Sunday, May 4, 2014

अलीगढ़ यात्रा वृत्तांत (16 से 19नवम्बर, 2013)

अलीगढ़ यात्रा वृत्तांत

खस्ताहाल सडक़ों और बदतर बस सेवा के चलते दिल्ली से अलीगढ़ जाना नहीं किसी यातना से कम।

ताला नगरी और साहित्य नगरी के रूप में जाना जाता है अलीगढ़।

अरुण कुमार कैहरबा


भारत ज्ञान-विज्ञान समिति द्वारा उत्तर प्रदेश के जिला अली
गढ़ में चलाए जा रहे ‘फिर स्कूल चलें अभियान’ के अध्ययन के लिए जब सतीश चौहान ने चर्चा की थी, तभी से अलीगढ़ जाने और वहां के बारे में जानने के प्रति उत्सुकता उफान लेने लगी थी। ‘सर्च’ राज्य संसाधन केन्द्र के निदेशक और समिति के राज्य सचिव प्रमोद गौरी जी के औपचारिक पत्र व चर्चा के बाद जिला शिक्षा अधिकारी आशा मुंजाल ने खण्ड शिक्षा अधिकारी राजपाल को फोन किया। उनसे सूचना मिलते ही मेरा वहां जाना तय हो गया। रात को पत्नी गुंजन के सहयोग से पैकिंग की। सतीश के साथ निर्धारित कार्यक्रमानुसार अगले दिन 16नवम्बर, 2013 को अलीगढ़ के लिए रवाना हो लिया।

बस में इस बात को लेकर चिंता बनी हुई थी कि क्या समय पर अलीगढ़ पहुंच कर काम शुरू कर पाएंगे। इसी दिन वहां पर ज्ञान-विज्ञान समिति की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक हो रही थी और हरियाणा से प्रमोद जी उसमें हिस्सा लेने के लिए जा रहे थे। उन्हें सुबह सात बजे के करीब दिल्ली से रवाना होना था। सतीश को समालखा से रवाना होना था, इसलिए उसे उनके साथ जाने में कोई दिक्कत नहीं थी। लेकिन बस सेवा के अभाव में अतिशीघ्र इन्द्री से रवाना होने के बावजूद सात बजे मेरा दिल्ली पहुंचना सम्भव नहीं था। इसलिए प्रमोद जी के साथ जाने का इरादा हम दोनों ने छोड़ दिया था। समय पर पहुंचने की मेरी चिंता उस समय और अधिक बढ़ गई, जब बस में मोबाईल पर बात करते हुए गुरनाम ने बताया कि इन्द्री से अलीगढ़ जाने के लिए दिल्ली वाला रूट ठीक नहीं है। इस रूट से समय अधिक लगेगा। बस में मेरी सीट से आगे वाली सीट पर बैठे सज्जन को जब सुनाई दिया कि मैं इन्द्री करनाल से अलीगढ़ जाने के लिए पहले दिल्ली जा रहा हूँ तो करीब-करीब मेरी भौगोलिक अज्ञानता की हंसी उड़ाते हुए उन्होंने कहा कि आपको अलीगढ़ जाना था तो करनाल से शामली वाली बस में जाना चाहिए था। लेकिन बस की बजाय रेलगाड़ी सबसे बेहतर माध्यम है। मेरे साथ ही अब तक चुपचाप बैठे सांवले रंग के व्यक्ति ने भी उनकी हां में हां मिलाई और मुझे उपदेश लगे। उन्होंने बताया कि अलीगढ़ जाने के लिए दिल्ली से साढ़े बारह बजे गोमती एक्सप्रेस जाती है, जोकि ढ़ाई घंटे में अलीगढ़ पहुंचा देगी। बस से जाने पर दिल्ली के जाम में देरी हो जाएगी। मेरे आगे वाली सीट पर बैठे व्यक्ति को पीछे मुडक़र बताने में दिक्कत हो रही थी। वे शीघ्र ही अपनी बात खत्म करके चुप हो गए। मेरे पास बैठे सज्जन के बताने के अंदाज से मैं प्रभावित हुआ। मुझे उनके उपदेशों में भी आत्मीयता लगी। बस आगे चलने के साथ-साथ मेरी और उन सज्जन की बात भी आगे बढ़ती जा रही थी। उनके अलीगढ़ के बारे में ज्ञान ने भी मुझे प्रभावित किया। जब उन्होंने बताया कि उनकी ससुराल अलीगढ़ में है, तो उस शहर के बारे में और अधिक जानकारी मिलने की संभावना के कारण मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा।
उस सज्जन ने बताया कि अलीगढ़ ताला उद्योग के लिए जाना जाता है। विख्यात हरीसन समेत ताला बनाने की वहां पर अनेक फैक्ट्रियां हैं। इस पर मुझे करनाल में 15 नवम्बर को आयोजित कानूनी साक्षरता कार्यक्रम के दौरान अलीगढ़ जाने का जिक्र होने पर एक अध्यापक द्वारा कहे गए वे शब्द याद आ गए, जिसमें उन्होंने अलीगढ़ से ताले लाने की बात कही थी। अध्यापक के साथ सरसरी बातचीत में मुझे अलीगढ़ से ताले का सम्बन्ध एक रहस्य से कम नहीं लगे थे। अब अलीगढ़ से ताले लाने की बात समझ में आई। सज्जन ने अपनी चर्चा के क्रम को आगे बढ़ाया- अलीगढ़ ही नहीं पूरे यूपी में राज्य सरकार ने उद्योग को बढ़ावा देने के लिए कोई प्रयास नहीं किया है। सुविधाओं के अभाव में अलीगढ़ के आवासीय इलाकों में उद्योग चल रहे हैं, लेकिन कोई ध्यान देने वाला नहीं है। अलीगढ़ में शिक्षा की स्थिति के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने बताया कि यह शहर अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के लिए जाना जाता है। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर विख्यात इस विश्वविद्यालय का यहां की प्राथमिक शिक्षा पर कोई असर नहीं है। जागरूकता की कमी और सरकार के अपर्याप्त प्रयासों के कारण अलीगढ़ शिक्षा के मामले में पीछे है। अल्पसंख्यक मुस्लिम समुदाय का बड़ा हिस्सा शिक्षा के मामले में अधिक पीछे है। मुझे लगा कि शायद यही कारण रहा होगा कि भारत ज्ञान-विज्ञान समिति द्वारा वहां पर स्कूल के दायरे से बाहर रह गए या ड्रॉप आऊट हो रहे वंचित समुदायों के बच्चों की शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए ‘फिर स्कूल चलें अभियान’ चलाया जा रहा है, जिसके अध्ययन के लिए मैं वहां जा रहा था। मैं उन सज्जन से उनका नाम पूछना चाहता था, लेकिन वे प्रवाह में अलीगढ़ के बारे में बता रहे थे कि मुझे उन्हें रोकना अच्छा नहीं लगा। उन्होंने वे सारी बातें मुझे, बताई जिससे वहां पर मुझे किसी दिक्कत का सामना ना करना पड़े। अलीगढ़ में रात्रि ठहराव के लिए सही स्थान कौन सा है व अच्छा खाना कहां मिलता है आदि। उन्होंने अपने बारे में बताया कि वे दिल्ली में रहते हैं और अक्सर काम के सिलसिले में हरियाणा, बिहार, उत्तर प्रदेश सहित विभिन्न स्थानों पर घूमते हैं। हरियाणा और उत्तर प्रदेश की तुलना करते हुए उन्होंने बताया कि बड़ा राज्य होने के कारण यूपी में संसाधनों का प्रबंधन करना मुश्किल काम है, लेकन सरकार की नीयत भी नहीं है। वहां  पर शिक्षा और स्वास्थ्य की हालत बेहद बदतर है। वहां की सडक़ें भी ज्यादा अच्छी नहीं हैं। इसके मुकाबले हरियाणा की स्थिति बहुत अच्छी है। बस तेज गति से दिल्ली की तरफ बढ़ रही थी। मैं कैमरा निकाल कर उस सज्जन की फोटो लेना चाहता था। लेकिन जैसाकि मुझे आशंका थी, पानीपत के बस अड्डे के समीप ज्यों ही मैंने कैमरा निकाला, वे सकपका गए। अड्डे पर उतरने की गरज दिखाते हुए वे अपनी सीट से उठ खड़े हुए और दिल्ली तक वे वहां नहीं बैठे। पानीपत के बस अड्डे पर वे मेरे पास वाली सीट छोड़ कर पीछे की खिडक़ी के पास अंतिम सीट पर बैठ गए और दिल्ली तक वहीं बैठे रहे। मुझे कैमरा निकालने को लेकर बहुत अफसोस हुआ।

अलीगढ़ तक शीघ्र पहुंचने का उतावलापन था, वहीं सतीश द्वारा निर्धारित की गई योजना के अनुसार ही वहां जाने के प्रति भी मैंने निश्चय कर लिया था। चाहे कुछ अधिक समय क्यों ना लगे। मैं साढ़े ग्यारह बजे के करीब आई.एस.बी.टी. दिल्ली पहुंचा, जहां सतीश इंतजार कर रहा था। सतीश पानीपत के समालखा खण्ड के तहत आने वाले गांव हथवाला का रहने वाला है। लंबे समय से ज्ञान-विज्ञान आंदोलन का सक्रिय साथी है और फिलहाल भारत ज्ञान-विज्ञान समिति में पूर्णकालिक कार्यकर्ता है। वहां से हम अलीगढ़ की बस पकडऩे के लिए आनंद विहार की बस पर सवार हो गए। दिल्ली में मैट्रो से भले ही सडक़ परिवहन में थोड़ा सुधार आया हो, लेकिन समस्या अभी भी गंभीर है। ट्रैफिक जाम के कारण एक घंटे में हम आनंद विहार आईएसबीटी पर पहुंचे। अलीगढ़ पहुंचने की जल्दबाजी में हमने यहां पर ज्यादा पूछताछ किए बिना यूपी रोड़वेज की सरकारी बस देखी। परिचालक अलीगढ़-अलीगढ़ चिल्ला रहा था। पूछने पर उसने बताया कि चार बजे तक अलीगढ़ पहुंच जाएंगे। जल्दबाजी में बस में सवार हो गए। सीट पर बैठते ही पछताए भी कि लंबे सफर पर जाने के लिए भला ऐसी खस्ताहालत बस में सवार होने की क्या जरूरत थी? लेकिन उठने और बस बदलने की ज़हमत हमने नहीं उठाई। बस चली तो टर्मिनल पर ही अहसास हो गया कि भारी भूल हो गई है। कारण सीटों के बीच में फासला बेहद कम था और पांव मुश्किल से फंस रहे थे। छोटे-छोटे गड्ढ़ों पर भी बस हिचकोले खाने लगी थी। पूत के पांव पालने में ही नज़र आने की तर्ज पर बस की हालत हमें पता चल चुकी थी। आई.एस.बी.टी. से निकलने में ही जब इतना अधिक समय लगा रहा था, तो सडक़ पर क्या होगा? इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता था। टिकट देने आए परिचालक से जब पुन: हमने अलीगढ़ पहुंचने के बारे में पूछा तो उन्होंने अपनी ही बात से पलटते हुए बड़ी बेपरवाही से बताया कि बस पांच-साढ़े पांच बजे तक अलीगढ़ पहुंच जाएगी। इससे स्पष्ट हो गया था कि यूपी की बस सेवाओं के लिए घंटे-दो घंटे की कोई कीमत नहीं है। इन्द्री से दिल्ली बस में सहयात्री के सुझाव को अनुसुना करने की गलती का अहसास रह-रह कर हो रहा था। हरियाणा और यूपी बस सेवाओं के अंतर पर चर्चा करते तथा बस व स्वयं को कोसते हुए जा रहे थे। लेकिन तब तो हद हो गई जब पांच के बाद साढ़े पांच का समय भी गुजर गया और जल्द ही अलीगढ़ पहुंचने की कोई उम्मीद नज़र नहीं आ रही थी। परिचालक ने अलीगढ़ से काफी दूर पहले बस को लोकल बस में परिवर्तित कर दिया था। खेत में सवारियों को उतारा और चढ़ाया जा रहा था। इससे स्थानीय लोगों को तो राहत मिलती ही होगी, लेकिन लंबी दूरी तय करने वाले मुसाफिरों पर क्या बनती होगी?  इसका अंदाज़ा शायद बस में हमारे सिवा किसी को नहीं था। 
हमें इस बात को लेकर भी चिंता हो रही थी कि प्रमोद जी बैठक के बाद हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे। उन्होंने सतीश के साथ फोन पर बात हो रही थी। लेकिन हमारी बागडोर बस और उसके चालक व परिचालक के हाथ में थी। घंटों से इंतज़ार करने के बाद आखिर हमारे पहुंचने से पहले ही प्रमोद जी रोहतक के लिए रवाना हो गए। उन्होंने सतीश को संजीव सिन्हा का सेल नंबर दे दिया, ताकि हमें कोई दिक्कत ना हो। सात बजे के करीब हम अलीगढ़ पहुंचे। इस समय अंधेरा हो गया था। रिक्शा से अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के गेट पर पहुंचे।
वहां संजीव ने एक साथी बाबूद्दीन को भेज दिया था। उनके साथ हम विश्वविद्यालय के व्यस्क शिक्षा एवं सतत शिक्षा विभाग तक पहुंचे। यहां पर हमारी भेंट विभाग की निदेशक डॉ. सीमा, फिर स्कूल चलें अभियान की इंचार्ज डॉ. वीना गुप्ता जी और संजीव सिन्हा से क्षणिक भेंट हुई। वहां से कार के माध्यम से संजीव हमें विश्वविद्यालय के गेस्ट हाउस-1 ले गए, जहां पर हमारे रहने की व्यवस्था की गई थी। शिक्षित, विवेकशील एवं लोकतांत्रिक समाज बनाने का लक्ष्य लेकर काम कर रही भारत ज्ञान-विज्ञान समिति द्वारा स्कूलों से ड्रॉप आउट हुए बच्चों की शिक्षा के लिए किए जा रहे प्रयासों का अध्ययन करने के लिए हम यहाँ पहुंचे थे। ये प्रयास ‘फिर स्कूल चलें अभियान’ के तहत खोले गए केन्द्रों के माध्यम से किए जा रहे थे और केन्द्रों पर आज से भ्रमण करने का हमारा कार्यक्रम पहले ही निर्धारित हो चुका था। इससे पहले हमें अभियान के बारे में पूरी जानकारी लेनी थी। लेकिन देरी से पहुंचने के कारण हम अपना काम नहीं कर पाए। कमरे में जब यूपी की सडक़ों और परिवहन व्यवस्था की बात चली तो संजीव ने शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली, उद्योग सहित तमाम क्षेत्रों में चिंताजनक हालत का खुलासा किया। उन्होंने सरकार की लैपटॉप बांटने की योजना पर भी व्यंग्य करते हुए कहा कि सभी कुछ वोट बैंक के लिए किया जा रहा है। लोगों को वास्तव में राहत पहुंचाने के लिए कोई प्रयास नहीं हो रहे हैं।
इसके बाद गेस्ट हाउस के डाईनिंग हाल में खाने के साथ-साथ परियोजना इंचार्ज वीना जी ने ‘फिर स्कूल चलें अभियान’ का परिचय कराते हुए बताया कि मानव संसाधन विकास मंत्रालय के सहयोग से यह अभियान बिहार के तीन-सहरसा, मधेपुरा व दरभंगा और मध्य प्रदेश के भिंड के अलावा उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ जनपद के खण्ड जवां में भारत ज्ञान-विज्ञान समिति के द्वारा यह अभियान चलाया जा रहा है। जवां खण्ड की ही बात करें तो इसे चार क्लस्टर में बांटा गया है, जिसमें 40 पंचायतें आती हैं। 40 पंचायतों में कुल 95 केन्द्र खोले जाने हैं। इस समय 65 केन्द्र सक्रियता के साथ चल रहे हैं। एक केन्द्र पर बच्चों के साथ काम करने के लिए दो स्वयंसेवी अध्यापक नियुक्त किए गए हैं। क्लस्टर के सभी केन्द्रों को मार्गदर्शन प्रदान करने के लिए क्लस्टर संयोजक तैनात किया गया है। 20 पंचायतों पर एक रिसोर्स पर्सन है। परियोजना में पैसा बहुत कम है। क्लस्टर संयोजक को 15सौ रूपये मासिक मानदेय दिया जाता है। वहीं स्वयंसेवी अध्यापक के लिए किसी मानदेय का प्रावधान नहीं है। स्वयंसेवियों के प्रशिक्षण के लिए भी पर्याप्त प्रावधान नहीं हैं। उन्होंने बताया कि परियोजना अप्रैल, 2012 से शुरू होनी प्रस्तावित थी, लेकिन व्यावहारिक तौर पर अक्तूबर, 2012 में शुरू हुई। आज तक 65 स्वयंसेवी अध्यापकों का तीन दिन का ही प्रशिक्षण हो पाया है। स्वयंसेवियों की तरफ से निरंतर प्रशिक्षण की मांग उठ रही है, लेकिन परियोजना में प्रावधान नहीं होने के कारण प्रशिक्षण नहीं हो पा रहा। उन्होंने हमें भावी कार्यक्रम के बारे में जानकारी देते हुए बताया कि कल रविवार को आप ग्राम पंचायत जारौठी में जाएंगे। समिति के वरिष्ठ कार्यकर्ता संजीव सिन्हा और परियोजना में रिसोर्स पर्सन असमां खातून हमारे साथ होंगी। इसी दौरान समिति की यूपी इकाई के कोषाध्यक्ष तेजराम भारती से भी मुलाकात हुई। 
बिस्तर पर जाते हुए भी हम लंबी यात्रा की थकान से ज्यादा इतनी अधिक देरी से पहुंचने के सदमे से उबर नहीं पाए थे। चर्चाओं के दौर के साथ हम नींद के आगोश में चले गए थे। रविवार (17 नवम्बर) को सुबह अलीगढ़ के गांवों में घूमने का ख्याल मन में जहां रोमांच पैदा कर रहा था, वहीं गांव और वहां पर चलाए जा रहे स्कूल चलें केन्द्रों के बारे में भिन्न-भिन्न कोणों से जानने का उत्साह भी बढ़ता जा रहा था। खाना खाने के बाद हमारी भेंट परियोजना के कार्यकर्ताओं के लिए प्रशिक्षण जरूरतों का अध्ययन कर रही कविता (भोपाल, म.प्र.) से भेंट हुई, जिन्हें हमारे साथ ही जारौठी जाना था। कविता, असमां, सतीश और मैं ड्राईवर बॉबी के साथ जारौठी के लिए रवाना हुए। रास्ते में हमें पता चला कि जारौठी अलीगढ़ से करीब 15 कि.मी. की दूरी पर है। जारौठी को जोडऩे वाले लिंक रोड़ खस्ताहालत में हैं। गांव में पहुंचने के लिए कोई साधन उपलब्ध नहीं है, जिस कारण रिसोर्स पर्सन का यहां पहुंचना अपने आप में एक मुश्किल काम है। स्वैच्छिकता एवं प्रतिबद्धता के बिना ऐसी कठिन परिस्थितियों में काम करना किसी भी तरह से संभव नहीं है। 

हम समिति के जिलाध्यक्ष ओम प्रकाश शर्मा के घर पर पहुंचे, जहां पर अभियान का क्लस्टर केन्द्र चलाया जा रहा है। शर्मा जी 1997 में पंचायत विभाग में सहायक विकास अधिकारी के पद से सेवानिवृत्त हो चुके हैं। घर पहुंचे तो उनकी पत्नी चूल्हे में आग जलाने के लिए कड़ी मशक्कत कर रही थी। आग नहीं जलने के कारण धूआं फैला हुआ था। वृद्धावस्था में चूल्हा जलाना और उस पर खाना बनाना काफी हिम्मत का काम है। चूल्हे पर सब्जी बनाई जा रही थी। चूल्हा जलाने की कोशिश में उनके सिर से साड़ी का पल्लू उतर गया था। जब मैं उनका फोटो लेने लगा तो उनकी पहली चिंता पल्लू ठीक करने की थी। शर्मा जी ने बताया कि उनके बच्चे शादीशुदा हैं और अलीगढ़ में रहते हैं। यहां पर वे और उनकी पत्नी रहते हैं। गांव से उन्हें लगाव है। सेवानिवृत्ति के बाद उन्होंने 2000 में पंचायत प्रधान पद का चुनाव लड़ा था। लेकिन अच्छे आदमी का चुनाव लडऩा इतना आसान नहीं रह गया है। 
अभियान केन्द्र के कमरे का एक दरवाज़ा घर में और एक बाहर खुलता था। खिडक़ी का दरवाज़ा टूटा हुआ था। कमरे की एक दिवार पर समिति द्वारा निकाले गए विभिन्न जत्थों के पुराने चित्र लगे हुए थे। रस्सी के साथ किताबें लटकाकर प्रदर्शित की गई थी। वर्णमाला का चार्ट लगा था। एक मेज पर कागज का मेंढक़ बना हुआ था, जिससे स्पष्ट था कि यहां पर ओरिगेमी का प्रशिक्षण दिया गया है। दूसरे कोने में मेज पर हारमोनियम रखा था, जिससे लगता था कि कार्यकर्ताओं की रूचि संगीत में भी है और शायद कोई ना कोई हारमोनियम बजाना भी जानता है। मेज के पास की कुर्सी पर पानी का कैंपर रखा था। कुल मिलाकर केन्द्र का कमरा गतिविधियों व पढऩे-पढ़ाने का केन्द्र लग रहा था। केन्द्र के दूसरी ओर बरामदा व आंगन था। यहीं पर हम बैठ गए। 
कुछ ही देर में क्लस्टर संयोजिका नीतू आ गई। उन्होंने बताया कि उनका क्लस्टर नं.-2 है। यहां पर सात केन्द्र सक्रिय हैं। केन्द्र शुरू होने का समय सायं 4:30 है और दिन छिपने तक केन्द्र चलाया जाता है। स्कूल में कईं बार अभिभावक अपने बच्चों को पीट-पीट कर पढऩे के लिए भेजते हैं, लेकिन केन्द्र में बच्चे खुशी-खुशी सीखने आते हैं। उन्होंने कहा कि परिवार की आर्थिक हालत और काम के बोझ के कारण बहुत से बच्चे स्कूल नहीं जाते। ओम प्रकाश शर्मा, जिन्हें क्लस्टर व केन्द्र कार्यकर्ता प्यार से बाबा कह कर पुकारते हैं, ने बताया कि उनके गांव में सरकारी प्राथमिक स्कूल है और 135 बच्चे इसमें शिक्षा ग्रहण करते हैं। लेकिन पढ़ाने के लिए एक नियमित अध्यापक व दो शिक्षा मित्र हैं। अध्यापकों की कमी के कारण पढ़ाई का स्तर अच्छा नहीं है। स्वयंसेवी अध्यापिका सुमन ने बताया कि उन्होंने 30 के करीब बच्चों को स्कूल में दाखिल करवा दिया है। 
यहीं पर आई कड़हारा पंचायत के तहत आने वाले गांव बेरिया नगला में खोले गए केन्द्र की स्वयंसेवी अध्यापिका शशी ने बताया कि बेरिया नगला में सारी आबादी अनुसूचित जाति की है। गांव छोटा-सा है, जिसकी आबादी 400 के करीब है। यहां पर काम के लालच में बच्चे स्कूल छोड़ रहे हैं। उन्होंने गांव में केन्द्र खोलने से पहले सर्वेक्षण किया और लोगों के साथ बातचीत की। सर्वेक्षण की प्रक्रिया में स्कूल से बाहर रह गए बच्चों को दाखिल करवाने का प्रयास किया। एक निजी स्कूल में अध्यापिका के तौर पर पढ़ा रही शशी ने बताया कि उन्होंने 25 के करीब बच्चों को केन्द्र के माध्यम से स्कूल में दाखिल करवाया है। प्रशिक्षण में सीखी गई खेल क्रियाओं व गीता-कविताओं के माध्यम से बच्चों को सिखाया जाता है। 
इस बीच केन्द्र पर आने वाले बच्चे यहां पहुंच गए थे। बच्चों के साथ कविता घुल-मिल गई और बच्चों ने नृत्य, अभिनय व गीतों के माध्यम से अपनी भावाभिव्यक्ति की। यहां पर बच्चों की माएं व अभिभावक भी पहुंचे। उनके साथ भी केन्द्र की गतिविधियों के बारे में चर्चा हुई। दोपहर के खाने की व्यवस्था विश्वविद्यालय के गेस्ट हाउस में ही थी, जिस कारण हमें खाना खाने के लिए दौबारा विश्वविद्यालय आना पड़ा। इस दौरान कविता जा चुकी थी। दोपहर के भोजन के लिए इतनी लंबी यात्रा करना हमें अच्छा नहीं लग रहा था। हमारे पास केन्द्रों के अवलोकन व कार्यकर्ताओं व समुदाय से चर्चा के लिए पहले ही समय कम था। कल का एक दिन हम पहले ही बर्बाद कर चुके थे। स्थानीय कार्यकर्ताओं ने केवल 18 नवम्बर तक के भ्रमण की व्यवस्था कर रखी थी। अब अध्ययन के लिए केवल कल का दिन बचा था। 
दोपहर का भोजन खाने के लिए जाते और पुन: जारौठी आते समय संजीव सिन्हा से बातचीत का काफी समय मिला। ज्ञान-विज्ञान आंदोलन में उनके प्रवेश और फिर पूरी प्रतिबद्धत के साथ बने रहने का इतिहास अपने आप में समाज परिवर्तन के जोश व उत्साह से भरा है। इस बीच उन्हें तीन बार सरकारी नौकरी के अच्छे अवसर मिले, लेकिन उन्होंने किसी को भी स्वीकार नहीं किया और आंदोलन में पूर्णकालिक भूमिका निभाते रहे। बरेली में साक्षरता अभियान को उन्होंने स्वर्णिम पल बताया। उनके साथ उत्तर प्रदेश की राजनीति पर विस्तार से चर्चा हुई और जनपक्षधर राजनीति के कमजोर होते के कारण निराशाजनक स्थितियों पर वे चिंतित नजऱ आए। जारौठी पहुंचे तो यहां पर अन्य गांवों के कार्यकर्ता मौजूद थे। भीमगढ़ गांव की स्वयंसेवी अध्यापिका सीमा ने चर्चा के दौरान बताया कि वे पुलिस की तैयारी कर रही हैं और हर रोज तीन-चार किलोमीटर की दौड़ लगा रही हैं। उनके गांव की आबादी 12सौ के करीब है। सर्वेक्षण के माध्यम से यहां पर स्कूल से बाहर छूट गए या ड्रॉप आउट हुए 23 बच्चों की पहचान की गई। इनमें 13 लड़कियां और 8 लडक़े हैं। केन्द्र उनके घेर में खोला गया है और परिवार के अन्य सदस्य इसमें उनका सहयोग करते हैं। गांव की दो अन्य लड़कियां केन्द्र में उनका सहयोग करती हैं।
 
शाम को जारौठी में चलाए जा रहे एक अन्य केन्द्र में भी गए। इसके बाद हम नीतू के घर गए, तो पता चला कि नीतू अपनी बूआ के घर पर रहती है। गांव में उसकी सामाजिक कार्यकर्ता के तौर पर साख है। यहां पर दूध व घर पर ही दूध से बनाई गई विशेष प्रकार की मिठाई से हमारा स्वागत हुआ। इस दौरान शशी साथ ही थी, जोकि घर जाने में देरी होने के कारण चिंतित दिखाई दे रही थी। पूरी जिम्मेदारी के साथ बाबा और नीतू उसे गांव बेरिया नगला छोड़ कर आए। आज भोजन के लिए अलीगढ़ जाते-आते हमारा बहुत-सा समय नष्ट हो गया था। समय की बचत करने के लिए अलीगढ़ लौटते हुए हमने संजीव से अनुरोध किया कि कल भ्रमण के दौरान भोजन की व्यवस्था गाँव में ही हो जाए, तो बेहतर होगा।

सोमवार (नवम्बर 18) को असमां व उनकी तीन वर्षीय नटखट बेटी रूश्दा के साथ हम सोंगरा क्लस्टर के लिए रवाना हुए। तय कार्यक्रमानुसार रास्ते में रिसोर्स पर्सन सूरज पाल उपाध्याय मिले। उसके बाद हम पोथी पंचायत में पहुंचे। यहां पर पंचायत के अन्तर्गत आने वाले गांव पोथी, पोथा और नगला बंजारा से पहले खेतों में स्थित पूर्व माध्यमिक स्कूल (मिडल स्कूल) पहुंचे। वास्तव में यह स्कूल तो लग ही नहीं रहा था। स्कूल की चारदिवारी नहीं थी। एक तरफ सडक़ के किनारे लंबी रस्सी के साथ एक घोड़ा बंधा हुआ था। तीन कमरों की पंक्ति के सामने एक अन्य कमरा बना हुआ था। इस कमरे के सामने एक मोटरसाईकिल खड़ी थी। इस कमरे के सामने दो शौचालय थे, जिनक दरवाज़े नहीं थे। ऐसे में शायद ही कोई उनमें जाता होगा। प्रांगण ऊबड़-खाबड़ था, जिस पर दूब उगी हुई थी। कांग्रेस घास पर फूल आए हुए थे। कईं स्थानों पर पशुओं का गोबर था। ऐसे माहौल में ही 25 के करीब बच्चे बैठे थे और उनके सामने कुर्सी के सहारे टिका एक बोर्ड था। बच्चों के चारों ओर फटे कागज बिखरे हुए थे। वहीं लंबी शेरवानी पहने एक मास्साब खड़े थे। स्कूल में पहुंचे तो उन्होंने स्वागत किया। पूछने पर उन्होंने बताया कि छठी से आठवीं तक के इस स्कूल में 107 विद्यार्थी नामांकित हैं। लेकिन सभी विद्यार्थी आते नहीं हैं। आएं भी आखिर क्यों और क्या करने? स्कूल में पढ़ाने के लिए पर्याप्त अध्यापक भी नहीं हैं। एक स्थाई अध्यापक की दुर्घटना हो गई थी, जिस कारण वे छुट्टी पर हंै। वे स्वयं शारीरिक शिक्षा के अनुदेशक हैं और अनुबंध पर पिछले कुछ महीने से यहां पर तैनात हैं। इसके अलावा यहां दूसरी अध्यापिका ललित कला की अनुदेशिका हैं। अनुबंध पर सात हज़ार रूपये प्रतिमाह वेतन मिलता है। वह भी पिछले चार महीने से नहीं मिला। इस बीच कमरे से निकल कर अध्यापिका भी हमारे पास आ गईं। उनसे भी दुआ-सलाम हुई। रसोई में एक महिला मिड-डे-मील तैयार कर रही थी। अध्यापकों ने बताया कि इस रसोई का भी दरवाज़ा नहीं है। स्कूल में बैठे बच्चों में से सातवीं के दो, आठवीं के चार और बाकी छठी कक्षा के विद्यार्थी थे। मास्साब ने बताया कि वे गांव में हररोज जाते हैं, लेकिन अभिभावक सहयोग नहीं करते हैं और बच्चों को स्कूल नहीं भेजते हैं। जब उनसे पोथी में चलाए जा रहे फिर स्कूल चलें अभियान केन्द्र के बारे में पूछा गया तो उन्होंने अनभिज्ञता जाहिर करते हुए बताया कि यहां पर अभियान का कोई कार्यकर्ता नहीं आया है। लेकिन उपाध्याय जी ने बताया कि वे स्कूल में एक बार आए हैं, लेकिन स्थाई अध्यापक से मिलकर गए थे। उन्होंने समिति द्वारा आयोजित किए गए शिक्षा अधिकार सम्मेलन के बारे में भी बताया। मास्साब को सम्मेलन ही नहीं शिक्षा का अधिकार अधिनियम के बारे में भी कोई जानकारी नहीं थी। सतीश ने उनसे इस अधिनियम को जरूर पढऩे का अनुरोध किया गया।

इसके बाद हम पोथी गांव पहुंचे। यहां पर प्राथमिक स्कूल में बच्चों की रौनक थी, लेकिन स्कूल की जगह बेहद कम थी। यहां प्रांगण नाममात्र ही है। मैदान के अभाव में खेलों के बारे में तो सोच भी नहीं सकते। यहां पर विद्यार्थियों की संख्या 98 है। स्कूल में दो शिक्षा-मित्र कार्यरत हैं, जिन्हें महज़ 3500 रूपये वेतन मिलता है। स्कूल में कोई इंचार्ज नहीं है। दूसरे स्कूल का संचालन करने के लिए अध्यापक की अस्थाई व्यवस्था की गई है। यहां से 2011 में सेवानिवृत्त हुए अध्यापक सईद आए हुए थे। उन्होंने चर्चा करते हुए बताया कि जवां खण्ड पूरे जिला में शिक्षा के मामले में आदर्श कहलाता है। लेकिन बड़ी संख्या में स्कूलों की स्थिति मिडल स्कूल जैसी ही है, जहां अध्यापकों व सुविधाओं का अभाव है। आदर्श खण्ड की यह स्थिति है, तो अन्य खण्डों की स्थिति क्या होगी? इसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। 
स्कूल से उपाध्याय जी का अनुसरण करते हुए हम केन्द्र की ओर चल दिए। गांव की गलियों से गुजरते हुए पोथी और हरियाणा के गांवों में कोई अंतर नज़र नहीं आ रहा था। उसी तरह से घरों में पशु बंधे हुए हैं। बच्चे खेल रहे हैं। घूंघट में होने के बावजूद महिलाएं घास व लकडिय़ां ला रही हैं। पुरूष ताश खेल रहे हैं। इस गांव में स्वयंसेवी अध्यापपिका आशा देवी है जोकि आशा वर्कर भी है। उन्हीं के घर पर केन्द्र चलाया जाता है। पूछने पर उन्होंने बताया कि केन्द्र में 25 बच्चे पढ़ते हैं। इनमें से कुछ बच्चे स्कूल में जाने वाले हैं। वे अपने स्तर पर उन्हें पढ़ाते हैं। बातचीत के क्रम में आशा ने अपने मन की बात पूछते हुए कहा कि आखिर कब तक मुफ्त सेवा चलती रहेगी? इससे हमें पता चल गया कि फिलहाल उनका कोई प्रशिक्षण नहीं करवाया गया है। इस बात की तसदीक करते हुए उपाध्याय जी बताया कि सोंगरी क्लस्टर के तहत आने वाले गांवों के अभियान केन्द्रों के 70 के करीब स्वयंसेवी अध्यापकों का प्रशिक्षण नहीं हो पाया है। ज्ञान-विज्ञान आंदोलन द्वारा चलाए जा रहे अभियानों में प्रशिक्षण के दौरान स्वैच्छिकता के सवाल पर बहुत चर्चा होती है। प्रशिक्षण के बिना अभियान में स्वैच्छिक भावना का पूरा विकास नहीं हो पाता, जिससे इस प्रकार के सवाल बने रहते हैं। यहां हमारा परिचय क्लस्टर संयोजक वासुदेव शर्मा जी से हुआ। 

यहां से हम छह-सात हज़ार की आबादी वाले गांव सोंगरा में पहुंचे। यहां पर तीन केन्द्र चलाए जा रहे हैं। यहां पर एक कार्यकर्ता के घर पर स्वयंसेवी अध्यापिका सरोज, भारती, पूजा भारद्वाज, आरती, रिंकी शर्मा और मीनेश से बातचीत हुई। यहां पर अध्यापिकाओं के घर या घेर में ही केन्द्र चलाए जा रहे हैं। अध्यापिकाएं उच्च जाति की हैं और सीखने वाले अधिकतर बच्चे अनुसूचित व पिछड़ा वर्ग से हैं। बच्चे खेलते हैं, गीत गाते हैं और सीखते हैं। सुविधाओं के अभाव में भीत (दिवार) पर लिख कर उन्हें सिखाया जाता है। कार्यकर्ताओं में प्रशिक्षण की जबरदस्त मांग है। असमां ने बताया कि दिसम्बर में प्रशिक्षण कार्यशाला प्रस्तावित है। 

यहां से हम भोजन के लिए उपाध्याय जी के गांव की तरफ चल दिए। रास्ते में उपाध्याय जी ने बताया कि वे ज्ञान-विज्ञान आंदोलन के प्रमुख नेता डॉ. कुंवरपाल सिंह के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर आंदोलन की तरफ आकर्षित हुए। जारौठी में ओम प्रकाश शर्मा ने भी डॉ. कुंवरपाल जी के व्यक्तित्व पर प्रकाश डाला था। जिससे मुझे पता चला कि उनके व्यक्तित्व व विचारों का अलीगढ़ जनपद ही नहीं बड़े क्षेत्र में व्यापक प्रभाव है। हिन्दी की प्रसिद्ध पत्रिका वर्तमान साहित्य के संपादक, जनवादी लेखक संघ के संस्थापक नेता और एक सामाजिक कार्यकर्ता के तौर पर डॉ. कुंवरपाल जनमानस पर खासा प्रभाव है। तब मुझे लगा कि अलीगढ़ ताला नगरी और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के कारण ही नहीं हिन्दी साहित्य में ‘वर्तमान साहित्य पत्रिका’ के प्रकाशन और डॉ. कुंवरपाल सिंह व डॉ. नमिता सिंह के योगदान के लिए भी जाना जाता है।
रास्ते में सतीश और उपाध्याय जी की चर्चा की तरफ मैं पूरी तरह ध्यान नहीं दे पाया। लेकिन मैंने सुना कि उपाध्याय जी सतीश को कह रहे हैं कि आपको आज मथुरा का हलुवा खिलाएंगे। मथुरा के पेड़ तो बहुत सुन रखे थे, अब ये मथुरा का हलुवा....... सुन कर मुंह में पानी आ गया। हलुवा भी पेड़े की तरह ही खास ही होता होगा। यह सोच कर मन खुशी से भर उठा। गांवों में बातचीत करते हुए समय अधिक हो गया था। भूख तेज लगी थी। ऊपर से मथुरा के हलुवे ने भूख को और बढ़ा दिया था। उपाध्याय जी के घर पर पहुंचे तो खुला आंगन, आंगन में विभिन्न प्रकार के पेड़-पौधे और क्यारियां। उन्होंने जहां कईं प्रकार के फूल उगा रखे हैं, वहीं रसोई के लिए कद्दू, मेथी, मिर्च सहित सब्जि़यां। उनके घर में पशु भी बंधे हुए हैं। उनके घर को देखकर मुझे मेरे अपने गांव की याद आ गई, जहां पर भरे-पूरे आंगन में मैंने कईं प्रकार के पौधे लगाए थे। फूलों से क्यारियां लदी-फदी रहती थी। लेकिन गांव से इन्द्री पहुंचते ही सब कुछ नष्ट हो गया। 
यहां पर मैंने खूब फोटोग्राफी की। इतना खाना बने, उपाध्याय जी मुझे गांव की सैर करने ले गए। वे मुझे अपने गांव के लोगों से मिलवाने लगे।
खेतों में ले गए, जहां पर कुछ ही दूरी पर अमरबेल लगी हुई थी, जिसका जिक्र सफर में चलते हुए हुआ था। उन्होंने अमरबेल लाने के लिए खेत में काम कर रहे किसान की जिम्मेदारी लगाई। बातचीत के दौरान मुझे उनकी बोली ब्रज से मिलती-जुलती लगी। पूछने पर उपाध्याय जी ने बताया कि यहां से 60किलोमीटर की दूरी पर मथुरा है। 
मुझे लगा कि मथुरा का हलुवा विशेष होता होगा। लेकिन मैं भ्रम में था। घर जाकर जब हम खाना खाने लगे तो चूल्हे पर बनी मक्की की रोटी और साग हमारे सामने थे। सतीश ने जब पूछा कि बथुआ का हलुवा कहां है तो असमां ने बताया-‘यहां साग को ही बथुए का हलुवा कहते हैं।’ सबसे ज्यादा हैरान मैं था जोकि मथुरा के हलुवा से बथुआ के हलुवा की यात्रा करते हुए साग तक पहुंचा। लेकिन मेरी कल्पना के हलुवे के स्वाद से भी कहीं अधिक स्वादिष्ट थी-मक्की की रोटी और साग। ऊपर से घर का बना मिर्च का अचार। मैंने भूख से एक रोटी ज्यादा खाई।
ज्ञान-विज्ञान समिति की स्थानीय इकाई ने हमारे अध्ययन के लिए सिर्फ 18 नवम्बर तक का समय निर्धारित किया था। लेकिन हमने अभी तक किसी अल्पसंख्यक मुस्लिम समुदाय बहुल गांव में भ्रमण नहीं किया था, जिसके बारे में मैं यहां आते हुए सोचता रहा था। मैंने उपाध्याय जी के गांव से चलते हुए ऐसे किसी गांव में चलने की इच्छा व्यक्त की तो ‘समय अधिक हो जाएगा’ का तर्क रखते हुए सुझाव को बर्खास्त कर दिया गया। इन्द्री से दिल्ली जाते हुए बस के सहयात्री ने मुस्लिम आबादी वाली बस्तियों की बदहाली की जो दास्तान सुनाई थी। उसे मैं यहां आकर भी आंखों से देखकर अध्ययन नहीं कर पा रहा हूँ, ऐसा विचार मुझे परेशान कर रहा था। गांव से अलीगढ़ आते हुए असमां ने यहां की एक नहर का जिक्र किया और हमसे नहर देखने की इच्छा पूछी तो हम सहर्ष तैयार हो गए। जवां से होते हुए हम नहर तक पहुंचे। नाम पूछने पर बॉबी ने बताया कि इसे जवां नहर पुकारा जाता है। यहां मिट्टी के कसोरे में चाय पीने का मौका मिला। पुल से नहर देखना कुछ खास नहीं लगा क्योंकि इससे चौड़ी पश्चिमी यमुना नहर तो हमारे गांव के पास से गुजरती है, जिसमें पुल से छलांग लगाकर तैरते, नहाते और पशुओं को नहलाते मेरा बचपन बीता है। 

विश्वविद्यालय पहुंचे तो अंधेरा हो गया था। यहां पर असमां को उनके घर (क्वार्टर) छोडऩे के बाद हम ड्राईवर बॉबी के साथ ही अलीगढ़ में चले गए। सतीश को होम्योपैथी की कोई दवाई लेनी थी। बॉबी ऐसी दुकान पर लेकर गया, जहां से वह दवाई सहजता से मिल गई। इसके बाद हम मार्केट में ही ट्रांसपोर्ट कार्यालय पर रूके। यहां पर मिले शहजाद, जिनके साथ सतीश की खूब जमी। दोनों होम्योपैथी के जानकार, लेकिन शहजाद कुछ ज्यादा। सतीश जी बीमारी का जिक्र करें और होम्योपैथी की दवाई का नाम शहजाद बताएं। यहां पर सतीश द्वारा होम्योपैथी के बारे में और अधिक जानने की इच्छा उजागर हुई। शहजाद ने सतीश के लिए एक अच्छी किताब भिजवाने का वादा किया। बातचीत के दौरान यह भी उजागर हुआ कि सतीश अपने गांव हथवाला में बीमार लोगों की मदद करते हैं। यहां पर बैठा हुआ मैं वर्तमान साहित्य की संपादक डॉ. नमिता सिंह जी से मिलने के बारे में सोच रहा था, लेकिन लग रहा था कि दोनों की बातचीत और बातचीत में दोनों की इतनी मशरूफियत......शायद डॉ. नमिता से मिलना संभव नहीं होगा। 
नवम्बर19 को हमें वापिस आना था। हमने तय कर लिया था कि सरकारी बस से नहीं जाएंगे। रिक्शा पर सवार होकर निजी बस के पास पहुंचे तो बस को एक घंटा बाद साढ़े बारह बजे रवाना होना था। परिचालक ने ही सुझाव दिया कि आप रेलगाड़ी से चले जाएं। जल्दी पहुंच जाएंगे। इस पर उसी रिक्शा से हम रेलवे स्टेशन के लिए चल दिए। रेलगाड़ी से करीब ढ़ाई घंटे में हम नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पहुंच गए, जाते समय जो सफर हमने कईं घंटों में तय किया था।
-अरुण कुमार कैहरबा,
वार्ड नं.-4, रामलीला मैदान, इन्द्री, जिला-करनाल, हरियाणा।
मो.नं.-09466220145


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