चिंतन
नेत्रदान-देहदान करके अमर बनें जाते-जाते
अरुण कुमार कैहरबा
आज भी हमारा समाज अनेक प्रकार की भ्रांतियों में उलझा हुआ है। जन्म से लेकर मृत्यु तक अंधविश्वास और रूढिय़ां कितने ही मनुष्यों का पीछा नहीं छोड़ती हैं। मनुष्य को सर्वश्रेष्ठ प्राणी कहा गया है। निश्चय ही वह है भी। अपने विचारों, खोजों, आविष्कारों, कार्यों के जरिये वह विकास को नए आयाम देने में लगा हुआ है। दुनिया में आज जो भी तरक्की हम देख रहे हैं, वह मनुष्य की बल-बुद्धि व कार्यों का ही प्रताप है। इसके बावजूद मनुष्य की हठधर्मिता, पिछड़ेपन व रूढि़वादिता के कारण कितनी ही प्रकार की समस्याएं पैदा भी हुई हैं। जिस हवा, पानी, धरती, समाज के बिना मनुष्य का गुजारा नहीं है, विकास की अंधी दौड़ में उनको नुकसान पहुंचाने का आत्मघाती कार्य भी मनुष्य ही कर रहा है।मृत्यु अंतिम सत्य है। जो आया है, उसे मृत्यु को प्राप्त होना है। मृत्यु के बाद धर्मिक विश्वासों के अनुसार या तो देह को जला दिया जाता है या फिर उसे दफना दिया जाता है। जलाने और दफनाने के साथ और उसके बाद भी कितने ही रिवाज ऐसे हैं, जो परेशान करने वाले हैं। ये रिवाज परिजनों के लिए आत्मीय जन के जाने के दुख को बढ़ाने वाले होते हैं। मृत्यु भोज भी इन्हीं रिवाजों में से एक है। मृत्यु भोज की प्रथा को समाप्त करने के लिए अनेक समाज सुधारकों ने उपदेश दिए हैं। लेकिन लीक पर चलने के आदी हो चुके लोग इससे अलग कुछ सोचने को ही तैयार नहीं हैं।
जहां एक तरफ पशुओं का शरीर, दांत, हड्डियां और खाल भी मृत्यु के बाद मनुष्य के काम आता है, वहीं विकल्प होने के बावजूद मानव देह को मृत्युपरांत जला दिया जाता है। मानव शरीर के कितने ही अंग दूसरों के काम आ सकते हैं। अंधेरी दुनिया में जीवन यापन कर रहे कितने ही लोग नेत्रदान का इंतजार कर रहे हैं। यदि लोग मृत्यु के बाद नेत्रदान का ही संकल्प कर लें तो दुनिया भर में बहुत बड़ी आबादी कोर्निया ट्रांसप्लांट के बाद आंखों की रोशनी प्राप्त कर सकती है। आंखों के अलावा भी अन्य अंग मौत के बाद दूसरों के काम आ सकते हैं। मेडिकल छात्र-छात्राओं की शिक्षा व मेडिकल शोध के लिए भी स्वास्थ्य महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों व अस्पतालों को मानव देह की जरूरत होती है। मृत्यु से पहले देहदान का संकल्प करके हम देह को जलाने व दफनाने से भी बच सकते हैं। यह मानवता को बड़ी देन हो सकती है। लेकिन जाने क्यों हम अपने जीवन में इस बारे में गंभीरता से सोच नहीं पाते हैं।
‘जीते-जीते रक्तदान और मरने के बाद नेत्रदान व देहदान’ किसी भी प्रगतिशील व वैज्ञानिक ही नहीं धार्मिक होने का दिखावा करने वाले समाज का भी मूलमंत्र होना चाहिए। वैसे तो बहुत से लोग मृत्यु के बाद भी अपने साहित्य, कार्यों, विचारों व आविष्कारों के लिए याद किए जाते हैं और किए जाते रहेंगे। लेकिन देहदान व नेत्रदान भी अमरता का एक कारक हो सकता है। इस मार्ग में सबसे बड़ी दिक्कत यही है कि सामाजिक रूप से हमने सोचना या तो बंद कर दिया है या फिर इतना कम कर दिया है कि उसका निर्णायक असर नहीं होता है।
बहुत कम लोग ही व्यक्तिगत रूप से देहदान का संकल्प करते हैं। उन संकल्पों को पूरा करने के मार्ग में अनेक बाधाएं आन खड़ी होती हैं। इस मार्ग में कोरोना महामारी भी एक बड़ी बाधा बनी देखी गई। कुछ दिन पहले एक मित्र की माता जी का देहांत हो गया। उन्होंने मृत्युपरांत शरीर दान का संकल्प कर रखा था। हरियाणा के जिस मेडिकल कॉलेज में शरीर दान का संकल्प किया था, उनके चिकित्सा अधिकारियों से संपर्क किया गया तो उन्होंने कोरोना के कारण शरीर दान प्राप्त करने में असमर्थता जता दी। फिर माता जी की अंतिम इच्छा पूरी करने के लिए एक के बाद एक हरियाणा, पंजाब, चंडीगढ़ व दिल्ली के कईं मेडिकल कॉलेजों व विश्वविद्यालयों से संपर्क किया गया। लेकिन सभी ने शरीर प्राप्त करने से मना कर दिया। आखिर अनुरोध पर एक कॉलेज के अधिकारी शरीर दान प्राप्त करने के लिए आए तो मित्र को सुकून मिला। लेकिन वहीं अंतिम संस्कार के लिए उतावला आस-पास का समाज शोकाकुल परिजनों पर दबाव बनाए हुए था। ये क्या हो रहा है हमारे समाज को। समाज की सोच व विचारों को काठ तो नहीं मार गया है। शरीर दान करने वाले इंसान व परिवार के नेक कार्य के लिए समाज को उनका आभारी होना चाहिए। इसलिए भी कि शरीर दान करके उन्होंने समाज को नेकी की राह दिखाई। क्या इस पहलु पर हम चिंतन-मनन करने के लिए तैयार हैं?
PRAKHAR VIKAS 24-01-2021 |
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