मजदूरों की दशा सुधारने पर हो सरकार का ध्यान
अरुण कुमार कैहरबा
मजदूर किसी भी देश व समाज की व्यवस्था की रीढ़ हैं। मजदूरों की मेहनत से ही दुनिया विकास के रास्ते पर तेजी से आगे बढ़ रही है। लेकिन कमेरे वर्ग की मेहनत का पूरा फल उसे नहीं मिलता। या यूं कहें कि कमेरा वर्ग काम करता है और लुटेरा वर्ग उसकी मेहनत पर मौज करता है। यही कारण है कि दुनिया के मु_ी भर लोगों के पास धन-दौलत का बड़ा हिस्सा सिमट गया है और मजदूरों की बड़ी आबादी बुरी हालत में रहने को मजबूर है। कोरोना वायरस से बचने के लिए लगाए गए लॉकडाउन के दौरान मजदूरों की असुरक्षा और अपने घर पहुंचने के लिए उनका सडक़ों पर पैदल चल पडऩे का हृदयविदारक दृश्य मजदूरों की दयनीय दशा को उजागर करता है। अपने जिन घरों के लिए मजदूर बड़े महानगरों व नगरों से निकल पड़े, इसकी भी कोई गारंटी नहीं है वहां उनका घर है भी या नहीं। वरना सपनों के शहर से निकलना किसे अच्छा लगता।
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PRAKHAR VIKAS -5-2020 |
हर प्रकार का शारीरिक, मानसिक व बौद्धिक श्रम करके मेहनताना पाने वाले व्यक्ति को मजदूर कहते हैं। इसमें फैक्ट्रियों, खेत-खलिहानों, सडक़ों, पुलों, भवनों आदि के निर्माण के लिए हाड़-तोड़ मेहनत करने वाले श्रमिक भी शामिल हैं। ऑफिसों में फाईलें उठाने वाले, पत्र-पत्रिकाओं में कलम चलाने वाले, प्रयोगशालाओं, स्कूलों-अस्पतालों सहित विभिन्न स्थानों में सफेद कॉलर जॉब करके विविध प्रकार की सेवाएं देने वाले लोग भी शामिल हैं। इनमें कुशल व अकुशल तथा संगठित व असंगठित हर प्रकार के श्रमिक हैं। इनमें मासिक वेतन, मानदेय प्राप्त करने वाले भी हैं और हर रोज काम करने वाले दिहाड़ीदार भी हैं। इनमें नियमित कर्मचारी भी हैं और ठेके, अनुबंध, डेलीवेज सहित विभिन्न प्रकार की संज्ञाओं से अभिहित किए गए लोग हैं।
बेरोजगारी का आलम यह है कि हर छोटे-बड़े शहर में अनाज मंडी व सब्जी मंडी की तरह मजदूरों की मंडियां लगने लगी हैं, जहां पर आस-पास के गांवों से काम की तलाश में मजदूर आ जाते हैं। जिन लोगों को मजदूर की जरूरत होती है, वे मंडी से मोल-भाव करके मजदूरों को ले जाते हैं। कितने ही मजदूर सारा दिन काम के लिए जाने का इंतजार करके वापिस चले जाते हैं। बिना कमाई के घर पहुंचने पर बच्चों व परिजनों के सामने उनकी क्या दशा होती होगी, इसे वे ही जानते हैं। हमारे देश में लोखों श्रमिक ऐसे हैं, जो काम की तलाश में अपने गांव की डगर छोड़ कर शहरों में आते हैं। वे मलिन बस्तियों में अस्वस्थ माहौल में झोंपडिय़ों में रहते हैं और किसी फैक्ट्री में काम की तलाश करते हैं। काम मिल जाने पर वे अपने पूरे परिवार को वहीं ले जाते हैं। अपना घर बनाने, बच्चों को पढ़ाने और जीवन-स्तर ऊंचा उठाने का सपना लेकर वे शहरों का रूख करते हैं। कठिन परिश्रम करने के बावजूद कितने लोगों का यह सपना पूरा होता है और कितने लोग उन सपनों को अपनी आंखों में लिए ही मेहनत में जुटे रहते हैं। मजदूरों की बड़ी आबादी काम के सीजन में एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में जाती है।
लॉकडाउन के दौरान शहरों में विभिन्न प्रकार के काम कर रहे मजदूरों की दशा सडक़ों पर देखने को मिली। जब फैक्ट्रियों के मालिकों ने उन्हें काम से निकाल दिया। काम धंधे ठप्प होने के कारण खाने को कुछ ना बचा। या फिर रोटी को लेकर असुरक्षित महसूस करते हुए, वे अपने सपनों के शहर से निकल कर बच्चों को गोद और सामान की पोटली को सिर पर उठाए पैदल अपने ठिकानों के लिए निकल पड़े। सपरिवार सैंकड़ों किलोमीटर की यात्रा के लिए निकले श्रमिक परिवारों के लिए यह कोई साहसिक खेल नहीं था, बल्कि जीवन को लेकर असुरक्षा का माहौल था। जो कोरोना वायरस हवाई जहाजों में शान की सवारी करते हुए देश में आया, उसकी गाज भी आम आदमी पर ही गिरी।
लॉकडाउन के 40 दिन में देश व प्रदेश की सरकारें गहरे आर्थिक-संकट की ओर इशारा कर रही हैं। ऐसे में उन मजदूरों की दशा की कल्पना वे सरकारें भी नहीं कर सकी, जो मजदूर हर रोज कमा कर खाते थे और कईं दिन से बेकार हैं। उन मजदूरों को राहत और पूरी सुरक्षा प्रदान करने की जिम्मेदारी निभाने की बजाय सरकारें पूंजीपतियों को राहत देने के प्रति ज्यादा सजग दिखाई देती हैं। जिन सरकारों को लोग इस उम्मीद से चुनते हैं कि वे हमारे हितों की रक्षा करेंगी, वे सरकारें अपने कर्मचारियों के महंगाई भत्ते, एलटीसी सहित विभिन्न प्रकार की सुविधाओं पर कटौती करके आर्थिक बचत करती हैं।
कोरोना संकट का बहाना बनाकर मजदूरों-कर्मचारियों के भत्तों पर कैंची चलाना दरअसल सरकारों की उन नीतियों का ही एक हिस्सा है, जिसमें खर्च कम करने के लिए वे स्थाई रोजगार देने की जिम्मेदारी से बचती हैं। इसके लिए निजीकरण, उदारीकरण व वैश्वीकरण सहित अनेक प्रकार के लोकलुभावन दिखाई देने वाली नीतियां हैं। बड़े-बड़े सरकारी इदारों को चलाने-बचाने की बजाय विनिवेश का नाम लेकर बेच दिया जाता है। क्या जनता इसीलिए सरकारों का चुनाव करती है कि वे जनता के हितों को तिलांजलि देकर पूंजीवादी नीतियां बनाएं।
दुनिया भर में मनाया जाने वाला मजदूर दिवस शिक्षा, संगठन व संघर्षों का गवाह है। 1 मई, 1886 को अमेरिका के हजारों कारखानों के लाखों मजदूरों ने काम के आठ घंटों के लिए हड़ताल की थी। तब कारखानों के मालिकों ने हर प्रकार की ताकत का इस्तेमाल करते हुए उन पर हमला किया था। आज काम के आठ घंटे का अधिकार कानूनन मिल चुका है। लेकिन क्या वास्तव में आज भी ऐसा हो पाया है। आज भी फैक्ट्रियों में मजदूरों को बहुत कम वेतन पाने के लिए 12-12 घंटे काम करना पड़ता है। कारखानों ही में नहीं निजी क्षेत्र के शिक्षा संस्थानों तक में काम के बदले जिस वेतन पर कर्मचारी हस्ताक्षर करते हैं, उससे कहीं कम पाते हैं। इसके अलावा भी आज मजदूरों के समक्ष अनेक प्रकार की चुनौतियां हैं। हर प्रकार के मजदूरों की एकता और संघर्ष के रास्ते में शारीरिक व बौद्धिक श्रम के स्तर में अंतर, जाति, धर्म, संप्रदाय सहित अनेक प्रकार की अड़चनें हैं। मजदूरों को विभिन्न वर्गों, जाति, धर्म के नाम पर बांटने की राजनीति होती है और उनके मूल मुद्दों से ध्यान भटका दिया जाता है। आज रोजगार, घर, भोजन, शिक्षा, स्वास्थ्य के सबके अधिकार के लिए सरकारों को काम करना चाहिए। हर हाथ को काम और पूरा मेहनताना व सम्मान दिए बिना कोई देश तरक्की नहीं कर सकता। कारखानों में काम करने के लिए अंधेरी कोठरियों में कईं-कईं व्यक्तियों के रहने की मजबूरी, मलिन बस्तियों की हालत सुधारने और बेरोजगारी दूर करने के लिए ठोस नीतियां बनाने और उन्हें लागू करने की जरूरत है। हर प्रकार काम के लिए ठेका प्रथा को बढ़ावा दिया जाना किसी भी तरह से उचित नहीं है। युवाओं को स्थाई रोजगार प्रदान करना नीति का हिस्सा होना चाहिए। और हां, अनाज के भरे गोदामों के देश में लॉकडाउन के दौरान घरों में सिमटे, घरों से दूर क्वारंटाइन किए गए मजदूरों के परिवार भूख से ना मरें, इसके लिए पर्याप्त प्रबंध किए जाने की जरूरत है।
हिन्दी प्राध्यापक
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