जयंती विशेष
बेमिसाल संगठनकर्ता साहसी क्रांतिकारी शहीद सुखदेव
अरुण कुमार कैहरबा
इन दिनों के राजनैतिक विमर्श में भारत की आजादी के बाद के 70 सालों पर काफी बल दिया जाता है। तरह-तरह के राजनैतिक जुमलों के शोरगुल में आजादी के लिए किए गए संघर्षों पर लोगों का कम ही ध्यान जाता है। जबकि उन संघर्षों और उसमें योगदान व बलिदान देने वाले योद्धाओं के जीवन व विचारों को ज्यादा पढ़े-समझे जाने की जरूरत है। आजादी की लड़ाई को याद करना भावुकता भरा कार्य नहीं है, बल्कि इससे मौजूदा दौर की चुनौतियों के संदर्भ में हम बेहतर ढ़ंग से अपनी भूमिकाओं की पहचान कर सकते हैं। आजादी की लड़ाई में जहां महात्मा गांधी की अगुवाई में निरंतर अपने स्वरूप को बदलता अहिंसावादी आंदोलन था। कांग्रेस पार्टी का नरम व गरम दल में बंटना था। वहीं शहीद भगत सिंह व साथियों की अगुवाई में प्रखर वैचारिकता से लबरेज क्रांतिकारी आंदोलन भी था। क्रांतिकारी आंदोलन में भगत सिंह अपनी अध्ययनशीलता, विचारशीलता, योजना निर्माण व जोशो-खरोश के साथ क्रियान्वयन में अग्रणी भूमिका के लिए जाने जाते हैं। लेकिन उनके अन्य साथी भी कोई कम नहीं थे। 23मार्च, 1931 को लाहौर की सेंट्रल जेल में हंसते-हंसते फांसी के फंदे पर झूलने वाले भगत सिंह के दूसरे साथी सुखदेव व राजगुरू भी बेमिसाल थे। सुखदेव की जयंती के उपलक्ष्य में आज हम उन्हीं के बारे में खासतौर से बात कर रहे हैं।
सुखदेव का जन्म 15 मई, 1907 को लुधियाना पंजाब में हुआ। उनके पिता का नाम रामलाल थापर व मां का नाम रल्ली देवी है। पिता की मृत्यु के बाद उनका लालन-पालन उनके ताऊ लाला अचिंतराम ने किया। परिवार की देशभक्तिपूर्ण भावना व कार्यों का उन पर गहरा प्रभाव पड़ा। बताते हैं कि बचपन में जब उनके दोस्त खेल-कूद में व्यस्त रहते थे, सुखदेव अपने आस-पास के शिक्षा से वंचित बच्चों को पढ़ाते थे। जब सुखदेव खुद स्कूल में पढ़ते थे तो अंग्रेज अधिकारी वहां आए। प्रधानाध्यापक के आदेश पर सभी ने उन्हें सेल्यूट किया, लेकिन सुखदेव ने किसी अंग्रेज को प्रणाम नहीं करने की बात कह कर सेल्यूट करने से मना कर दिया। लायलपुर के एसडी हाई स्कूल से उन्होंने दसवीं करने के बाद नेशनल कॉलेज लाहौर में दाखिला लिया। वहीं पर उनकी भेंट भगत सिंह व अन्य साथियों से हुई। एक ही तरह के विचार होने के कारण शीघ्र ही भगत सिंह से उनकी गहरी दोस्ती हो गई। बाद में वे देश की आजादी के संघर्षों के सहयात्री हो गए। 1926 में दोनों ने अन्य युवाओं के साथ मिलकर लाहौर में नौजवान भारत सभा का गठन किया। सितंबर, 1928 को दिल्ली के फिरोजशाह कोटला के खंडहरों में देश के प्रमुख क्रांतिकारियों की गुप्त बैठक हुई, जिसमें इस संगठन का नाम बदलकर हिन्दोस्तान सोशल रिपब्लिकन आर्मी कर दिया गया। सुखदेव को पंजाब के संगठन की जिम्मेदारी सौंपी गई। शिव वर्मा ने अपनी किताब संस्मृतियां में लिखा है- ‘भगत सिंह दल के राजनैतिक नेता थे और सुखदेव संगठनकर्ता, वे एक-एक ईंट रखकर इमारत खड़ी करने वाले थे। वे प्रत्येक सहयोगी की छोटी से छोटी आवश्यकता का भी पूरा ध्यान रखते थे।’ सुखदेव अपनी संगठन कुशलता के लिए जाने जाते हैं।
भारत की राजनैतिक परिस्थितियों का अध्ययन करने के लिए अंग्रेजों ने भारत में साइमन कमीशन भेजा। कमीशन में एक भी भारतीय नहीं होने के कारण इसका जगह-जगह विरोध हुआ। पंजाब में लाला लाजपत राय की अगुवाई में इसके खिलाफ प्रदर्शन हुआ। एक विशाल जुलूस का नेतृत्व करते हुए अंग्रेजों ने लाठीचार्ज कर दिया, जिसमें लाला लाजपत राय बुरी तरह घायल हो गए। नवंबर में उनका देहांत हो गया। इस पर पूरे पंजाब में तीखी प्रतिक्रिया हुई। भगत सिंह व सुखदेव ने लाठीचार्ज करवाने वाले अधिकारी स्कॉट को मारने की योजना बनाई। लेकिन उसकी जगह सांडर्स मारा गया। अंग्रेजों के दमनचक्र पर रोष जताने व भारतीयों की भावनाओं को नजरंदाज करने वाली गूंगी-बहरी अंग्रेजी सरकार के कानों तक आवाज पहुंचाने के लिए 8 अप्रैल, 1929 को भगत सिंह व बटुकेश्वर दत्त ने केन्द्रीय असेंबली में बम धमाका कर दिया और गिरफ्तारी दे दी। इसी बीच लाहौर में बम बनाने की फैक्ट्री पकड़ी गई और 15 अप्रैल को सुखदेव व अन्य साथी भी गिरफ्तार हो गए। इस पर सुखदेव ने खासी खुशी का इजहार किया।
लाहौर षडय़ंत्र केस में हमिल्टन हार्डिंग द्वारा दर्ज की गई एफआईआर के अनुसार कोर्ट में चले केस को ‘क्राउन बनाम सुखदेव व अन्य’ के नाम से चला। इस केस में हालांकि सुखदेव की सीधी भूमिका नहीं थी। लेकिन केस में उन्हें मुख्य अभियुक्त बनाकर उनकी अप्रत्यक्ष भूमिका की महत्ता को ही रेखांकित किया गया। इस केस की निर्णय में कोर्ट ने कहा- ‘सुखदेव को साजिश का दिमाग कहा जा सकता है, जबकि भगत सिंह इसके दाहिने हाथ थे। सुखदेव एक व्यवस्था देखने वाले, सदस्यों की भर्ती करने और प्रत्येक की क्षमता के लिए उपयुक्त काम खोजने में उत्साही थे। वह हिंसा के कृत्यों में स्वयं भाग लेने में पिछड़े थे। लेकिन फिर भी उन्हें उन कार्यों के निष्पादन के लिए जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए जिनमें उनके दिमाग और संगठन शक्ति ने महत्वपूर्ण योगदान दिया।’
इसकी जानकारी लोगों को बहुत कम है कि हिन्दोस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी की केन्द्रीय कमेटी की बैठक में असेंबली में बम गिराने की जिम्मेदारी भगत सिंह को नहीं दी गई थी। कमेटी सदस्यों को खतरा था कि सांडर्स वध के मामले में पहले से पुलिस भगत सिंह की तलाश कर रही है। शिव वर्मा ने अपनी किताब संस्मृतियां में लिखा है कि एचएसआए की बैठक के तीन दिन बाद जब सुखदेव को पता चला तो बहुत नाराज हुए। वे जानते थे कि दल का मकसद भगत सिंह ही सबसे अच्छे ढ़ंग से रख सकते हैं। सुखदेव व भगत सिंह की इस मामले में तीखी चर्चा हुई। सुखदेव ने भगत सिंह को कायर तक कह दिया। अंत में कमेटी को अपना फैसला बदलना पड़ा और असेंबली में बम फेंकने की जिम्मेदारी में भगत सिंह को शामिल करना पड़ा। शिव वर्मा कहते हैं कि इस तरह से सुखदेव ने अपने प्रिय मित्र को मौत के जबड़े में धकेल दिया था। भगत सिंह के साथ तीखी चर्चा के बाद शाम को सुखदेव लाहौर के लिए रवाना हो गए। अगले दिन जब वे लाहौर पहुंचे तो दुर्गा भाभी के अनुसार उसकी आंखें सूजी हुई थी। दरअसल अपने निर्णय के बाद सुखदेव फूट-फूट कर रोया था। वह जानता था कि असेंबली में बम फेंक और गिरफ्तारी देकर भगत सिंह सबसे बेहतर कार्य कर सकता था। लेकिन अपने दोस्त को मौत के मुंह में धकेलने का उसे गम भी था। इस प्रकार जहां सुखदेव पत्थर से अधिक कठोर हैं तो फूल से भी अधिक कोमल हैं।
फांसी के निर्णय के बाद जब लोग उन्हें फांसी से कम सजा के लिए आंदोलन करने लगे तो उन्होंने कहा था- ‘हमारी सजा को बदल देने से देश का उतना कल्याण नहीं होगा, जितना फांसी पर चढऩे से।’ फांसी से कुछ समय पहले सुखदेव द्वारा महात्मा गांधी को लिखे पत्र में उनके विचारों की बानगी देखने को मिलती है। सुखदेव का वह पत्र उनके व्यवस्थित व तार्किक विचारों का दस्तावेज है।
अरुण कुमार कैहरबा
हिन्दी प्राध्यापक
मो.नं.-9466220145
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