राँची यात्रा वृत्तांत (22-25मार्च, 2014)
प्रचूर प्राकृतिक सम्पदा के बावजूद आखिर झारखण्ड में बदहाली क्यों?
22-23 मार्च को राँची में जन शिक्षा सभा का आयोजन।
18 राज्यों और 52संस्थाओं के प्रतिनिधियों ने लिया हिस्सा।
0से 18वर्ष तक के बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का अधिकार देने की उठाई माँग
अरुण कुमार कैहरबा
20 मार्च से 25 मार्च घुमक्कड़ी में बीता। भारत ज्ञान-विज्ञान समिति द्वारा 22-23 मार्च को झारखण्ड की राजधानी राँची में आयोजित जन शिक्षा सभा में हिस्सा लेने के लिए 20मार्च को घर से निकला था। इससे पहले ही जब से वहां जाने की चर्चा हुई थी, तभी से झारखण्ड जाने की इच्छाएं मन में हिलोरें मारने लगी थी। झारखण्ड का शाब्दिक अर्थ है-वन प्रदेश। झार या झाड़ अर्थात वन और खण्ड मतलब प्रदेश। झारखण्ड में प्रचूर वन सम्पदा और खनिज सम्पदा मौजूद है। यहां की शख्सियतों की बात करें तो राँची निवासी भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान महेन्द्र सिंह धोनी हैं। लेकिन ना तो उनसे मिलने की कोई इच्छा ही थी और ना ही उनका घर देखने की चाह। हाँ, झारखण्ड के संथाल परगना में जन्मी और आदिवासी कविता में एक खास पहचान रखने वाली निर्मला पुतुल से मिलने की इच्छा ज़रुर थी। यह भी तय था कि उनसे मिलने और उनके साहित्य के बारे में चर्चा करने की मेरी इच्छा पूरी नहीं हो पाएगी। खैर जन शिक्षा सभा में आने वाले विभिन्न राज्यों के प्रतिनिधियों से मिलने और झारखण्ड के बारे में जानने की मेरी इच्छा बलवती होती जा रही थी।20मार्च को मैं इन्द्री से निकला था। दिल्ली पहुंचा ही था कि रास्ते में गुरनाम के छह-सात वर्षीय भतीजे की दुर्घटना में मृत्यु का दुखद एवं दिल दहला देने वाला समाचार मिला। गुरनाम दिल्ली से गाँव के लिए रवाना हो चुका था और मैं यहाँ दिल्ली में। इस दुखद समाचार ने मुझे भी बुरी तरह से परेशान कर डाला। कश्मीरी गेट के मेट्रो स्टेशन पर मैं अवाक सा खड़ा रहा। मैट्रो में सवार हुआ, तो भी यह घटना दिल दहलाए हुए थी। कश्मीरी गेट से राजीव चौक और फिर आनंद विहार की ओर चल दिया। मंडी हाऊस के पास राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के विद्यार्थी नरेश से बात हुई। वह दुर्घटना और मृत्यु से आहत था और गाँव के लिए निकल चुका था। मेरे मन में बार-बार राँची यात्रा अधूरी छोड़ कर अपने गाँव कैहरबा जाने का ख्याल आया। लेकिन हर बार उसके बाद आनंद विहार रेलवे स्टेशन पर प्रतीक्षा कर रहे हरियाणा के अन्य साथियों और रिजर्वेशन करवा चुके साथियों का भी ख्याल आया। भारी मन से मैं आनंद विहार की तरफ बढ़ा जा रहा था और मन में नन्हें-से बच्चे की उछल कूद और दर्दनाक दुर्घटना, मृत्यु व परिजनों का विलाप था। मैं चार बजे के करीब आनंद विहार मेट्रो स्टेशन पहुंचा। यहां से निकला तो एक व्यक्ति ने बताया कि ओवरब्रिज से रेलवे स्टेशन की तरफ जाया जा सकता है। रेलवे स्टेशन से राँची के लिए ट्रेन को साढ़े छह बजे के करीब रवाना होना था। मैं ऊपर गया और ओवर ब्रिज पर सुस्ताने लगा। यहीं खड़े राजेश नाम के युवक से बात हुई तो उसने बताया कि वह झारखंड के गडहा जि़ला का रहने वाला है। दिल्ली में काम करता है। झारखंड अक्सर उसका जाना होता है। हरियाणा के झज्झर व सांपला आदि स्थानों पर वह घूमा है। उसने होली पर उत्तर प्रदेश के मथुरा स्थित नंदग्राम की भी यात्रा की है। झारखंड के बारे पूछने पर उसने बताया कि वह प्राकृतिक व आर्थिक रूप से बहुत सम्पन्न प्रदेश है। इसके बावजूद अधिकतर लोग गरीब हैं। राजेश के एक साथी के बुलावे पर वह चला गया, लेकिन मुझे उसकी यह बात मथती रही कि आखिर सम्पन्न प्रदेश में गरीबी क्यों?
कुछ देर खड़ा रहने के बाद मैं रेलवे स्टेशन के लिए रवाना हो गया। ओवर ब्रिज से उतरा और सामने की एक छोटी सी दुकान पर चाय के लिए पूछा, तो पता चला कि फिलहाल चाय नहीं मिल सकती। मेरे पास यहां अभी भी काफी समय था। आनंद विहार में घूमने का कोई स्थान पूछने पर पता चला कि यहां कोई खास स्थान नहीं है। हाँ मॉल जरूर बना है, जहां मैं समय काट सकता हूँ। मॉल में घूमने की बजाय मैंने रेलवे स्टेशन पर ही समय गुजारने का निर्णय किया। स्टेशन के स्टाल पर चाय पी। फोन पर सुशील से सम्पर्क हुआ तो पता चला कि भिवानी से रण सिंह और रमेश जाखड़ जी आए हुए हैं। रण सिंह जी से मोबाईल पर बात हुई तो उन्होंने बताया कि वे प्लेट फार्म नं.-2 पर बैठे हैं। मैं पहुंचा तो वे प्लास्टिक की चटाई पर बैठे हुए आराम फरमा रहे थे, अन्य साथियों की प्रतीक्षा कर रहे थे। रण सिंह जी सेवानिवृत्त अध्यापक हैं और रमेश जाखड़ अपने ही गाँव के स्कूल में गणित अध्यापक हैं। उनसे स्कूलों व शिक्षा पर काफी बातें हुई। हमें झारखण्ड एक्सप्रेस से जाना था। इस गाड़ी को प्लेटफार्म नं. दो की बजाय एक से रवाना होना है। यह बात हमें रेलवे पुलिस के एक जवान ने बताई तो हम प्लेटफार्म एक पर पहुंच गए। बाद में समालखा के राजपाल दहिया, सतीश चौहान और सतीश कुमार पहुंच गए। गाड़ी के प्लेट फार्म पर आने की सूचना गूंजने लगी। बाकी साथियों के नहीं पहुंचने से चिंता बढ़ रही थी। लेकिन 7:50 पर गाड़ी रवाना होने से पहले रोहतक से अविनाश सैनी, सुशील मेहरा और सीता राम पहुंच गए। उनके पास ही टिकट थी। हमारी सीटें अलग-अलग कोच में थी। चिंता की बात यह थी कि अभी तक महिला साथी-मुकेश यादव, निशा व अनीता नहीं पहुंचे हैं। रोहतक से आए साथियों ने बताया कि अनीता का छोटा बच्चा है। वह बच्चे को घर पर छोड़ कर आ रही थी। फिर तय हुआ कि बच्चा ले आया जाए। तीनों महिलाएँ घर गईं और बच्चे को लेकर आते हुए रास्ते में हैं। शायद उनके यहां पहुंचने से पहले ही गाड़ी रवाना हो जाएगी। गाड़ी पर सवार तो हो गए, लेकिन वे नहीं पहुंच पाए। सुशील उनके साथ मोबाईल से सम्पर्क बनाए हुए था।
गाड़ी चल चुकी थी। धीमी गति से रूकती-रूकती गाड़ी आगे बढ़ रही थी। उधर देरी से आई महिला साथियों ने दूसरी गाड़ी में सवार होने के लिए टिकट ली। हमारी गाड़ी से करीब दो घंटे बाद वे एक अन्य गाड़ी से रवाना हुई। हमारी गाड़ी लंबे विराम लेते हुए चल रही थी। अगले दिन इलाहाबाद रेलवे स्टेशन पर जब हमारी गाड़ी खड़ी थी तभी दूसरी गाड़ी से मुकेश, निशा व अनीता भी पहुंच गई। साथ में था अनीता का करीब एक वर्षीय प्यारा-सा बेटा केतन, जिसे सभी प्यार से किट्टू कह कर पुकार रहे थे। गाड़ी की धीमी गति और लंबे ब्रेक के कारण उकताहट व थकान बढ़ रही थी। ट्रेन के अंदर भी बहुत चर्चाएं हो रही थी। रास्ते में ही हमें पता चला कि मध्य प्रदेश के साथी संजीव सिन्हा व अन्य भी इसी ट्रेन में हमारे सहयात्री हैं। बहुत से लोग अपनी-अपनी तरह से समय गुजार रहे थे। थकान दूर करने के लिए गाड़ी के भीतर जहां विविध प्रकार के लोग अपनी क्रियाकलापों से मनोरंजन कर रहे थे। वहीं गाड़ी से बाहर झांकना भी कम रोमांचक नहीं था। गाड़ी के बिहार में पहुंचते हुए खेत सूने पड़े थे। इक्का-दुक्का लोग ही दिखाई देते थे। झारखंड में भी खेतों का सूनापन बरकरार रहा। यहां अनेक प्रकार के पेड़ दिखाई दिए। कहीं-कहीं पर्वतीय क्षेत्र और छोटे-छोटे गांव व बस्तियाँ दिखाई देती थी। पुरूषों से अधिक महिलाएं काम करती हुई अधिक दिखाई दे रही थी।
21 मार्च रात 9:40 के करीब हम राँची के रेलवे स्टेशन पर थे। रेलवे स्टेशन से बाहर निकलते ही गले में परिचय पत्र लगाए भारत ज्ञान-विज्ञान समिति के स्वयंसेवी हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे। थ्री-व्हीलर पर सवार होकर हम एचआरडीसी में पहुंचे, जहां पर हमारे रात्रि भोजन की व्यवस्था की गई थी। यहां पर समिति की राष्ट्रीय महासचिव आशा मिश्रा व अन्य साथियों ने हंसी-खुशी व उत्साह के साथ हमारा स्वागत किया। जब हरियाणा के साथियों की खाने की बारी आई तो खाना खत्म हो गया। बाद में खिचड़ी बनाई गई और हमने खाना खाया। खाना खाने के बाद हम अपने भारी बैग उठाकर रेलवे स्टेशन के पास ही स्थित चुटिया धर्मशाला पहुंचे, जहां पर हमारे रहने की व्यवस्था की गई थी। धर्मशाला के बड़े हॉल में कईं राज्यों से आए प्रतिनिधि पहले ही आए हुए थे, जिनमें से अधिकतर सोए हुए थे।
अगले दिन 22मार्च को हम पैदल चलते हुए गौस्नर थियोसोफिकल कॉलेज पहुंचे, जहां पर जन शिक्षा सभा का आयोजन किया जा रहा था। पहुंचते ही कार्यक्रम के दौरान सांस्कृतिक कार्यक्रमों का संयोजन कर रहे जय सोमनाथन ने हरियाणा के साथियों को सभा के उद्घाटन समारोह में गीत गाने का न्यौता दिया। साक्षरता अभियान के लोकप्रिय गीत-‘ले मशालें चल पड़े हैं’ का निर्धारण किया गया। गीत की रिहर्सल के लिए साथियों को इकट्ठा किया गया तो अन्य राज्यों के संस्कृतिकर्मी भी रिहर्सल में शामिल हो गए। इस गीत के अलावा मेरे लिए नए गीत-‘लड़ते हुए सिपाही का गीत बनो रे’- की रिहर्सल की गई। उद्घाटन समारोह में झारखंड के लोक कलाकार मुकुंद नायक व उनकी टीम ने रंग जमाया। उनकी टीम ने जोहार (स्वागत) गीत गाया व परम्परागत नृत्य पेश किया। झारखंड के परम्परागत मर्दाना नृत्य में महिला कलाकारों ने भी हिस्सा लिया। इस नृत्य के दौरान कलाकार युद्ध में लड़ते हुए सिपाहियों की मुद्राएं बना रहे थे। इसके बाद भारत ज्ञान-विज्ञान समिति की राष्ट्रीय महासचिव आशा मिश्रा ने कहा कि साक्षरता अभियान से ज्ञान-विज्ञान आंदोलन निकला है। एर्णाकुलम में इस आंदोलन ने देश के सामने साक्षरता का मॉडल पेश किया। शिक्षा का अधिकार अधिनियम लागू हुए चार साल बीत गए, लेकिन आज तक सभी बच्चों की शिक्षा तक पहुंच, समानता और गुणवत्ता की दिशा में कोई खास प्रगति नहीं हुई है। आरटीई को लेकर सत्ताधारियों द्वारा बहाने बनाए जा रहे हैं। उन्होंने कहा कि सभा का उद्देश्य गाँव-गाँव में शिक्षा-संवाद को तेज और गहन करना है। उन्होंने आह्वान किया कि जन शिक्षा की सुबह जरूर आएगी और हमीं से आएगी। उन्होंने मंचासीन समिति के राष्ट्रीय अध्यक्ष कृष्ण कुमार, मुख्य अतिथि डॉ. अनीता रामपाल, शिक्षाविद् डॉ. दिनेश अबरोल, सभा की आयोजन समिति के अध्यक्ष डॉ. काशीनाथ त्रिपाठी, उपाध्यक्ष डॉ. ए.आई खान, शिक्षा कार्यकर्ता नीतू, व रूपक को हाथ में शिक्षा के विभिन्न नारे लिखे पोस्टर हाथों में लेकर सभा का औपचारिक उद्घाटन करने का आह्वान किया। उद्घाटन के बाद समिति के संस्थापक साथियों में से एक डॉ. विनोद रायना की मृत्यु पर 2 मिनट का मौन रखकर श्रद्धांजलि दी गई। इसके बाद ले मशालें चल पड़े हैं गीत गाया गया। स्वागत भाषण में डॉ. खान ने कहा कि संगठनों एवं व्यक्तियों की बेहतर नेटवर्किंग की ज़रूरत है जिससे शिक्षा को जन-जन तक ले जाया जा सके। उन्होंने प्राकृतिक एवं मानव संसाधन की दृष्टि से बेहद सम्पन्न प्रदेश झारखंड में विपन्नता पर भी सवाल उठाते हुए कहा कि यहां के लोग रोजगार के लिए पलायन कर रहे हैं। जो थोड़ा-बहुत बदलाव राजधानी राँची में दिखाई दे रहा है, दूर-दराज के गाँव उससे अछूते हैं। उन्होंने उम्मीद जताई कि सभी को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा जल्द से जल्द मुहैया हो, सपने जिन्दा रहें और साकार हों।
दिनेश अबरोल ने निजीकरण, उदारीकरण और वैश्वीकरण के दौर में हस्तक्षेप के नए औजारों की जरूरत को रखांकित किया।
दिल्ली विश्वविद्यालय में शिक्षा विभाग की डीन प्रो. अनीता रामपाल ने कहा कि शिक्षा में विद्यार्थियों को छांटने की प्रवृत्ति के कारण ड्रॉप आऊट बढ़ रहा है। इसे ड्रॉप आऊट के स्थान पर पुश आऊट कहना ज्यादा उचित है। इसी प्रवृत्ति के कारण 45प्रतिशत बच्चे बुनियादी शिक्षा भी ग्रहण नहीं कर पा रहे हैं। दूसरी तरफ शिक्षा के निजीकरण ने शिक्षा को गरीबों और अमीरों में बांट दिया है। इसके बावजूद सरकारी स्कूलों में बच्चों को सामाजिक अस्मिता का अहसास ज्यादा होता है। कोठारी आयोग ने कहा था कि पैसों से शिक्षा की गुणवत्ता नहीं खरीद सकते। यदि खरीदते हैं, तो वह दागी गुणवत्ता होगी। उन्होंने कहा कि समता के लिए यह जरूरी है कि सभी बच्चे 6-10साल एक साथ पढ़ें। उनमें चयन ना हो। उन्होंने कहा कि यह वर्चस्ववादी सोच है, जिसमें पैसे वाले तय करते हैं कि किसे पढऩा चाहिए, किसे नहीं। किसे क्या पढऩा चाहिए? उन्होंने शिक्षा की माध्यम भाषा पर बोलते हुए कहा कि आरटीई के अनुसार बच्चों को उनकी अपनी भाषा में सीखने के अवसर दिए जाने चाहिएं। भारत के विभिन्न प्रदेशों में अंग्रेजी को शिक्षा का माध्यम बनाया जाना बेहद खतरनाक है। उन्होंने कहा कि दाखिले के लिए परीक्षण किया जाना यदि जरूरी है, तो परीक्षण का स्वरूप बच्चे के अनुसार होना चाहिए। उन्होंने ‘प्रथम’ जैसी संस्थाओं की रिपोर्टों को खारिज किया, जिसमें निजी विद्यालयों को महिमामंडित किया जाता है। उन्होंने अध्यापक शिक्षा, माध्यमिक शिक्षा, व्यावसायिक शिक्षा आदि पर बोलते हुए मुनाफे के लिए शिक्षा का खंडन किया। उन्होंने सबकी शिक्षा, समता, न्याय व लोकतंत्र की शिक्षा को बढ़ावा देने का आह्वान किया।
प्रो. रमेश सरण ने ‘राष्ट्रपति या भंगी की संतान, सबकी शिक्षा एक समान’ का नारा बुलंद किया। उन्होंने चिंता जताते हुए पढ़ाई के बारे में कहा कि ‘थोड़ा पढ़ता है तो हल छोड़ देता है, ज्यादा पढ़ता है तो घर छोड़ देता है।’ उन्होंने सवाल किया कि स्कूल आनंददायी क्यों नहीं हैं? पढ़े-लिखे ज्यादा दहेज क्यों दे-माँग रहे हैं। उन्होंने कहा कि बच्चों को बसों में ठूंस-ठूंस कर दस-दस किलोमीटर दूर स्कूल में ऐसे ले जाया जा रहा है, जैसे बकरे को कसाई ठूंस कर ले जाते हैं। उन्होंने कहा कि विभेदकारी शिक्षा जिस विकास को बढ़ावा दे रही है, उससे विस्थापन व विनाश को बढ़ावा मिल रहा है और विकास के इस मॉडल को रिजेक्ट किया जाना बेहद जरूरी है। दोपहर के भोजन के बाद विभिन्न विषयों पर समानांतर सत्र हुए। हरियाणा के सभी साथी अलग-अलग विषयों को सुनने के लिए गए। मैं ‘शिक्षा का अधिकार एवं स्कूली शिक्षा’ विषय पर आयोजित सेमिनार में था। सेमिनार की अध्यक्षता केरल शास्त्र साहित्य परिषद् से डॉ. सी. रामाकृष्णन ने करते हुए कहा कि शिक्षा का अधिकार अधिनियम से राज्य संतुष्ट है, लेकिन सभी बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिले बिना हमारे पास संतुष्ट होने का कोई कारण नहीं है। शिक्षा में लैंगिक विभेद और अन्य कारणों से बाहर छूटने के मुद्दे पर बहुत कुछ काम किया जाना बाकी है। हर रोज बच्चे की स्कूल में उपस्थिति की निगरानी करने की कोई व्यवस्था नहीं बनाई गई है। बहुत से बच्चे मजदूरी करके अपना व अपने परिवार का पेट पालने को मजबूर हैं। नव-उदारवादी नीतियों के परिपे्रक्ष्य में शिक्षा की दशा व दिशा का विश£ेषण करें तो बेहद चिंताजनक स्थिति उभरती है। प्राथमिक शिक्षा के निजीकरण ने स्थिति को विकराल बना दिया है। उन्होंने कहा कि शिक्षा का अधिकार अधिनियम लागू हुए चार साल होने को आए हैं, लेकिन गुणवत्ता में कोई फर्क नहीं आया है।
केन्द्र ने राज्य पर जिम्मेदारी डाल कर पल्ला झाड़ लिया है। उन्होंने शिक्षा के सर्वव्यापीकरण के लिए स्कूल प्रबंधन समितियों को मजबूत करने की जरूरत जताई। शिक्षा के क्षेत्र में लम्बे समय से काम कर रहे वीरेन्द्र शर्मा ने सेवाकालीन अध्यापक प्रशिक्षण की स्थिति पर चिंता जताई। उन्होंने अपने अनुभवों को आधार बनाते हुए कहा कि सेवाकालीन अध्यापक प्रशिक्षण के नाम पर खानापूर्ति की जा रही है। मूलगामी दृष्टि से अछूते अध्यापकों को प्रशिक्षण के दौरान बच्चों को पढ़ाए जाने वाले उपविषयों के बारे में बता दिया जाता है, जिसे अध्यापकों के द्वारा गौर से नहीं लिया जाता। उन्होंने कहा कि अच्छी गुणवत्ता के सेवाकालीन प्रशिक्षण से शिक्षा की दशा में सुधार किया जा सकता है। लेकिन योजनाबद्ध ढ़ंग से लंबी अवधि के प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किए जाने चाहिएं। आईटीआई गुवाहटी से विप्लब घोष ने कहा कि उत्तर-पूर्व राज्यों में लंबी दूरी तक स्कूल नहीं हैं, जिसके कारण कईं किलोमीटर का सफर तय करके बच्चों को स्कूल जाना पड़ता है। अध्यापक भर्ती में बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार है। पैसे या सिफारिश से लगे शहरी पृष्ठभूमि के भर्ती हुए अध्यापकों की गाँव में काम करने की इच्छा नहीं है, जिसके कारण वे गाँव के ही किसी युवक को 500-1000रूपये देकर काम करवाते हैं।
राजस्थान से आए डॉ. अनिल शर्मा ने मिड-डे-मील योजना की स्थिति पर अपने विचार व्यक्त किए। उन्होंने कहा कि प्राथमिक शिक्षा के सर्वव्यापीकरण, शत-प्रतिशत पंजीकरण, स्थायित्व व पोषण के लिए यह योजना शुरू की गई थी। लेकिन अच्छी तरह से लागू नहीं किए जाने के कारण योजना बोझ बन रही है। उन्होंने मिड-डे-मील वर्कर का नाममात्र मानदेय व रसोई की व्यवस्था के अभाव पर चिंता जताई। चर्चा में दखल करते हुए मैंने (लेखक)कहा कि कि प्राथमिक शिक्षा की सबसे अधिक उपेक्षा की जा रही है। प्राथमिक स्कूलों में ना तो सफाई कर्मचारी हैं, ना चपरासी। क्लर्क का काम भी अध्यापकों को स्वयं करना पड़ता है। मिड-डे-मील के प्रबंधन की जिम्मेदारी भी अध्यापकों पर है, जिसके कारण अध्यापक अपना बुनियादी काम अच्छी प्रकार से नहीं कर पाते हैं। चर्चा में कुछ साथियों ने अध्यापकों की उदासीनता की भी आलोचना की। क्रिया आधारित शिक्षा में अध्यापकों को मेहनत करनी पड़ती है, इसलिए वे इससे बचते हुए तू-पढ़ विधि का प्रयोग करते हुए विद्यार्थियों को सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में खुद के भरोसे छोड़ देते हैं और अध्यापक कुर्सियों पर आराम फरमाते हैं। भोपाल के फिरोज खान ने सवाल किया कि स्कूलों में आखिर सामग्री के रूप में अध्यापकों के लिए गद्देदार कुर्सियाँ ही क्यों हैं? चर्चा में 0 से 18वर्ष तक के सभी बच्चों को शिक्षा का अधिकार प्रदान करने की माँग उठाई गई। विभिन्न प्रकार के सरकारी स्कूलों के अस्तित्व पर भी सवाल खड़े किए गए।
उच्चतर शिक्षा पर आयोजित समानांतर सेमिनार में डॉ. दिनेश अबरोल, नागरिक शिक्षा: साक्षरता, सतत् एवं व्यावसायिक शिक्षा पर सेमिनार में राज्य संसाधन केन्द्र हरियाणा के निदेशक डॉ. प्रमोद गौरी और समावेशी शिक्षा पर आयोजित समानांतर सेमिनार में कोमल श्रीवास्तव और लोकतंत्र विज्ञान और संस्कृति पर आयोजित सेमिनार में डॉ. टी.वी. वैंकटेश्वरन ने अध्यक्षता की। शाम को सांस्कृतिक समन्वयक वी.के. जय सोमनाथन के नेतृत्व में विभिन्न राज्यों की संस्कृति को दर्शाता रंगारंग सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किया गया। हमें भी भगत सिंह की शहीदी दिवस की पूर्व संध्या पर डॉ. रणबीर सिंह दहिया के हरियाणवी गीत-‘भगत सिंह के सपनों का यो देश बनाना है गाया।’ सभी सांस्कृतिक प्रस्तुतियों में गैर-बराबरी पर आधारित व्यवस्था के विरूद्ध आवाज बुलंद करने का भाव था। वहीं गीतों में विभिन्न राज्यों की संस्कृति भी झलक रही थी। धर्मशाला में रात को भोपाल के फिरोज खान से अनेक विषयों पर बातचीत हुई। मध्यप्रदेश सरकार द्वारा परिवहन विभाग का निजीकरण कर दिए जाने सहित अनेक जनविरोधी नीतियों पर चर्चा हुई।
23मार्च को पहला सत्र एक-दूसरे से सीखने का था। राजस्थान के अलवर में काम कर रहे हाजी रहीम खान ने मुस्लिम लड़कियों को शिक्षा का अधिकार दिलाने के लिए किए जा रहे प्रयासों के बारे में बताया। मध्य प्रदेश के मजदूर संगठन के पी.एन. वर्मा ने बीड़ी वर्कर, आशा वर्कर, आँगनवाड़ी वर्कर, मिड-डे-मील वर्कर सहित अनेक वर्गों की परेशानियाँ रखी। मुकेश यादव ने हरियाणा में विद्यालय अध्यापक संघ के काम के अनुभव रखे। राजपाल दहिया ने जीवनशाला के अनुभव रखे। इसी प्रकार अलग-अलग राज्यों के अनेक प्रतिनिधियों ने शिक्षा के लिए किए जा रहे अपने कामों के बारे में विस्तार से बताया। भोजन का अधिकार आंदोलन की अंकिता ने कहा कि मिड-डे-मील, आईसीडीएस आदि योजनाएँ खाद्य सुरक्षा से जुड़ी हुई हैं, लेकिन इनका शिक्षा के साथ सीधा-सीधा सम्बन्ध है। क्योंकि भरपेट भोजन के बिना शिक्षा के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता। जन स्वास्थ्य नेटवर्क के डॉ. सुधांशू ने भी अपने अनुभव रखे। समापन सत्र में राज्यसभा सदस्य सी.पी. नारायण ने बताया कि शिक्षा के अधिकार के कानूनी प्रावधान के बावजूद 27प्रतिशत ड्रॉपआऊट रेट है। शिक्षा, साक्षरता, भोजन व स्वास्थ्य के अधिकार के लिए आंदोलन की जरूरत है। केवल मिड-डे-मील नहीं, यदि बच्चे भूखे पेट स्कूल में आए हैं, तो उन्हें नाश्ता भी दिया जाना चाहिए। प्राथमिक ही नहीं माध्यमिक शिक्षा के सार्वभौमिकरण पर भी बल दिया जाना चाहिए। शिक्षा का मतलब सिर्फ यही नहीं होना चाहिए बच्चे रोजगार के योग्य बनें, बल्कि उनके लिए रोजगार भी पक्का हो। उन्होंने विद्यार्थियों के समक्ष विषय विकल्प की कमी के बारे में बताते हुए कहा कि भारत में विद्यार्थियों के पास 43 वैकल्पिक कोर्स होते हैं, वहीं चीन में चार विद्यार्थियों के लिए चार हजार विकल्प होते हैं। भारत में इस समय सिर्फ सात सौ विश्वविद्यालय हैं, जिनमें से अधिकतर में गुणवत्ता का स्तर औसत से नीचे का है। उन्होंने निजीकरण को बेहद खतरनाक बताया। उन्होंने कहा कि सरकार के पास संसाधनों की कमी नहीं है। 21 लाख करोड़ रूपये की रियायतें तो कारपोरेट घरानों को दी जा रही हैं। संसाधनों को कहाँ इस्तेमाल करना है, यह मुख्य मुद्दा है। शिक्षा संवाद को आगे बढ़ाने के संकल्प और राँची घोषणापत्र के मसौदे के प्रस्तुतीकरण से शिक्षा सभा का समापन हुआ। भारत ज्ञान-विज्ञान समिति के अध्यक्ष कृष्ण कुमार ने भी प्रतिनिधियों को सम्बोधित किया।
दिनांक 24 मार्च का दिन झारखंड के पर्यटक स्थल दशम झरने को देखने, आदिवासी समुदाय के जीवन को नज़दीक से जानने और स्कूली व्यवस्था को देखने के लिहाज से बेहद लाभदायी एवं शिक्षाप्रद रहा। सुबह हरियाणा के सभी साथी दो थ्रीव्हीलर पर सवार होकर दशम झरना देखने के लिए रवाना हुए। जाते हुए अविनाश ने अपनी पाकिस्तान यात्रा के संस्मरण सुनाए। उन्होंने कहा कि पाकिस्तान में भारत के लोगों का दिल खोलकर स्वागत किया गया, जिससे लोगों के मन में पाकिस्तान व वहां के लोगों के प्रति भ्रांतियाँ दूर हो जाती हैं। उन्होंने बताया कि पाकिस्तान में जिसे भी उन्होंने बताया कि वे भारत से हैं, उन्होंने इस पर यकीन नहीं किया। क्योंकि भारत व पाकिस्तान की भाषा और रीतियों में कोई बड़ा फर्क नहीं है। एक व्यक्ति जिसकी पृष्ठभूमि कैथल से जुड़ी हुई थी, ने भारत के प्रति बेहद आत्मीयता दिखाई। करीब 40किलोमीटर की दूरी तय करके हम दशम झरने पर पहुंचे। दसम फॉल रांची-टाटा मार्ग पर तैमारा गांव के पास है। यहां कांची नदी 144 फीट की ऊंचाई से गिरती है। यह झरना खूबसूरत प्राकृतिक नजारों से घिरा हुआ है। पानी के दस धाराओं में ऊंचाई से गिरने के कारण इसका नाम दशम पड़ा था, लेकिन हमें तो कहीं दस धाराएं नहीं दिखाई दी। हम सभी सीढिय़ों से नीचे गए। सुशील हमें जहां से पानी नीचे गिर रहा था, वहां ले जाना चाहते थे। क्योंकि वे पहले भी इसी रास्ते से ऊपर गए थे। जब हम ऊपर जाने लगे तो गार्ड ने हमें यह कह कर रोक दिया कि यहां पर दुर्घटनाएं हो चुकी हैं। इसलिए इस रास्ते से जाना प्रतिबंधित है। इस रास्ते से जाने का इरादा छोड़ कर हम सीढिय़ों वाले उसी रास्ते से ऊपर जाने लगे, जिस रास्ते से आए थे। तो पता चला कि नीचे जाने की तुलना में ऊपर जाना कितना मुश्किल होता है। हम हाँफने लगे थे। खैर, ऊपर के रास्ते से ही फोटोग्रॉफी करते हुए अविनाश, सतीश चौहान, सुशील और मैं झरने के ऊपरी हिस्से पर पहुंचे। यहां जब अविनाश नहाने लगे तो हमसे भी रहा नहीं गया। सुशील और मैं भी नहाने लगे। नहाने के बाद पर्यटक विभाग द्वारा इसके ऊपर बनाए गए बैठने के मनोरम स्थान देखे। लेकिन यहां लोगों की कोई आवाजाही नहीं थी। उधर, यहां से चल निकलने के लिए अन्य साथियों के बुलावे आ रहे थे। सतीश चौहान ने भी हमें चलने की बात कही, लेकिन हम तीनों इस सुनसान स्थान का आनंद लेने को उतारू थे। यहां पर हमने खूब फोटोग्राफी की। एक सवाल रह-रह कर मन में उठ रहा था कि पर्यटन विभाग द्वारा इतनी ऊंचाई पर बनाए गए स्थानों पर लोग क्यों नहीं हैं। यहां से हम वहीं पहुंचे, जहां पर हमारे थ्रीव्हीलर खड़े थे। यहां सभी साथी चलने के लिए तैयार थे।
यहाँ से हम वापिस राँची की ओर चल दिए। लेकिन किसी गाँव में आदिवासी लोगों का जीवन और स्कूल देखने के इरादे के साथ। वापसी में हम पानसकम गाँव रूके, जोकि चुरगी पंचायत में पड़ता है। यहां बहुत-सी महिलाएँ एवं बच्चे इमली के पेड़ के नीचे खड़े थे। एक व्यक्ति ऊपर चढ़ा हुआ था, जोकि डाल को हिला रहा था और नीचे खड़े सभी गिरी इमली की फलियों को इक_ा कर रहे थे। हमने यहाँ रूक कर इमली खाते हुए, बच्चों से उनकी शिक्षा के बारे में पूछा। छोटे बच्चों ने बताया कि वे स्कूल जाते हैं। बड़े लोगों से बात करने की कोशिश की तो भाषा बाधा बन रही थी। वे हिन्दी नहीं बोल पा रहे थे। हम उनकी मुंडारी भाषा समझ नहीं पा रहे थे। लेकिन भावनाएँ समझने में कोई बाधा नहीं थी। यह गाँव मुंडा आदिवासी लोगों का गाँव है। आज़ादी की लड़ाई में बिरसा मुंडा जैसे वीरों की शहादत एवं विरासत उनके साथ है। एक व्यक्ति से जब पूछा तो उसने अपना नाम बिरसा मुंडा बताया। लेकिन दुखद यह कि वह अनपढ़ था। गाँव की अधिकतर आबादी अनपढ़ है। अब छोटे बच्चे स्कूल जरूर जाते हैं। लेकिन गाँव में सिर्फ प्राथमिक स्कूल होने के कारण कितने बच्चे पाँचवीं के बाद दूसरे गाँव के स्कूल में जा पाएंगे, यह बड़ा सवाल है? वहीं सूखे चारे के छतनुमा कूप के नीचे खड़ी 15-16 साल की लड़कियों से पढ़ाई के बारे में पूछा, तो उन्होंने कहा कि कोई भेजेगा, तभी तो पढ़ेंगी। लड़कियाँ ही नहीं लडक़े भी आगे की पढ़ाई नहीं कर पा रहे हैं। यहाँ से हम लोगों के जीवन और घरों को नज़़दीकी से देखने के लिए गाँव में घुस गए। यहाँ पर बुंडु के कॉलेज में जा रही अनीता नाम की एक लडक़ी से मुकेश यादव, अनीता व निशा बात कर रही थी। अनीता के घर में ही दुकान है, जिसे उसकी माँ चलाती है। अनीता ने बताया कि सिर्फ तीन-चार युवा ही कॉलेज में जा पाते हैं। सभी लोग खपरैल के बने घरों में रहते हैं। यहां घरों में महुए के फल सुखाए जाते देखे गए, जिसकी लोग ताड़ी नाम की शराब बनाते हैं।
इसके बाद हम पिडी टोला (लाबगा) स्थित उत्क्रमित प्राथमिक विद्यालय देखने के लिए रूके। इस स्कूल की चारदिवारी नहीं थी। शौचालय का भी कोई प्रबंध नहीं था। इस स्कूल में पहली से पाँचवीं तक 31 विद्यार्थी पढ़ते हैं। दो अनुबंधित अध्यापक कार्यरत हैं। सहायक अध्यापक सामुटूटी उस समय स्कूल में थे, जोकि इसी टोला से हैं। इंटर तक पढ़ाई करने के बाद वे सहायक अध्यापक लग गए थे। आज उन्होंने इग्रू से अध्यापक प्रशिक्षण कोर्स पूरा कर लिया है। स्कूल में लड़कियों की संख्या ज्यादा है। पिडीटोला तैमरा पंचायत और बुण्डू प्रखण्ड के अन्तर्गत आता है। स्कूल में किताबें मुफ्त मिलती हैं। मिड-डे-मील वर्कर को एक हजार रूपये प्रतिमाह मानदेय मिलता है। मिड-डे-मील में प्रत्येक शुक्रवार को अण्डे का भी प्रावधान है। स्कूल में हमने बच्चों से शिक्षा के नारे लगवाए। इसी बीच मुकेश यादव गाँव से होती हुई पानी के स्रोत तक पहुंच गई थी। टोला से लोग एक किलोमीटर की दूरी पर पानी लेने के लिए जाते हैं। वह पानी भी साफ नहीं है।
दूसरे थ्रीव्हीलर पर सवार कुछ साथी आगे पडऩे वाले गाँव हूसीरहातु के राजकीयकृत उत्क्रमित मध्य विद्यालय में रूक गए थे। इस स्कूल में आठवीं तक पढ़ाई का प्रबंध है। पहली से आठवीं तक बच्चों की संख्या 103 है। मिडल स्कूल में दो ही अध्यापक कार्यरत हैं। जिनमें विजय कुमार मांजी बुंडू से आते हैं। अन्य अध्यापक भी बाहर से ही आता है। स्कूल में पढऩे वाले बच्चे आदिवासी मुंडा जाति से सम्बंध रखते हैं। लेकिन अध्यापक आदिवासी समुदाय से नहीं है। विजय मांजी ने बताया कि वे स्कूल में मुंडारी बोली नहीं बोलने देते। वे कोशिश करते हैं कि बच्चे हिन्दी में पढ़ें और बात करें। उन्होंने बताया कि यहां के लोग पेड़ों की पूजा करते हैं। स्कूल में लड़कियों की संख्या अधिक है। सभी बच्चे हर रोज काम पर नहीं आ पाते हैं। सोमवार और गुरूवार को बाजार लगता है, इस दिन बच्चे कम आते हैं। देरी से आने पर भी वे उन्हें इजाजत देते हैं। राँची से कुछ खाना हम लाए थे। कुछ मिड-डे-मील का खाना लेकर हमने खाना खाया। हमारे आने और सद्भावनापूर्ण बातचीत किए जाने से विद्यार्थियोंं में भी खासा उत्साह था। यहां से भावभिनी विदाई लेकर हम चल दिए। रास्ते में प्रकृति के नजारे हमें आकर्षित कर रहे थे। अन्य सभी शहरों की तरह राँची में भी रौनक है। वहीं कुछ ही दूरी पर स्थित आदिवासी गाँवों में बदहाली का माहौल देखकर विषम विकास से जुड़े कईं सवाल झकझोरते हैं। यहाँ से सीधे हम राँची के रेलवे स्टेशन पहुंचे। गरीब रथ में सीटों के लिए पहले से ही रिजर्वेशन करवाया गया था। साढ़े चार बजे के आस-पास हम राँची को विदाई देते हुए रेलगाड़ी से वापिस चल दिए।
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