Sunday, May 4, 2014

राँची यात्रा वृत्तांत (22-25मार्च, 2014)

राँची यात्रा वृत्तांत (22-25मार्च, 2014)

प्रचूर प्राकृतिक सम्पदा के बावजूद आखिर झारखण्ड में बदहाली क्यों?
22-23 मार्च को राँची में जन शिक्षा सभा का आयोजन।
18 राज्यों और 52संस्थाओं के प्रतिनिधियों ने लिया हिस्सा।
0से 18वर्ष तक के बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का अधिकार देने की उठाई माँग

अरुण कुमार कैहरबा

20 मार्च से 25 मार्च घुमक्कड़ी में बीता। भारत ज्ञान-विज्ञान समिति द्वारा 22-23 मार्च को झारखण्ड की राजधानी राँची में आयोजित जन शिक्षा सभा में हिस्सा लेने के लिए 20मार्च को घर से निकला था। इससे पहले ही जब से वहां जाने की चर्चा हुई थी, तभी से झारखण्ड जाने की इच्छाएं मन में हिलोरें मारने लगी थी। झारखण्ड का शाब्दिक अर्थ है-वन प्रदेश। झार या झाड़ अर्थात वन और खण्ड मतलब प्रदेश। झारखण्ड में प्रचूर वन सम्पदा और खनिज सम्पदा मौजूद है। यहां की शख्सियतों की बात करें तो राँची निवासी भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान महेन्द्र सिंह धोनी हैं। लेकिन ना तो उनसे मिलने की कोई इच्छा ही थी और ना ही उनका घर देखने की चाह। हाँ, झारखण्ड के संथाल परगना में जन्मी और आदिवासी कविता में एक खास पहचान रखने वाली निर्मला पुतुल से मिलने की इच्छा ज़रुर थी। यह भी तय था कि उनसे मिलने और उनके साहित्य के बारे में चर्चा करने की मेरी इच्छा पूरी नहीं हो पाएगी। खैर जन शिक्षा सभा में आने वाले विभिन्न राज्यों के प्रतिनिधियों से मिलने और झारखण्ड के बारे में जानने की मेरी इच्छा बलवती होती जा रही थी।
20मार्च को मैं इन्द्री से निकला था। दिल्ली पहुंचा ही था कि रास्ते में गुरनाम के छह-सात वर्षीय भतीजे की दुर्घटना में मृत्यु का दुखद एवं दिल दहला देने वाला समाचार मिला। गुरनाम दिल्ली से गाँव के लिए रवाना हो चुका था और मैं यहाँ दिल्ली में। इस दुखद समाचार ने मुझे भी बुरी तरह से परेशान कर डाला। कश्मीरी गेट के मेट्रो स्टेशन पर मैं अवाक सा खड़ा रहा। मैट्रो में सवार हुआ, तो भी यह घटना दिल दहलाए हुए थी। कश्मीरी गेट से राजीव चौक और फिर आनंद विहार की ओर चल दिया। मंडी हाऊस के पास राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के विद्यार्थी नरेश से बात हुई। वह दुर्घटना और मृत्यु से आहत था और गाँव के लिए निकल चुका था। मेरे मन में बार-बार राँची यात्रा अधूरी छोड़ कर अपने गाँव कैहरबा जाने का ख्याल आया। लेकिन हर बार उसके बाद आनंद विहार रेलवे स्टेशन पर प्रतीक्षा कर रहे हरियाणा के अन्य साथियों और रिजर्वेशन करवा चुके साथियों का भी ख्याल आया। भारी मन से मैं आनंद विहार की तरफ बढ़ा जा रहा था और मन में नन्हें-से बच्चे की उछल कूद और दर्दनाक दुर्घटना, मृत्यु व परिजनों का विलाप था। मैं चार बजे के करीब आनंद विहार मेट्रो स्टेशन पहुंचा। यहां से निकला तो एक व्यक्ति ने बताया कि ओवरब्रिज से रेलवे स्टेशन की तरफ जाया जा सकता है। रेलवे स्टेशन से राँची के लिए ट्रेन को साढ़े छह बजे के करीब रवाना होना था। मैं ऊपर गया और ओवर ब्रिज पर सुस्ताने लगा। यहीं खड़े राजेश नाम के युवक से बात हुई तो उसने बताया कि वह झारखंड के गडहा जि़ला का रहने वाला है। दिल्ली में काम करता है। झारखंड अक्सर उसका जाना होता है। हरियाणा के झज्झर व सांपला आदि स्थानों पर वह घूमा है। उसने होली पर उत्तर प्रदेश के मथुरा स्थित नंदग्राम की भी यात्रा की है। झारखंड के बारे पूछने पर उसने बताया कि वह प्राकृतिक व आर्थिक रूप से बहुत सम्पन्न प्रदेश है। इसके बावजूद अधिकतर लोग गरीब हैं। राजेश के एक साथी के बुलावे पर वह चला गया, लेकिन मुझे उसकी यह बात मथती रही कि आखिर सम्पन्न प्रदेश में गरीबी क्यों?

कुछ देर खड़ा रहने के बाद मैं रेलवे स्टेशन के लिए रवाना हो गया। ओवर ब्रिज से उतरा और सामने की एक छोटी सी दुकान पर चाय के लिए पूछा, तो पता चला कि फिलहाल चाय नहीं मिल सकती। मेरे पास यहां अभी भी काफी समय था। आनंद विहार में घूमने का कोई स्थान पूछने पर पता चला कि यहां कोई खास स्थान नहीं है। हाँ मॉल जरूर बना है, जहां मैं समय काट सकता हूँ। मॉल में घूमने की बजाय मैंने रेलवे स्टेशन पर ही समय गुजारने का निर्णय किया। स्टेशन के स्टाल पर चाय पी। फोन पर सुशील से सम्पर्क हुआ तो पता चला कि भिवानी से रण सिंह और रमेश जाखड़ जी आए हुए हैं। रण सिंह जी से मोबाईल पर बात हुई तो उन्होंने बताया कि वे प्लेट फार्म नं.-2 पर बैठे हैं। मैं पहुंचा तो वे प्लास्टिक की चटाई पर बैठे हुए आराम फरमा रहे थे, अन्य साथियों की प्रतीक्षा कर रहे थे। रण सिंह जी सेवानिवृत्त अध्यापक हैं और रमेश जाखड़ अपने ही गाँव के स्कूल में गणित अध्यापक हैं। उनसे स्कूलों व शिक्षा पर काफी बातें हुई। हमें झारखण्ड एक्सप्रेस से जाना था। इस गाड़ी को प्लेटफार्म नं. दो की बजाय एक से रवाना होना है। यह बात हमें रेलवे पुलिस के एक जवान ने बताई तो हम प्लेटफार्म एक पर पहुंच गए। बाद में समालखा के राजपाल दहिया, सतीश चौहान और सतीश कुमार पहुंच गए। गाड़ी के प्लेट फार्म पर आने की सूचना गूंजने लगी। बाकी साथियों के नहीं पहुंचने से चिंता बढ़ रही थी। लेकिन 7:50 पर गाड़ी रवाना होने से पहले रोहतक से अविनाश सैनी, सुशील मेहरा और सीता राम पहुंच गए। उनके पास ही टिकट थी। हमारी सीटें अलग-अलग कोच में थी। चिंता की बात यह थी कि अभी तक महिला साथी-मुकेश यादव, निशा व अनीता नहीं पहुंचे हैं। रोहतक से आए साथियों ने बताया कि अनीता का छोटा बच्चा है। वह बच्चे को घर पर छोड़ कर आ रही थी। फिर तय हुआ कि बच्चा ले आया जाए। तीनों महिलाएँ घर गईं और बच्चे को लेकर आते हुए रास्ते में हैं। शायद उनके यहां पहुंचने से पहले ही गाड़ी रवाना हो जाएगी। गाड़ी पर सवार तो हो गए, लेकिन वे नहीं पहुंच पाए। सुशील उनके साथ मोबाईल से सम्पर्क बनाए हुए था।

गाड़ी चल चुकी थी। धीमी गति से रूकती-रूकती गाड़ी आगे बढ़ रही थी। उधर देरी से आई महिला साथियों ने दूसरी गाड़ी में सवार होने के लिए टिकट ली। हमारी गाड़ी से करीब दो घंटे बाद वे एक अन्य गाड़ी से रवाना हुई। हमारी गाड़ी लंबे विराम लेते हुए चल रही थी। अगले दिन इलाहाबाद रेलवे स्टेशन पर जब हमारी गाड़ी खड़ी थी तभी दूसरी गाड़ी से मुकेश, निशा व अनीता भी पहुंच गई। साथ में था अनीता का करीब एक वर्षीय प्यारा-सा बेटा केतन, जिसे सभी प्यार से किट्टू कह कर पुकार रहे थे। गाड़ी की धीमी गति और लंबे ब्रेक के कारण उकताहट व थकान बढ़ रही थी। ट्रेन के अंदर भी बहुत चर्चाएं हो रही थी। रास्ते में ही हमें पता चला कि मध्य प्रदेश के साथी संजीव सिन्हा व अन्य भी इसी ट्रेन में हमारे सहयात्री हैं। बहुत से लोग अपनी-अपनी तरह से समय गुजार रहे थे। थकान दूर करने के लिए गाड़ी के भीतर जहां विविध प्रकार के लोग अपनी क्रियाकलापों से मनोरंजन कर रहे थे। वहीं गाड़ी से बाहर झांकना भी कम रोमांचक नहीं था। गाड़ी के बिहार में पहुंचते हुए खेत सूने पड़े थे। इक्का-दुक्का लोग ही दिखाई देते थे। झारखंड में भी खेतों का सूनापन बरकरार रहा। यहां अनेक प्रकार के पेड़ दिखाई दिए। कहीं-कहीं पर्वतीय क्षेत्र और छोटे-छोटे गांव व बस्तियाँ दिखाई देती थी। पुरूषों से अधिक महिलाएं काम करती हुई अधिक दिखाई दे रही थी। 
21 मार्च रात 9:40 के करीब हम राँची के रेलवे स्टेशन पर थे। रेलवे स्टेशन से बाहर निकलते ही गले में परिचय पत्र लगाए भारत ज्ञान-विज्ञान समिति के स्वयंसेवी हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे। थ्री-व्हीलर पर सवार होकर हम एचआरडीसी में पहुंचे, जहां पर हमारे रात्रि भोजन की व्यवस्था की गई थी। यहां पर समिति की राष्ट्रीय महासचिव आशा मिश्रा व अन्य साथियों ने हंसी-खुशी व उत्साह के साथ हमारा स्वागत किया। जब हरियाणा के साथियों की खाने की बारी आई तो खाना खत्म हो गया। बाद में खिचड़ी बनाई गई और हमने खाना खाया। खाना खाने के बाद हम अपने भारी बैग उठाकर रेलवे स्टेशन के पास ही स्थित चुटिया धर्मशाला पहुंचे, जहां पर हमारे रहने की व्यवस्था की गई थी। धर्मशाला के बड़े हॉल में कईं राज्यों से आए प्रतिनिधि पहले ही आए हुए थे, जिनमें से अधिकतर सोए हुए थे। 

अगले दिन 22मार्च को हम पैदल चलते हुए गौस्नर थियोसोफिकल कॉलेज पहुंचे, जहां पर जन शिक्षा सभा का आयोजन किया जा रहा था। पहुंचते ही कार्यक्रम के दौरान सांस्कृतिक कार्यक्रमों का संयोजन कर रहे जय सोमनाथन ने हरियाणा के साथियों को सभा के उद्घाटन समारोह में गीत गाने का न्यौता दिया। साक्षरता अभियान के लोकप्रिय गीत-‘ले मशालें चल पड़े हैं’ का निर्धारण किया गया। गीत की रिहर्सल के लिए साथियों को इकट्ठा किया गया तो अन्य राज्यों के संस्कृतिकर्मी भी रिहर्सल में शामिल हो गए। इस गीत के अलावा मेरे लिए नए गीत-‘लड़ते हुए सिपाही का गीत बनो रे’- की रिहर्सल की गई।
उद्घाटन समारोह में झारखंड के लोक कलाकार मुकुंद नायक व उनकी टीम ने रंग जमाया। उनकी टीम ने जोहार (स्वागत) गीत गाया व परम्परागत नृत्य पेश किया। झारखंड के परम्परागत मर्दाना नृत्य में महिला कलाकारों ने भी हिस्सा लिया। इस नृत्य के दौरान कलाकार युद्ध में लड़ते हुए सिपाहियों की मुद्राएं बना रहे थे। इसके बाद भारत ज्ञान-विज्ञान समिति की राष्ट्रीय महासचिव आशा मिश्रा ने कहा कि साक्षरता अभियान से ज्ञान-विज्ञान आंदोलन निकला है। एर्णाकुलम में इस आंदोलन ने देश के सामने साक्षरता का मॉडल पेश किया। शिक्षा का अधिकार अधिनियम लागू हुए चार साल बीत गए, लेकिन आज तक सभी बच्चों की शिक्षा तक पहुंच, समानता और गुणवत्ता की दिशा में कोई खास प्रगति नहीं हुई है।
आरटीई को लेकर सत्ताधारियों द्वारा बहाने बनाए जा रहे हैं। उन्होंने कहा कि सभा का उद्देश्य गाँव-गाँव में शिक्षा-संवाद को तेज और गहन करना है। उन्होंने आह्वान किया कि जन शिक्षा की सुबह जरूर आएगी और हमीं से आएगी। उन्होंने मंचासीन समिति के राष्ट्रीय अध्यक्ष कृष्ण कुमार, मुख्य अतिथि डॉ. अनीता रामपाल, शिक्षाविद् डॉ. दिनेश अबरोल, सभा की आयोजन समिति के अध्यक्ष डॉ. काशीनाथ त्रिपाठी, उपाध्यक्ष डॉ. ए.आई खान, शिक्षा कार्यकर्ता नीतू, व रूपक को हाथ में शिक्षा के विभिन्न नारे लिखे पोस्टर हाथों में लेकर सभा का औपचारिक उद्घाटन करने का आह्वान किया। उद्घाटन के बाद समिति के संस्थापक साथियों में से एक डॉ. विनोद रायना की मृत्यु पर 2 मिनट का मौन रखकर श्रद्धांजलि दी गई।
इसके बाद ले मशालें चल पड़े हैं गीत गाया गया। स्वागत भाषण में डॉ. खान ने कहा कि संगठनों एवं व्यक्तियों की बेहतर नेटवर्किंग की ज़रूरत है जिससे शिक्षा को जन-जन तक ले जाया जा सके। उन्होंने प्राकृतिक एवं मानव संसाधन की दृष्टि से बेहद सम्पन्न प्रदेश झारखंड में विपन्नता पर भी सवाल उठाते हुए कहा कि यहां के लोग रोजगार के लिए पलायन कर रहे हैं। जो थोड़ा-बहुत बदलाव राजधानी राँची में दिखाई दे रहा है, दूर-दराज के गाँव उससे अछूते हैं। उन्होंने उम्मीद जताई कि सभी को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा जल्द से जल्द मुहैया हो, सपने जिन्दा रहें और साकार हों। 

दिनेश अबरोल ने निजीकरण, उदारीकरण और वैश्वीकरण के दौर में हस्तक्षेप के नए औजारों की जरूरत को रखांकित किया।
दिल्ली विश्वविद्यालय में शिक्षा विभाग की डीन प्रो. अनीता रामपाल ने कहा कि शिक्षा में विद्यार्थियों को छांटने की प्रवृत्ति के कारण ड्रॉप आऊट बढ़ रहा है। इसे ड्रॉप आऊट के स्थान पर पुश आऊट कहना ज्यादा उचित है। इसी प्रवृत्ति के कारण 45प्रतिशत बच्चे बुनियादी शिक्षा भी ग्रहण नहीं कर पा रहे हैं। दूसरी तरफ शिक्षा के निजीकरण ने शिक्षा को गरीबों और अमीरों में बांट दिया है। इसके बावजूद सरकारी स्कूलों में बच्चों को सामाजिक अस्मिता का अहसास ज्यादा होता है। कोठारी आयोग ने कहा था कि पैसों से शिक्षा की गुणवत्ता नहीं खरीद सकते। यदि खरीदते हैं, तो वह दागी गुणवत्ता होगी। उन्होंने कहा कि समता के लिए यह जरूरी है कि सभी बच्चे 6-10साल एक साथ पढ़ें। उनमें चयन ना हो। उन्होंने कहा कि यह वर्चस्ववादी सोच है, जिसमें पैसे वाले तय करते हैं कि किसे पढऩा चाहिए, किसे नहीं। किसे क्या पढऩा चाहिए? उन्होंने शिक्षा की माध्यम भाषा पर बोलते हुए कहा कि आरटीई के अनुसार बच्चों को उनकी अपनी भाषा में सीखने के अवसर दिए जाने चाहिएं। भारत के विभिन्न प्रदेशों में अंग्रेजी को शिक्षा का माध्यम बनाया जाना बेहद खतरनाक है। उन्होंने कहा कि दाखिले के लिए परीक्षण किया जाना यदि जरूरी है, तो परीक्षण का स्वरूप बच्चे के अनुसार होना चाहिए।
उन्होंने ‘प्रथम’ जैसी संस्थाओं की रिपोर्टों को खारिज किया, जिसमें निजी विद्यालयों को महिमामंडित किया जाता है। उन्होंने अध्यापक शिक्षा, माध्यमिक शिक्षा, व्यावसायिक शिक्षा आदि पर बोलते हुए मुनाफे के लिए शिक्षा का खंडन किया। उन्होंने सबकी शिक्षा, समता, न्याय व लोकतंत्र की शिक्षा को बढ़ावा देने का आह्वान किया।

प्रो. रमेश सरण ने ‘राष्ट्रपति या भंगी की संतान, सबकी शिक्षा एक समान’ का नारा बुलंद किया। उन्होंने चिंता जताते हुए पढ़ाई के बारे में कहा कि ‘थोड़ा पढ़ता है तो हल छोड़ देता है, ज्यादा पढ़ता है तो घर छोड़ देता है।’ उन्होंने सवाल किया कि स्कूल आनंददायी क्यों नहीं हैं? पढ़े-लिखे ज्यादा दहेज क्यों दे-माँग रहे हैं। उन्होंने कहा कि बच्चों को बसों में ठूंस-ठूंस कर दस-दस किलोमीटर दूर स्कूल में ऐसे ले जाया जा रहा है, जैसे बकरे को कसाई ठूंस कर ले जाते हैं। उन्होंने कहा कि विभेदकारी शिक्षा जिस विकास को बढ़ावा दे रही है, उससे विस्थापन व विनाश को बढ़ावा मिल रहा है और विकास के इस मॉडल को रिजेक्ट किया जाना बेहद जरूरी है। दोपहर के भोजन के बाद विभिन्न विषयों पर समानांतर सत्र हुए। हरियाणा के सभी साथी अलग-अलग विषयों को सुनने के लिए गए। मैं ‘शिक्षा का अधिकार एवं स्कूली शिक्षा’ विषय पर आयोजित सेमिनार में था। सेमिनार की अध्यक्षता केरल शास्त्र साहित्य परिषद् से डॉ. सी. रामाकृष्णन ने करते हुए कहा कि शिक्षा का अधिकार अधिनियम से राज्य संतुष्ट है, लेकिन सभी बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिले बिना हमारे पास संतुष्ट होने का कोई कारण नहीं है। शिक्षा में लैंगिक विभेद और अन्य कारणों से बाहर छूटने के मुद्दे पर बहुत कुछ काम किया जाना बाकी है। हर रोज बच्चे की स्कूल में उपस्थिति की निगरानी करने की कोई व्यवस्था नहीं बनाई गई है। बहुत से बच्चे मजदूरी करके अपना व अपने परिवार का पेट पालने को मजबूर हैं। नव-उदारवादी नीतियों के परिपे्रक्ष्य में शिक्षा की दशा व दिशा का विश£ेषण करें तो बेहद चिंताजनक स्थिति उभरती है। प्राथमिक शिक्षा के निजीकरण ने स्थिति को विकराल बना दिया है। उन्होंने कहा कि शिक्षा का अधिकार अधिनियम लागू हुए चार साल होने को आए हैं, लेकिन गुणवत्ता में कोई फर्क नहीं आया है।
केन्द्र ने राज्य पर जिम्मेदारी डाल कर पल्ला झाड़ लिया है। उन्होंने शिक्षा के सर्वव्यापीकरण के लिए स्कूल प्रबंधन समितियों को मजबूत करने की जरूरत जताई। शिक्षा के क्षेत्र में लम्बे समय से काम कर रहे वीरेन्द्र शर्मा ने सेवाकालीन अध्यापक प्रशिक्षण की स्थिति पर चिंता जताई। उन्होंने अपने अनुभवों को आधार बनाते हुए कहा कि सेवाकालीन अध्यापक प्रशिक्षण के नाम पर खानापूर्ति की जा रही है। मूलगामी दृष्टि से अछूते अध्यापकों को प्रशिक्षण के दौरान बच्चों को पढ़ाए जाने वाले उपविषयों के बारे में बता दिया जाता है, जिसे अध्यापकों के द्वारा गौर से नहीं लिया जाता। उन्होंने कहा कि अच्छी गुणवत्ता के सेवाकालीन प्रशिक्षण से शिक्षा की दशा में सुधार किया जा सकता है। लेकिन योजनाबद्ध ढ़ंग से लंबी अवधि के प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किए जाने चाहिएं। आईटीआई गुवाहटी से विप्लब घोष ने कहा कि उत्तर-पूर्व राज्यों में लंबी दूरी तक स्कूल नहीं हैं, जिसके कारण कईं किलोमीटर का सफर तय करके बच्चों को स्कूल जाना पड़ता है। अध्यापक भर्ती में बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार है। पैसे या सिफारिश से लगे शहरी पृष्ठभूमि के भर्ती हुए अध्यापकों की गाँव में काम करने की इच्छा नहीं है, जिसके कारण वे गाँव के ही किसी युवक को 500-1000रूपये देकर काम करवाते हैं। 

राजस्थान से आए डॉ. अनिल शर्मा ने मिड-डे-मील योजना की स्थिति पर अपने विचार व्यक्त किए। उन्होंने कहा कि प्राथमिक शिक्षा के सर्वव्यापीकरण, शत-प्रतिशत पंजीकरण, स्थायित्व व पोषण के लिए यह योजना शुरू की गई थी। लेकिन अच्छी तरह से लागू नहीं किए जाने के कारण योजना बोझ बन रही है। उन्होंने मिड-डे-मील वर्कर का नाममात्र मानदेय व रसोई की व्यवस्था के अभाव पर चिंता जताई। चर्चा में दखल करते हुए मैंने (लेखक)कहा कि कि प्राथमिक शिक्षा की सबसे अधिक उपेक्षा की जा रही है। प्राथमिक स्कूलों में ना तो सफाई कर्मचारी हैं, ना चपरासी। क्लर्क का काम भी अध्यापकों को स्वयं करना पड़ता है। मिड-डे-मील के प्रबंधन की जिम्मेदारी भी अध्यापकों पर है, जिसके कारण अध्यापक अपना बुनियादी काम अच्छी प्रकार से नहीं कर पाते हैं। चर्चा में कुछ साथियों ने अध्यापकों की उदासीनता की भी आलोचना की। क्रिया आधारित शिक्षा में अध्यापकों को मेहनत करनी पड़ती है, इसलिए वे इससे बचते हुए तू-पढ़ विधि का प्रयोग करते हुए विद्यार्थियों को सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में खुद के भरोसे छोड़ देते हैं और अध्यापक कुर्सियों पर आराम फरमाते हैं। भोपाल के फिरोज खान ने सवाल किया कि स्कूलों में आखिर सामग्री के रूप में अध्यापकों के लिए गद्देदार कुर्सियाँ ही क्यों हैं? चर्चा में 0 से 18वर्ष तक के सभी बच्चों को शिक्षा का अधिकार प्रदान करने की माँग उठाई गई। विभिन्न प्रकार के सरकारी स्कूलों के अस्तित्व पर भी सवाल खड़े किए गए।

उच्चतर शिक्षा पर आयोजित समानांतर सेमिनार में डॉ. दिनेश अबरोल, नागरिक शिक्षा: साक्षरता, सतत् एवं व्यावसायिक शिक्षा पर सेमिनार में राज्य संसाधन केन्द्र हरियाणा के निदेशक डॉ. प्रमोद गौरी और समावेशी शिक्षा पर आयोजित समानांतर सेमिनार में कोमल श्रीवास्तव और लोकतंत्र विज्ञान और संस्कृति पर आयोजित सेमिनार में डॉ. टी.वी. वैंकटेश्वरन ने अध्यक्षता की। शाम को सांस्कृतिक समन्वयक वी.के. जय सोमनाथन के नेतृत्व में विभिन्न राज्यों की संस्कृति को दर्शाता रंगारंग सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किया गया। हमें भी भगत सिंह की शहीदी दिवस की पूर्व संध्या पर डॉ. रणबीर सिंह दहिया के हरियाणवी गीत-‘भगत सिंह के सपनों का यो देश बनाना है गाया।’ सभी सांस्कृतिक प्रस्तुतियों में गैर-बराबरी पर आधारित व्यवस्था के विरूद्ध आवाज बुलंद करने का भाव था। वहीं गीतों में विभिन्न राज्यों की संस्कृति भी झलक रही थी। धर्मशाला में रात को भोपाल के फिरोज खान से अनेक विषयों पर बातचीत हुई। मध्यप्रदेश सरकार द्वारा परिवहन विभाग का निजीकरण कर दिए जाने सहित अनेक जनविरोधी नीतियों पर चर्चा हुई। 
23मार्च को पहला सत्र एक-दूसरे से सीखने का था। राजस्थान के अलवर में काम कर रहे हाजी रहीम खान ने मुस्लिम लड़कियों को शिक्षा का अधिकार दिलाने के लिए किए जा रहे प्रयासों के बारे में बताया। मध्य प्रदेश के मजदूर संगठन के पी.एन. वर्मा ने बीड़ी वर्कर, आशा वर्कर, आँगनवाड़ी वर्कर, मिड-डे-मील वर्कर सहित अनेक वर्गों की परेशानियाँ रखी। मुकेश यादव ने हरियाणा में विद्यालय अध्यापक संघ के काम के अनुभव रखे। राजपाल दहिया ने जीवनशाला के अनुभव रखे। इसी प्रकार अलग-अलग राज्यों के अनेक प्रतिनिधियों ने शिक्षा के लिए किए जा रहे अपने कामों के बारे में विस्तार से बताया। भोजन का अधिकार आंदोलन की अंकिता ने कहा कि मिड-डे-मील, आईसीडीएस आदि योजनाएँ खाद्य सुरक्षा से जुड़ी हुई हैं, लेकिन इनका शिक्षा के साथ सीधा-सीधा सम्बन्ध है। क्योंकि भरपेट भोजन के बिना शिक्षा के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता। जन स्वास्थ्य नेटवर्क के डॉ. सुधांशू ने भी अपने अनुभव रखे। समापन सत्र में राज्यसभा सदस्य सी.पी. नारायण ने बताया कि शिक्षा के अधिकार के कानूनी प्रावधान के बावजूद 27प्रतिशत ड्रॉपआऊट रेट है। शिक्षा, साक्षरता, भोजन व स्वास्थ्य के अधिकार के लिए आंदोलन की जरूरत है। केवल मिड-डे-मील नहीं, यदि बच्चे भूखे पेट स्कूल में आए हैं, तो उन्हें नाश्ता भी दिया जाना चाहिए। प्राथमिक ही नहीं माध्यमिक शिक्षा के सार्वभौमिकरण पर भी बल दिया जाना चाहिए। शिक्षा का मतलब सिर्फ यही नहीं होना चाहिए बच्चे रोजगार के योग्य बनें, बल्कि उनके लिए रोजगार भी पक्का हो। उन्होंने विद्यार्थियों के समक्ष विषय विकल्प की कमी के बारे में बताते हुए कहा कि भारत में विद्यार्थियों के पास 43 वैकल्पिक कोर्स होते हैं, वहीं चीन में चार विद्यार्थियों के लिए चार हजार विकल्प होते हैं। भारत में इस समय सिर्फ सात सौ विश्वविद्यालय हैं, जिनमें से अधिकतर में गुणवत्ता का स्तर औसत से नीचे का है। उन्होंने निजीकरण को बेहद खतरनाक बताया। उन्होंने कहा कि सरकार के पास संसाधनों की कमी नहीं है। 21 लाख करोड़ रूपये की रियायतें तो कारपोरेट घरानों को दी जा रही हैं। संसाधनों को कहाँ इस्तेमाल करना है, यह मुख्य मुद्दा है। शिक्षा संवाद को आगे बढ़ाने के संकल्प और राँची घोषणापत्र के मसौदे के प्रस्तुतीकरण से शिक्षा सभा का समापन हुआ। भारत ज्ञान-विज्ञान समिति के अध्यक्ष कृष्ण कुमार ने भी प्रतिनिधियों को सम्बोधित किया।
दिनांक 24 मार्च का दिन झारखंड के पर्यटक स्थल दशम झरने को देखने, आदिवासी समुदाय के जीवन को नज़दीक से जानने और स्कूली व्यवस्था को देखने के लिहाज से बेहद लाभदायी एवं शिक्षाप्रद रहा। सुबह हरियाणा के सभी साथी दो थ्रीव्हीलर पर सवार होकर दशम झरना देखने के लिए रवाना हुए। जाते हुए अविनाश ने अपनी पाकिस्तान यात्रा के संस्मरण सुनाए। उन्होंने कहा कि पाकिस्तान में भारत के लोगों का दिल खोलकर स्वागत किया गया, जिससे लोगों के मन में पाकिस्तान व वहां के लोगों के प्रति भ्रांतियाँ दूर हो जाती हैं। उन्होंने बताया कि पाकिस्तान में जिसे भी उन्होंने बताया कि वे भारत से हैं, उन्होंने इस पर यकीन नहीं किया। क्योंकि भारत व पाकिस्तान की भाषा और रीतियों में कोई बड़ा फर्क नहीं है। एक व्यक्ति जिसकी पृष्ठभूमि कैथल से जुड़ी हुई थी, ने भारत के प्रति बेहद आत्मीयता दिखाई। करीब 40किलोमीटर की दूरी तय करके हम दशम झरने पर पहुंचे। दसम फॉल रांची-टाटा मार्ग पर तैमारा गांव के पास है। यहां कांची नदी 144 फीट की ऊंचाई से गिरती है। यह झरना खूबसूरत प्राकृतिक नजारों से घिरा हुआ है। पानी के दस धाराओं में ऊंचाई से गिरने के कारण इसका नाम दशम पड़ा था, लेकिन हमें तो कहीं दस धाराएं नहीं दिखाई दी। हम सभी सीढिय़ों से नीचे गए। सुशील हमें जहां से पानी नीचे गिर रहा था, वहां ले जाना चाहते थे। क्योंकि वे पहले भी इसी रास्ते से ऊपर गए थे। जब हम ऊपर जाने लगे तो गार्ड ने हमें यह कह कर रोक दिया कि यहां पर दुर्घटनाएं हो चुकी हैं। इसलिए इस रास्ते से जाना प्रतिबंधित है। इस रास्ते से जाने का इरादा छोड़ कर हम सीढिय़ों वाले उसी रास्ते से ऊपर जाने लगे, जिस रास्ते से आए थे। तो पता चला कि नीचे जाने की तुलना में ऊपर जाना कितना मुश्किल होता है। हम हाँफने लगे थे। खैर, ऊपर के रास्ते से ही फोटोग्रॉफी करते हुए अविनाश, सतीश चौहान, सुशील और मैं झरने के ऊपरी हिस्से पर पहुंचे। यहां जब अविनाश नहाने लगे तो हमसे भी रहा नहीं गया। सुशील और मैं भी नहाने लगे। नहाने के बाद पर्यटक विभाग द्वारा इसके ऊपर बनाए गए बैठने के मनोरम स्थान देखे। लेकिन यहां लोगों की कोई आवाजाही नहीं थी। उधर, यहां से चल निकलने के लिए अन्य साथियों के बुलावे आ रहे थे। सतीश चौहान ने भी हमें चलने की बात कही, लेकिन हम तीनों इस सुनसान स्थान का आनंद लेने को उतारू थे। यहां पर हमने खूब फोटोग्राफी की। एक सवाल रह-रह कर मन में उठ रहा था कि पर्यटन विभाग द्वारा इतनी ऊंचाई पर बनाए गए स्थानों पर लोग क्यों नहीं हैं। यहां से हम वहीं पहुंचे, जहां पर हमारे थ्रीव्हीलर खड़े थे। यहां सभी साथी चलने के लिए तैयार थे।
यहाँ से हम वापिस राँची की ओर चल दिए। लेकिन किसी गाँव में आदिवासी लोगों का जीवन और स्कूल देखने के इरादे के साथ। वापसी में हम पानसकम गाँव रूके, जोकि चुरगी पंचायत में पड़ता है। यहां बहुत-सी महिलाएँ एवं बच्चे इमली के पेड़ के नीचे खड़े थे। एक व्यक्ति ऊपर चढ़ा हुआ था, जोकि डाल को हिला रहा था और नीचे खड़े सभी गिरी इमली की फलियों को इक_ा कर रहे थे। हमने यहाँ रूक कर इमली खाते हुए, बच्चों से उनकी शिक्षा के बारे में पूछा। छोटे बच्चों ने बताया कि वे स्कूल जाते हैं। बड़े लोगों से बात करने की कोशिश की तो भाषा बाधा बन रही थी। वे हिन्दी नहीं बोल पा रहे थे। हम उनकी मुंडारी भाषा समझ नहीं पा रहे थे। लेकिन भावनाएँ समझने में कोई बाधा नहीं थी। यह गाँव मुंडा आदिवासी लोगों का गाँव है। आज़ादी की लड़ाई में बिरसा मुंडा जैसे वीरों की शहादत एवं विरासत उनके साथ है। एक व्यक्ति से जब पूछा तो उसने अपना नाम बिरसा मुंडा बताया। लेकिन दुखद यह कि वह अनपढ़ था। गाँव की अधिकतर आबादी अनपढ़ है। अब छोटे बच्चे स्कूल जरूर जाते हैं। लेकिन गाँव में सिर्फ प्राथमिक स्कूल होने के कारण कितने बच्चे पाँचवीं के बाद दूसरे गाँव के स्कूल में जा पाएंगे, यह बड़ा सवाल है? वहीं सूखे चारे के छतनुमा कूप के नीचे खड़ी 15-16 साल की लड़कियों से पढ़ाई के बारे में पूछा, तो उन्होंने कहा कि कोई भेजेगा, तभी तो पढ़ेंगी। लड़कियाँ ही नहीं लडक़े भी आगे की पढ़ाई नहीं कर पा रहे हैं। यहाँ से हम लोगों के जीवन और घरों को नज़़दीकी से देखने के लिए गाँव में घुस गए। यहाँ पर बुंडु के कॉलेज में जा रही अनीता नाम की एक लडक़ी से मुकेश यादव, अनीता व निशा बात कर रही थी। अनीता के घर में ही दुकान है, जिसे उसकी माँ चलाती है। अनीता ने बताया कि सिर्फ तीन-चार युवा ही कॉलेज में जा पाते हैं। सभी लोग खपरैल के बने घरों में रहते हैं। यहां घरों में महुए के फल सुखाए जाते देखे गए, जिसकी लोग ताड़ी नाम की शराब बनाते हैं। 
इसके बाद हम पिडी टोला (लाबगा) स्थित उत्क्रमित प्राथमिक विद्यालय देखने के लिए रूके। इस स्कूल की चारदिवारी नहीं थी। शौचालय का भी कोई प्रबंध नहीं था। इस स्कूल में पहली से पाँचवीं तक 31 विद्यार्थी पढ़ते हैं। दो अनुबंधित अध्यापक कार्यरत हैं। सहायक अध्यापक सामुटूटी उस समय स्कूल में थे, जोकि इसी टोला से हैं। इंटर तक पढ़ाई करने के बाद वे सहायक अध्यापक लग गए थे। आज उन्होंने इग्रू से अध्यापक प्रशिक्षण कोर्स पूरा कर लिया है। स्कूल में लड़कियों की संख्या ज्यादा है। पिडीटोला तैमरा पंचायत और बुण्डू प्रखण्ड के अन्तर्गत आता है। स्कूल में किताबें मुफ्त मिलती हैं। मिड-डे-मील वर्कर को एक हजार रूपये प्रतिमाह मानदेय मिलता है। मिड-डे-मील में प्रत्येक शुक्रवार को अण्डे का भी प्रावधान है। स्कूल में हमने बच्चों से शिक्षा के नारे लगवाए। इसी बीच मुकेश यादव गाँव से होती हुई पानी के स्रोत तक पहुंच गई थी। टोला से लोग एक किलोमीटर की दूरी पर पानी लेने के लिए जाते हैं। वह पानी भी साफ नहीं है। 
दूसरे थ्रीव्हीलर पर सवार कुछ साथी आगे पडऩे वाले गाँव हूसीरहातु के राजकीयकृत उत्क्रमित मध्य विद्यालय में रूक गए थे। इस स्कूल में आठवीं तक पढ़ाई का प्रबंध है। पहली से आठवीं तक बच्चों की संख्या 103 है। मिडल स्कूल में दो ही अध्यापक कार्यरत हैं। जिनमें विजय कुमार मांजी बुंडू से आते हैं। अन्य अध्यापक भी बाहर से ही आता है। स्कूल में पढऩे वाले बच्चे आदिवासी मुंडा जाति से सम्बंध रखते हैं। लेकिन अध्यापक आदिवासी समुदाय से नहीं है। विजय मांजी ने बताया कि वे स्कूल में मुंडारी बोली नहीं बोलने देते। वे कोशिश करते हैं कि बच्चे हिन्दी में पढ़ें और बात करें। उन्होंने बताया कि यहां के लोग पेड़ों की पूजा करते हैं। स्कूल में लड़कियों की संख्या अधिक है। सभी बच्चे हर रोज काम पर नहीं आ पाते हैं। सोमवार और गुरूवार को बाजार लगता है, इस दिन बच्चे कम आते हैं। देरी से आने पर भी वे उन्हें इजाजत देते हैं। राँची से कुछ खाना हम लाए थे। कुछ मिड-डे-मील का खाना लेकर हमने खाना खाया। हमारे आने और सद्भावनापूर्ण बातचीत किए जाने से विद्यार्थियोंं में भी खासा उत्साह था। यहां से भावभिनी विदाई लेकर हम चल दिए। रास्ते में प्रकृति के नजारे हमें आकर्षित कर रहे थे। अन्य सभी शहरों की तरह राँची में भी रौनक है। वहीं कुछ ही दूरी पर स्थित आदिवासी गाँवों में बदहाली का माहौल देखकर विषम विकास से जुड़े कईं सवाल झकझोरते हैं। यहाँ से सीधे हम राँची के रेलवे स्टेशन पहुंचे। गरीब रथ में सीटों के लिए पहले से ही रिजर्वेशन करवाया गया था। साढ़े चार बजे के आस-पास हम राँची को विदाई देते हुए रेलगाड़ी से वापिस चल दिए।

-अरुण कुमार कैहरबा,
हिन्दी प्राध्यापक, राजकीय वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय, पटहेड़ा, खण्ड-इन्द्री, जि़ला-करनाल (हरियाणा)
मो.नं.-09466220145


अलीगढ़ यात्रा वृत्तांत (16 से 19नवम्बर, 2013)

अलीगढ़ यात्रा वृत्तांत

खस्ताहाल सडक़ों और बदतर बस सेवा के चलते दिल्ली से अलीगढ़ जाना नहीं किसी यातना से कम।

ताला नगरी और साहित्य नगरी के रूप में जाना जाता है अलीगढ़।

अरुण कुमार कैहरबा


भारत ज्ञान-विज्ञान समिति द्वारा उत्तर प्रदेश के जिला अली
गढ़ में चलाए जा रहे ‘फिर स्कूल चलें अभियान’ के अध्ययन के लिए जब सतीश चौहान ने चर्चा की थी, तभी से अलीगढ़ जाने और वहां के बारे में जानने के प्रति उत्सुकता उफान लेने लगी थी। ‘सर्च’ राज्य संसाधन केन्द्र के निदेशक और समिति के राज्य सचिव प्रमोद गौरी जी के औपचारिक पत्र व चर्चा के बाद जिला शिक्षा अधिकारी आशा मुंजाल ने खण्ड शिक्षा अधिकारी राजपाल को फोन किया। उनसे सूचना मिलते ही मेरा वहां जाना तय हो गया। रात को पत्नी गुंजन के सहयोग से पैकिंग की। सतीश के साथ निर्धारित कार्यक्रमानुसार अगले दिन 16नवम्बर, 2013 को अलीगढ़ के लिए रवाना हो लिया।

बस में इस बात को लेकर चिंता बनी हुई थी कि क्या समय पर अलीगढ़ पहुंच कर काम शुरू कर पाएंगे। इसी दिन वहां पर ज्ञान-विज्ञान समिति की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक हो रही थी और हरियाणा से प्रमोद जी उसमें हिस्सा लेने के लिए जा रहे थे। उन्हें सुबह सात बजे के करीब दिल्ली से रवाना होना था। सतीश को समालखा से रवाना होना था, इसलिए उसे उनके साथ जाने में कोई दिक्कत नहीं थी। लेकिन बस सेवा के अभाव में अतिशीघ्र इन्द्री से रवाना होने के बावजूद सात बजे मेरा दिल्ली पहुंचना सम्भव नहीं था। इसलिए प्रमोद जी के साथ जाने का इरादा हम दोनों ने छोड़ दिया था। समय पर पहुंचने की मेरी चिंता उस समय और अधिक बढ़ गई, जब बस में मोबाईल पर बात करते हुए गुरनाम ने बताया कि इन्द्री से अलीगढ़ जाने के लिए दिल्ली वाला रूट ठीक नहीं है। इस रूट से समय अधिक लगेगा। बस में मेरी सीट से आगे वाली सीट पर बैठे सज्जन को जब सुनाई दिया कि मैं इन्द्री करनाल से अलीगढ़ जाने के लिए पहले दिल्ली जा रहा हूँ तो करीब-करीब मेरी भौगोलिक अज्ञानता की हंसी उड़ाते हुए उन्होंने कहा कि आपको अलीगढ़ जाना था तो करनाल से शामली वाली बस में जाना चाहिए था। लेकिन बस की बजाय रेलगाड़ी सबसे बेहतर माध्यम है। मेरे साथ ही अब तक चुपचाप बैठे सांवले रंग के व्यक्ति ने भी उनकी हां में हां मिलाई और मुझे उपदेश लगे। उन्होंने बताया कि अलीगढ़ जाने के लिए दिल्ली से साढ़े बारह बजे गोमती एक्सप्रेस जाती है, जोकि ढ़ाई घंटे में अलीगढ़ पहुंचा देगी। बस से जाने पर दिल्ली के जाम में देरी हो जाएगी। मेरे आगे वाली सीट पर बैठे व्यक्ति को पीछे मुडक़र बताने में दिक्कत हो रही थी। वे शीघ्र ही अपनी बात खत्म करके चुप हो गए। मेरे पास बैठे सज्जन के बताने के अंदाज से मैं प्रभावित हुआ। मुझे उनके उपदेशों में भी आत्मीयता लगी। बस आगे चलने के साथ-साथ मेरी और उन सज्जन की बात भी आगे बढ़ती जा रही थी। उनके अलीगढ़ के बारे में ज्ञान ने भी मुझे प्रभावित किया। जब उन्होंने बताया कि उनकी ससुराल अलीगढ़ में है, तो उस शहर के बारे में और अधिक जानकारी मिलने की संभावना के कारण मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा।
उस सज्जन ने बताया कि अलीगढ़ ताला उद्योग के लिए जाना जाता है। विख्यात हरीसन समेत ताला बनाने की वहां पर अनेक फैक्ट्रियां हैं। इस पर मुझे करनाल में 15 नवम्बर को आयोजित कानूनी साक्षरता कार्यक्रम के दौरान अलीगढ़ जाने का जिक्र होने पर एक अध्यापक द्वारा कहे गए वे शब्द याद आ गए, जिसमें उन्होंने अलीगढ़ से ताले लाने की बात कही थी। अध्यापक के साथ सरसरी बातचीत में मुझे अलीगढ़ से ताले का सम्बन्ध एक रहस्य से कम नहीं लगे थे। अब अलीगढ़ से ताले लाने की बात समझ में आई। सज्जन ने अपनी चर्चा के क्रम को आगे बढ़ाया- अलीगढ़ ही नहीं पूरे यूपी में राज्य सरकार ने उद्योग को बढ़ावा देने के लिए कोई प्रयास नहीं किया है। सुविधाओं के अभाव में अलीगढ़ के आवासीय इलाकों में उद्योग चल रहे हैं, लेकिन कोई ध्यान देने वाला नहीं है। अलीगढ़ में शिक्षा की स्थिति के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने बताया कि यह शहर अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के लिए जाना जाता है। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर विख्यात इस विश्वविद्यालय का यहां की प्राथमिक शिक्षा पर कोई असर नहीं है। जागरूकता की कमी और सरकार के अपर्याप्त प्रयासों के कारण अलीगढ़ शिक्षा के मामले में पीछे है। अल्पसंख्यक मुस्लिम समुदाय का बड़ा हिस्सा शिक्षा के मामले में अधिक पीछे है। मुझे लगा कि शायद यही कारण रहा होगा कि भारत ज्ञान-विज्ञान समिति द्वारा वहां पर स्कूल के दायरे से बाहर रह गए या ड्रॉप आऊट हो रहे वंचित समुदायों के बच्चों की शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए ‘फिर स्कूल चलें अभियान’ चलाया जा रहा है, जिसके अध्ययन के लिए मैं वहां जा रहा था। मैं उन सज्जन से उनका नाम पूछना चाहता था, लेकिन वे प्रवाह में अलीगढ़ के बारे में बता रहे थे कि मुझे उन्हें रोकना अच्छा नहीं लगा। उन्होंने वे सारी बातें मुझे, बताई जिससे वहां पर मुझे किसी दिक्कत का सामना ना करना पड़े। अलीगढ़ में रात्रि ठहराव के लिए सही स्थान कौन सा है व अच्छा खाना कहां मिलता है आदि। उन्होंने अपने बारे में बताया कि वे दिल्ली में रहते हैं और अक्सर काम के सिलसिले में हरियाणा, बिहार, उत्तर प्रदेश सहित विभिन्न स्थानों पर घूमते हैं। हरियाणा और उत्तर प्रदेश की तुलना करते हुए उन्होंने बताया कि बड़ा राज्य होने के कारण यूपी में संसाधनों का प्रबंधन करना मुश्किल काम है, लेकन सरकार की नीयत भी नहीं है। वहां  पर शिक्षा और स्वास्थ्य की हालत बेहद बदतर है। वहां की सडक़ें भी ज्यादा अच्छी नहीं हैं। इसके मुकाबले हरियाणा की स्थिति बहुत अच्छी है। बस तेज गति से दिल्ली की तरफ बढ़ रही थी। मैं कैमरा निकाल कर उस सज्जन की फोटो लेना चाहता था। लेकिन जैसाकि मुझे आशंका थी, पानीपत के बस अड्डे के समीप ज्यों ही मैंने कैमरा निकाला, वे सकपका गए। अड्डे पर उतरने की गरज दिखाते हुए वे अपनी सीट से उठ खड़े हुए और दिल्ली तक वे वहां नहीं बैठे। पानीपत के बस अड्डे पर वे मेरे पास वाली सीट छोड़ कर पीछे की खिडक़ी के पास अंतिम सीट पर बैठ गए और दिल्ली तक वहीं बैठे रहे। मुझे कैमरा निकालने को लेकर बहुत अफसोस हुआ।

अलीगढ़ तक शीघ्र पहुंचने का उतावलापन था, वहीं सतीश द्वारा निर्धारित की गई योजना के अनुसार ही वहां जाने के प्रति भी मैंने निश्चय कर लिया था। चाहे कुछ अधिक समय क्यों ना लगे। मैं साढ़े ग्यारह बजे के करीब आई.एस.बी.टी. दिल्ली पहुंचा, जहां सतीश इंतजार कर रहा था। सतीश पानीपत के समालखा खण्ड के तहत आने वाले गांव हथवाला का रहने वाला है। लंबे समय से ज्ञान-विज्ञान आंदोलन का सक्रिय साथी है और फिलहाल भारत ज्ञान-विज्ञान समिति में पूर्णकालिक कार्यकर्ता है। वहां से हम अलीगढ़ की बस पकडऩे के लिए आनंद विहार की बस पर सवार हो गए। दिल्ली में मैट्रो से भले ही सडक़ परिवहन में थोड़ा सुधार आया हो, लेकिन समस्या अभी भी गंभीर है। ट्रैफिक जाम के कारण एक घंटे में हम आनंद विहार आईएसबीटी पर पहुंचे। अलीगढ़ पहुंचने की जल्दबाजी में हमने यहां पर ज्यादा पूछताछ किए बिना यूपी रोड़वेज की सरकारी बस देखी। परिचालक अलीगढ़-अलीगढ़ चिल्ला रहा था। पूछने पर उसने बताया कि चार बजे तक अलीगढ़ पहुंच जाएंगे। जल्दबाजी में बस में सवार हो गए। सीट पर बैठते ही पछताए भी कि लंबे सफर पर जाने के लिए भला ऐसी खस्ताहालत बस में सवार होने की क्या जरूरत थी? लेकिन उठने और बस बदलने की ज़हमत हमने नहीं उठाई। बस चली तो टर्मिनल पर ही अहसास हो गया कि भारी भूल हो गई है। कारण सीटों के बीच में फासला बेहद कम था और पांव मुश्किल से फंस रहे थे। छोटे-छोटे गड्ढ़ों पर भी बस हिचकोले खाने लगी थी। पूत के पांव पालने में ही नज़र आने की तर्ज पर बस की हालत हमें पता चल चुकी थी। आई.एस.बी.टी. से निकलने में ही जब इतना अधिक समय लगा रहा था, तो सडक़ पर क्या होगा? इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता था। टिकट देने आए परिचालक से जब पुन: हमने अलीगढ़ पहुंचने के बारे में पूछा तो उन्होंने अपनी ही बात से पलटते हुए बड़ी बेपरवाही से बताया कि बस पांच-साढ़े पांच बजे तक अलीगढ़ पहुंच जाएगी। इससे स्पष्ट हो गया था कि यूपी की बस सेवाओं के लिए घंटे-दो घंटे की कोई कीमत नहीं है। इन्द्री से दिल्ली बस में सहयात्री के सुझाव को अनुसुना करने की गलती का अहसास रह-रह कर हो रहा था। हरियाणा और यूपी बस सेवाओं के अंतर पर चर्चा करते तथा बस व स्वयं को कोसते हुए जा रहे थे। लेकिन तब तो हद हो गई जब पांच के बाद साढ़े पांच का समय भी गुजर गया और जल्द ही अलीगढ़ पहुंचने की कोई उम्मीद नज़र नहीं आ रही थी। परिचालक ने अलीगढ़ से काफी दूर पहले बस को लोकल बस में परिवर्तित कर दिया था। खेत में सवारियों को उतारा और चढ़ाया जा रहा था। इससे स्थानीय लोगों को तो राहत मिलती ही होगी, लेकिन लंबी दूरी तय करने वाले मुसाफिरों पर क्या बनती होगी?  इसका अंदाज़ा शायद बस में हमारे सिवा किसी को नहीं था। 
हमें इस बात को लेकर भी चिंता हो रही थी कि प्रमोद जी बैठक के बाद हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे। उन्होंने सतीश के साथ फोन पर बात हो रही थी। लेकिन हमारी बागडोर बस और उसके चालक व परिचालक के हाथ में थी। घंटों से इंतज़ार करने के बाद आखिर हमारे पहुंचने से पहले ही प्रमोद जी रोहतक के लिए रवाना हो गए। उन्होंने सतीश को संजीव सिन्हा का सेल नंबर दे दिया, ताकि हमें कोई दिक्कत ना हो। सात बजे के करीब हम अलीगढ़ पहुंचे। इस समय अंधेरा हो गया था। रिक्शा से अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के गेट पर पहुंचे।
वहां संजीव ने एक साथी बाबूद्दीन को भेज दिया था। उनके साथ हम विश्वविद्यालय के व्यस्क शिक्षा एवं सतत शिक्षा विभाग तक पहुंचे। यहां पर हमारी भेंट विभाग की निदेशक डॉ. सीमा, फिर स्कूल चलें अभियान की इंचार्ज डॉ. वीना गुप्ता जी और संजीव सिन्हा से क्षणिक भेंट हुई। वहां से कार के माध्यम से संजीव हमें विश्वविद्यालय के गेस्ट हाउस-1 ले गए, जहां पर हमारे रहने की व्यवस्था की गई थी। शिक्षित, विवेकशील एवं लोकतांत्रिक समाज बनाने का लक्ष्य लेकर काम कर रही भारत ज्ञान-विज्ञान समिति द्वारा स्कूलों से ड्रॉप आउट हुए बच्चों की शिक्षा के लिए किए जा रहे प्रयासों का अध्ययन करने के लिए हम यहाँ पहुंचे थे। ये प्रयास ‘फिर स्कूल चलें अभियान’ के तहत खोले गए केन्द्रों के माध्यम से किए जा रहे थे और केन्द्रों पर आज से भ्रमण करने का हमारा कार्यक्रम पहले ही निर्धारित हो चुका था। इससे पहले हमें अभियान के बारे में पूरी जानकारी लेनी थी। लेकिन देरी से पहुंचने के कारण हम अपना काम नहीं कर पाए। कमरे में जब यूपी की सडक़ों और परिवहन व्यवस्था की बात चली तो संजीव ने शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली, उद्योग सहित तमाम क्षेत्रों में चिंताजनक हालत का खुलासा किया। उन्होंने सरकार की लैपटॉप बांटने की योजना पर भी व्यंग्य करते हुए कहा कि सभी कुछ वोट बैंक के लिए किया जा रहा है। लोगों को वास्तव में राहत पहुंचाने के लिए कोई प्रयास नहीं हो रहे हैं।
इसके बाद गेस्ट हाउस के डाईनिंग हाल में खाने के साथ-साथ परियोजना इंचार्ज वीना जी ने ‘फिर स्कूल चलें अभियान’ का परिचय कराते हुए बताया कि मानव संसाधन विकास मंत्रालय के सहयोग से यह अभियान बिहार के तीन-सहरसा, मधेपुरा व दरभंगा और मध्य प्रदेश के भिंड के अलावा उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ जनपद के खण्ड जवां में भारत ज्ञान-विज्ञान समिति के द्वारा यह अभियान चलाया जा रहा है। जवां खण्ड की ही बात करें तो इसे चार क्लस्टर में बांटा गया है, जिसमें 40 पंचायतें आती हैं। 40 पंचायतों में कुल 95 केन्द्र खोले जाने हैं। इस समय 65 केन्द्र सक्रियता के साथ चल रहे हैं। एक केन्द्र पर बच्चों के साथ काम करने के लिए दो स्वयंसेवी अध्यापक नियुक्त किए गए हैं। क्लस्टर के सभी केन्द्रों को मार्गदर्शन प्रदान करने के लिए क्लस्टर संयोजक तैनात किया गया है। 20 पंचायतों पर एक रिसोर्स पर्सन है। परियोजना में पैसा बहुत कम है। क्लस्टर संयोजक को 15सौ रूपये मासिक मानदेय दिया जाता है। वहीं स्वयंसेवी अध्यापक के लिए किसी मानदेय का प्रावधान नहीं है। स्वयंसेवियों के प्रशिक्षण के लिए भी पर्याप्त प्रावधान नहीं हैं। उन्होंने बताया कि परियोजना अप्रैल, 2012 से शुरू होनी प्रस्तावित थी, लेकिन व्यावहारिक तौर पर अक्तूबर, 2012 में शुरू हुई। आज तक 65 स्वयंसेवी अध्यापकों का तीन दिन का ही प्रशिक्षण हो पाया है। स्वयंसेवियों की तरफ से निरंतर प्रशिक्षण की मांग उठ रही है, लेकिन परियोजना में प्रावधान नहीं होने के कारण प्रशिक्षण नहीं हो पा रहा। उन्होंने हमें भावी कार्यक्रम के बारे में जानकारी देते हुए बताया कि कल रविवार को आप ग्राम पंचायत जारौठी में जाएंगे। समिति के वरिष्ठ कार्यकर्ता संजीव सिन्हा और परियोजना में रिसोर्स पर्सन असमां खातून हमारे साथ होंगी। इसी दौरान समिति की यूपी इकाई के कोषाध्यक्ष तेजराम भारती से भी मुलाकात हुई। 
बिस्तर पर जाते हुए भी हम लंबी यात्रा की थकान से ज्यादा इतनी अधिक देरी से पहुंचने के सदमे से उबर नहीं पाए थे। चर्चाओं के दौर के साथ हम नींद के आगोश में चले गए थे। रविवार (17 नवम्बर) को सुबह अलीगढ़ के गांवों में घूमने का ख्याल मन में जहां रोमांच पैदा कर रहा था, वहीं गांव और वहां पर चलाए जा रहे स्कूल चलें केन्द्रों के बारे में भिन्न-भिन्न कोणों से जानने का उत्साह भी बढ़ता जा रहा था। खाना खाने के बाद हमारी भेंट परियोजना के कार्यकर्ताओं के लिए प्रशिक्षण जरूरतों का अध्ययन कर रही कविता (भोपाल, म.प्र.) से भेंट हुई, जिन्हें हमारे साथ ही जारौठी जाना था। कविता, असमां, सतीश और मैं ड्राईवर बॉबी के साथ जारौठी के लिए रवाना हुए। रास्ते में हमें पता चला कि जारौठी अलीगढ़ से करीब 15 कि.मी. की दूरी पर है। जारौठी को जोडऩे वाले लिंक रोड़ खस्ताहालत में हैं। गांव में पहुंचने के लिए कोई साधन उपलब्ध नहीं है, जिस कारण रिसोर्स पर्सन का यहां पहुंचना अपने आप में एक मुश्किल काम है। स्वैच्छिकता एवं प्रतिबद्धता के बिना ऐसी कठिन परिस्थितियों में काम करना किसी भी तरह से संभव नहीं है। 

हम समिति के जिलाध्यक्ष ओम प्रकाश शर्मा के घर पर पहुंचे, जहां पर अभियान का क्लस्टर केन्द्र चलाया जा रहा है। शर्मा जी 1997 में पंचायत विभाग में सहायक विकास अधिकारी के पद से सेवानिवृत्त हो चुके हैं। घर पहुंचे तो उनकी पत्नी चूल्हे में आग जलाने के लिए कड़ी मशक्कत कर रही थी। आग नहीं जलने के कारण धूआं फैला हुआ था। वृद्धावस्था में चूल्हा जलाना और उस पर खाना बनाना काफी हिम्मत का काम है। चूल्हे पर सब्जी बनाई जा रही थी। चूल्हा जलाने की कोशिश में उनके सिर से साड़ी का पल्लू उतर गया था। जब मैं उनका फोटो लेने लगा तो उनकी पहली चिंता पल्लू ठीक करने की थी। शर्मा जी ने बताया कि उनके बच्चे शादीशुदा हैं और अलीगढ़ में रहते हैं। यहां पर वे और उनकी पत्नी रहते हैं। गांव से उन्हें लगाव है। सेवानिवृत्ति के बाद उन्होंने 2000 में पंचायत प्रधान पद का चुनाव लड़ा था। लेकिन अच्छे आदमी का चुनाव लडऩा इतना आसान नहीं रह गया है। 
अभियान केन्द्र के कमरे का एक दरवाज़ा घर में और एक बाहर खुलता था। खिडक़ी का दरवाज़ा टूटा हुआ था। कमरे की एक दिवार पर समिति द्वारा निकाले गए विभिन्न जत्थों के पुराने चित्र लगे हुए थे। रस्सी के साथ किताबें लटकाकर प्रदर्शित की गई थी। वर्णमाला का चार्ट लगा था। एक मेज पर कागज का मेंढक़ बना हुआ था, जिससे स्पष्ट था कि यहां पर ओरिगेमी का प्रशिक्षण दिया गया है। दूसरे कोने में मेज पर हारमोनियम रखा था, जिससे लगता था कि कार्यकर्ताओं की रूचि संगीत में भी है और शायद कोई ना कोई हारमोनियम बजाना भी जानता है। मेज के पास की कुर्सी पर पानी का कैंपर रखा था। कुल मिलाकर केन्द्र का कमरा गतिविधियों व पढऩे-पढ़ाने का केन्द्र लग रहा था। केन्द्र के दूसरी ओर बरामदा व आंगन था। यहीं पर हम बैठ गए। 
कुछ ही देर में क्लस्टर संयोजिका नीतू आ गई। उन्होंने बताया कि उनका क्लस्टर नं.-2 है। यहां पर सात केन्द्र सक्रिय हैं। केन्द्र शुरू होने का समय सायं 4:30 है और दिन छिपने तक केन्द्र चलाया जाता है। स्कूल में कईं बार अभिभावक अपने बच्चों को पीट-पीट कर पढऩे के लिए भेजते हैं, लेकिन केन्द्र में बच्चे खुशी-खुशी सीखने आते हैं। उन्होंने कहा कि परिवार की आर्थिक हालत और काम के बोझ के कारण बहुत से बच्चे स्कूल नहीं जाते। ओम प्रकाश शर्मा, जिन्हें क्लस्टर व केन्द्र कार्यकर्ता प्यार से बाबा कह कर पुकारते हैं, ने बताया कि उनके गांव में सरकारी प्राथमिक स्कूल है और 135 बच्चे इसमें शिक्षा ग्रहण करते हैं। लेकिन पढ़ाने के लिए एक नियमित अध्यापक व दो शिक्षा मित्र हैं। अध्यापकों की कमी के कारण पढ़ाई का स्तर अच्छा नहीं है। स्वयंसेवी अध्यापिका सुमन ने बताया कि उन्होंने 30 के करीब बच्चों को स्कूल में दाखिल करवा दिया है। 
यहीं पर आई कड़हारा पंचायत के तहत आने वाले गांव बेरिया नगला में खोले गए केन्द्र की स्वयंसेवी अध्यापिका शशी ने बताया कि बेरिया नगला में सारी आबादी अनुसूचित जाति की है। गांव छोटा-सा है, जिसकी आबादी 400 के करीब है। यहां पर काम के लालच में बच्चे स्कूल छोड़ रहे हैं। उन्होंने गांव में केन्द्र खोलने से पहले सर्वेक्षण किया और लोगों के साथ बातचीत की। सर्वेक्षण की प्रक्रिया में स्कूल से बाहर रह गए बच्चों को दाखिल करवाने का प्रयास किया। एक निजी स्कूल में अध्यापिका के तौर पर पढ़ा रही शशी ने बताया कि उन्होंने 25 के करीब बच्चों को केन्द्र के माध्यम से स्कूल में दाखिल करवाया है। प्रशिक्षण में सीखी गई खेल क्रियाओं व गीता-कविताओं के माध्यम से बच्चों को सिखाया जाता है। 
इस बीच केन्द्र पर आने वाले बच्चे यहां पहुंच गए थे। बच्चों के साथ कविता घुल-मिल गई और बच्चों ने नृत्य, अभिनय व गीतों के माध्यम से अपनी भावाभिव्यक्ति की। यहां पर बच्चों की माएं व अभिभावक भी पहुंचे। उनके साथ भी केन्द्र की गतिविधियों के बारे में चर्चा हुई। दोपहर के खाने की व्यवस्था विश्वविद्यालय के गेस्ट हाउस में ही थी, जिस कारण हमें खाना खाने के लिए दौबारा विश्वविद्यालय आना पड़ा। इस दौरान कविता जा चुकी थी। दोपहर के भोजन के लिए इतनी लंबी यात्रा करना हमें अच्छा नहीं लग रहा था। हमारे पास केन्द्रों के अवलोकन व कार्यकर्ताओं व समुदाय से चर्चा के लिए पहले ही समय कम था। कल का एक दिन हम पहले ही बर्बाद कर चुके थे। स्थानीय कार्यकर्ताओं ने केवल 18 नवम्बर तक के भ्रमण की व्यवस्था कर रखी थी। अब अध्ययन के लिए केवल कल का दिन बचा था। 
दोपहर का भोजन खाने के लिए जाते और पुन: जारौठी आते समय संजीव सिन्हा से बातचीत का काफी समय मिला। ज्ञान-विज्ञान आंदोलन में उनके प्रवेश और फिर पूरी प्रतिबद्धत के साथ बने रहने का इतिहास अपने आप में समाज परिवर्तन के जोश व उत्साह से भरा है। इस बीच उन्हें तीन बार सरकारी नौकरी के अच्छे अवसर मिले, लेकिन उन्होंने किसी को भी स्वीकार नहीं किया और आंदोलन में पूर्णकालिक भूमिका निभाते रहे। बरेली में साक्षरता अभियान को उन्होंने स्वर्णिम पल बताया। उनके साथ उत्तर प्रदेश की राजनीति पर विस्तार से चर्चा हुई और जनपक्षधर राजनीति के कमजोर होते के कारण निराशाजनक स्थितियों पर वे चिंतित नजऱ आए। जारौठी पहुंचे तो यहां पर अन्य गांवों के कार्यकर्ता मौजूद थे। भीमगढ़ गांव की स्वयंसेवी अध्यापिका सीमा ने चर्चा के दौरान बताया कि वे पुलिस की तैयारी कर रही हैं और हर रोज तीन-चार किलोमीटर की दौड़ लगा रही हैं। उनके गांव की आबादी 12सौ के करीब है। सर्वेक्षण के माध्यम से यहां पर स्कूल से बाहर छूट गए या ड्रॉप आउट हुए 23 बच्चों की पहचान की गई। इनमें 13 लड़कियां और 8 लडक़े हैं। केन्द्र उनके घेर में खोला गया है और परिवार के अन्य सदस्य इसमें उनका सहयोग करते हैं। गांव की दो अन्य लड़कियां केन्द्र में उनका सहयोग करती हैं।
 
शाम को जारौठी में चलाए जा रहे एक अन्य केन्द्र में भी गए। इसके बाद हम नीतू के घर गए, तो पता चला कि नीतू अपनी बूआ के घर पर रहती है। गांव में उसकी सामाजिक कार्यकर्ता के तौर पर साख है। यहां पर दूध व घर पर ही दूध से बनाई गई विशेष प्रकार की मिठाई से हमारा स्वागत हुआ। इस दौरान शशी साथ ही थी, जोकि घर जाने में देरी होने के कारण चिंतित दिखाई दे रही थी। पूरी जिम्मेदारी के साथ बाबा और नीतू उसे गांव बेरिया नगला छोड़ कर आए। आज भोजन के लिए अलीगढ़ जाते-आते हमारा बहुत-सा समय नष्ट हो गया था। समय की बचत करने के लिए अलीगढ़ लौटते हुए हमने संजीव से अनुरोध किया कि कल भ्रमण के दौरान भोजन की व्यवस्था गाँव में ही हो जाए, तो बेहतर होगा।

सोमवार (नवम्बर 18) को असमां व उनकी तीन वर्षीय नटखट बेटी रूश्दा के साथ हम सोंगरा क्लस्टर के लिए रवाना हुए। तय कार्यक्रमानुसार रास्ते में रिसोर्स पर्सन सूरज पाल उपाध्याय मिले। उसके बाद हम पोथी पंचायत में पहुंचे। यहां पर पंचायत के अन्तर्गत आने वाले गांव पोथी, पोथा और नगला बंजारा से पहले खेतों में स्थित पूर्व माध्यमिक स्कूल (मिडल स्कूल) पहुंचे। वास्तव में यह स्कूल तो लग ही नहीं रहा था। स्कूल की चारदिवारी नहीं थी। एक तरफ सडक़ के किनारे लंबी रस्सी के साथ एक घोड़ा बंधा हुआ था। तीन कमरों की पंक्ति के सामने एक अन्य कमरा बना हुआ था। इस कमरे के सामने एक मोटरसाईकिल खड़ी थी। इस कमरे के सामने दो शौचालय थे, जिनक दरवाज़े नहीं थे। ऐसे में शायद ही कोई उनमें जाता होगा। प्रांगण ऊबड़-खाबड़ था, जिस पर दूब उगी हुई थी। कांग्रेस घास पर फूल आए हुए थे। कईं स्थानों पर पशुओं का गोबर था। ऐसे माहौल में ही 25 के करीब बच्चे बैठे थे और उनके सामने कुर्सी के सहारे टिका एक बोर्ड था। बच्चों के चारों ओर फटे कागज बिखरे हुए थे। वहीं लंबी शेरवानी पहने एक मास्साब खड़े थे। स्कूल में पहुंचे तो उन्होंने स्वागत किया। पूछने पर उन्होंने बताया कि छठी से आठवीं तक के इस स्कूल में 107 विद्यार्थी नामांकित हैं। लेकिन सभी विद्यार्थी आते नहीं हैं। आएं भी आखिर क्यों और क्या करने? स्कूल में पढ़ाने के लिए पर्याप्त अध्यापक भी नहीं हैं। एक स्थाई अध्यापक की दुर्घटना हो गई थी, जिस कारण वे छुट्टी पर हंै। वे स्वयं शारीरिक शिक्षा के अनुदेशक हैं और अनुबंध पर पिछले कुछ महीने से यहां पर तैनात हैं। इसके अलावा यहां दूसरी अध्यापिका ललित कला की अनुदेशिका हैं। अनुबंध पर सात हज़ार रूपये प्रतिमाह वेतन मिलता है। वह भी पिछले चार महीने से नहीं मिला। इस बीच कमरे से निकल कर अध्यापिका भी हमारे पास आ गईं। उनसे भी दुआ-सलाम हुई। रसोई में एक महिला मिड-डे-मील तैयार कर रही थी। अध्यापकों ने बताया कि इस रसोई का भी दरवाज़ा नहीं है। स्कूल में बैठे बच्चों में से सातवीं के दो, आठवीं के चार और बाकी छठी कक्षा के विद्यार्थी थे। मास्साब ने बताया कि वे गांव में हररोज जाते हैं, लेकिन अभिभावक सहयोग नहीं करते हैं और बच्चों को स्कूल नहीं भेजते हैं। जब उनसे पोथी में चलाए जा रहे फिर स्कूल चलें अभियान केन्द्र के बारे में पूछा गया तो उन्होंने अनभिज्ञता जाहिर करते हुए बताया कि यहां पर अभियान का कोई कार्यकर्ता नहीं आया है। लेकिन उपाध्याय जी ने बताया कि वे स्कूल में एक बार आए हैं, लेकिन स्थाई अध्यापक से मिलकर गए थे। उन्होंने समिति द्वारा आयोजित किए गए शिक्षा अधिकार सम्मेलन के बारे में भी बताया। मास्साब को सम्मेलन ही नहीं शिक्षा का अधिकार अधिनियम के बारे में भी कोई जानकारी नहीं थी। सतीश ने उनसे इस अधिनियम को जरूर पढऩे का अनुरोध किया गया।

इसके बाद हम पोथी गांव पहुंचे। यहां पर प्राथमिक स्कूल में बच्चों की रौनक थी, लेकिन स्कूल की जगह बेहद कम थी। यहां प्रांगण नाममात्र ही है। मैदान के अभाव में खेलों के बारे में तो सोच भी नहीं सकते। यहां पर विद्यार्थियों की संख्या 98 है। स्कूल में दो शिक्षा-मित्र कार्यरत हैं, जिन्हें महज़ 3500 रूपये वेतन मिलता है। स्कूल में कोई इंचार्ज नहीं है। दूसरे स्कूल का संचालन करने के लिए अध्यापक की अस्थाई व्यवस्था की गई है। यहां से 2011 में सेवानिवृत्त हुए अध्यापक सईद आए हुए थे। उन्होंने चर्चा करते हुए बताया कि जवां खण्ड पूरे जिला में शिक्षा के मामले में आदर्श कहलाता है। लेकिन बड़ी संख्या में स्कूलों की स्थिति मिडल स्कूल जैसी ही है, जहां अध्यापकों व सुविधाओं का अभाव है। आदर्श खण्ड की यह स्थिति है, तो अन्य खण्डों की स्थिति क्या होगी? इसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। 
स्कूल से उपाध्याय जी का अनुसरण करते हुए हम केन्द्र की ओर चल दिए। गांव की गलियों से गुजरते हुए पोथी और हरियाणा के गांवों में कोई अंतर नज़र नहीं आ रहा था। उसी तरह से घरों में पशु बंधे हुए हैं। बच्चे खेल रहे हैं। घूंघट में होने के बावजूद महिलाएं घास व लकडिय़ां ला रही हैं। पुरूष ताश खेल रहे हैं। इस गांव में स्वयंसेवी अध्यापपिका आशा देवी है जोकि आशा वर्कर भी है। उन्हीं के घर पर केन्द्र चलाया जाता है। पूछने पर उन्होंने बताया कि केन्द्र में 25 बच्चे पढ़ते हैं। इनमें से कुछ बच्चे स्कूल में जाने वाले हैं। वे अपने स्तर पर उन्हें पढ़ाते हैं। बातचीत के क्रम में आशा ने अपने मन की बात पूछते हुए कहा कि आखिर कब तक मुफ्त सेवा चलती रहेगी? इससे हमें पता चल गया कि फिलहाल उनका कोई प्रशिक्षण नहीं करवाया गया है। इस बात की तसदीक करते हुए उपाध्याय जी बताया कि सोंगरी क्लस्टर के तहत आने वाले गांवों के अभियान केन्द्रों के 70 के करीब स्वयंसेवी अध्यापकों का प्रशिक्षण नहीं हो पाया है। ज्ञान-विज्ञान आंदोलन द्वारा चलाए जा रहे अभियानों में प्रशिक्षण के दौरान स्वैच्छिकता के सवाल पर बहुत चर्चा होती है। प्रशिक्षण के बिना अभियान में स्वैच्छिक भावना का पूरा विकास नहीं हो पाता, जिससे इस प्रकार के सवाल बने रहते हैं। यहां हमारा परिचय क्लस्टर संयोजक वासुदेव शर्मा जी से हुआ। 

यहां से हम छह-सात हज़ार की आबादी वाले गांव सोंगरा में पहुंचे। यहां पर तीन केन्द्र चलाए जा रहे हैं। यहां पर एक कार्यकर्ता के घर पर स्वयंसेवी अध्यापिका सरोज, भारती, पूजा भारद्वाज, आरती, रिंकी शर्मा और मीनेश से बातचीत हुई। यहां पर अध्यापिकाओं के घर या घेर में ही केन्द्र चलाए जा रहे हैं। अध्यापिकाएं उच्च जाति की हैं और सीखने वाले अधिकतर बच्चे अनुसूचित व पिछड़ा वर्ग से हैं। बच्चे खेलते हैं, गीत गाते हैं और सीखते हैं। सुविधाओं के अभाव में भीत (दिवार) पर लिख कर उन्हें सिखाया जाता है। कार्यकर्ताओं में प्रशिक्षण की जबरदस्त मांग है। असमां ने बताया कि दिसम्बर में प्रशिक्षण कार्यशाला प्रस्तावित है। 

यहां से हम भोजन के लिए उपाध्याय जी के गांव की तरफ चल दिए। रास्ते में उपाध्याय जी ने बताया कि वे ज्ञान-विज्ञान आंदोलन के प्रमुख नेता डॉ. कुंवरपाल सिंह के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर आंदोलन की तरफ आकर्षित हुए। जारौठी में ओम प्रकाश शर्मा ने भी डॉ. कुंवरपाल जी के व्यक्तित्व पर प्रकाश डाला था। जिससे मुझे पता चला कि उनके व्यक्तित्व व विचारों का अलीगढ़ जनपद ही नहीं बड़े क्षेत्र में व्यापक प्रभाव है। हिन्दी की प्रसिद्ध पत्रिका वर्तमान साहित्य के संपादक, जनवादी लेखक संघ के संस्थापक नेता और एक सामाजिक कार्यकर्ता के तौर पर डॉ. कुंवरपाल जनमानस पर खासा प्रभाव है। तब मुझे लगा कि अलीगढ़ ताला नगरी और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के कारण ही नहीं हिन्दी साहित्य में ‘वर्तमान साहित्य पत्रिका’ के प्रकाशन और डॉ. कुंवरपाल सिंह व डॉ. नमिता सिंह के योगदान के लिए भी जाना जाता है।
रास्ते में सतीश और उपाध्याय जी की चर्चा की तरफ मैं पूरी तरह ध्यान नहीं दे पाया। लेकिन मैंने सुना कि उपाध्याय जी सतीश को कह रहे हैं कि आपको आज मथुरा का हलुवा खिलाएंगे। मथुरा के पेड़ तो बहुत सुन रखे थे, अब ये मथुरा का हलुवा....... सुन कर मुंह में पानी आ गया। हलुवा भी पेड़े की तरह ही खास ही होता होगा। यह सोच कर मन खुशी से भर उठा। गांवों में बातचीत करते हुए समय अधिक हो गया था। भूख तेज लगी थी। ऊपर से मथुरा के हलुवे ने भूख को और बढ़ा दिया था। उपाध्याय जी के घर पर पहुंचे तो खुला आंगन, आंगन में विभिन्न प्रकार के पेड़-पौधे और क्यारियां। उन्होंने जहां कईं प्रकार के फूल उगा रखे हैं, वहीं रसोई के लिए कद्दू, मेथी, मिर्च सहित सब्जि़यां। उनके घर में पशु भी बंधे हुए हैं। उनके घर को देखकर मुझे मेरे अपने गांव की याद आ गई, जहां पर भरे-पूरे आंगन में मैंने कईं प्रकार के पौधे लगाए थे। फूलों से क्यारियां लदी-फदी रहती थी। लेकिन गांव से इन्द्री पहुंचते ही सब कुछ नष्ट हो गया। 
यहां पर मैंने खूब फोटोग्राफी की। इतना खाना बने, उपाध्याय जी मुझे गांव की सैर करने ले गए। वे मुझे अपने गांव के लोगों से मिलवाने लगे।
खेतों में ले गए, जहां पर कुछ ही दूरी पर अमरबेल लगी हुई थी, जिसका जिक्र सफर में चलते हुए हुआ था। उन्होंने अमरबेल लाने के लिए खेत में काम कर रहे किसान की जिम्मेदारी लगाई। बातचीत के दौरान मुझे उनकी बोली ब्रज से मिलती-जुलती लगी। पूछने पर उपाध्याय जी ने बताया कि यहां से 60किलोमीटर की दूरी पर मथुरा है। 
मुझे लगा कि मथुरा का हलुवा विशेष होता होगा। लेकिन मैं भ्रम में था। घर जाकर जब हम खाना खाने लगे तो चूल्हे पर बनी मक्की की रोटी और साग हमारे सामने थे। सतीश ने जब पूछा कि बथुआ का हलुवा कहां है तो असमां ने बताया-‘यहां साग को ही बथुए का हलुवा कहते हैं।’ सबसे ज्यादा हैरान मैं था जोकि मथुरा के हलुवा से बथुआ के हलुवा की यात्रा करते हुए साग तक पहुंचा। लेकिन मेरी कल्पना के हलुवे के स्वाद से भी कहीं अधिक स्वादिष्ट थी-मक्की की रोटी और साग। ऊपर से घर का बना मिर्च का अचार। मैंने भूख से एक रोटी ज्यादा खाई।
ज्ञान-विज्ञान समिति की स्थानीय इकाई ने हमारे अध्ययन के लिए सिर्फ 18 नवम्बर तक का समय निर्धारित किया था। लेकिन हमने अभी तक किसी अल्पसंख्यक मुस्लिम समुदाय बहुल गांव में भ्रमण नहीं किया था, जिसके बारे में मैं यहां आते हुए सोचता रहा था। मैंने उपाध्याय जी के गांव से चलते हुए ऐसे किसी गांव में चलने की इच्छा व्यक्त की तो ‘समय अधिक हो जाएगा’ का तर्क रखते हुए सुझाव को बर्खास्त कर दिया गया। इन्द्री से दिल्ली जाते हुए बस के सहयात्री ने मुस्लिम आबादी वाली बस्तियों की बदहाली की जो दास्तान सुनाई थी। उसे मैं यहां आकर भी आंखों से देखकर अध्ययन नहीं कर पा रहा हूँ, ऐसा विचार मुझे परेशान कर रहा था। गांव से अलीगढ़ आते हुए असमां ने यहां की एक नहर का जिक्र किया और हमसे नहर देखने की इच्छा पूछी तो हम सहर्ष तैयार हो गए। जवां से होते हुए हम नहर तक पहुंचे। नाम पूछने पर बॉबी ने बताया कि इसे जवां नहर पुकारा जाता है। यहां मिट्टी के कसोरे में चाय पीने का मौका मिला। पुल से नहर देखना कुछ खास नहीं लगा क्योंकि इससे चौड़ी पश्चिमी यमुना नहर तो हमारे गांव के पास से गुजरती है, जिसमें पुल से छलांग लगाकर तैरते, नहाते और पशुओं को नहलाते मेरा बचपन बीता है। 

विश्वविद्यालय पहुंचे तो अंधेरा हो गया था। यहां पर असमां को उनके घर (क्वार्टर) छोडऩे के बाद हम ड्राईवर बॉबी के साथ ही अलीगढ़ में चले गए। सतीश को होम्योपैथी की कोई दवाई लेनी थी। बॉबी ऐसी दुकान पर लेकर गया, जहां से वह दवाई सहजता से मिल गई। इसके बाद हम मार्केट में ही ट्रांसपोर्ट कार्यालय पर रूके। यहां पर मिले शहजाद, जिनके साथ सतीश की खूब जमी। दोनों होम्योपैथी के जानकार, लेकिन शहजाद कुछ ज्यादा। सतीश जी बीमारी का जिक्र करें और होम्योपैथी की दवाई का नाम शहजाद बताएं। यहां पर सतीश द्वारा होम्योपैथी के बारे में और अधिक जानने की इच्छा उजागर हुई। शहजाद ने सतीश के लिए एक अच्छी किताब भिजवाने का वादा किया। बातचीत के दौरान यह भी उजागर हुआ कि सतीश अपने गांव हथवाला में बीमार लोगों की मदद करते हैं। यहां पर बैठा हुआ मैं वर्तमान साहित्य की संपादक डॉ. नमिता सिंह जी से मिलने के बारे में सोच रहा था, लेकिन लग रहा था कि दोनों की बातचीत और बातचीत में दोनों की इतनी मशरूफियत......शायद डॉ. नमिता से मिलना संभव नहीं होगा। 
नवम्बर19 को हमें वापिस आना था। हमने तय कर लिया था कि सरकारी बस से नहीं जाएंगे। रिक्शा पर सवार होकर निजी बस के पास पहुंचे तो बस को एक घंटा बाद साढ़े बारह बजे रवाना होना था। परिचालक ने ही सुझाव दिया कि आप रेलगाड़ी से चले जाएं। जल्दी पहुंच जाएंगे। इस पर उसी रिक्शा से हम रेलवे स्टेशन के लिए चल दिए। रेलगाड़ी से करीब ढ़ाई घंटे में हम नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पहुंच गए, जाते समय जो सफर हमने कईं घंटों में तय किया था।
-अरुण कुमार कैहरबा,
वार्ड नं.-4, रामलीला मैदान, इन्द्री, जिला-करनाल, हरियाणा।
मो.नं.-09466220145


प्रैस की आज़ादी के विश्व दिवस (3मई) पर विशेष

प्रैस की आज़ादी के विश्व दिवस (3मई) पर विशेष

 न खेंचो कमान, न तलवार निकालो, गर तोप मुकाबिल हो, तो अखबार निकालो............

अमेरिका के तीसरे राष्ट्रपति थॉमस जेफरसन ने कहा था, ‘यदि मुझे कभी यह निश्चित करने के लिए कहा गया कि अखबार और सरकार में से किसी एक को चुनना है तो मैं बिना हिचक यही कहूंगा कि सरकार चाहे न हो, लेकिन अखबारों का अस्तित्व अवश्य रहे।’  विश्व के सभी प्रगतिशील विचारों वाले देशों में अखबारों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। मीडिया में और विशेष तौर पर प्रिंट मीडिया में जनमत बनाने की अद्भुत शक्ति होती है। नीति निर्धारण में जनता की राय जानने में और नीति निर्धारकों तक जनता की बात पहुंचाने में समाचार पत्र एक सेतु का काम करते हैं। समाज पर समाचार पत्रों का प्रभाव जानने के लिए हमें एक दृष्टि अपने इतिहास पर डालनी चाहिए। लोकमान्य तिलक, महात्मा गाँधी और पं. नेहरू जैसे स्वतंत्रता सेनानियों ने अखबारों को अपनी लड़ाई का एक महत्वपूर्ण हथियार बनाया। आजादी के संघर्ष में भारतीय समाज को एकजुट करने में समाचार पत्रों की विशेष भूमिका थी। यह भूमिका इतनी प्रभावशाली हो गई थी कि अंग्रेजों ने प्रेस के दमन के लिए हरसंभव कदम उठाए। स्वतंत्रता के पश्चात लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा और वकालत करने में अखबार अग्रणी रहे। आज मीडिया अखबारों तक सीमित नहीं है परंतु इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और वेब मीडिया की तुलना में प्रिंट मीडिया की पहुंच और विश्वसनीयता कहीं अधिक है। प्रिंट मीडिया का महत्व इस बात से और बढ़ जाता है कि आप छपी हुई बातों को संदर्भ के रूप में इस्तेमाल कर सकते हैं और उनका अध्ययन भी कर सकते हैं। ऐसे में प्रिंट मीडिया की जिम्मेदारी भी निश्चित रूप से बढ़ जाती है। 
मशहूर शायर अकबर इलाहाबादी के शेर से आप में से ज्यादातर वाकिफ होंगे कि-न खेंचो कमान, न तलवार निकालो। गर तोप मुकाबिल हो, तो अखबार निकालो।’ संविधान में हर व्यक्ति को बिना किसी धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्र व लिंग भेद के स्वतंत्रता व सम्मान के साथ जीने का अधिकार मिला है। लोकतंत्र में मानवाधिकार का दायरा अत्यंत विशाल है। राजनैतिक स्वतंत्रता, शिक्षा का अधिकार, महिलाओं के अधिकार, बाल अधिकार, निशक्तों के अधिकार, आदिम जातियों के अधिकार, दलितों के अधिकार जैसी अनेक श्रेणियां मानवाधिकार में समाहित हैं। यदि गौर किया जाए तो कुछ ऐसी ही विषयवस्तु पत्रकारिता की भी है। पत्रकारों के लिए भी मोटे तौर पर ये संवेदनशील मुद्दे ही उनकी रिपोर्ट का स्रोत बनते हैं। भारत जैसे देश में जहां गरीबी व अज्ञानता ने समाज के एक बड़े हिस्से को अंधकार में रखा है, वहां मानवाधिकारों के बारे में जागरुकता जगाने में, उनकी रक्षा में तथा आम आदमी को सचेत करने में अखबार समाज की मदद करते हैं। हमें यह बात जान लेनी चाहिए कि कोई भी राष्ट्र तब तक पूर्ण रूप से लोकतांत्रिक नहीं हो सकता जब तक उसके नागरिकों को अपने अधिकारों को जीवन में इस्तेमाल करने का संपूर्ण मौका न मिले। मानवाधिकारों का हनन मानवता के लिए खतरा है। आम आदमी को उसके अधिकारों के बारे में शिक्षित करने में मीडिया निश्चित रूप से महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। सूचना के प्रचार-प्रसार से लेकर आम राय बनाने तक में मीडिया अपने कर्तव्य का भली-भांति वहन करता है। प्रेस की स्वतंत्रता सिर्फ उसके मालिक, संपादक और पत्रकारों की निजी व व्यवसायिक स्वतंत्रता तक सीमित नहीं होती बल्कि यह उसके पाठकों की सूचना पाने की स्वतंत्रता और समाज को जागरुक होने के अधिकार को भी अपने में समाहित करती है। प्रेस का सबसे बड़ा कर्तव्य समाज को जागरुक करना होता है। 
मीडिया समाज की आवाज शासन तक पहुंचाने में उसका प्रतिनिधि बनता है। अब सवाल यह उठता है कि वाकई मीडिया अथवा प्रेस जनता की आवाज हैं। आखिर वे जनता किसे मानते हैं? उनके लिए शोषितों की आवाज उठाना ज्यादा महत्वपूर्ण है अथवा क्रिकेट की रिर्पोटिंग करना, आम आदमी के मुद्दे बड़े हैं अथवा किसी सेलिब्रिटी की निजी जिंदगी ? आज की पत्रकारिता इस दौर से गुजर रही है जब उसकी प्रतिबद्धता पर प्रश्रचिन्ह लग रहे हैं। समय के साथ मीडिया के स्वरूप और मिशन में काफी परिवर्तन हुआ है। अब गंभीर मुद्दों के लिए मीडिया में जगह घटी है। अखबार का मुखपृष्ठ अमूमन राजनेताओं की बयानबाजी, घोटालों, क्रिकेट मैचों अथवा बाजार के उतार-चढ़ाव को ही मुख्य रूप से स्थान देता है। गंभीर से गंभीर मुद्दे अंदर के पृष्ठों पर लिए जाते हैं तथा कई बार तो सिरे से गायब रहते हैं । समाचारों के रूप में कई समस्याएं जगह तो पा लेती हैं परंतु उन पर गंभीर विमर्श के लिए पृष्ठों की कमी हो जाती है। पिछले कुछ वर्षों में हम देख रहे हैं कि मानवाधिकारों को लेकर मीडिया की भूमिका लगभग तटस्थ है। हम इरोम शर्मिला और सलवा जुडूम के उदाहरण देख सकते हैं। ये दोनों प्रकरण मानवाधिकारों के हनन के बड़े उदाहरण हैं, लेकिन मीडिया में इन प्रकरणों पर गंभीर विमर्श अत्यंत कम हुआ है। राजनैतिक स्वतंत्रता के हनन के मुद्दे पर मीडिया अक्सर चुप्पी साध लेता है। मीडिया की तटस्थता स्वस्थ लोकतंत्र के लिए अत्यंत घातक है। मीडिया को अपनी तटस्थता छोडक़र मानवधिकारों के हनन को रोकने की दिशा में सार्थक कार्य करना होगा। 
भारत में मानवाधिकार हनन का पहला बड़ा मुद्दा जो मीडिया में आया था, वह था भागलपुर जेल में कैदियों की आंखें फोडऩे का मामला। इसके बाद मुंबई की आर्थर रोड जेल में महिला कैदियों के साथ दुव्र्यवहार व उनके शोषण की खबर ने सरकार को पूरे महाराष्ट्रï में जेलों की स्थिति की जांच करने पर मजबूर कर दिया। इस तरह की रिपोर्टिंग ने प्रिंट मीडिया को मानवाधिकारों की रक्षा में बड़ा साथी बना दिया था। यह अलग बात है कि चाहे वह गुजरात के दंगों का सच हो, कश्मीर में बेगुनाहों की मौत का सच हो, उत्तर प्रदेश में भूमि अधिग्रहण का सच हो अथवा विनायक सेन और नक्सलवाद का सच हो, प्रिंट मीडिया ने इन मुद्दों को अपनी प्रतिबद्धता व सामथ्र्यानुसार ही स्थान दिया है। हालांकि रोजाना जीवन के तो अनेक मानवाधिकार हनन मामले प्रिंट मीडिया के बगैर आम जनता तक सच्चाई से पहुंच नहीं पाते। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में ब्रेकिंग न्यूज की होड़ में यह अनुमान लगाना कठिन हो जाता है कि सच्चाई क्या है। आज प्रिंट मीडिया को इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से तगड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ रहा है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अपने स्वरूप और सामथ्र्य की वजह से दर्शकों को 24 घंटे उपलब्ध है। टीआरपी की चाह में टीवी न्यूज चैनल सिर्फ गंभीर विमर्शों तक सीमित नहीं हैं अपितु वे फिल्मी चकाचौंध, सास-बहू के किस्सों, क्रिकेट की दुनिया के अलावा अंधविश्वासों तक को अपने प्रोग्राम में काफी स्थान देते हैं। ऐसे में प्रिंट मीडिया का भी स्वरूप बदलने लगा है और अखबारों के पन्ने भी झकझोरने के बजाय गुदगुदाने का काम करने लगे हैं। मीडिया मालिकों की पूंजीवादी सोच के अलावा पत्रकारों की तैयारी भी एक बड़ा मसला है। एक समय था जब पत्रकार होना सम्मानजनक माना जाता था। बड़े-बड़े साहित्यकारों ने पत्रकारिता के क्षेत्र में भी अपनी लेखनी के झंडे गाड़े। प्रेमचंद, माखनलाल चतुर्वेदी, महादेवी वर्मा से लेकर अज्ञेय, धर्मवीर भारती, कमलेश्वर आदि दिग्गज साहित्यकारों ने एक पत्रकार के रूप में भी सामाजिक बोध जगाने के अपने दायित्व का निर्वहन किया और राजनैतिक पत्रकारिता से ज्यादा रुचि मानवीय पत्रकारिता में दिखाई। कहने का तात्पर्य यह है कि उस दौर के पत्रकारों में विषय की, समाज की गहरी समझ थी, उसे लेखन रूप में प्रस्तुत करने के लिए भाषा और भावना थी तथा सामाजिक प्रतिबद्धता थी। आज ये गुण कहीं खो से गए हैं। निजी हितों का दबाव इतना बढ़ गया है कि पत्रकारों की प्रतिबद्धता पल-पल बदलती रहती है। अपने कार्य के प्रति समर्पण में भी कमी नजर आती है। कहीं वे घटनास्थल तक पहुंच नहीं बना पाते तो कई बार उन्हें घटनाओं को सही परिप्रेक्ष्य में समझना नहीं आता तो कई बार भाषा के गलत इस्तेमाल से समाचार का भाव ही बदल जाता है। इसके लिए आवश्यक है कि पत्रकारों को आरंभ से ही मानवाधिकार मामलों की भी ट्रेनिंग दी जाए। उनके विषयों में भारतीय संविधान में उल्लेखित मौलिक अधिकारों की पढ़ाई, कानून की समझ इत्यादि शामिल किए जाएं तथा कार्यक्षेत्र में भी उन्हें पुलिस बीट, लीगल बीट आदि पर भेजने से पहले कुछ ट्रेनिंग दी जाए। आधी अधूरी तैयारी व सतही समझ से मुद्दे कमजोर पड़ जाते हैं और उनके समाधान की राह कठिन हो जाती है। यदि मीडिया को समाज को राह दिखानी है तो स्वयं उसे सही राह पर चलना होगा । एक सफल लोकतंत्र वही होता है जहां जनता जागरुक होती है। अत: सुशासन के लिए मीडिया का कर्तव्य बनता है कि वह लोगों का पथ प्रदर्शन करे। उन्हें सच्चाई का आइना दिखाए और सरकार को जनता के प्रति जवाबदेह बनाए।