Thursday, March 6, 2014

निर्मला पुतुल

जन्मदिन विशेष

निर्मला पुतुल के काव्य में है आदिवासी समाज की वेदना एवं वैभव

अरुण कुमार कैहरबा

हिन्दी साहित्य के संसार में अनेक विमर्श धाराएँ प्रचलित हैं। स्त्री विमर्श, दलित विमर्श और आदिवासी विमर्श अपने-अपने वर्ग के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक एवं राजनैतिक संकटों को उजागर करते हैं। इन धाराओं के लेकर भले ही कितने ही विवाद हों, लेकिन यह सत्य है कि इन्होंने दबे-कुचले वर्ग की अनेक प्रतिभाओं को अभिव्यक्ति प्रदान की है। साहित्य का ध्यान उन लोगों की तरफ गया है, जिनकी मेहनत व मानवता को लगातार नज़रन्दाज किया जाता रहा। यदि आदिवासी विमर्श की बात की जाए तो यह एक ऐसा विषय है जिसमें समाज के रहन-सहन, उनकी संस्कृति, परंपराएँ, अस्मिता, साहित्य और अधिकारों के बारें में विस्तृत चर्चा की जाती है। आदिवासी समाज सदियों से जातिगत भेदों, वर्ण व्यवस्था, विदेशी आक्रमणों, अंग्रेजों और वर्तमान में सभ्य कहे जाने वाले समाज द्वारा दूर-दराज जंगलों और पहाड़ों में खदेड़ा गया है। अज्ञानता और पिछड़ेपन के कारण उन्हें सताया गया है। अक्षरज्ञान न होने के कारण यह समाज सदियों से मुख्यधारा से कटा रहा, दूरी बनाता रहा। भारत में यह जनजातिय समाज विभिन्न भागों में तथा विभिन्न भाषिक प्रदेशों में है। आदिवासियों की लोककला व साहित्य सदियों से मौखिक रूप में रहा है। बहुत से रचनाकारों ने आदिवासी साहित्य को अपनी लेखनी से समृद्ध किया। उन्हीं में से एक हैं-निर्मला पुतुल। आदिवासी एवं स्त्री साहित्य में वे एक ख्यातिमान नाम हैं। उनके काव्य में आदिवासी स्त्री अस्मिता के सरोकार नगाड़े की तरह बजते हैं। यह ऐसी पुकार है जिसने हिंदी कविता का भूगोल बदल दिया है। उन्होंने आदिवासी समाज की विसंगतियों को तल्लीनता से उकेरा है-कड़ी मेहनत के बावजूद खराब दशा, कुरीतियों के कारण बिगड़ती पीढ़ी, थोड़े लाभ के लिए बड़े समझौते, पुरूष वर्चस्व, स्वार्थ के लिए पर्यावरण की हानि, शिक्षित समाज का दिक्कुओं और व्यावसायिकों के हाथों की कठपुतली बनना आदि वे स्थितियां हैं, जो पुतुल की कविताओं के केन्द्र में हैं। उनकी कविताएं जहां अपने समाज को सम्बोधित हैं, वहीं शेष संसार को भी सम्बोधित की गई हैं। इसमें लगातार छले और कुचले गए सबसे भले लोगों की वेदना है, नाराजगी है, और सबसे बड़ी बात इस छल को समझने और उससे जूझने की तैयारी भी है। 
निर्मला पुतुल का जन्म 6मार्च, 1972 को झारखंड के दुमका जिला में दुधनी कुरूवा नामक स्थान पर हुआ। संथाली आदिवासी परिवार से सम्बन्ध रखने के कारण उन्होंने अपने समाज की पीड़ाओं को गहराई के साथ महसूस किया। उनके पिता अध्यापक थे, जिसके चलते उन्हें पढऩे का अवसर मिला, लेकिन आर्थिक संकटों के कारण पढ़ाई में व्यवधान भी आता रहा। आर्थिक संकटों से पार पाने के लिए उन्होंने नर्सिंग का कोर्स किया। बाद में उन्होंने इग्रू से अपने स्नातक की डिग्री की। भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा उनका पहला कविता संग्रह ‘नगाड़े की तरह बजते शब्द’ प्रकाशित किया गया। इस संग्रह ने आदिवासी जीवन के संकटों को उदारीकरण व भूमंडलीकरण के संदर्भ में उभारा। उसके बाद रमणिका फाउण्डेशन द्वारा उनका काव्य संग्रह ‘अपने की घर की तलाश में’ प्रकाशित किया गया। ‘फूटेगा एक नया विद्रोह’ उनका शीघ्र प्रकाश्य संग्रह है। उनकी कविताएं अंग्रेजी, मराठी, उर्दू, उडिय़ा, कन्नड़, नागपुरी, पंजाबी व नेपाली सहित अनेक भाषाओं में अनुदित हुई हैं। उन्हें उनकी रचनाओं के लिए अनेक पुरस्कार भी मिले हैं। 2001 में उन्हें साहित्य अकादमी, नई दिल्ली द्वारा ‘साहित्य सम्मान’ प्रदान किया गया। झारखंड सरकार ने 2006 में ‘राजकीय सम्मान’, 2008 में महाराष्ट्र राज्य हिन्दी साहित्य अकादमी, इसी वर्ष हिमाचल प्रदेश हिन्दी साहित्य अकादमी ने उन्हें सम्मानित किया। उनके जीवन पर आधरित फिल्म ‘बुरू-गारा’ बनाई गई है, जिसे 2010 में राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला। पुतुल को शैलप्रिया स्मृति न्यास की ओर से पहला शैलप्रिया स्मृति सम्मान दिसम्बर, 2013 में प्रदान किया गया। निर्णायक मंडल में शामिल साहित्य मर्मज्ञों ने पुतुल के साहित्य पर टिप्पणी करते हुए कहा-‘निर्मला पुतुल की कविता में आदिवासी समाज की वेदना और वैभव दोनों बहुत मार्मिकता के साथ व्यक्त हुए हैं। उनकी कविता में झारखंड के सांस्कृतिक-सामाजिक जीवन की धडक़नें बोलती हैं। उन्होंने शोषण और विस्थापन की ऐतिहासिक पीड़ा और विड़ंबना को शब्द दिए हैं। उनकी कविता झारखंड के सांस्कृतिक और समकालीन जीवन के प्रामाणिक पाठ और साक्ष्य की तरह आती हंै जिसका एक उपपाठ स्त्री संवेदना और संघर्ष के विस्तार के रूप में दिखाई पड़ता है। झारखंड को अपनी इस कवयित्री पर गर्व है और वे प्रथम शैलप्रिया सम्मान की उचित अधिकारी हैं।’
वरिष्ठ रचनाकार मंगलेश डबराल ने निर्मला पुतुल एवं शैलप्रिया की रचनाओं में समानता कुछ इन शब्दों में व्यक्त करते हैं- ‘कवयित्री शैलप्रिया और निर्मला पुतुल की कविताओं में समानता है। दोनों की कविताएं ठोस व सधी हुई हैं। दोनों की कविताओं में ईमानदारी, पारदर्शिता और सच्चा मन बोलता है। दोनों की कविताएं प्रश्नों से बनी हैं। उन्होंने कहा कि शैलप्रिया की कविताओं की ताजगी, समृद्ध विम्ब और नयापन और भाषा की परिपक्वता उन्हें विशिष्ट बनाती है। राष्ट्रीय स्तर पर उनकी चर्चा नहीं हुई क्योंकि हाशिए के लोग केन्द्र में आने के लिए प्रयास नहीं करते।’ डबराल ने कहा कि निर्मला पुतुल हिन्दी कविता के क्षेत्र में किसी के परिचय की मोहताज नहीं है। वह जन्म से आदिवासी व विचारों से वामपंथी हैं। आदिवासी समाज में स्त्री शोषित पीडि़त है जिसका चित्रण इनकी कविताओं में मिलता है। वरिष्ठ साहित्यकार खगेन्द्र ठाकुर के अनुसार-निर्मला पुतुल संथाली हैं बावजूद इसके उनकी कविताएं आदिवासीपन से मुक्त है। उनकी कविताओं में जो व्यापकता है वह जीवन को प्रेरित करती है और राजनैतिक परिप्रेक्ष्य से भी प्रभावित हैं। यह अच्छी बात है कि हिन्दी के आलोचकों ने उनकी हिन्दी कविता को स्वीकारा है। उन्होंने कहा कि मौजूदा दौर की कविताओं में जीवन को गति देने की शक्ति कम हो गयी है लेकिन निर्मला पुतुल इसका अपवाद है।
साहित्यकार मोहन श्रोत्रिय के अनुसार, ‘निर्मला पुतुल की कविताओं की भाव भूमि उनकी विरासत तथा परिवेश से निर्मित है, इसलिए उनकी कविता मध्य वर्गीय जीवनानुभवों के अतिक्रमण के रूप में नहीं, बल्कि उनके बरक्स देखी जानी चाहिए। अपनी जातीय स्मृति एवं चेतना से गहरे जुड़ाव के परिणामस्वरूप उनकी कविता की विषयवस्तु तथा स्वर दोनों ही तथाकथित मुख्यधारा की कविताओं के अभ्यस्त पाठकों को अटपटी लग सकती हैं। अब तक जो कविता के ‘अन्य’ बने हुए थे, वे धमाके के साथ कविता में प्रवेश करने लगे हैं, यह कविता के लोकतंत्र के लिए शुभ है। हाशिए पर धकेले इन समाजों से और नए स्वर ध्यान आकर्षित कर रहे हैं, यह खुशी की बात है।’ 
उनके जन्मदिन पर पेश हैं उनकी कुछ बेहतरीन कविताएँ- 
1.आओ मिलकर बचाएँ
अपनी बस्तियों को
नंगी होने से
शहर की आबो-हवा से बचाएँ उसे

बचाएँ डूबने से
पूरी की पूरी बस्ती को
हडिय़ा में
अपने चेहरे पर 
सन्थाल परगना की माटी का रंग
भाषा में झारखंडीपन

ठंडी होती दिनचर्या में
जीवन की गर्माहट
मन का हरापन
भोलापन दिल का
अक्खड़पन, जुझारूपन भी
भीतर की आग
धनुष की डोरी
तीर का नुकीलापन
कुल्हाड़ी की धार
जंगल की ताजा हवा
नदियों की निर्मलता
पहाड़ों का मौन
गीतों की धुन
मिट्टी का सोंधापन
फसलों की लहलहाहट

नाचने के लिए खुला आँगन
गाने के लिए गीत
हँसने के लिए थोड़ी-सी खिलखिलाहट
रोने के लिए मुट्टी भर एकांत

बच्चों के लिए मैदान
पशुओं के लिए मैदान
पशुओं के लिए हरी-भरी घास
बूढ़ों के लिए पहाड़ों की शान्ति

और इस अविश्वास भरे दौर में
थोड़ा-सा विश्वास
थोड़ी-सी उम्मीद
थोड़े-से सपने
आओ मिलकर बचाएँ
कि इस दौर में भी बचाने को
बहुत कुछ बचा है,
अब भी हमारे पास।
2.क्या तुम जानते हो

क्या तुम जानते हो
पुरुष से भिन्न
एक स्त्री का एकांत ?

घर प्रेम और जाति से अलग
एक स्त्री को उसकी अपनी ज़मीन
के बारे में बता सकते हो तुम ?

बता सकते हो
सदियों से अपना घर तलाशती
एक बेचैन स्त्री को
उसके घर का पता ?

क्या तुम जानते हो
अपनी कल्पना में
किस तरह एक ही समय में
स्वंय को स्थापित और निर्वासित
करती है एक स्त्री ?

सपनों में भागती
एक स्त्री का पीछा करते
कभी देखा है तुमने उसे
रिश्तो के कुरुक्षेत्र में
अपने...आपसे लड़ते ?

तन के भूगोल से परे
एक स्त्री के
मन की गाँठे खोल कर
कभी पढ़ा है तुमने
उसके भीतर का खौलता इतिहास ?

पढ़ा है कभी
उसकी चुप्पी की दहलीज़ पर बैठ
शब्दो की प्रतीक्षा में उसके चेहरे को ?

उसके अंदर वंशबीज बोते
क्या तुमने कभी महसूसा है
उसकी फैलती जड़ो को अपने भीतर ?

क्या तुम जानते हो
एक स्त्री के समस्त रिश्ते का व्याकरण ?
बता सकते हो तुम
एक स्त्री को स्त्री-दृष्टि से देखते
उसके स्त्रीत्व की परिभाषा ?

अगर नहीं !
तो फिर जानते क्या हो तुम
रसोई और बिस्तर के गणित से परे
एक स्त्री के बारे में.....?
3. जब टेबुल पर गुलदस्ते की जगह बेसलरी की बोतलें सजती हैं

यह कहते हुए
शर्मिन्दा महसूस कर रही हूँ
कि बाजार में घूमते
जब प्यास लगती है
तो पानी से ज्यादा
पेप्सी और स्प्राइट की तलब होती है
पता नहीं कब
हमारी प्यास में घुस गया यह सब.


सभा सम्मेलनों में आते-जाते
कब बोतल बंद पानी ने
जगह बना लिया हमारे भीतर
कि अब हम अपनी यात्राओं में भी
बेसलरी की बोतल साथ रखते हैं.


वे सारे लोग
जो हममे देशज संस्कृति तलाशते हैं
झारखण्डी अस्मिता पर बोलवाते हैं
और जल-जंगल-जमीन के मुद्दे पर
हमारी राय चाहते हैं
वही लोग बेसलरी की बोतलें बढ़ाते हैं
बोलते-बोलते जब प्यास लगती है सभा में.


अब जबकि गुलदस्ते की जगह
सम्मेलनों में हमारे टेबुलों पर बेसलरी बोतलें सजती हैं
न चाहते हुए भी पानी पी-पीकर बोलना पड़ता है
अपने इलाके के सूखे स्रोतों  पर.


ऐसे में जब बाजार से गुजरते
एक ग्लास पानी मिलना कठिन हो गया है
और पेप्सी आसान
नहीं चाहकर हम आसान रास्ते अपना लेते हैं दोस्त ! आखिर वे लोग
जो हमारे भीतर
जल-जंगल-जमीन बचाने का जज्बा देखते हैं
झारखण्डी अस्मिता और देशज संस्कृति तलाशते हैं
उन्हीं की संगति ने हमारी भाषा बिगाड़ दी
और प्यास बुझाने के लिए
पेप्सी और स्प्राइट का चस्का लगा दिया.

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