Monday, April 16, 2012

NARESH NARAYAN


समाज परिवर्तन के लिए नाटक को बनाया जीवन लक्ष्य। रंगकर्मी नरेश नारायण गांव-गांव में जगा रहे हैं नाटक की अलख। नुक्कड़ नाटक के जन्मदाता सफ़दर हाश्मी के सपने का चाहते हैं करना पूरा।
अरुण कुमार कैहरबा
नाटक हम दिखाएंगे, दुनिया नई बनाएंगे। यही जज्बा लेकर रंगकर्मी नरेश नारायण गांव-गांव जाकर नाटकों के प्रदर्शन व निर्देशन द्वारा अपने सांस्कृतिक अभियान में लगे हुए हैं। शौकिया तौर पर नुक्कड़ नाटकों से किए नाटकों ने उनकी जीवन दिशा ही बदल दी है। वे नुक्कड़ नाटक के जन्मदाता सफदर हाश्मी के गांव-गांव में नाटक टीम बनाने के सपने को पूरा करने के लिए अपने अभियान में लगे हुए हैं।
करनाल में चल रहे साक्षरता अभियान के तहत नीलोखेड़ी में 2002 में हरियाणा ज्ञान विज्ञान समिति के सहयोग से साक्षरता के प्रचार-प्रसार और सामाजिक बुराईयों के विरूद्ध आंदोलन छेडऩे के उद्देश्य से नुक्कड़ नाटक प्रोडक्शन कार्यशाला का आयोजन किया गया था। कार्यशाला में उपमंडल के छोटे से गांव कैहरबा के नरेश नारायण ने हिस्सा लिया था। कार्यशाला के दौरान खण्ड इन्द्री के अन्य अनेक युवाओं व बच्चों की नुक्कड़ नाटक के जन्मदाता सफदर हाश्मी के नाम पर नाटक टीम का निर्माण किया गया। हरियाणा ज्ञान विज्ञान समिति के सांस्कृति
संयोजक नरेश प्रेरणा व जन नाट्य मंच कुरूक्षेत्र के संयोजक केशव व स्नेहा के निर्देशन में सफदर नाटक टीम ने हरियाणा के समाज में महिलाओं की स्थिति पर आधारित नाटक एक नई शुरूआत तैयार किया। नरेश के अनुसार कार्यशाला के दौरान ही उसके अंदर रूपांतरण की प्रक्रिया शुरू हुई।
इसके बाद गांव-गांव जाकर नाटक करने का सिलसिला शुरू हुआ। गांव में जहां भी सफदर टीम जाती तो गली-गली घूम कर तालियां बजाते हुए नाटक हम दिखाएंगे, दुनिया नई बनाएंगे तथा सुनो कि नाटक बोलता है, भेद सबके खोलता है जैसे नारे लगा कर लोगों को इक_ा करते और सीधे लोगों से रूबरू होते हुए नाटक का मंचन करते। लडक़े और लड़कियों के द्वारा कईं हृदयस्पर्शी और मार्मिक संवादों और अभिनय के ज़रिये लड़कियों की समानता, महिला सशक्तिकरण, परिवार व पंचायतों के लोकतांत्रिकरण के मुद्दे उठाए जाने पर अक्सर समाज के प्रगतिशील लोगों के द्वारा कलाकारों की पीठ थपथापाई जाती तो कईं लोग लडक़े-लड़कियों के एक साथ नाटक करने को अलग नजर से देखकर आलोचना भी करते। इसके बाद मैं नदी आंसू भरी, बच्चे कहां हैं, हम लेंगे ऐसे बदला, लडक़ी पढक़र क्या करेगी, मुंशी प्रेमचंद की कहानी बड़े भाई साहब व सद्गति जैसी कहानियों के रंगमंच के द्वारा यह सिलसिला चलता ही जा रहा है।
नरेश नारायण ने बताया कि उसके बाद उन्होंने नाट्य विधा में ही अपनी प्रोफेशनल कोर्स किया। इस दौरान उन्हें अनेक नामी कलाकारों के साथ भी काम करने का मौका मिला। नरेश दिल्ली में बिगुल नाटक टीम, हरियाणा में शहीद सोमनाथ नाट्य मंच, हरियाणा ज्ञान विज्ञान समिति के साथ मिल कर काम कर रहे हैं। क्षेत्र में अनेक गांवों व स्कूलों में भी नाटकों के निर्देशन में उन्होंने योगदान किया है। नरेश का कहना है कि उन्होंने अनेक स्टेज नाटक भी किए हैं लेकिन सबसे ज्यादा संतुष्टि उन्हें नुक्कड़ नाटक करके मिलती है। उन्होंने कहा कि सफदर हाश्मी, जिनके जन्म दिन 12 अप्रैल को राष्ट्रीय नुक्कड़ नाटक दिवस के रूप में मनाया जाता है, गांव-गांव, शहर-शहर की गली-गली में नुक्कड़ नाटक की टीमें बनाने का सपना देखा था, उसी सपने को पूरा करने के लिए अनेक साथियों के साथ काम कर रहे हैं।


GARHPUR TAPU - VILLAGE


यमुना क्षेत्र के गढ़पुर टापू गांव में लगा है समस्याओं का अंबार। बरसों पहले यमुना की बाढ़ से घिरा होने के कारण छुरियां गढ़पुर का नाम पड़ा था गढ़पुर टापू। गांव के मुस्लिम समुदाय में एक लडक़ी भी नहीं है दसवीं पास। गांव में निकासी व्यवस्था की हालत खराब।
अरुण कुमार कैहरबा
विकास के सरकारी दावों के बावजूद जिला करनाल के इन्द्री उपमंडल के यमुना क्षेत्र में बसे गांव गढ़पुर टापू में बुनियादी सुविधाओं का अकाल है। अल्पसंख्यक मुस्लिम बहुल गांव में समस्याओं का अंबार लगा हुआ है, जिससे गांव शिक्षा, स्वच्छता व स्वास्थ्य के मामले में अत्यधिक पिछड़ा हुआ है। आक्रोशित ग्रामीणों का आरोप है कि सरकार व प्रशासन उनके गांव के प्रति उदासीनता का बर्ताव कर रहा है।
उत्तर प्रदेश व हरियाणा की सीमा पर स्थित यमुना नदी क्षेत्र में स्थित गांव गढ़पुर टापू लंबे समय तक बाढ़ की जद में रहा है। यह गांव बरसों पहले छुरियां गढ़पुर नाम से जाना जाता था। आज भी बहुत से लोग इसे इसी नाम से जानते हैं। लेकिन बाद में गांव का नाम गढ़पुर टापू पड़ा, जिसे आज भी इसी नाम से जानते हैं। ग्रामीणों का कहना है कि बाढ़ के पानी से चारों ओर से घिरा होने के कारण गांव के नाम के साथ टापू शब्द जोड़ा गया है। बाढ़ की समस्या से निजात दिलाने के लिए सरकार द्वारा तटबंध के रूप में पटड़ी का निर्माण करवाया गया। गांव में करीब 8सौ की आबादी रहती है, जिसमें अधिकतर आबादी मुस्लिम समुदाय के लोगों की है। इसके अलावा गड़रिया, हरिजन व बाल्मिकी समुदाय के भी कुछएक परिवार हैं।
गांव में अनेक समस्याएं मुंह बाए खड़ी हैं। गांव की सबसे बड़ी समस्या पेयजल की है। गांव में जन स्वास्थ्य विभाग द्वारा बनाया गया जल घर सफेद हाथी बना हुआ है। ग्रामीणों का कहना है कि जल घर को कभी-कभी ही चलाया जाता है। जिससे लोग पेयजल के लिए नलकों के शोरायुक्त दूषित पानी पर निर्भर रहते हैं। गांव में निकासी व्यवस्था भी खराब है। गांव में घुसते ही क्षतिग्रस्त और गंदगी से अटे पड़े नाले के दर्शन होते हैं। एक स्थान से तो नाले के पास सडक़ बुरी तरह से टूटी हुई है। सडक़ पर बना गड्ढ़ा हर समय हादसे को न्यौता देता रहता है। एक अन्य स्थान पर आरसीसी सडक़ के नीचे चार-चार फुट मिट्टी खत्म हो चुकी है और सडक़ हवा में लटक रही है। गांव की गलियों में लोगों ने अपनी बुग्गियां खड़ी कर रखी हैं और गलियों के साथ ही उपले पाथ रखे हैं। पूरी तरह से चौपट हो चुकी सफाई व्यवस्था के कारण गांव में बिमारियों का आलम है, लेकिन बीमारों के इलाज के लिए गांव में कोई सुविधा नहीं है। गांव से दस किलोमीटर पर गांव का प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र स्थित है।
गांव में एक अदद राजकीय प्राथमिक स्कूल है, जिसकी चार दिवारी तक नहीं है। स्कूल में 150 विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करते हैं लेकिन स्कूल में केवल तीन अध्यापक हैं। स्कूल के गेट पर लोगों के द्वारा अपने पशुओं को बांधा जाता है। यमुना क्षेत्र में उच्च शिक्षा संस्थान नहीं होने के कारण गांव के बच्चे आगे पढऩे से वंचित हो रहे हैं। गांव के मुस्लिम समुदाय में तो एक भी लडक़ी दसवीं तक भी नहीं पहुंच पाई है। स्कूल के अध्यापक देवी शरण से बात की गई तो उन्होंने बताया कि जागरूकता की कमी के कारण स्कूल से ड्रॉप आऊट भी अधिक होता है। उन्होंने कहा कि मुस्लिम समुदाय में लड़कियों की शिक्षा के प्रति जागरूकता बढ़ाने के प्रयास किए जा रहे हैं। गांव में रहने वाला कोई व्यक्ति सरकारी नौकरी में भी नहीं है, केवल आंगनवाड़ी कार्यकर्ता को छोडक़र। ग्रामीण नूरहसन का कहना है कि गांव में आने-जाने के लिए बस सुविधा की तो बात क्या करें, गांव में पहुंचने वाली सडक़ों की हालत भी खस्ता है। उन्होंने कहा कि लबकरी के पास सडक़ में पानी भरा हुआ है। इसी प्रकार गढ़ीबीरबल से आने वाले रास्ते की भी हालत संतोषजनक नहीं है।
गांव में आंगनवाड़ी है लेकिन बच्चों के बैठने के लिए सुविधा सम्पन्न भवन नहीं है। गांव में तीन चौपालें हैं लेकिन तीनों की हालत बेहद खस्ता है। यहां पर गंदगी का आलम रहता है। चौपालों की दुर्दशा के चलते जब गांव में कोई शादी-विवाह होता है तो ग्रामीण स्कूल के भवन का इस्तेमाल करते हैं, जिससे स्कूल की छुट्टी करनी पड़ जाती है।
इस बारे में नम्बरदार दलबीर सिंह ने रोष के स्वर में कहा कि सरकार व प्रशासन ने गांव को रामभरोसे छोड़ रखा है। गांव की सरपंच नियाजन व उनके पति रिजवान का कहना है कि उनके गांव की पंचायत में करतारपुर गांव भी आता है। गांव के पास आमदनी के साधन सीमित हैं। दो गांव की पंचायत होने के कारण समस्या आती है। समस्याओं के बारे में अधिकारियों को सूचित करवाते रहते हैं।

Monday, April 9, 2012

INDRI-YAMUNA BELT


विकास की नदियां बहाने के सरकारी दावे यमुना नदी के किनारे हुए खोखले। बाढ़ ग्रस्त क्षेत्र के दर्जनभर गांव में नहीं है कोई सरकारी उच्च विद्यालय। बस सेवा के अभाव में क्षेत्र शिक्षा में पिछड़ा। आज तक कोई भी लडक़ी स्नातक स्तर तक नहीं पहुंची।
अरुण कुमार कैहरबा
प्रदेश में विकास की नदियां बहा देने के सरकारी दावे यहां यमुना नदी के किनारे स्थित दर्जन भर गांव में खोखले हो रहे हैं। शिक्षा का अधिकार अधिनियम के लागू कर दिए जाने के बावजूद यमुना नदी के साथ लगते सामाजिक-आर्थिक रूप से पिछड़े गांवों में आज तक कोई सरकारी हाई स्कूल नहीं है। ऊपर से बस सेवा के अभाव में बच्चों को कईं किलोमीटर की दूरी पर स्थित स्कूल जाने में भारी मुसीबतों का सामना करना पड़ रहा है। सुविधाएं नहीं होने से यह क्षेत्र शिक्षा के मामले में पिछड़ता जा रहा है। यही कारण है कि इन अति पिछड़े गांवों से शायद कोई भी लडक़ी स्नातक स्तर तक नहीं पहुंच पाई है।
खण्ड के गांव डेरा सिकलीगर, नबियाबाद, जपती छपरा, सैय्यद छपरा, जपती छपरा सिकलीगरान, न्यू हलवाना, नगली, कमालपुर, सिकन्दरपुर व रंदौली उत्तर प्रदेश की सीमा से सटे हुए हैं। ये गांव यमुना नदी के किनारे पर पड़ते हैं तथा बाढ़ के क्षेत्र में आते हैं। सरकार की उपेक्षा के कारण इन गांवों में सुविधाओं का अकाल है। गांव डेरा सिकलीगर, रंदौली व सैय्यद छपरा में मिडल स्कूल हैं। लेकिन अध्यापकों व अन्य सुविधाओं के मामले में इन स्कूलों की स्थिति अत्यंत दयनीय है। घुमंतु सिकलीगर जाति के गांव डेरा सिकलीगर के स्कूल का प्रांगण बहुत ही छोटा है। इस प्रांगण में प्राथमिक स्कूल के सात सौ से अधिक बच्चों के साथ ही मिडल कक्षाओं के बच्चे भी शिक्षा प्राप्त करते हैं। इस स्कूल में स्कूल संचालन की जमीन सहित बुनियादी सुविधाओं का टोटा है। मुस्लिम अल्पसंख्यक समुदाय बहुल गांव सैय्यद छपरा के मिडल स्कूल में केवल एक अध्यापक है। रंदौली के स्कूल में शिक्षकों का अभाव है। गांवों में स्थित प्राथमिक स्कूलों की हालत भी कोई अच्छी नहीं है। लगभग सभी स्कूलों में शिक्षकों की किल्लत है। स्कूलों में प्रत्येक कक्षा को न्यूनतम एक अध्यापक भी नसीब नहीं हो रहा है।
इन गांवों में एक भी सरकारी हाई स्कूल नहीं है। जिससे गांवों के बच्चों को उच्च शिक्षा हासिल करने में भारी मुसीबतों का सामना करना पड़ रहा है। स्थिति तब और अधिक विकट हो जाती है जब गरीबी से जूझते इन गांवों के बच्चों को स्कूल जाने के लिए कोई सुविधा नहीं मिल पाती है। देश की आजादी के 60 से अधिक वर्ष गुजरने के बावजूद आज तक इन गांवों में सरकारी परिवहन सेवा नहीं है। बस सेवा नहीं होने से गांव के बच्चों को पैदल या फिर साईकिल पर कईं किलोमीटर दूर स्थित स्कूल में पहुंचना पड़ता है। दूरी के कारण कईं मां-बाप अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेज पाते हैं। अपने गांव में शिक्षा हासिल करने के बाद सुविधाओं के अभाव में खासतौर से लड़कियों की शिक्षा पर रोक लग जाती है।
सामाजिक कार्यकर्ता भजन सिंह पटवा, शोभा सिंह, ललित कुमार, सुरेश कुमार, सुलेखचंद, सुरजीत, मनोज कुमार, शमीम अब्बास, रज़ा अब्बास, जिन्दा हसन व शेर सिंह सहित अनेक लोगों ने गांव में शिक्षा की सुविधाएं प्रदान करने की मांग की है।
क्या कहते हैं जनप्रतिनिधि:-गांव डेरा हलवाना के सरपंच गुलाब सिंह, पंचायत समिति सदस्य गुलाब सिंह, सैय्यद छपरा के सरपंच ज़हीर अब्बास, रंदौली की सरपंच परमजीत कौर व नागल की सरपंच मंजू देवी ने कहा कि सुविधाओं के अभाव में हालात भयावह हैं। शीघ्र ही सरकार को यमुना बैल्ट में सरकारी वरिष्ठ माध्यमिक स्कूल व उच्च शिक्षण संस्थान खोल कर विकास की राह खोलनी चाहिए।

Tuesday, April 3, 2012

MURADGARH-VILLAGE



पांच सौ वर्ष पहले मोरों की अधिकता के कारण ‘मोरगढ़’ से बिगड़ कर मुरादगढ़ गांव बसा। सामाजिक समरसता और हिन्दू-मुस्लिम भाई चारे की मिसाल पेश कर रहा है गांव। हिन्दू लोग मुस्लिम बहन का भात भरने के लिए पटड़े पर चढ़े। स्वाधीनता संग्राम में यहां के आर्य समाजियों ने जगाई आजादी की अलख।
अरुण कुमार कैहरबा
करीब 500 साल पहले घने पेड़ों के झुरमुट में मोरों के नर्तन के बीच कुछ लोग रहने लगे। उन्होंने मोरों की अधिकता के कारण इस स्थान का नाम रखा मोरगढ़। मोरगढ़ शब्द बदलते-बदलते मुरादगढ़ बन गया। इन्द्री से केवल तीन किलोमीटर दूरी पर बसा यह गांव अंग्रेजों की दासता के खिलाफ स्वाधीनता संग्राम में भागीदारी और सामाजिक समरसता व हिन्दू-मुस्लिम भाईचारे का समृद्ध इतिहास अपने अंदर समेटे हुए है। गांव के हिन्दू भाईयों ने मुस्लिम लडक़ी के विवाह पर भात भरने के लिए पटड़ पर चढ़ते हुए हिन्दु-मुस्लिम भाईचारे की अद्भुत मिसाल कायम की। गांव के गरिमापूर्ण इतिहास और पूर्वजों द्वारा स्थापित किए गए जीवन मूल्यों पर आज भी ग्रामीणों को गर्व है।
आजादी की लड़ाई के दौरान मुरादगढ़ गांव के आर्य समाजी फूल सिंह, राम सिंह, लीलू भगत सहित दर्जनों की संख्या में लोग दिन-रात एक करके पैदल गांव-गांव जाकर लोगों लोगों में आजादी की अलख जगाते थे। सन् 1930 और 1940 के दशक में आजादी प्राप्ति की लहर पूरे यौवन पर थी। उधर अंग्रेजी सरकार के देशी और विदेशी गुर्गे भी आजादी के परवानों की गतिविधियों पर नजऱ रखते थे। उस समय गांव मुरादगढ़ के आर्य समाजी चोरी-छिपे गांव से निकलकर अपनी कार्रवाई को अंजाम देते थे। गांव में शहीद भगत सिंह, सुभाष चंद्र बोस, शहीद उधम सिंह, राजगुरू, सुखदेव व चंद्रशेखर आजाद जैसे क्रान्तिकारियों तथा महात्मा गांधी के विचार देशी भाषा में लोगों तक पहुंचाने की होड़ लगी थी।
गांव के नामकरण के सम्बन्ध में पूर्व सरपंच मुन्ना लाल, मान सिंह काम्बोज, नरेश कुमार, रामकिशन फौजी, जोगिन्द्र सिंह व नाथीराम बताते हंै कि यह गांव लगभग 500 वर्ष पुराना है। जहां गांव बसा हुआ है वहां घना जंगल हुआ करता था, जिसमें मोरों की संख्या बहुत अधिक थी। इसी कारण इस गांव का नाम मोरगढ़ पड़ा तथा बाद में अपभ्रंश होकर यह गांव मुरादगढ़ के रूप में अस्तित्व में आया।
यह गांव सामाजिक समरसता और साम्प्रदायिक सौहार्द में अन्य गांवों के लिए मिसाल है। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर दृष्टिपात करने से पता चलता है कि भारत-पाकिस्तान विभाजन के दौरान मारकाट के समय इस गांव के लोगों ने गांव में रह रहे एक मात्र मुसलमान परिवार की ना केवल जान बचाई बल्कि परिवार को पूरा संरक्षण भी दिया। एक अजीब दास्तान और साम्प्रदायिक सौहार्द की अनुकरणीय मिसाल पेश करने वाले इस गांव के बारे में मुन्ना लाल बताते है कि आजादी से पहले गांव में मखमुल्ला नामक मुसलमान परिवार रहता था। मारकाट के समय जब यूपी के कुछ हिन्दु लोगों ने मुसलमानों को मारने के लिए गांव पर चढ़ाई कर दी। उस वक्त गांव के लोगों ने आपसी भाईचारे का परिचय देते हुए मखमुल्ला का नाम मोलू राम और उनकी लडक़ी $फीजन का नाम सुनहरी देवी रख दिया। उससे पहले $फीजन का निकाह घरौंडा के गांव बाबरपुर निवासी मजीद के साथ होना निश्चित हो चुका था। मारकाट के दौरान मजीद पाकिस्तान चला गया।
कुछ समय बाद जब मजीद भारत आया तो वह अपने गांव बाबरपुर न जाकर मुरादगढ़ गांव में आया और गांव के लोगों को $फीजन के साथ हुए रिश्ते की बात बताई। $फीजन के भाईयों ने मना कर दिया तथा कहा कि वे शादी में शामिल होकर भात भरने की सामाजिक जिम्मेदारी नहीं निभाएंगे। $फीजन के पिता शादी के हक में थे। ऐसे में भात भरने की रस्म कौन निभाता। गांव के लोगों ने मिलकर फैसला लिया और $फीजन को गांव की बेटी मानते हुए लोग भाती बनकर पटड़े पर चढ़े। गांव के लोगों की साम्प्रदायिक सौहर्द की यह पहल उस समय चर्चा का विषय बन गई थी। आज भी लोग हिन्दू-मुस्लिम भाईचारे इस मिसाल का व्याख्यान करते नहीं थकते। $फीजन का परिवार आज भी गांव में सद्भावना के साथ रहते हंै।
आज यह गांव धनधान्य की दृष्टि से काफी समृद्ध है। काम्बोज बिरादरी बहुल इस गांव में सभी जातियां सौहार्द के साथ रहती हैं। गांव की कुल आबादी लगभग 2800 है। मतदाताओं की संख्या लगभग 1500 है। ग्राम पंचायत के पास 80 एकड़ जमीन है। गांव का कुल रकबा 6 हजार बीघे का है। बेशक यह गांव आदर्श गांव की श्रेणी में नहीं लेकिन इस गांव में आदर्श गांव जैसी सुविधा लोगों ने अपनी मेहनत से तैयार की है। गांव की सभी गालियां, नालियां, फिरनी व रास्ते पक्के हैं लेकिन गांव में जाने वाली सडक़ की हालात बहुत दयनीय है। जमीन के नीचे का जल स्तर लगभग 45 फुट है। पानी सिंचाई के लिए उपयुक्त है और जमीन उपजाऊ होने के कारण छोटी जोत के किसान भी बेहतर तरीके से अपने परिवार का पालन पोषण कर रहे हंै तथा अपने बच्चों को उच्च शिक्षण संस्थानो में शिक्षा दिलवा रहे हंै। लोगों का रहन-सहन और खान-पान का स्तर भी उम्दा है। गांव में दसवीं तक का स्कूल है। उच्च शिक्षा के लिए गांव के बच्चे शहीद उधम सिंह राजकीय महाविद्यालय इन्द्री, करनाल और कुरूक्षेत्र में पढऩे के लिए जाते हैं। गांव में कन्या भू्रण हत्या जैसी सामाजिक बुराई नहीं है। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि गांव में लडक़े और लड़कियों की संख्या लगभग बराबर है। गांव के जोहड़ मत्स्य पालन के लिए ठेके पर दिये जाते हंै। सहकारी बंैक, पशु चिकित्सालय, आंगनवाड़ी केंद्र, सामुदायिक केंद्र, वृद्धाश्रम व मंदिर गांव की शोभा बढ़ाते हैं। गांव के लगभग 20 लोग सरकारी तथा गैर सरकारी सेवाओं में हैं। स्वच्छता की दृष्टि से भी गांव अग्रिम है। गांव के हर घर में शौचालय है। इन्दिरा आवास योजना के तहत भी गांव में मकान बनाये गये हंै। गांव के अधिक तर किसान दलहन, तिलहन, लहसुन, सब्जियों और गन्ने की खेती करते हंै। कुछ किसान औषधीय अजवायन की खेती में भी हाथ आजमा रहे हंै।

SIKANDERPUR-VILLAGAE

यमुना की बाढ़ से उजड़ता-बसता रहा है गांव सिकंदरपुर। विकास की दौड़ में पिछड़ा गांव शिक्षा की रोशनी से हुआ जगमग। युवाओं के सरकारी नौकरी पाने से खुशी का माहौल। अमित शर्मा का एयरफोर्स में हुआ चयन।
अरुण कुमार कैहरबा
यमुना की बाढ़ के चलते बरसों पहले उजड़-उजड़ कर बसा गांव सिकंदरपुर विकास के मामले में पिछड़ा होते हुए भी शिक्षा की रोशनी से जगमग होने लगा है। गांव की बसाहट के बरसों बाद अब गांव के युवा पढऩे लिखने के बाद सरकारी नौकरियों में जगह पा रहे हैं। कुछ दिन पूर्व ही जब अमित शर्मा का एयरफोर्स में चयन हुआ, तो गांव में खुशी का माहौल पैदा हो गया। हालांकि गांव के अधिकतर पढ़े-लिखे युवा अपनी उपलब्धि का श्रेय गांव के राजकीय प्राथमिक स्कूल के अध्यापक विजेन्द्र कुमार को देते हैं, जिन्होंने लगातार 14 वर्षों तक गांव में रहते हुए अपनी निष्ठापूर्वक सेवाएं दी। दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि इस स्कूल में अब गांव लोग अपने बच्चों को पढ़ाने से कन्नी काट रहे हैं। यही कारण है कि गांव के स्कूल में पढऩे के लिए पड़ौसी गांव के बच्चे जाते हैं।
यमुना के साथ लगता छोटा-सा गांव सिकंदरपुर बरसों पूर्व यमुना की बाढ़ के चलते उजड़ता-बसता रहा है। ग्रामीणों के अनुसार करीब सौ वर्ष पूर्व एक बार नजदीकी गांवों के लोगों के साथ जमीनी झगड़े की वजह से भी गांव को उजडऩा पड़ा था। गांव में करीब 20 घर व सौ वोट हैं। इनमें 10 परिवार ब्राह्मण, 8 जाट, एक परिवार रोड़ और एक बैरागी समुदाय से संबंधित है। गांव के सभी लोगों के पास जमीन है, लेकिन जमीन यमुना क्षेत्र में है। यमुना की बाढ़ हर वर्ष खेती को तबाह कर देती है, जिससे लोगों का जीवन तंगी में गुजर रहा है। यह गांव बदरपुर, बीबीपुर ब्राह्मणान, रंदौली व नगली गांव के साथ लगता है, लेकिन गांव कलसौरा पंचायत का हिस्सा है। इससे यहां के लोगों को पंचायत के काम से कलसौरा में जाने में दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। ग्रामीणों का यह भी आरोप है कि पंचायत द्वारा कोई योगदान नहीं किए जाने के कारण गांव विकास की दौड़ में पिछड़ता जा रहा है।
सिकंदरपुर में पढ़े-लिखे युवाओं के सरकारी नौकरियों में आने के बाद अब रोशनी की किरण जगी है। करीब दो वर्ष पूर्व गांव के जोगिन्द्र शर्मा स्वास्थ्य विभाग में ओटीए नियुक्त होने वाले गांव के पहले सरकारी नौकरीपेशा हुए। इसके बाद युवक सुरजीत प्राथमिक अध्यापक नियुक्त हुए। दो महीने पहले जब गांव में आंगनवाड़ी बनी तो गांव की युवती पूनम इसमें आंगनवाड़ी अध्यापिका तैनात हुई। एक सप्ताह पूर्व गांव के होनहार युवक अमित शर्मा पुत्र बलवान की एयरफोर्स में तैनाती हुई, गांव में उत्सव का माहौल पैदा हो गया। इस खुशी में सारे गांव के लोगों ने एक ही स्थान पर खाना खाया व खुशी मनाई। सामाजिक कार्यकर्ता सुरेन्द्र शर्मा, जसविन्द्र, नम्बरदार वेदप्रकाश, उषा रानी ने बताया कि गांव के युवाओं के सरकारी नौकरी में स्थान बनाना बड़ी उपलब्धि है। इसका सारा श्रेय गांव में कईं सालों तक निष्ठा के साथ पढ़ाने वाले अध्यापक विजेन्द्र को जाता है। युवाओं का कहना है कि शिक्षा के मामले में बेहद पिछड़े इस गांव के लोगों को उन्होंने पढ़ाई का महत्व समझाया। ऐसे अध्यापक यदि सारे स्कूलों में हों तो कोई भी गांव तरक्की कर सकता है।
ग्रामीणों का कहना है कि गांव में आज भी कोई लडक़ी स्नातक नहीं है। आंगनवाड़ी कार्यकर्ता पूनम के अलावा सुनीता, ममता व रेखा बारहवीं पास हैं। गांव के मुख्य मार्ग से दूर होने और क्षेत्र में उच्च शिक्षा संस्थान नहीं होने के कारण लड़कियां उच्च शिक्षा से वंचित हैं। लेकिन आज गांव के सभी बच्चे स्कूल में पढ़ते हैं। लेकिन सरकारी स्कूल के अध्यापक को शिक्षा की अलख जगने का श्रेय देने वाले इस गांव के प्राथमिक स्कूल में गांव लोग अपने बच्चों को पढ़ाने से कन्नी काटने लगे हैं। यही कारण है कि गांव के स्कूल में अधिकतर नजदीकी गांव हलवाना के सिकलीगर समुदाय के बच्चे पढऩे आते हैं।
गांव के सबसे वरिष्ठ नागरिक बलवंत सिंह, समाजसेवी सुरेन्द्र शर्मा, एमएससी जसबीर, बीटेक अमित, प्रवीन व सतीश ने बताया कि सिकंदरपुर गांव के विकास का मार्ग तभी प्रशस्त होगा, जब गांव की अलग पंचायत बनाई जाएगी या फिर इसे नजदीकी पंचायत में जोड़ा जाएगा।