भारत की सांझी सांस्कृतिक विरासत
बहुत व्यापक है भारत का सांस्कृतिक कैनवास: डॉ. एम.एच. कुरेशीकहा: महत्वपूर्ण है संस्कृति और प्रकृति का रिश्ता
संगोष्ठी में साहित्य, संस्कृति और इतिहास के विद्वानों ने किया विचार-मंथन
अरुण कुमार कैहरबाडॉ. ओमप्रकाश ग्रेवाल अध्ययन संस्थान, कुरुक्षेत्र द्वारा भारत की सांझी सांस्कृतिक विरासत पर ऑनलाइन संगोष्ठी का आयोजन किया गया। संगोष्ठी में मुख्य वक्ता के रूप में जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय सीएसआरडी के पूर्व प्रोफेसर डॉ. एम. एच. कुरेशी ने मुख्य वक्ता के रूप में बोलते हुए प्रकृति और संस्कृति, भाषा और संस्कृति और भारत की संस्कृति की विविधता आदि को केन्द्र में रखते हुए विस्तार से अपने विचार व्यक्त किए। संगोष्ठी की अध्यक्षता कुुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय इतिहास विभाग के पूर्व प्रोफेसर डॉ. केएल टुटेजा ने की और संचालन संस्थान के अध्यक्ष डॉ. महावीर जागलान ने किया।
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डॉ. एम. एच. कुरेशी |
डॉ. कुरेशी ने कहा कि विरासत हमें अपने बुजुर्गों से मिलती है। जो चीज हमें दी गई, उसे हमने कैसे संभाला यह विरासत के अंतर्गत ही आता है। उन्होंने कहा कि प्रकृति और संस्कृति का रिश्ता बहुत महत्वपूर्ण है। पहाड़ों को हमने अपनी संस्कृति और धार्मिक सिद्धांतों का आधार बनाया है। कैलाश पर्वत को हमने शिव से जोड़ा है। विष्णु को हमने क्षीर सागर से जोड़ा। हमें दिखाई देता है कि विष्णु के ज्यादा अवतार हैं। राम व कृष्ण सहित कितने ही आराध्य विष्णु के अवतार हंै। नदियों को हमने बहुत महत्व दिया है। नदियों के किनारे ही हमारी बसावट हुई है। जैसे तालाब के किनारे मेंढक़ और जीव इक_े हो जाते हैं। वैसे ही नदियों के किनारे सभ्यताएं विकसित हुई। गंगा को हमने आराध्य माना है। आदि शंकाराचार्य ने गंगा पर बहुत से श£ोक लिखे हैं। रावण ने अपनी अराधना में गंगा के पानी का जिक्र किया है। कितने ही मिथकों में इनका वर्णन है। गंगा में नहाने, नर्मदा के दर्शन करने और ताप्ती के स्मरण मात्र से ही पुण्य मिलता है।
वहीं उर्दू के कवि के अनुसार भगवान और मनुष्य के संवाद में भगवान कहता है कि मैंने तो तुम्हें मिट्टी और पानी से बनी दुनिया दी थी, जिसे तुमने हिस्सों में बांट दिया। मैंने तो तुम्हें मिट्टी में लोहा मिलाकर दिया था। उससे तुमने एक दूसरे को खत्म करने के लिए हथियार बना लिया। मैंने तुम्हें वन व पेड़ और पंछी दिए थे। इसके जवाब में मनुष्य कहता है कि तुमने मिट्टी बनाई, हमने प्याला बनाया। तुमने राख बनाई, हमने चिराग बनाया। तुमने जंगल, पहाडिय़ां और रेगिस्तान बनाए, लेकिन हमने हर तरह के मकान बनाए। हमने कलात्मकता से भरपूर ताज महल से लेकर विभिन्न प्रकार की झोंपडिय़ां व घर बनाए। हमने घर में कमरे, छज्जे और खिड़कियां बनाई। इसमें बहुत विविधता है। औजार, हथियार व उपकरण बनाए हैं। हमने मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे बनाए। सभी के डिजाईन अलग-अलग हंै। हमने सृजन के साथ विभेदन और विशिष्टीकरण किया। विविधता बनाई है।
भाषाएं किसी विशेष धर्म की नहीं होती, सबकी होती हैं-
डॉ. कुरेशी ने कहा कि भारत में 10490 बोलियां और भाषाएं हैं। भाषाएं अभिव्यक्ति का खंडित माध्यम हैं। भाषा के अलावा मनुष्य अपनी अभिव्यक्ति को संपूर्ण बनाने के लिए नृत्य, पेंटिंग और संगीत जैसी कलाओं का प्रयोग करता है। पंजाब से लेकर बंगाल तक भाषाओं की विविधता कमाल की है। उर्दू को मुसलमानों की भाषा माना जाना हास्यास्पद है। यदि ऐसा होता तो कुंवर महेन्द्र सिंह, राजेन्द्र सिंह बेदी, गोपी नाथ नारंग सहित कितने ही हिन्दू लेखकों की भाषा उर्दू ना होती। उन्होंने कहा कि भाषाएं सभी की होती हैं। जैसे संगीत किसी एक समुदाय का नहीं होता, सभी का होता है। उन्होंने कहा कि अंग्रेजों ने विकास के नाम पर कलकत्ता को हब के रूप में विकसित किया। यूपी के बहुत बड़े हिस्से के मर्द अपनी पत्नियों को छोड़ कर कलकत्ता जाते थे। इससे एक विधा विकसित हुई-बिरहा। जो लोग पीछे छूट जाते थे, वे बिरहा गाते थे। भिखारी ठाकुरी बिरहा के बहुत बड़े गायक बने। रेलिया बैरन पिया को लिए जाए रे। इतनी बारिश हो कि टिकट ही गल जाए। जौने साहबिया के हमार घर नौकर, साहब मर जाए रहे। कजरी भी एक ऐसी विधा है, जो हमारी मनोदशा को दर्शाती है। पड़ गए झूले, इस रितू आई रे। उन्होंने कहा कि बांगला में टैगोर और नजरूल इस्लाम को समान रूप से इज्जत मिली। बंटवारे के बाद कहा जाने लगा कि इधर भी बंगाल और उधर भी बंगाल। उन्होंने कहा कि सांस्कृतिक विविधता हमारी धरोहर है। बंगाल में बाऊल परंपरा है। बाऊल का मतलब है-पागल। वह सूफी है। अमीर खुसरो कहते हैं- मुझे नहीं मालूम है कि जब मैं अपने गुरु को देखता हूं तो क्यों नाचने लग जाता हूँ। नाचना दिमागी मंथन के समान है। जिस आध्यात्मिकता को हम धारण करते हैं, वह अनुभवपरक है, यह प्रयोगात्मक नहीं है। उन्होंने कहा कि हमारा सांस्कृतिक कैनवास बहुत व्यापक है। इसे समेटना बहुत बड़ी चुनौती है। मनुष्य की क्षमता अपार है।
आज अर्थसत्ता ने वर्चस्व स्थापित किया-
डॉ. एम. एच. कुरेशी ने अपने वक्तव्य को आगे बढ़ाते हुए कहा कि तीन तरह की सत्ताएं होती हैं। ज्ञान सत्ता, राज सत्ता और अर्थ सत्ता। ये सत्ताएं विभिन्न कालों में ऊपर-चीने होती रहती हैं। कभी ज्ञान सत्ता सबसे बड़ी थी। उसके नीचे राज सत्ता आती थी। उसके बाद अर्थ सत्ता आती थी। समय बदला राज सत्ता ऊपर चली गई। अकबर ने सारे ज्ञानियों को नौ रत्न बनाकर अपने दरबार में रख लिया। राज सत्ता सर्वोपरि हो गई। आज के जमाने में अर्थ सत्ता सबसे ऊपर है। उसके नीचे राजसत्ता और सबसे नीचे ज्ञान सत्ता आ गई है। सत्ताएं बदलती रहती हैं। यह हमारी संस्कृति का हिस्सा है कि हम सत्ताओं से कैसे संवाद करते हैं। जब क्षेत्रीय संदर्भ में हम संस्कृति व कलाओं को देखते हैं। परंपरागत ज्ञान को ग्रहण करके अपने विचारों को व्यक्त करना महत्वपूर्ण कार्य है। इस चुनौती को कबीर ने स्वीकार किया-
अजगर करे ना चाकरी, पंछी करे ना काम,
दास मलूका कह गए, सबके दाता राम
कबीर ने उस धारणा को भी चुनौती दी कि काशी में मरने से स्वर्ग में जाते हैं। उन्होंने मगहर में जाकर मरना स्वीकार किया और समाज में व्याप्त भ्रांतियों को तोडऩे का प्रयास किया। कुरेशी ने कहा कि हम संस्कृति बनाते भी हैं, उसे अपनाते भी हैं और उसे समझने की कोशिश भी करते हैं। यह हमारे पूर्वजों ने हमें दी है। धरोहर एक बहुत बड़ी दौलत है। सांझी संस्कृति को हमें आगे बढ़ाते रहना है।
प्रतिभागियों के सवाल एवं टिप्पणियां-
मुख्य वक्ता के संबोधन के बाद संगोष्ठी के प्रतिभागियों ने अपने टिप्पणियां और सवाल किए। सूरजभान भारद्वाज ने कहा कि हिंदुस्तान की संस्कृति की विविधता का कोई जवाब नहीं है। पहले कूआं खोदते हुए कस्सी से पहला ढ़ेला खोदा जाता था और उसे ख्वाजा खिज्र कहते थे। बाद में वहां पर ब्राह्मण को बुलाया जाता है और वह पूजा करता थे। जितने भी हमारे देवता हैं, वे कितने ही मुस्लिम पृष्ठभूमि से हैं। बीएस मलिक ने कहा कि आज संस्कृति के सांझेपन को को समाप्त किया जा रहा है। बाहर संस्कृति का बंटवारा करने वाले हैं। सांझी संस्कृति वाले ड्राईंग रूम में सिकुड़े हैं। आरबी भगत ने कहा कि मिली जुली संस्कृति को तोडऩे के लिए काफी लंबे समय से प्रयास किए जा रहे हैं। संस्कृति पहचान से जुड़ गई है। पहचान की राजनीति हो रही है। यह राजनीति संस्कृति की तरफ मुड़ गई है। संस्कृति को शुद्ध, स्थिर और ठोस बताया जा रहा है। पहचान और बंटवारे की राजनीति का मुकाबला मुकाबला कैसे हो? राजेश बिंद्रा ने सवाल उठाया कि सामान्य व्यक्ति की तरह से हमें क्या करना चाहिए। सांझी संस्कृति की बयार बहाने के लिए क्या व्यवहारिक गतिविधियां की जानी चाहिएं? प्रो. टीआर कुंडू व सुचित्रा सेन ने कहा कि कोई भी संस्कृति फासीवादी नहीं होती है। संस्कृति परिवर्तनशील होती है।
प्रो. कुरेशी ने अपने जवाब में कहा कि संस्कृति बदलती है। उसमें एक निरंतरता होती है। पहनावे में कितने बदलाव हुए हैं। एक समय की संस्कृति को बेहतर नहीं कहा जा सकता। पुराने जमाने के लोगों का खाना-पीना और रहना अब बदल गया है। कच्चे घरों के स्थान पर पक्के घर बन गए हैं। हर गांव का एक ग्राम देवता होता है। हर एक वंश का कुलदेवता होता है। उन्होंने कहा कि सांस्कृतिक निरंतरता रहेगी, उसमें बदलाव होते रहेंगे। माहौल बदलेगा। प्रवासन भी होगा। माइग्रेशन में हम कुछ चीजें अपनी लेकर चलते हैं, कुछ चीजें नए स्थान पर जाकर अपनाते हैं। भूगोल का संस्कृति पर प्रभाव पड़ता है। हम कैसे व्यवसाय में हैं, कैसे माहौल में रहते हैं तो यह हमें प्रभावित करता है। विविधताएं रहेंगी और इनके साथ हमें रहना है।
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प्रो. केएल टुटेजा |
अपने अध्यक्षीय संबोधन में प्रो. केएल टुटेजा कहा कि डॉ. कुरेशी द्वारा संस्कृति को प्रकृति से जोडऩा अद्भुत है। उन्होंने सांझी संस्कृति व परंपरा के विभिन्न चरण रखे हैं। महत्वपूर्ण है कि संस्कृति एक प्रक्रिया है। यह प्रक्रिया चलती रहती है। जब संस्कृति को स्थिर करके उसे थोंपे जाने की कोशिश होती है तो वह इतिहास की प्रक्रिया को रोकना है। उन्होंने कहा कि 1860 से पहले भाषाओं को धर्म से नहीं जोड़ा जाता था। हिन्दी के पढऩे वालों की संख्या बहुत कम थी और उर्दू के पढऩे वालों की संख्या बहुत अधिक थी। भाषा को धीरे-धीरे धर्म के साथ जोड़ा जाने लगा। आधुनिक समाज में ब्रिटिश समय से परिवर्तन हो रहा है। ब्रिटिश काल में ही हमें हिंदू, मुस्लिम, सिख पहचान दे दी गई। उन्होंने कहा कि संस्कृति विशिष्ट नहीं होती, यह मिली-जुली हुई होती है। उन्होंने कहा कि आज संस्कृति के नाम पर जो मिथ्याकरण हो रहा है, बुद्धिजीवी के रूप में संस्कृति की तासीर को समझते हुए उसे आम जन में व्याख्यायित करने की जरूरत है।
मुख्य व्याख्यान से पूर्व डॉ. महावीर जागलान ने मुख्य वक्ता का परिचय कराते हुए कहा कि प्रो. कुरेशी ने 40 साल तक शिक्षण कार्य किया है। 2005 में एनसीईआरटी की भूगोल विषय की पाठ्यपुस्तकों को तैयार करने में उनकी अहम भूमिका रही है। डॉ. ओमप्रकाश ग्रेवाल अध्ययन संस्थान के उपाध्यक्ष सुरेन्द्र पाल सिंह ने संगोष्ठी में शामिल वक्ताओं का आभार व्यक्त करते हुए कहा कि सांझी संस्कृति के बहुत से आयाम हैं। इस विषय पर संगोष्ठियों का सिलसिला भी चलाया जा सकता है। उन्होंने कहा कि आने वाले समय में भी इस प्रकार की संगोष्ठियां की जाएंगी। संस्थान के सदस्य विकास साल्याण ने संगोष्ठी का तकनीकी पक्ष संभाला।
अरुण कुमार कैहरबाहिन्दी प्राध्यापक एवं स्वतंत्र पत्रकार
वार्ड नं.-4, रामलीला मैदान, इन्द्री
जिला-करनाल, हरियाणा
मो.नं.-9466220145
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HARYANA PRADEEP 19-8-2024 |
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INDORE SAMACHAR |
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