Wednesday, June 11, 2014

विश्व बाल श्रम विरोधी दिवस (13जून) पर विशेष

स्कूल जाने की बजाय बोझा ढ़ोता बचपन

अरुण कुमार कैहरबा

खुशहाली और अच्छे दिनों की चर्चाओं के बीच पेट पालने के लिए बच्चों को मजदूरी करते देखना और अधिक परेशान करने वाला है। जिन नन्हें हाथों में कॉपी, पैंसिल व किताब होनी चाहिए थी, उन हाथों को कड़ा काम करते हुए हम जहाँ-तहाँ देख रहे हैं। चाय की दुकान या ढ़ाबों पर छोटू-छोटू कह कर उन्हें पुकारा जा रहा है। चाय का कप गिरने और टूटने पर दुकान का मालिक सबके सामने पिटाई करके उनकी गरिमा को आहत कर रहा है। यही नहीं गालियों व ‘निकम्मा’ आदि शब्दों से उसकी लानत-मलानत कर रहा है। ईंट भ_ों पर मिट्टी में सने बच्चे मिट्टी तोडऩे, गारा सानने, ईंटों में ढ़ालने और रेहड़ी या सिर पर ईंटों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जा रहे हैं। खेतों व घरों में काम करते बच्चों को बिना कुछ कहे देखने के आदी हो चुके हम यदि अपनी दृष्टि का विस्तार करें तो माचिस-बीड़ी बनाना, पटाखे बनाना, कालीन बुनना, वेल्डिंग करना, ताले बनाना, पीतल उद्योग, कांच उद्योग, हीरा उद्योग, पत्थर खदानों में, सीमेंट उद्योग व दवा उद्योग में बेहद कठिन व स्वास्थ्य के लिए खतरनाक स्थितियों में बच्चे काम कर रहे हैं। इनके अलावा भी कूड़ा बीनना व गन्दे नालों में हाथ डाल कर पॉलीथीन व प्लास्टिक इक_ी करते वे दिखाई देंगे। जिन मासूम बच्चों को स्कूल में खेलते हुए पढऩा चाहिए था, वे लाचारी में अपने हाथ फैलाए भीख माँग रहे हैं। इन बच्चों को शारीरिक व मानसिक प्रताडऩाएँ दी जा रही हैं। इनके लिए ना माँ की लोरियां हैं, ना पिता का दुलार, न खिलौने  हैं, ना स्कूल का आँगन है और ना ही वहाँ पर मनाया जाने वाला बाल दिवस। बीड़ी के अधजले टुकड़े की भाँति इन बच्चों को हम अनजाने नरक में फैंक कर खुशहाली व अच्छे दिनों की बातें करने में लगे हुए हैं। वाह खुशहाली, वाह अच्छे दिन।
    आँकड़ों की ही बात करें तो भारत में यह संख्या 2 करोड़ करोड़ के करीब है। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार तो लगभग 5 करोड़ बच्चे बाल श्रमिक हैं। इनमें से 19 प्रतिशत के लगभग घरेलू नौकर हैं, ग्रामीण और असंगठित क्षेत्रों में तथा कृषि क्षेत्र से लगभग 80 प्रतिशत जुड़े हुए हैं। लाचारी में बच्चों के अभिभावक भी बहुत थोड़े पैसों में उनको ऐसे ठेकेदारों के हाथ बेच देते हैं जो अपनी व्यवस्था के अनुसार उन्हें काम पर लगा देते हैं। कईं बार उनसे थोड़ा खाने को देकर मनमाना काम कराया जाता है। 18 घंटे या उससे भी अधिक काम करना, आधे पेट भोजन और मनमाफिक काम न होने पर पिटाई से वे नारकीय जीवन जीने को मजबूर हैं। फैक्ट्री के खतरनाक वातावरण व धूल-धूआँ बच्चों की साँसों में घुल रहा है। मुनाफे की होड़ में लगे पूंजीपतियों की फैक्ट्रियों व कार्यस्थलों पर काम करते हुए दुर्घटनाएँ होना आम बात है, जिसमें बच्चों को आँखें व शरीर के अन्य अंग गँवाने पड़ रहे हैं। जहरीली गैसों से बच्चे घातक रोगों-फेफड़ों का कैंसर, टी.बी.आदि का शिकार बन रहे हैं। भरपेट भोजन व नींद न मिलने से शारीरिक दुर्बलताएँ व खून की कमी सहित नन्हें बच्चों की अनगिनत समस्याएँ हैं।
    बच्चे किसी भी देश का भविष्य होते हैं। इन बच्चों के विकास पर ही देश की तरक्की निर्भर करती है। यदि देश की आबादी में शुमार करोड़ों बच्चे बाल श्रम की भ_ी में झोंक दिए जाएँगे, तो भला कैसे हम उज्ज्वल भविष्य का निर्माण कर सकते हैं? आज़ादी के 67वर्षों के इतिहास में हमारे राजनेताओं ने वोट हासिल करने के लिए नारे उछाले और वादे किये। सत्ता हासिल करने के बाद भी काम करने की बजाय जहाँ तक हो सका लच्छेदार भाषणों से लोगों का पेट भरने की कोशिशें करते रहे। काम किया तो कारपोरेट घरानों को खुश करने के लिये। ताकतवर वर्ग का जिस कानून से अहित हो या सत्ताधारियों पर जिम्मेदारी तय हो, वह कानून या तो बनाया नहीं गया या उसे नख-दंत विहीन रख दिया गया। भारतीय संविधान के समता, न्याय एवं जनकल्याण जैसे मूल्यों को भी लगातार कमजोर किया गया है। ऐसा नहीं है कि बाल श्रम रोकने के लिए कोई कानून नहीं बनाया गया हो। भारतीय संविधान ने बाल मजदूरी को प्रतिबंधित किया है। संविधान की धारा 24 के अनुसार 14साल से कम उम्र का कोई भी बच्चा किसी फैक्टरी या खदान में काम करने के लिए नियुक्त नहीं किया सकता और न ही किसी अन्य खतरनाक नियोजन में नियुक्त किया जा सकता। फैक्टरी कानून 1948 के द्वारा भी 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों को काम पर लगाया जाना निषिद्ध किया गया। इसके बाद बाल श्रम निषेधकानून 1986 के अंतर्गत दोषी व्यक्ति को दस हज़ार से बीच हज़ार रुपये के अर्थदंड सहित एक वर्ष की सजा का भी प्रावधान किया गया। मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 बनाकर छह से 14वर्ष तक के बच्चों को शिक्षा का अधिकार दिया गया। मध्याह्न भोजन योजना के माध्यम से स्कूलों में आठवीं तक के सभी बच्चों के लिए पोषक भोजन की व्यवस्था की गई। इसी  प्रकार समेकित बाल विकास परियोजना के तहत आंगनवाडिय़ों में छह वर्ष तक के सभी बच्चों के लिए पोषाहार की व्यवस्था की गई। लेकिन समस्या की जड़ गरीबी और गैर-बराबरी पर शिद्दत से प्रहार नहीं किया गया।
    बाल मजदूरी की बात करें, तो आम समाज ने भी बाल अधिकारों के हनन के दृश्य उदासीनता भरी निगाहों से देखने के अलावा कुछ नहीं किया। हमें अपने घर के बच्चे अपने बच्चे लगते हैं। दूसरों के बच्चे दूसरों के लगते हैं। हमें सभी बच्चे देश के बच्चे नहीं लगते। लड़कियों को पराया धन मानने वाले लोग बच्चों के प्रति एक सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाते हुए उनके शिक्षा, स्वास्थ्य व पोषण के अधिकार पर कोई सकारात्मक हस्तक्षेप कर पाएंगे, इसकी उम्मीद भला कैसे की जा सकती है? अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन ने बाल श्रम और बाल अधिकारों के प्रति पूरी दुनिया में जागरूकता लाने के मकसद से 2002 में 12जून को विश्व बाल श्रम प्रतिषेध दिवस मनाए जाने की शुरूआत की थी। इस वर्ष बाल मजदूरी के उन्मूलन के लिए सामाजिक सुरक्षा को मुख्य विषय बनाया गया है। सामाजिक सुरक्षा हर एक बच्चे का मानवाधिकार है और यह गरीबी, असमानता, सामाजिक अलगाव और असुरक्षा को रोकने के लिए बेहद जरूरी है। बाल मजदूरी की त्रासदी से देश व दुनिया को मुक्ति दिलाने के लिए जहाँ सरकारी स्तर पर ठोस उपाय किए जाने चाहिएं व सामाजिक पहलकदमियाँ भी की जानी चाहिएं।

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