Tuesday, September 26, 2017

विश्व पर्यटन दिवस (27सितंबर) पर विशेष


एकता और विकास का सशक्त माध्यम है सैर-सपाटा

अरुण कुमार कैहरबा

मानव जीवन केवल धन कमाने के लिए नहीं है। धन इसलिए कमाया जाता है ताकि जरूरतें पूरी हो सकें। हमारे देश में जरूरतें पूरी करते हुए धन कमाते-कमाते कईं बार जीवन का ही अवमूल्यन हो जाता है और धन कमाना लक्ष्य बन जाता है। अब जरूरतों की बात की जाए तो आनंद, ज्ञान और अनुभव प्राप्ति मानव जीवन
DAINIK SAVERA TIMES 27-9-2017

DAINIK JAGMARG 27-9-2017
का एक लक्ष्य होना चाहिए। यह लक्ष्य पूरा करने के लिए सैर-सपाटा या पर्यटन एक बड़ा माध्यम है। इसको ध्यान में रखते हुए शायर ख्वाजा मीर दर्द ने कुछ यूं कहा है-

सैर कर दुनिया की गाफिल जिंदगानी फिर कहां,
जिंदगानी गर रही तो ये जवानी फिर कहां।
ख्वाजा मीर साहब ही नहीं दुनिया में अनेक दार्शनिकों ने सैर-सपाटे की अहमियत को बताया है। पर्यटन की अहमियत पर हिन्दी के जाने-माने साहित्यकार एवं दुनिया की सैर करके सीखते रहे राहुल सांकृत्यायन ने इसको लेकर पूरा ‘घुमक्कड़-शास्त्र’ ही लिख रखा है। दुनिया को एक सूत्र में पिरोने और ज्ञान का प्रसार करने में घुमक्कड़ों का बड़ा योगदान रहा है। एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमने वाले व्यक्ति नए अनुभव अर्जित करते हुए अपने अनुभवों से दूसरों को परिचित करवाते हैं और अनेक प्रकार की भ्रांतियों और पूर्वाग्रहों को दूर करते हैं। एक छोटे से दायरे में रहने के कारण हम अपने बारे में मिथ्या धारणाएं पाल लेते हैं। कईं बार अपने को कम आंकने लगते हैं और दूसरों को ज्यादा तथा कईं बार इसका उलट होता है। दूसरे स्थान पर जाने से स्थितियों और वातावरण के अनुकूल जीवन के विविध रूपों, परंपराओं और रीति-रिवाजों के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण विकसित होता है। घूमने का आनंद तो सभी को रोमांचित कर देता है। 
आज पर्यटन सामाजिक-सांस्कृतिक आदान-प्रदान ही नहीं आर्थिक तरक्की का भी मुख्य जरिया है। जिस स्थान पर लोग घूमने के लिए जाते हैं, वहां के लोगों को रोजगार के अवसर प्राप्त होते हैं। इससे लोगों के जीवन में खुशहाली आ सकती है। दुनिया भर में अनेक स्थान घूमने का आनंद लेने के लिए बेहतर माने जाते हैं। भारत में भी अनेक स्थानों पर दुनिया भर के पर्यटक खिंचे चले जाते हैं। कुछ ऐसी समस्याएं भी हैं, जोकि किसी पर्यटक स्थान पर लोगों को आने से रोकती हैं। भारत में कश्मीर ऐसा ही स्थान है, जहां पर सुंदर प्राकृतिक नजारों के बावजूद आतंकवाद और अशांति की खबरें लोगों को वहां जाने से रोक देती हैं। हमारे देश की भौगोलिक, प्राकृतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक विविधताओं के कारण पर्यटन के विकास की अपार संभावनाएं हैं, लेकिन उन संभावनाओं का हम फायदा नहीं उठा पा रहे हैं। इसका एक बड़ा कारण तो कुप्रबंधन, अस्वच्छता एवं गंदगी है। सफाई की स्वस्थ आदतों के अभाव में हमने पूरे देश को कूड़दान में तब्दील कर दिया है। कहीं भी कूड़ा डालने की प्रवृत्ति के कारण हमने अपने वैश्विक धरोहर के रूप में विख्यात स्थानों को भी गंदा कर दिया है। हमारे अनेक स्थान तो सरकारी उपेक्षा का शिकार हैं। इसे अपने ही शहर के उदाहरण के द्वारा बयां करुं तो ज्यादा ठीक होगा। हरियाणा के शहर इन्द्री में शहर के इतिहास के दो महत्वपूर्ण स्थान हैं। एक इन्द्री का किला और दूसरा शीशमहल। किले को उजाड़ कर लोगों ने कब्जे कर लिए हैं। शीशमहल के अंदर खड़े झाड़-झंखाड़ लोगों को खुले में शौच जाने की सुरक्षित जगह लगते हैं। यदि हम अपने गांव और छोटे-छोटे शहरों के इतिहास को दर्शाने वाले स्थानों को सुरक्षा प्रदान करने साफ-स्वच्छ कर लें तो यही स्थान आस-पास के लोगों के लिए भी पर्यटक स्थल हो सकते हैं। पर्यटन के बारे में एक स्वस्थ नजरिया विकसित करने की जरूरत है। पंचायती राज संस्थाओं, नगर संस्थाओं और सरकारों को ही नहीं स्वयंसेवी संस्थाओं को स्वच्छता, सुंदरता और पर्यटन की संभावनाओं पर गहरा आत्ममंथन करने और सक्रियता के साथ काम करना होगा। 
दुनिया भर में 27सितंबर को विश्व पर्यटन दिवस मनाया जाता है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने इसकी शुरूआत 1980 में की थी। क्योंकि इसी दिन विश्व पर्यटन संगठन का संविधान स्वीकार किया गया था। पर्यटन को लेकर जागरूकता फैलाने के लिए हर वर्ष एक विषय तय किया जाता है। वर्ष 2017 के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ ने ‘सतत पर्यटन-विकास का एक औजार’ विषय निर्धारित किया है और 2017को विकास के लिए सतत पर्यटन का अन्तर्राष्ट्रीय वर्ष भी घोषित किया है। संयुक्त राष्ट्र महासभा का मानना है कि 2015 में भारत सहित दुनिया के 193 देशों द्वारा स्वीकार किए गए 17सतत विकास लक्ष्य पूरा करने में पर्यटन भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। सरोकारों को पर्यटन से जोड़ दें तो शांति, सद्भावना, समानता, न्याय, पर्यावरण संरक्षण, सबको शुद्ध पानी, पर्याप्त भोजन, स्वास्थ्य, शिक्षा और सामूहिक सक्रियता आदि लक्ष्यों को आसानी से प्राप्त किया जा सकता है।

Monday, September 25, 2017

ताऊ देवी लाल की जयंती (25सितंबर) विशेष

नई राजनीतिक संस्कृति का सूत्रपात करने वाले थे ताऊ देवी लाल

अरुण कुमार कैहरबा

राजनेताओं में सत्ता का मोह एवं स्वेच्छाचारिता लोकतांत्रिक व्यवस्था को नाकाम बना देते हैं। लोकराज की सफलता के लिए सत्ता पक्ष और विपक्ष का जनता के सबसे कमजोर वर्ग की अपेक्षाओं और आकांक्षाओं से जुडऩा बहुत जरूरी है। गरीब किसान, मजदूर, मेहनतकश, पिछड़ा, घुमंतु, दलित, महिला व अल्पसंख्यक के दुख-दर्द व मन की भावनाओं को समझना और उसके अनुरूप अपनी योजनाएं बनाने वाले नेता लोगों में अपनी अलग पहचान बनाते हैं। राजनीति में किसानों के मसीहा व जननायक के नाम से विख्यात ताऊ देवी लाल ऐसे ही राजनेता थे, जिन्होंने कमजोरों के लिए संघर्ष किया। वे कहा करते थे-लोकराज लोकलाज से ही चलता है। यह उनका कोई तकिया कलाम ही नहीं था, बल्कि राजनीति का सिद्धांत था। देश की राजनीति में वे विपक्षी एकता के प्रतीक बन गए थे।
देवी लाल का जन्म 25सितंबर, 1914 को सिरसा के गांव तेजाखेड़ा में चौ. लेखराम व शुंगा देवी के सम्पन्न जमींदार परिवार में हुआ था। तब देश अंग्रेजों का गुलाम था। आजादी के लिए अंग्रेजी शासन के खिलाफ चल रहे आंदोलन ने कम उम्र के बालक को अपनी ओर खींचा और वे तत्कालीन राजनीतिक गतिविधियों में हिस्सा लेने लगे। 1929 में उन्होंने कांग्रेस लाहौर अधिवेशन में एक स्वयंसेवी के रूप में हिस्सा लिया। देशप्रेम के कारण ही दसवीं कक्षा में उन्हें स्कूल से निकाल दिया गया। इससे वे स्वाधीनता आंदोलन में कूद पड़े और उन्हें कईं बार जेल भी जाना पड़ा। देश की आजादी के बाद संयुक्त पंजाब की राजनीति में सक्रिय हो गए। विधायक व मुख्य संसदीय सचिव आदि पदों पर रहते हुए हरियाणा की जनता के हितों के लिए वे ताकतवर मुख्यमंत्रियों से भी टकराए। संयुक्त पंजाब में हिन्दी भाषी क्षेत्रों में विकास के मामले में भेदभाव होता देखकर उन्होंने अलग राज्य की मांग उठाई और इसके लिए अथक संघर्ष किया। उनके संघर्षों से 1नवंबर, 1966 में हरियाणा के रूप में अलग राज्य अस्तित्व में आया और उन्हें हरियाणा के निर्माता होने का सम्मान प्राप्त हुआ। देश में आपातकाल लगाया गया तो इसका उन्होंने विरोध किया और जेल में डाल दिए गए। 1977 से 1979 तथा 1987 से 1989 तक वे हरियाणा के मुख्यमंत्री रहे। प्रदेश का मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने जो नीतियां लागू की, उससे देश भर में उनको पहचान मिली। 19अक्टूबर,1989 से 21जून, 1991 तक वे भारत के उप-प्रधानमंत्री रहे। जनता दल की सरकार में तब उन्हें सर्वसम्मति से प्रधानमंत्री चुना जा रहा था। लेकिन वे देश के अति महत्वपूर्ण पद पर खुद ना बैठ कर वी.पी. सिंह को बैठा दिया और स्वयं उपप्रधानमंत्री बन गए। त्याग की भावना और दूसरों को आगे करने के कारण ही उन्हें राजनीति का भीष्म पितामह कहा जाता है। छह अप्रैल, 2001 में उनकी मृत्यु हो गई।
मुख्यमंत्री रहते हुए हरियाणा में विभिन्न प्रकार के नाजायज टैक्स व अफसरशाही को समाप्त करने में उनका अहम योगदान रहा। उन्होंने वृद्धावस्था पैंशन शुरू करके देशभर में नाम कमाया। अपने शासनकाल में उन्होंने घुमंतु समुदायों की सूची बनवाई और स्कूल में हाजरी होने पर प्रति बच्चा प्रतिदिन के हिसाब से एक रूपया देने की घोषणा की ताकि बच्चे स्कूलों में आ सकें और शिक्षा से अपने जीवन को संवार सकें। गांव और किसान उनकी राजनीति के केन्द्र-बिंदु थे। वे मानते थे कि असली भारत तो गांव में ही बसता है। वे कहा करते थे-भारत के विकास का रास्ता खेतों से होकर गुजऱता है। जब तक गऱीब किसान, मज़दूर इस देश में सम्पन्न नहीं होगा, तब तक इस देश की उन्नति के कोई मायने नहीं हैं। इसलिए वो अक्सर यह दोहराया करते थे- हर खेत को पानी, हर हाथ को काम, हर तन पे कपड़ा, हर सिर पे मकान, हर पेट में रोटी, बाकी बात खोटी। अपने इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए उन्होंने जीवनभर संघर्ष किया। किसानों की आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए उन्होंने फसलों के लाभकारी मूल्यों और कर्जा मुक्ति के उपाय किए।     
ताऊ देवी लाल मानते थे कि देश में दो वर्ग हैं-लुटेरे और कमेरे। लुटेरों का साथ और सहयोग लेकर राजनेता कमेरों के लिए काम नहीं कर सकते। वे चुनावों में भी जनता का सहयोग लेने में विश्वास रखते थे। इसलिए उन्होंने एक वोट-एक नोट का नारा दिया था। हरियाणा के गांव-गांव में उन्होंने चौपालें बनवाईं। प्रदेश व देश की राजनीति में सक्रिय रहते हुए जहां उन्होंने नीति के स्तर पर बदलाव किया, वहीं सत्ता के नशे में गांव-देहात व किसान-मजदूर को नहीं भूले। गांव में खेत में काम कर रहे और या फिर हुक्का गुडग़ुड़ा रहे लोगों के बीच बैठकर उनके साथ बात करना उनका शौक था। सत्ता के नशे से दूर लोगों के बीच में बैठकर उनके मन की बात जानना और उसके अनुकूल कार्य करना अपना धर्म मानते थे। वे मानते थे कि सत्ता सिर्फ अपने मन की बात करने या सुख भोगने के लिए नहीं है, बल्कि जनसेवा के लिए है। पुत्रमोह, परिवारवाद और जातिवादी राजनीति के लिए उनकी आलोचना भी की जाती है, लेकिन हरियाणा ही नहीं देश की राजनीति में उन्हें हमेशा याद रखा जाएगा।

Friday, September 22, 2017

हरियाणा एवं शहीदी दिवस (23सितंबर) पर विशेष

हरियाणा के वीरों ने अपनी कुर्बानियों से बढ़ाया देश का मान

अरुण कुमार कैहरबा

भारत की आजादी की लड़ाई में संघर्षों और शहादतों का बड़ा ही गौरवशाली इतिहास रहा है। स्वतंत्रता आंदोलन में वीरता और बहादुरी के अनेक प्रकार के उदाहरण देखने को मिलते हैं। इस आंदोलन का आगाज़ 1857 से होता है, जब बड़े पैमाने पर अंग्रेजों की साम्राज्यवादी एवं उपनिवेशवादी नीतियों के खिलाफ आक्रोश और विद्रोह देखने को मिला। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता आंदोलन के देश भर में अनेक केन्द्र थे और विभिन्न रियासतों के राजा उसका नेतृत्व कर रहे थे। बहादुर शाह जफर, मंगल पांडे, तात्या टोपे, नाना साहब, कुंवर सिंह, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, बेगम हजरत महल, रानी राजेश्वरी देवी सहित अनेक नेता थे, जिन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ लोगों का नेतृत्व किया। एक नवंबर, 1966 को आजाद भारत में अलग राज्य के रूप में अस्तित्व में आए हरियाणा के लोगों ने भी इस आंदोलन में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया और शहादतें दी। इन्हीं में से एक थे-राजा राव तुलाराम। राव तुलाराम 1857 की क्रांति के महान नायक थे। भारत से अंग्रेजी शासन का खात्मा करने के लिए अहीरवाल के राजा राव तुलाराम ने हजारों सैनिकों की बहादुर सेना तैयार की और अंग्रेजों की सेना के साथ जंग लड़ा। स्वतंत्रता आंदोलन का वह महानायक काबुल में अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चेबंदी करते हुए 23सितंबर 1863 को गंभीर रूप से बीमार होकर शहीद हो गया था। उन्हीं के शहीदी दिवस को हरियाणा वीर एवं शहीदी दिवस के रूप में मनाया जाता है।
यह दिन जंगे-आजादी में 1857 की पहली क्रांति, आजादी की लड़ाई के नायक राव तुलाराम तथा आजादी की लड़ाई में हरियाणा के योगदान की एक साथ याद दिलाता है। राव तुलाराम का जन्म 9दिसंबर, 1825 को रेवाड़ी के राज परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम राव पूर्ण सिंह और माता का नाम ज्ञान कुंवर था। पांच साल की अवस्था में शुरू हुई शिक्षा में शस्त्र चलाना और घुड़सवारी भी सिखाई जा रही थी। जब तुलाराम 14साल के हुए तो पिता राजा पूर्ण सिंह की मृत्यु हो गई। इस अल्पायु में ही उनके कंधों पर राजपाट की जिम्मेदारी भी आ गई। 1857 में पहले स्वतंत्रता आंदोलन की लहर जब अहीरवाल पहुंची तो राव तुलाराम ने आंदोलन में हिस्सा लेने में देर नहीं लगाई। राव तुलाराम ने क्रांति का बिगुल बजा दिया। क्रांतिकारी नेताओं ने बहादुर शाह जफर को हिंदोस्तान का बादशाह घोषित कर दिया। राव तुलाराम ने अंग्रेजों के शासन को समाप्त करने का ऐलान कर दिया। तुलाराम की तैयारियों को देखते हुए अंग्रेज गुडगांव व आसपास के क्षेत्र को छोड़ कर भाग खड़े हुए। लेकिन संगठित होकर राव तुलाराम को घेरने की कोशिश की। राव तुलाराम के हजारों सैनिकों की सेना नसीबपुर के मैदान में पूरी वीरता के साथ अंग्रेजी सेना के साथ लड़ी। हरियाणा के मजदूर व किसान परिवारों के वीरों ने सुविधाओं व हथियारों से सम्पन्न अंग्रेजी सेना के छक्के छुड़ा दिए। अंग्रेजों के कर्नर जैराल्ड व अनेक अफसर मारे गए। लंबे संघर्ष के बाद राव तुलाराम घायल हो गए और राजस्थान की तरफ चले गए। इलाज के बाद वे अंग्रेजों के खिलाफ मदद मांगने के लिए अनेक शहरों से होते हुए
DAINIK HARIBHOOMI 23-9-2017


DAINIK JAGMARG 23-9-2017
DAINIK PAL PAL 23-9-2017
काबुल पहुंचे। अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चेबंदी करते हुए बीमारी की चपेट में आने से 23सितंबर, 1863 को उनका देहांत हो गया। 1957 में प्रथम स्वतंत्रता आंदोलन के शताब्दी वर्ष में नारनौल व रामपुरा में सरकार ने शहीद राव तुलाराम की याद में शहीदी स्मारक बनवाए।
हरियाणा वीरों की भूमि है। वीरता और साहस की सार्थकता तभी है, जब इसका प्रयोग समाज व देश हित में किया जाए। 1857 के पहले स्वतंत्रता आंदोलन में ही नहीं हरियाणा के वीरों ने इससे पहले और बाद में आजादी की लड़ाई में हिस्सा लिया। आजादी की लड़ाई की महान विरासत की खूबी यह है कि उसमें युवाओं का साहस और उनकी कुर्बानियां विचारहीन नहीं थी। अंग्रेजी दासता व अत्याचारों से अपमान की पीड़ा और क्रांति का विचार प्रेरक शक्ति थी, जो युवाओं को कुर्बानियों के लिए आगे बढ़ाती थी। आजादी के बाद में भारतीय सेना के तीनों अंगों और सुरक्षा बलों में हरियाणा के युवाओं का अहम स्थान रहता है। हरियाणा के वीर एवं शहीदी दिवस पर वीरों की शहादतों को श्रद्धांजलि देते हुए हरियाणा में सामाजिक परिवर्तन के बारे में संकल्प करने की जरूरत है। प्रति व्यक्ति आय, खेती में फसलों की पैदावार और सेनाओं व सुरक्षा बलों में अव्वल रहने वाले हरियाणा में समाज को कन्या भ्रूण हत्याओं, ऑनर कीलिंग और जातिवाद के कलंक से मुक्त करने का संकल्प भी लिया जाना चाहिए।

Wednesday, September 20, 2017

विश्व शांति दिवस (21सितंबर) पर विशेष

युद्ध और विनाश नहीं, शांति और विकास हो

अरुण कुमार कैहरबा

DAINIK HARIBHOOMI 21-9-2017
देश-दुनिया के पूरे परिदृश्य पर निगाह दौड़ाई जाए तो निराशाजनक स्थितियां साफ दिखाई देती हैं। एक देश दूसरे देश से प्रतिद्वंदिता में लगा है। युद्ध हो रहे हैं या फिर युद्ध की तैयारियां हो रही हैं। परमाणु बमों के परीक्षण हो रहे हैं। युद्ध का भरा पूरा बाजार है। विश्व के पैमाने पर कुछ देश अपना वर्चस्व कायम करने के लिए साम्राज्यवादी सोच को बढ़ावा दे रहे हैं। युद्ध का सामान का उत्पादन करने वाली कंपनियां देशों की विदेश नीतियों को संचालित कर रही हैं। अपना सामान बेचने के लिए वे दुनिया को युद्ध की आग में झोंक रही हैं। पूंजीवादी, साम्राज्यवादी और नव-उपनिवेशवादी विचारधाराएं लेकर कुछ देश लोकतंत्र के ध्वजवाहक भी बने हुए हैं। ऐसे में शांति कैसे स्थापित होगी, यह एक ज्वलंत प्रश्र है।
DAINIK HIMACHAL DASTAK 21-9-2017
पूरी दुनिया युद्धों, साम्प्रदायिक हिंसा और दंगों के दुष्परिणामों से भली-भांति परिचित है। कितनी बड़ी आबादी इसकी भेंट चढ़ चुकी है। कितने लोगों को अपने हंसते-खेलते घरों से उजडऩा पड़ा है। हम विश्वयुद्धों का संताप झेल चुके हैं। हिरोशिमा और नागाशाकी में परमाणु बमों से पैदा हुए विनाश को भी झेल चुके हैं। लेकिन फिर भी युद्धों से बाज नहीं आ रहे। देश के अंदर भी विकास के मुद्दों से ध्यान भटकाने के लिए किसी देश को दुश्मन देश करार देकर छदम युद्ध का माहौल बना दिया जाता है। यह एक बेहद घातक रूझान है। राष्ट्रीय सुरक्षा का प्रश्र अहम है, यह तो सही है लेकिन क्या बाहरी हमले की आशंकाओं को आधार बनाकर राजनीति करना उचित है।
DAINIK SAVERA TIMES 21-9-2017
युद्ध और आतंकवाद के घातक परिणामों से साहित्य भरा हुआ है। युद्ध संवेदनशीलता को समाप्त कर देता है और मनुष्य को हैवान बना देता है। मलाला युसूफजई ने तालिबानी आतंकियों द्वारा पाकिस्तान में किए गए अत्याचारों का मार्मिक चित्रण किया है। तालिबान द्वारा स्कूल बंद कर दिए जाने और लड़कियों पर लगाई गई पाबंदियों से पैदा हुई व्यथा को बयां किया तो आतंकी उसकी जान के दुश्मन बन गए। इसी प्रकार दूसरे विश्व युद्ध के दौरान जर्मनी में हिटलर की अगुवाई में यहुदियों को दी गई यातनाओं और जनसंहार को ऐन फ्रैंक ने अपनी डायरी में लिखा, जिससे हिटलर के अत्याचारों से दुनिया रूबरू हुई। दुनिया में अमन-शांति और संवेदनशीलता का माहौल पैदा करने में साहित्य व कलाओं का महत्वपूर्ण योगदान है। साहित्य कमजोर के पक्ष में खड़ा होकर न्यायसंगत व समता पर आधारित व्यवस्था की स्थापना के पक्ष को मजबूत करता है। लेकिन आजकल कविता को भी युद्धोन्माद पैदा करने का जरिया बनाया जा रहा है। कविताओं में कवियों को किसी देश या दुश्मन को ललकारने को देखा हुआ जा रहा है। देश में बहुत से चैनल टाइम पास करने के लिए किसी देश को दुश्मन देश करार देकर मोर्चेबंदी करते हुए देखे जा रहे हैं।
ऐसे में शांति की पक्षधरता करते हुए मजबूती से खड़े होने की जरूरत है। आज जब सोशल मीडिया के द्वारा सूचनाएं और अफवाहें पल भर में ही पूरी दुनिया में फैल जाती हैं तो सही-गलत की पहचान करके युद्ध के किसी छदम आह्वान को नाकाम करने की जरूरत है। शांति कमजोरी नहीं है। आजादी की लड़ाई में गांधी जी ने अहिंसा का प्रयोग करके दिखाया कि अहिंसा के जरिये भी अत्याचारी ताकतों को डराया जा सकता है। आज गरीबी, महंगाई, बेरोजगारी हमारे सबसे बड़े दुश्मन हैं। विकास की राह तैयार करने के लिए शांति और अहिंसा मजबूत शस्त्र हैं। इन शस्त्रों का प्रयोग करना सीखना जरूरी है। संयुक्त राष्ट्र संघ के आह्वान पर 21 सितंबर को प्रति वर्ष विश्व शांति दिवस के रूप में मनाया जाता है। इस वर्ष इस दिवस के लिए ‘शांति के लिए साथ दें-सभी के लिए सम्मान, सुरक्षा और गरिमा’ रखा गया है। हर रोज दूसरों को ललकार कर एक दिन शांति पर विचार करने से तो काम नहीं चलेगा। शांति के लिए सभी को काम करना होगा और एकजुटता भी दिखानी होगी। भाईचारे और सह-अस्तित्व की भावना से ही आगे बढ़ा जा सकता है।