Sunday, January 24, 2021

हिन्दी की प्रसिद्ध कथाकार कृष्णा सोबती की पुण्यतिथि पर विशेष लेख

 कृष्णा सोबती: विभाजन की त्रासदी की कालजयी कथाकार
JAGAT KRANTI 25-01-2021


अरुण कुमार कैहरबा

भारतीय साहित्य की मशहूर कथाकार कृष्णा सोबती को शरीरी रूप से दुनिया से गए दो साल बीत गए। लेकिन उनका साहित्य अपने शिल्प, भाषा और चरित्रों की वजह से हमेशा चर्चाओं में रहेगा। उनके उपन्यासों, कहानियों, शब्द-चित्रों व संस्मरणों में विषयों व प्रस्तुति की विविधता और भाषा की जीवटता सहज ही पाठकों को अपनी तरफ आकर्षित करती है। 93 साल के जीवन काल में उन्होंने अनेक कालजयी रचनाएं लिखी, जोकि भारतीय साहित्य की अमूल्य निधि है।
कृष्णा सोबती का जन्म 18 फरवरी, 1925 को पश्चिमी पाकिस्तान (अब पाकिस्तान) के गुजरात में हुआ था। उनकी शुरूआती पढ़ाई गुजरात में ही हुई। जब देश का विभाजन हुआ तब वे फतेहचंद कॉलेज लाहौर की छात्रा थीं। उनका परिवार विभाजन की त्रासदी से गुजरा और जन्मभूमि छोड़ कर दिल्ली रहने लगा। उनकी आगामी पढ़ाई दिल्ली व शिमला में हुई। 1948 में लिखी गई उनकी कहानी-‘सिक्का बदल गया’ में उन्होंने विभाजन की पीड़ा को मार्मिक अभिव्यक्ति दी है। इस कहानी में अविभाजित कश्मीर में 65-70 साल की शाहनी अकेली रहती है। उनके पति शाह का देहांत हो चुका है। पढ़ा-लिखा बेटा कहीं बाहर रहता है। उसके सैंकड़ों कारिंदे हैं। मीलों तक फैले गांवों तक उसके खेत हैं। कहानी की शुरूआत शाहनी के चिनाब दरिया किनारे आकर नहाने से होती है। जहां वह पिछले पचास सालों से नहाती आ रही है। इसी दरिया के किनारे एक दिन वह दुल्हन बनकर आई थी। शेरे की मां के मरने के बाद शाहनी ने उसे पाल पोस कर बड़ा किया है। लेकिन विभाजन के दौर में अब शेरा दंगाईयों में शामिल होकर लूटपाट और हत्याओं में लगा हुआ है। शाहनी हवेली लौटती है तो उसे ट्रक आने की सूचना मिलती है। गांव वाले शाहनी की हवेली पर इक_ा होने लगते हैं। शाहनी को भी लगता है कि वक्त आ गया है। थानेदार दाऊद खां शाहनी को लेने आया है। वह शाहनी को सोना-चांदी-नगदी साथ लेने का सुझाव देता है, जिसे शाहनी ठुकरा देती है। दाऊद खां कहता है- ‘शाहनी मन में मैल न लाना। कुछ कर सकते तो उठा न रखते। वक्त ही ऐसा है। राज पलट गया है, सिक्का बदल गया है..।’ कैंप में पहुंच आहत मन से शाहनी सोचती है- ‘राज पलट गया..सिक्का क्या बदलेगा? वह तो मैं वहीं छोड़ आई!’ ‘आसपास के हरे-हरे खेतों से घिरे गाँवों में रात खून बरसा रही थी। शायद राज पलटा खा रहा था और सिक्का बदल रहा था..।’ कहानी में शाहनी की विभाजन से जुड़ी हृदयविदारक पीड़ा को व्यक्त किया गया है।
23 साल की उम्र में कृष्णा सोबती द्वारा लिखी गई यह कहानी उनके कहानी संगह-‘बादलों के घेरे’ में संकलित हुई है। इस संग्रह में जनवरी 1944 में लिखी गई उनकी पहली कहानी-नफीसा भी है, जोकि संभवत: उनकी पहली कहानी है। ‘लामा’ एक साल बाद लिखी गई।
कृष्णा सोबती विभाजन की पीड़ा को खुद झेलने और उसे प्रमाणिक रूप से अपनी रचनाओं में दर्ज करने वाली संभवत: विरली रचनाकार हैं। विभाजन पर कालजयी रचनाएं देने वाले के लिए उन्हें पहली कतार में रखा जाएगा। यशपाल का झूठा-सच, राही मासू रज़ा के आधा गांव और भीष्म साहनी के तमस के साथ-साथ कृष्णा सोबती का उपन्यास ‘जिंदगीनामा’ और ‘गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तान’ एक विशिष्ट उपलब्धि है। ‘सिक्का बदल गया’ सोबती जी की शुरूआती कहानियों में से एक है। आजादी और विभाजन के बाद संभवत: पहली कहानी है। 1979 में उनका उपन्यास जिंदगीनामा आया। जिस पर 1980 में उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया। उनका आखिरी उपन्यास 2017 में ‘गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तान’ आया, यह भी विभाजन से जुड़ा हुआ है। इससे पता चलता है कि विभाजन ने लेखिका को बहुत गहरे तक प्रभावित किया था।
भारत-पाक विभाजन 20वीं सदी की दक्षिण एशिया में हुई सबसे प्रमुख घटना थी। यह सदी की सबसे विध्वंसकारी घटनाओं में से एक थी। मानव इतिहास में इतने बड़े पैमाने पर लोगों का अपनी जड़ों से उखडऩा और उजडऩा संभवत: पहले नहीं हुआ होगा। उसके आंकड़े तो उपलब्ध नहीं हैं, लेकिन अनुमान के अनुसार डेढ़ करोड़ की आबादी का विस्थापन हुआ था। लाखों महिला, पुरूष, बच्चे जान से हाथ धो बैठे। बलात्कार सहित अनहोनी के डर में लड़कियों व महिलाओं ने कूओं में कूद कर जान दी। शरीर के घावों के साथ भावनात्मक चोट से आज भी लोग उबर नहीं पाए हैं। इतनी बड़ी त्रासदी पर कोई कलमकार व कलाकार चुप्पी कैसे साध सकता है। कृष्णा सोबती भी जैसे जीवन भर विभाजन की पीड़ा को मन में लिए अपना साहित्य सफर करती रही। उनकी रचनाएं उस त्रासदी की प्रमाणिक अभिव्यक्ति हैं। गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिन्दुस्तान एक आत्मकथात्मक शैली में लिखा गया उपन्यास है। इस उपन्यास के शुरू में लेखिका घोषित करती हैं कि उपन्यास के पात्र व घटनाएं सच और ऐतिहासिक हैं।
कृष्णा सोबती के पात्रों-मित्रो, साहनी, हशमत, नानबाईयों के मसीहा मियाँ नसीरूद्दीन सहित विभिन्न पात्रों को हमेशा याद रखा जाएगा। कृष्णा सोबती साहित्य में ही नहीं जीवन में भी गहरे सरोकार रखने वाली लेखक थीं। उन्होंने भारतीय लेखकों व सृजन को आगे बढ़ाने के लिए अपनी सारी जमापूंजी और दिल्ली के मयूर विहार इलाके का रिहायशी फ्लैट रज़ा फाउंडेशन के लिए दे दिया था। रज़ा फाउंडेशन के प्रशासक अशोक वाजपेयी का कहना है कि ऐसा कोई दूसरा लेखक नहीं जिसने दूसरे लेखकों व सृजन के लिए इतनी दरियादिली दिखाई हो। 2017 में उन्हें उत्कृष्ट लेखन के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। जीवन के आखिरी समय तक उन्होंने समसामयिक परिस्थितियों पर बेबाकी से अपनी राय रखी। 25 जनवरी, 2019 को वे अपना विस्तृत रचना संसार छोड़ कर दुनिया से विदा हुई।
अरुण कुमार कैहरबा
हिन्दी प्राध्यापक व स्तंभकार
वार्ड नं.-4, रामलीला मैदान, इन्द्री,
जिला-करनाल, हरियाणा
मो.नं.-9466220145
VIR ARJUN 25-01-2021


DAILY NEWS ACTIVIST 25-01-2021

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