Thursday, April 30, 2020

अन्तर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस (1मई) पर विशेष लेख (INTERNATIONAL LABOUR DAY)

मजदूरों की दशा सुधारने पर हो सरकार का ध्यान

अरुण कुमार कैहरबा

मजदूर किसी भी देश व समाज की व्यवस्था की रीढ़ हैं। मजदूरों की मेहनत से ही दुनिया विकास के रास्ते पर तेजी से आगे बढ़ रही है। लेकिन कमेरे वर्ग की मेहनत का पूरा फल उसे नहीं मिलता। या यूं कहें कि कमेरा वर्ग काम करता है और लुटेरा वर्ग उसकी मेहनत पर मौज करता है। यही कारण है कि दुनिया के मु_ी भर लोगों के पास धन-दौलत का बड़ा हिस्सा सिमट गया है और मजदूरों की बड़ी आबादी बुरी हालत में रहने को मजबूर है। कोरोना वायरस से बचने के लिए लगाए गए लॉकडाउन के दौरान मजदूरों की असुरक्षा और अपने घर पहुंचने के लिए उनका सडक़ों पर पैदल चल पडऩे का हृदयविदारक दृश्य मजदूरों की दयनीय दशा को उजागर करता है। अपने जिन घरों के लिए मजदूर बड़े महानगरों व नगरों से निकल पड़े, इसकी भी कोई गारंटी नहीं है वहां उनका घर है भी या नहीं। वरना सपनों के शहर से निकलना किसे अच्छा लगता।
PRAKHAR VIKAS -5-2020
हर प्रकार का शारीरिक, मानसिक व बौद्धिक श्रम करके मेहनताना पाने वाले व्यक्ति को मजदूर कहते हैं। इसमें फैक्ट्रियों, खेत-खलिहानों, सडक़ों, पुलों, भवनों आदि के निर्माण के लिए हाड़-तोड़ मेहनत करने वाले श्रमिक भी शामिल हैं। ऑफिसों में फाईलें उठाने वाले, पत्र-पत्रिकाओं में कलम चलाने वाले, प्रयोगशालाओं, स्कूलों-अस्पतालों सहित विभिन्न स्थानों में सफेद कॉलर जॉब करके विविध प्रकार की सेवाएं देने वाले लोग भी शामिल हैं। इनमें कुशल व अकुशल तथा संगठित व असंगठित हर प्रकार के श्रमिक हैं। इनमें मासिक वेतन, मानदेय प्राप्त करने वाले भी हैं और हर रोज काम करने वाले दिहाड़ीदार भी हैं। इनमें नियमित कर्मचारी भी हैं और ठेके, अनुबंध, डेलीवेज सहित विभिन्न प्रकार की संज्ञाओं से अभिहित किए गए लोग हैं। 
बेरोजगारी का आलम यह है कि हर छोटे-बड़े शहर में अनाज मंडी व सब्जी मंडी की तरह मजदूरों की मंडियां लगने लगी हैं, जहां पर आस-पास के गांवों से काम की तलाश में मजदूर आ जाते हैं। जिन लोगों को मजदूर की जरूरत होती है, वे मंडी से मोल-भाव करके मजदूरों को ले जाते हैं। कितने ही मजदूर सारा दिन काम के लिए जाने का इंतजार करके वापिस चले जाते हैं। बिना कमाई के घर पहुंचने पर बच्चों व परिजनों के सामने उनकी क्या दशा होती होगी, इसे वे ही जानते हैं। हमारे देश में लोखों श्रमिक ऐसे हैं, जो काम की तलाश में अपने गांव की डगर छोड़ कर शहरों में आते हैं। वे मलिन बस्तियों में अस्वस्थ माहौल में झोंपडिय़ों में रहते हैं और किसी फैक्ट्री में काम की तलाश करते हैं। काम मिल जाने पर वे अपने पूरे परिवार को वहीं ले जाते हैं। अपना घर बनाने, बच्चों को पढ़ाने और जीवन-स्तर ऊंचा उठाने का सपना लेकर वे शहरों का रूख करते हैं। कठिन परिश्रम करने के बावजूद कितने लोगों का यह सपना पूरा होता है और कितने लोग उन सपनों को अपनी आंखों में लिए ही मेहनत में जुटे रहते हैं। मजदूरों की बड़ी आबादी काम के सीजन में एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में जाती है।
लॉकडाउन के दौरान शहरों में विभिन्न प्रकार के काम कर रहे मजदूरों की दशा सडक़ों पर देखने को मिली। जब फैक्ट्रियों के मालिकों ने उन्हें काम से निकाल दिया। काम धंधे ठप्प होने के कारण खाने को कुछ ना बचा। या फिर रोटी को लेकर असुरक्षित महसूस करते हुए, वे अपने सपनों के शहर से निकल कर बच्चों को गोद और सामान की पोटली को सिर पर उठाए पैदल अपने ठिकानों के लिए निकल पड़े। सपरिवार सैंकड़ों किलोमीटर की यात्रा के लिए निकले श्रमिक परिवारों के लिए यह कोई साहसिक खेल नहीं था, बल्कि जीवन को लेकर असुरक्षा का माहौल था। जो कोरोना वायरस हवाई जहाजों में शान की सवारी करते हुए देश में आया, उसकी गाज भी आम आदमी पर ही गिरी।
लॉकडाउन के 40 दिन में देश व प्रदेश की सरकारें गहरे आर्थिक-संकट की ओर इशारा कर रही हैं। ऐसे में उन मजदूरों की दशा की कल्पना वे सरकारें भी नहीं कर सकी, जो मजदूर हर रोज कमा कर खाते थे और कईं दिन से बेकार हैं। उन मजदूरों को राहत और पूरी सुरक्षा प्रदान करने की जिम्मेदारी निभाने की बजाय सरकारें पूंजीपतियों को राहत देने के प्रति ज्यादा सजग दिखाई देती हैं। जिन सरकारों को लोग इस उम्मीद से चुनते हैं कि वे हमारे हितों की रक्षा करेंगी, वे सरकारें अपने कर्मचारियों के महंगाई भत्ते, एलटीसी सहित विभिन्न प्रकार की सुविधाओं पर कटौती करके आर्थिक बचत करती हैं।
कोरोना संकट का बहाना बनाकर मजदूरों-कर्मचारियों के भत्तों पर कैंची चलाना दरअसल सरकारों की उन नीतियों का ही एक हिस्सा है, जिसमें खर्च कम करने के लिए वे स्थाई रोजगार देने की जिम्मेदारी से बचती हैं। इसके लिए निजीकरण, उदारीकरण व वैश्वीकरण सहित अनेक प्रकार के लोकलुभावन दिखाई देने वाली नीतियां हैं। बड़े-बड़े सरकारी इदारों को चलाने-बचाने की बजाय विनिवेश का नाम लेकर बेच दिया जाता है। क्या जनता इसीलिए सरकारों का चुनाव करती है कि वे जनता के हितों को तिलांजलि देकर पूंजीवादी नीतियां बनाएं। 
दुनिया भर में मनाया जाने वाला मजदूर दिवस शिक्षा, संगठन व संघर्षों का गवाह है। 1 मई, 1886 को अमेरिका के हजारों कारखानों के लाखों मजदूरों ने काम के आठ घंटों के लिए हड़ताल की थी। तब कारखानों के मालिकों ने हर प्रकार की ताकत का इस्तेमाल करते हुए उन पर हमला किया था। आज काम के आठ घंटे का अधिकार कानूनन मिल चुका है। लेकिन क्या वास्तव में आज भी ऐसा हो पाया है। आज भी फैक्ट्रियों में मजदूरों को बहुत कम वेतन पाने के लिए 12-12 घंटे काम करना पड़ता है। कारखानों ही में नहीं निजी क्षेत्र के शिक्षा संस्थानों तक में काम के बदले जिस वेतन पर कर्मचारी हस्ताक्षर करते हैं, उससे कहीं कम पाते हैं। इसके अलावा भी आज मजदूरों के समक्ष अनेक प्रकार की चुनौतियां हैं। हर प्रकार के मजदूरों की एकता और संघर्ष के रास्ते में शारीरिक व बौद्धिक श्रम के स्तर में अंतर, जाति, धर्म, संप्रदाय सहित अनेक प्रकार की अड़चनें हैं। मजदूरों को विभिन्न वर्गों, जाति, धर्म के नाम पर बांटने की राजनीति होती है और उनके मूल मुद्दों से ध्यान भटका दिया जाता है। आज रोजगार, घर, भोजन, शिक्षा, स्वास्थ्य के सबके अधिकार के लिए सरकारों को काम करना चाहिए। हर हाथ को काम और पूरा मेहनताना व सम्मान दिए बिना कोई देश तरक्की नहीं कर सकता। कारखानों में काम करने के लिए अंधेरी कोठरियों में कईं-कईं व्यक्तियों के रहने की मजबूरी, मलिन बस्तियों की हालत सुधारने और बेरोजगारी दूर करने के लिए ठोस नीतियां बनाने और उन्हें लागू करने की जरूरत है। हर प्रकार काम के लिए ठेका प्रथा को बढ़ावा दिया जाना किसी भी तरह से उचित नहीं है। युवाओं को स्थाई रोजगार प्रदान करना नीति का हिस्सा होना चाहिए। और हां, अनाज के भरे गोदामों के देश में लॉकडाउन के दौरान घरों में सिमटे, घरों से दूर क्वारंटाइन किए गए मजदूरों के परिवार भूख से ना मरें, इसके लिए पर्याप्त प्रबंध किए जाने की जरूरत है। 

अरुण कुमार कैहरबा,
हिन्दी प्राध्यापक
संपर्क नं.-9466220145

Wednesday, April 29, 2020

इरफान खान: शानदार अभिनेता व बेहतरीन इन्सान

इरफान खान: शानदार अभिनेता व बेहतरीन इन्सान

अरुण कुमार कैहरबा 

बुधवार को बेहद दुखद खबर मिली। एक शानदार अभिनेता और बेहतरीन इन्सान इरफान खान की मौत की खबर ने रंगकर्मियों व फिल्मी जगत को हिलाकर रख दिया। इरफान खान भारत के ऐसे विरले अभिनेताओं में हैं, जिन्होंने बॉलीवुड ही नहीं हॉलीवुड में भी अपने अभिनय की छाप छोड़ी। उसकी आवाज़ और अंदाज़ तो आकर्षक थे ही उसकी आंखें भी बहुत कुछ बोलती थी। संघर्षों में पले-बढ़े अभिनेता की असामयिक मौत ने बहुत से लोगों को गहरे शोक में डुबो दिया है।

इरफान का जन्म 7 जनवरी, 1967 को राजस्थान के जयपुर में हुआ। उनके पिता टायर का कारोबार चलाते थे। इरफान पहले क्रिकेटर बनना चाहते थे। जब वे एमए कर रहे थे, तो थियेटर के प्रसिद्ध संस्थान नई दिल्ली स्थित राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) में उनका दाखिला हो गया। इरफान खान का शुरुआती दौर संघर्ष से भरा था। जब उनका एनएसडी में प्रवेश हुआ, उन्हीं दिनों उनके पिता की मृत्यु हो गई। घर के आय का स्रोत ही समाप्त हो गया। एनएसडी में सुतापा सिकदर के साथ उनकी दोस्ती प्यार में बदल गई, जिनसे बाद में उन्होंने शादी की। एनएसडी से अभिनय की पढ़ाई पूरी करने के बाद इरफान मुंबई चले गए। शुरूआत में फिल्मों की बजाय उन्हें टीवी सीरियलों में छोटे-मोटे किरदार करने को मिले। इन भूमिकाओं को उन्होंने आगे बढऩे की सीढ़ी के रूप में लिया। चाणक्य, चंद्रकांता, स्टार बेस्ट सेलर्स जैसे लोकप्रिय धारावाहिकों में इरफ़ान ख़ान के बेहतरीन अभिनय ने फिल्म निर्माता-निर्देशकों का ध्यान अपनी ओर खींचा।

मीरा नायर की फिल्म सलाम बांबे में उन्हें मेहमान भूमिका निभाने का अवसर मिला। सलाम बांबे के बाद इरफ़ान ख़ान लगातार ऑफबीट फिल्मों में अभिनय करते रहे। एक डॉक्टर की मौत, कमला की मौत और प्रथा जैसी समांतर फिल्मों में अभिनय के बाद इरफ़ान ख़ान ने मुख्य धारा की फिल्मों की ओर रूख किया। हासिल में रणविजय सिंह की नकारात्मक भूमिका में इरफ़ान ख़ान ने अपनी अभिनय-क्षमता का लोहा मनवाया। देखते-ही-देखते वे मुख्य धारा के निर्माता-निर्देशकों की पसंद बन गए। उसके बाद इरफान ने लंचबॉक्स, गुंडे, हैदर, पीकू और जुरासिक वल्र्ड में भी काम किया। इरफान खान को फिल्म पान सिंह तोमर के लिए नेशनल अवॉर्ड से सम्मानित किया गया और साथ ही उन्हें वर्ष 2011 में भारत सरकार की तरफ से पद्मश्री से सम्मानित किया गया।

इर$फान मौजूदा दौर के उन अभिनेताओं में हैं, जो अपने आप को फिल्मों में नायक की भूमिका के दायरे तक महदूद नहीं रखते। वे यदि लाइफ इन ए मेट्रो, आजा नचले, क्रेजी-4 और सनडे जैसी फिल्मों में महत्वपूर्ण चरित्र भूमिकाएं निभाते हैं, तो मकबूल, रोग और बिल्लू में केंद्रीय भूमिका भी निभाते हैं। गंभीर अभिनेता की छवि वाले इरफ़ान ख़ान समय-समय पर हास्य-रस से भरपूर भूमिकाओं में भी दर्शकों के सामने आते हैं। इनके अभिनय का जादू केवल भारत में ही नहीं पूरी दुनिया के लोगों पर छाया हुआ है। उन्होंने हॉलीवुड की सच अ लॉन्ग जर्नी(1988), द नेमसेक (2006), ए माइटी हार्ट (2007), दार्जीलिंग लिमिटेड (2007), स्लमडॉग मिलियनेयर (2008), लाइफ ऑफ पाई (2012), द अमेजिंग स्पाइडर मैन (2012), जुरासिक वल्र्ड (2015) व इन्फर्नो (2016) में काम किया है। 

उनके अभिनय का सफर नई बुलंदियों की ओर बढऩा था। लेकिन 2018 में उन्हें पता चला कि उन्हें न्यूरोएंडोक्राइन ट्यूमर है, जोकि एक किस्म का कैंसर है। इसके इलाज के लिए वे एक साल तक ब्रिटेन में रहे। कुछ दिन पहले उनकी माता का निधन हो गया था। कोरोना वायरस व लॉकडाउन के चलते वे अपनी मां के अंतिम संस्कार में शामिल नहीं हो पाए थे। और 29 अप्रैल को वे भी अपने सफर को पूरा करके चले गए। लोग उन्हें और उनके अभिनय को याद कर रहे हैं। रंगकर्मी नरेश प्रेरणा ने बताया कि ‘पहली बार उनको टीवी फिल्म में देखा था। फिल्म लेनिन के जीवन के बारे में थी-लाल घास पर नीले घोड़े। इरफान ने लेनिन की भूमिका अदा की थी। कमाल ये था कि लेनिन का गेटअप नहीं था फिर भी बेहतरीन ढ़ंग से लेनिन को देखते रह गया था। उनकी आवाज़ और अंदाज़ लोगों को अपने करीब ले जाते थे। वो हीरो नहीं थे लेकिन तमाम हीरो उनके सामने पानी भरते थे। वे स्टार का मायाजाल नहीं बुनते थे बल्कि एक आम इन्सान की संभावनाओं को खोजते हुए किरदार को बुनते थे। विश्व सिनेमा उनका मंच बन गया था। अभी तो उनको बहुत कुछ करना था।’ एनएसडी पासआउट स्नेहा कुमार, गोगे बाम व नरेश नारायण ने इरफान की असामयिक मौत पर गहरा दुख व्यक्त करते हुए कहा कि बड़े स्टार बनने के बाद भी उनमें लेश मात्र भी अहम नहीं था। वे कलाकारों को आगे बढ़ाते थे और प्रेरणा देते थे। रंगकर्मी कृष्ण नाटक ने उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए कहा- ‘मैं इरफान हूँ, अंग्रेजी मीडियम का लाजवाब इंसान हूँ, लंचबॉक्स में प्यार का अहसास हूँ, हैदर में रूह का आभास हूँ, स्लमडाग मैलेनियर का चेहरा ए खास हूँ, करामाती कोट में बच्चों की भी आस हूँ, आन हूँ, इरफान हूँ, इसीलिए तेरे जाने से में भी कितना परेशान हूँ।’

Thursday, April 23, 2020

अंधकार में सूरज बन कर सबको दे उजियारा पुस्तक

विश्व पुस्तक दिवस (23 अपै्रल) पर विशेष

अच्छी किताबों और अध्ययन संस्कृति के विकास की उपेक्षा क्यों?

अरुण कुमार कैहरबा
AJIT SAMACHAR 23-04-2020

अंधकार में सूरज बन कर सबको दे उजियारा पुस्तकजब भी भटकें सही दिशा से बने भोर का तारा पुस्तक।
किसी कवि की ये पंक्तियां हमारे जीवन में किताबों की अहमियत को बयां करती हैं। किताबें केवल समय काटने का साधन ही नहीं हैं, बल्कि एक बेहतर सहयोगी, सद्भावनापूर्ण, तर्कशील, विचारशील व ज्ञान आधारित नागरिक समाज के निर्माण में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका है। बढ़ती मारधाड़ व आपाधापी का इलाज अध्ययन संस्कृति के जरिये हो सकता है। क्योंकि किताबें मनुष्य की पाशविकता को सोखकर संवेदनशील बनाती हैं। शिक्षा भी यही काम करती है। शिक्षा किताबों के संसार से हमारा परिचय कराती है। किताबें हमारी जिज्ञासाओं को शांत करती हैं। हमारी मानसिक व बौद्धिक जरूरतें पूरी करने में इनकी अहम भूमिका है। ये हमें सपना देखना सिखाती हैं। इन सपनों को साकार करने का रास्ता भी दिखाती हैं। किताबें हमें प्रश्र पूछना सिखाती हैं। ये हमें आत्मविश्वास देती हैं। इनके जरिये ही बच्चे व युवा जीवन की ऊंचाईयां हासिल करते हैं। 
शैक्षिक संस्थानों से यह अपेक्षा की जा सकती है कि वे विद्यार्थियों को बेहतर किताबें उपलब्ध करवाएंगी। पढऩे-पढ़ाने की संस्कृति का विकास करेंगी। लेकिन बदकिस्मती है कि ऐसा हो नहीं रहा। बेहतर नागरिक बनने-बनाने की बजाय यहां पर किताबें पढऩे-पढ़ाने का मकसद परीक्षा की वैतरणी को पार करना हो गया है। उद्देश्य की यह संकीर्णता यहीं तक सीमित नहीं रहती, आगे बढ़ते हुए यह संकीर्णता कुंजियों के अध्ययन-अध्यापन और रट्टापद्धति में सिमट गई है। अध्यापकों और सुविधाओं की कमी के चलते भी उद्देश्य व्यापक होने की बजाय संकीर्ण होते गए हैं और शिक्षा विद्यार्थियों की सृजनशीलता को पल्लवित-पुष्पित करने की बजाय उसे कुंद करने पर तुल गई है। 
बच्चों को तो छोड़ ही दें, अध्यापकों में भी पढऩे की संस्कृति का अभाव है। अधिकतर अध्यापक प्राय: पढ़ाए जाने वाली विषय-वस्तु का कामचलाऊ ज्ञान रखते हैं और लिपिकीय कार्य की भांति ही अपने शिक्षण कार्य को भी अंजाम देते हैं। यही कारण है कि स्कूलों में पुस्तकालयों की स्थिति बेहद चिंताजनक है। अधिकतर सरकारी स्कूलों में पुस्तकालयों का प्रावधान होता है। प्राथमिक पाठशालाओं में भी पुस्तकालय के नाम पर किताबें तो होती ही हैं। लेकिन अध्यापक उन्हें अक्सर संदूक या पेटी में भरे रखते हैं। खुद ही किताबों को पढऩे में रूचि नहीं रखने के कारण उन्हें किताबों को संदूकची की कैद से मुक्त करवाने में भी दिलचस्पी नहीं रहती है। किताबें खुद ही जब कैद हो जाएंगी तो वे मुक्ति का माध्यम कैसे बनेंगी? उच्च एवं वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालयों में पुस्तकालय को विद्यार्थियों की जरूरतों के अनुसार सम्पन्न बनाने के लिए हर वर्ष अनुदान दिया जाता है। लेकिन जरूरतों की बजाय पुस्तकालयों में लुगदी साहित्य का ढ़ेर लगता जाता है। जैसे हर स्थान पर बाजार ने घुसपैठ की है, उसी प्रकार किताबों का भी एक भरापूरा बाजार है। लुगदी साहित्य मतलब जिसकी उपयोगिता शिक्षा कर्म में लोगों को ना हो, बल्कि बाजार के लाभ के लिए हो। ऐसे साहित्य का बाजार स्कूलों को विभिन्न प्रकार के प्रलोभन देता है और अपना वर्चस्व बनाए रखता है। मुनाफे के लालच में कुंजीनुमा किताबों के प्रकाशक स्कूलों में पहुंचते हैं। स्कूलों को कमीशन देते हैं और अपनी किताबें डाल कर चलते बनते हैं। ऐसे में बच्चों के सर्वांगीण विकास और अध्ययन संस्कृति के विकास के प्रति तो उदासीनता स्पष्ट हो जाती है। स्कूलों में पुस्तकालय सबसे कम महत्व का स्थान है। निजी स्कूलों की स्थिति इससे भी अधिक चिंताजनक है। अधिकतर स्कूलों में तो पुस्तकालय देखने को भी नहीं मिलता। कॉलेजों व विश्वविद्यालयों में भी पुस्तकालयों और किताबें पढऩे की स्थिति ज्यादा अच्छी नहीं है। खुद किताबें तलाशनें और पढऩे की प्रति कम ही विद्यार्थियों का रूझान होता है।
सरकारों द्वारा स्मार्ट सिटी और स्मार्ट विलेज की अवधारणाओं को जमकर उछाला जा रहा है। आदर्श गांव-शहर के विविध आयामों पर चर्चा भी होती है। इन्हें नेताओं द्वारा भी अपने भाषणों में मुद्दा बनाया जाता है। लेकिन पुस्तकालय व किताबें पढऩे की संस्कृति उनके भाषणों से नदारद रहती है। देश भर में विकास के नाम पर तरह-तरह के उपाय किए जा रहे हैं। सडक़ों का निर्माण, ग्राम सचिवालय, वाई-फाई की सुविधा, बड़े-बड़े भवन आदि बन रहे हैं। लेकिन कितने ही कस्बों और शहरों में पुस्तकालय बनाने की तरफ ध्यान नहीं दिया जाता। कईं बार तो ऐसा भी लगता है जैसे किताबों और किताबों से होने वाले सशक्तिकरण से हमारे राजनेता भय खाते हैं। इसीलिए तो बने-बनाए पुस्तकालयों को विकास की भेंट चढ़ा दिया जाता है। हरियाणा के करनाल में पाश पुस्तकालय को मेडिकल कॉलेज के नाम पर ध्वस्त कर दिया जाना इसी प्रकार का उदाहरण दिखाई देता है। 
गांवों में तो पुस्तकालय खोलने के बारे में सोचा भी नहीं जाता। हरियाणा और पंजाब जैसे राज्यों में कईं पंचायतें बहुत ही सम्पन्न हैं, जिनकी सालाना आमदनी करोड़ों-अरबों में है। वहां पर बड़े-बड़े बारात घर बन रहे हैं। पंचायतों और लोगों द्वारा बहुत ही महंगे आयोजन होते हैं। लेकिन पंचायतें गांव में एक अदद पुस्तकालय खोलने के बारे में नहीं सोचती हैं। लोग भी ना जाने कैसी चीजों में उलझ गए हैं कि मिलकर एक पुस्तकालय खोलने के बारे में नहीं सोचते। जहां से बच्चे व युवा ज्ञान व आनंद के लिए पढऩे का हुनर सीखें। मूल्यहीनता की स्थिति में इस सारे विकास को हम बेकार होते हुए देख रहे हैं, लेकिन मूल्यों व बेहतर संस्कारों के लिए स्थायी उपाय की तरफ नहीं सोच पा रहे हैं। आज स्मार्ट गांव व शहर बनाने के लिए अध्ययन संस्कृति के विकास और पुस्तकालय की अनिवार्यता के विचार को जोर-शोर से उठाए जाने की जरूरत है। समाज में भी किताबों की अहमियत को लेकर विचार-विमर्श का माहौल बनाए जाने की जरूरत है। अध्ययन संस्कृति और विचार-विमर्श की संस्कृति का गहरा संबंध है। किताबें हमारे बीच आएंगी। उन्हें पढ़ा जाएगा तो संवादहीनता और मुद्दाविहीन समाज में मुद्दे केन्द्र में आएंगे और उन पर चर्चा भी हो पाएगी। 21वीं सदी में विकास के दावों और अंधविश्वास, जात-पात, साम्प्रदायिकता व भेदभाव की उपस्थिति की सबसे बड़ी वजह किताबों की अनुपस्थिति है। इसी कारण से हम बहुत से संतों-महापुरूषों के नाम लेते हैं। उनकी पूजा भी करते हैं, लेकिन उनके विचारों को जानते तक नहीं। आईये आज के दिन हर गांव में पुस्तकालय और हर विद्यार्थी के हाथ में किताब, उसके अध्ययन और विचार-विमर्श को मुद्दा बनाएं।

Wednesday, April 22, 2020

BLOOD DONATION IN BLOOD BANK KARNAL DURING LOCKDOWN

लॉकडाउन में ब्लड बैंक में किया जा सकता है रक्तदान

रैडक्रॉस सोसायटी के डीटीओ एमसी धीमान रक्तदाताओं को लाने में जुटे


करनाल, 22 अप्रैल
लॉकडाउन के चलते रक्तदान शिविर आयोजित नहीं हो पाने के कारण अस्पतालों में खून की निरंतर जरूरत पड़ रही है। इस जरूरत को पूरा करने के लिए रैडक्रॉस सोसायटी करनाल व सेंट जॉन एंबूलैंस इंडिया करनाल के द्वारा आए दिन रक्तदताओं को प्रेरित किया जा रहा है। रैडक्रॉस सोसायटी के जिला प्रशिक्षण अधिकारी एमसी धीमान स्वयंसेवियों से सम्पर्क करके ब्लड बैंक में रक्तदान करवा रहे हैं। बुधवार को इन्द्री क्षेत्र से प्राध्यापक अरुण कुमार कैहरबा, अध्यापक जसविन्द्र पटहेड़ा, गांव कमालपुर रोड़ान से सुनील कुमार, कमल कुमार व विनोद कुमार सहित कुल 22 स्वयंसेवियों ने ब्लड बैंक में पहुंच कर रक्तदान किया। जबकि मंगलवार को 18 स्वयंसेवियों ने रक्तदान किया था। ब्लड बैंक इंचार्ज डॉ. संजय वर्मा के नेतृत्व में रजनी, मंजू, अनिल, राजकुमार व धर्मपाल सहित ब्लड बैंक की टीम सामाजिक दूरी की पालना करवाते हुए रक्तदाताओं को लाने, पंजीकरण व रक्त एकत्रित करने के काम में लगी हुई है।

थैलिसीमिया के मरीजों, अनिमिक मरीजों, दुर्घटना के शिकार घायलों व गर्भवती महिलाओं को समय-समय पर रक्त की जरूरत पड़ती है। लेकिन लॉकडाउन के कारण रक्तदान शिविर आयोजित नहीं हो पाने के कारण जरूरत के अनुसार रक्त जुटाना एक चुनौति है। रैडक्रॉस सोसायटी के डीटीओ एमसी धीमान ने बताया कि जिला के स्वयंसेवियों से निरंतर संपर्क करते हुए ब्लड बैंक में रक्तदान करवाया जा रहा है, ताकि जरूरतमंदों को खून की कमी नहीं आए। उन्होंने कहा कि रैडक्रॉस सोसायटी के साथ विभिन्न स्वयंसेवियों व संस्थाओं का संकल्प है कि खून की कमी में किसी की जान ना जाने पाए। उन्होंने कहा कि इस काम में मानव केयर संस्था के संजय गुप्ता, समाजसेवी संदीप सचदेवा व अन्य स्वयंसेवियों का उन्हें पूरा सहयोग मिल रहा है।
एमसी धीमान जरूरत के अनुसार रक्तदान करवाने के लिए दिन-रात सक्रिय रहते हैं। शाम व रात को भी स्वयंसेवियों के पास फोन आते हैं तो वे उनको ब्लड-बैंक में लाने की योजना बनाते हैं और एक-एक रक्तदाता से संपर्क करके उन्हें ब्लड बैंक तक लाते हैं। वे रक्तदान से जुड़ी हुई भ्रांतियों को दूर करने के लिए भी कार्य करते हैं। उन्होंने बताया कि रैड क्रॉस के स्वयंसेवी मनीष कुमार, कर्मचंद चड्ढ़ा ब्लड बैंक में रक्तदान के दौरान सेवाएं दे रहे हैं।
डॉ. संजय वर्मा ने बताया कि रक्तदान करने से शरीर को कोई नुकसान नहीं होता, बल्कि फायदा होता है। कोई भी स्वस्थ व्यक्ति तीन महीने के बाद रक्तदान कर सकता है। उन्होंने कहा कि रक्तदान से जुड़ी हुई भ्रांतियों को दूर करने के लिए सभी स्वयंसेवियों को कार्य करना चाहिए।
रक्तदान के लिए रक्तदाता को लाने के लिए घर पर जाएगी गाड़ी-
मसी धीमान व डॉ. संजय ने बताया कि इस संकट के समय में रक्तदाता बढ़-चढ़ कर आगे आएं। रक्तदाताओं को घर से ही लाने और ले जाने के लिए ब्लड बैंक की गाड़ी भेजी जाती है। कोई भी रक्तदाता एमसी धीमान के मोबाइल नंबर- 9416121414 पर संपर्क कर सकता है। प्राध्यापक अरुण कुमार कैहरबा ने अपील करते हुए कहा कि रक्तदान करने में संकोच ना करें। सामाजिक दूरी की पालना करते हुए नागरिक अस्पताल की गाड़ी में घर से निकलें और ब्लड बैंक पहुंच कर रक्तदान करें।

मास्क वितरण के साथ सामाजिक दूरी का संदेश दे रही रैडक्रॉस सोसायटी-
एमसी धीमान ने बताया कि रैडक्रॉस सोसायटी रक्तदान को बढ़ावा देने के साथ-साथ लोगों को सामाजिक दूरी बनाए रखने, घर में ही रहने और लॉकडाउन की पालना करने लिए प्रेरित कर रही है। इसके साथ-साथ जरूरतमंद लोगों को मास्क बांटे जा रहे हैं। बुधवार को रैडक्रॉस सायायटी के ब्रिगेड प्रभारियों ने घरौंडा, अराईंपुरा व कैमला में मास्क वितरित किए। उन्होंने बताया कि लॉकडाउन के दौरान अब तक सोसायटी पांच हजार के करीब मास्क वितरित कर चुकी है।

Sunday, April 5, 2020

#9बजे9मिनट BAS BAHANE

कविता- बस बहाने

कुछ लोग कहां मानें हैं
वो तो बस दीवाने हैं

कुछ टोटके बताए थे
बाकी तो बस छिपाए थे
नौ बजे नौ मिनट तक दीप जलाना
कोरोना को बस यूं भगाना
बाकी के टोटके नहीं बताने हैं
वे तो बस पूरे करवाने हैं
कुछ लोग..
दीप जलाकर लोग उत्साहित हुए
भाव इतने तेज प्रवाहित हुए
गलियों में लोगों के लग गए जमघट
हिलोरें लेने लगा उल्लास
जैसे दिवाली की हो आहट
लोग यहीं तक नहीं मानें हैं
वे तो ना जाने क्या ठाने हैं
कुछ लोग..
दिए के साथ में बम फोडऩा तो बनता है
कोरोना की कड़ तोडऩा तो बनता है
ऐसे कोरोना कहां सुनेगा
बमों के शोर में भागा फिरेगा
भक्त जनों के पक्के निशानें हैं
दीप जलाने के तो बस बहाने हैं 
-अरुण कुमार कैहरबा

SARTHAK KI KAHANI- DOSTI

बाल कहानी-     दोस्ती

रचनाकार-सार्थक

एक बार की बात है कि फल और सब्जी बड़े प्रेम से रहते थे। फलों और सब्जियों का आपस में भाईचारा था। फलों का राजा आम और सब्जियों का राजा आलू भी एक दूसरे के राज्य में कईं बार यात्रा करते थे। एक दिन शीलू गाजर ने फलों के राज्य में यात्रा करने की सोची। वह सुबह ही यात्रा पर निकल पड़ी। रात को वह फलों के राज्य में पहुंच गई। वह फलों के राज्य के बाजार में थी। वहां पर उसने सोचा कि जिसके घर मैं रहूंगी, उसके लिए थोड़ी मिठाई ले चलती हूँ। वह खुश हो जाएगा। वह मोती हलवाई की दुकान पर चढ़ी और बोली- ‘आधा किलो जलेबी देना।’
मोती जलेबी देते-देते बोला- ‘आप परदेशी लगती हैं।’
‘हां मैं यहां घूमने आई हूँ’- शीलू बोली
शीलू जलेबी लेकर जोजो लीची के घर पहुंची। जोजो ने शीलू का गर्मजोशी के साथ स्वागत किया। उसे पानी पिलाया। फिर दोनों आपस में बैठ कर बातें करने लगे। दोनों ने जलेबी खायी। जोजो लीची बोली-हम कुल्ला करके आते हैं। अगर कुल्ला नहीं करेंगे तो दांत में कीड़े लग जाएंगे। दोनों ने कुल्ला करके 5 मिनट टीवी पर मैच देखा और बैड पर सोने के लिए चले गए। शीलू गाजर थकी होने के कारण जल्दी सो गई। वे दोनों सुबह जल्दी उठ गए। फिर दोनों हर्बल पार्क में मोर्निंग वॉक करने गए। साथ में उन्होंने झूले भी झूले। झूला झूलते-झूलते शीलू गाजर से जोजा लीची को ठोकर लग गई। गोल-मटोल जोजो नीचे जा गिरी और उसकी टांग पर चोट आ गई। जोजो को लगा कि शीलू ने जानबूझ कर उसे मारा है। जोजो को बहुत गुस्सा आया। वह दौड़ कर फलों के राजा आम के पास गई। उसने अपने राजा से शीलू गाजर की शिकायत लगाई। राजा ने सब्जियों के राजा आलू के साथ टेलीफोन पर बात की-तुम्हारे राज्य की शीलू गाजर ने हमारे राज्य की जोजो लीची को झूले से नीचे गिरा दिया है और जोजो को गंभीर चोटें आई हैं। इसे हम कतई स्वीकार नहीं करेंगे। उसने कहा कि हम मीठे हैं तो क्या आप हमें मार कर चले जाएंगे। राजा आम को ऐसा गुस्सा पहली बार आया था। आम के मुंह से ऐसी कड़वी बातें सुन कर सब्जियों के राजा आलू का गुस्सा भी सातवें आसमान पर जा पहुंचा। उसने फोन पर ही जंग का ऐलान कर दिया। सुबह की ट्रेन पकड़ कर शीलू गाजर फलों के राज्य से अपने राज्य में पहुंच गई। वह सीधे आलू राजा के पास पहुंची। उसने आलू राजा को शिकायत लगाई कि गलती से उसका पैर जोजो को छू गया था और उसने आसमान सर पर उठा लिया।  आलू राजा फलों के राजा आम की जली-कटी बातें सुन कर पहले ही गुस्से में था। उसने अपनी सेना को जंग की तैयारी का आदेश दे दिया था। उसने कहा कि अब तो जंग ही एकमात्र उपाय है। राजा के गुस्से को देख कर कोई उन्हें समझाने की हिम्मत नहीं कर रहा था। राजा आलू ने अपनी सेना लेकर फलों के राज्य में कोहराम मचा दिया। वहां जाते ही एक बड़े वाहन में आग लगा दी। उसके कारण दूसरे वाहन में भी आग लग गई। उसके बाद राजा आलू और उसके सिपाहियों ने फलों के राजा के महल में आग लगा दी। उसमें राजा आम के 500 सिपाही थे और 105 सिपाही मर गए। राजा आम बच गए। राजा आम ने भी धावा बोल दिया। दोनों राजाओं की सेनाओं में जमकर लड़ाई हुई। दोनों सेनाओं के कितने ही सैनिक मारे गए। तभी सब्जियों में समझदार सिमी लौकी और फलों में से कीकू केला बीच में आए और चिल्लाए- ‘रूको।’ सारे सिपाही रूक गए। 
कीकू बोला-‘यह क्या कर रहे हो। क्यों एक दूसरे का जीवन बर्बाद कर रहे हो। आपको पता है कि राज्य में कितना नुकसान हो गया है। कितनी दुकानें जलकर राख हो गई हैं। हम सभी को एक साथ रहना है।’ 
सिमी बोली-‘आपस में लड़-झगड़ कर हम आगे नहीं बढ़ सकते। तुम देख नहीं रहे कि कितना खून बह गया है। कितने लोग मारे गए हैं।’ 
फलों का राजा बोला ‘तुम्हारा बहुत-बहुत धन्यवाद हमें गलती का अहसास कराने के लिये। अब हम जीवन की नई शुरूआत करेंगे, जिसमें दोनों राज्यों के सभी सदस्य प्रेम और दोस्ती से रहेंगे।’ 
-सार्थक
पता-वार्ड नं.-4, रामलीला मैदान, इन्द्री, जिला-करनाल, हरियाणा-132041 



Saturday, April 4, 2020

गीत- जीतेगी मानवता ही

मानवता के सामने दुश्मन है नया कोरोना
जीतेगी मानवता ही तुम धैर्य अपना ना खोना

DAINIK AJIT SAMACHAR 04/04/2020