मान मिला। भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री सम्मान प्रदान किया। 20 फरवरी, 1985 को उनका निधन हो गया। उन्होंने लिखने-पढऩे को आगे बढऩे का पैमाना माना-  
‘कुछ लिख के सो, कुछ पढ़ के सो।
जिस जगह जागा सवेरे, उस जग से बढ़ के सो।’

भवदीय,
अरुण कुमार कैहरबा,
हिन्दी प्राध्यापक, लेखक व स्वतंत्र पत्रकार
वार्ड नं-4, रामलीला मैदान, इन्द्री,
जिला-करनाल, हरियाणा-132041
मो.नं.-9466220145

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