Sunday, January 22, 2012

ACTIVIST OF LITERACY- MOHAMMAD MURSLIN



साक्षरता का सिपाही : मोहम्मद मुरसलीन। अपने साथ ही परिवार के छोटी-बड़ी उम्र के अन्य सदस्यों को पांचवीं की परीक्षा दिलवाई। उनका मानना है-‘जब तक अनपढ़ है इंसान, नहीं रूकेगा यह अभियान’ सामाजिक कार्यों के लिए मुरसलीन राज्यपाल व सांसद से हो चुके हैं सम्मानित।
अरुण कुमार कैहरबा
साक्षरता की कक्षा में साक्षर बनने के बाद लोगों में साक्षरता की अलख जगाने वाला मोहम्मद मुरसलीन लोगों की आंखों का तारा बन गया है। मुरसलीन ने अपने साथ-साथ अपने अब्बू, अम्मी, भाई व बहनों को भी पढऩे के लिए प्रेरित किया। बड़ी-छोटी उम्र के परिवार के सात सदस्य एक साथ कक्षा में गए और एक साथ पंाचवीं की कक्षा पास की। विभिन्न सामाजिक अवरोधों के बावजूद मुरसलीन ने ‘जब तक अनपढ़ है इंसान, नहीं रूकेगा यह अभियान’ की तर्ज पर अन्य लोगों को साक्षर बनाने के लिए अक्षर सैनिक, जन चेतना केन्द्र संयोजक, सह प्रेरक और नाटक मंडली के कलाकार की भूमिका में स्वैच्छिक कार्य किए। विभिन्न विषयों पर सामाजिक जागरूकता लाने के लिए मुरसलीन आज भी लगा हुआ है। उसके सामाजिक कार्यों के कारण उसे महामहिम राज्यपाल बाबू परमानंद तथा सांसद डॉ. अरविंद शर्मा द्वारा सम्मानित किया जा चुका है।
उपमण्डल के यमुना के साथ लगते गांव सैय्यद छपरा निवासी अल्पसंख्यक मुस्लिम समाज के निरक्षर युवक मुरसलीन को 1998 में गांव के तत्कालीन सरपंच रज़ा हुसैन से सम्पूर्ण साक्षरता अभियान की जानकारी मिली। उसने गांव में लगाई जाने वाली कक्षा में जाना शुरू कर दिया। कक्षा में अक्षरों से परिचय प्राप्त करते हुए उसे परिवार के अन्य सदस्यों की अनपढ़ता भी कचोटने लगी। उसने अपने पिता मंजूर अहमद से इस बारे में बात की। मंजूर अहमद को अपने बेटे की बात में दम लगा और उसने पूरे परिवार समेत कक्षा में जाना शुरू कर दिया। मुरसलीन अपने पिता, बहन मुरसलीना, फुलबानो, नौसाबा, फातिमा और भाई नौसाद के साथ जब बस्ता व किताबें उठाकर गांव की चौपाल में जाते थे तो अन्य लोग उनका मजाक उड़ाया करते थे। लेकिन मुरसलीन व उसका परिवार लोगों के मजाक से घबराया नहीं और अपनी राह नहीं छोड़ी। जब वे कक्षा में जाया करते थे तो मुरसलीन की अम्मी रूखसाना घर का काम देखा करती। कईं बार तो मुरसलीन अपनी अम्मी को भी कक्षा में साथ ले जाया करते थे।
लगातार तीन महीने तक कक्षा में जाने के बाद सभी ने बुनियादी शिक्षा हासिल की। वह करनाल के साक्षरता अभियान का एतिहासिक क्षण था, जब 1999 में मुरसलीन के परिवार के सात सदस्यों ने नबियाबाद स्थित गुरू नानक उच्च विद्यालय में पांचवीं की परीक्षा दी और उत्तीर्ण हुए। अभियान के दौरान हासिल की गई शिक्षा से परिवार में हौंसले का संचार हुआ है और वे अधिकारियों के सामने बड़ी बेबाकी से अपनी बात रखते हैं। मुरसलीन ने पांचवीं करने के बाद आगे भी पढ़ाई जारी रखी। वह गांव डेरा हलवाना के राजकीय स्कूल में बस्ता टांग कर जाया करता था। बड़ी उम्र के युवक को बस्ता लेकर स्कूल में आता देखकर बच्चे खूब खिलखिलाकर हंसते थे लेकिन मुरसलीन बच्चों को कहता- ‘पढऩे की कोई उम्र नहीं, पढऩे में कोई शर्म नहीं।’ हालांकि $गरीबी व पारिवारिक परिस्थितियों के कारण अपनी औपचारिक शिक्षा वह जारी नहीं रख सका। लेकिन उसने किताबों का दामन नहीं छोड़ा। साथ ही उसने अक्षर सैनिक के रूप में विभिन्न गांवों में साक्षरता की मुहिम जारी रखी। सम्पूर्ण साक्षरता अभियान के बाद 2002 में शुरू हुए उत्तर साक्षरता अभियान में उसे गांव के जन चेतना केन्द्र का संयोजक बनाया गया।
उसने जिला सैनिक रैस्ट हाऊस करनाल में आयोजित नाट्य प्रोडक्शन कार्यशाला में हिस्सा लिया और सफदर नाटक टीम में साक्षरता का संदेश देने के लिए नाटक भी करने लगा। सतत् शिक्षा कार्यक्रम में मुरसलीन ने सहप्रेरक की भूमिका निभाई। अपने कार्यों के लिए वह निरक्षरों व गरीब लोगों का चितेरा बन गया है। परिवार चलाने के लिए वह समय-समय पर राज मिस्त्री, बढ़ई, साईकिल व मोटरों की मुरम्मत, रंग-रोगन, बंटाई पर खेती जैसे अनेक कार्य करता रहता है। लेकिन आज भी साक्षरता के कार्यों में वह लगा हुआ है। उसने हाल ही में मुस्लिम तालीम केन्द्र के संयोजक के तौर पर राष्ट्रीय मुक्त विद्यालय से अपनी पत्नी व पंचायत सदस्य ज़रीना बे$गम सहित 18 निरक्षरों को बुनियादी तालीम की परीक्षा दिलवाई है।
इसी दौरान 2003 में करनाल के कर्ण स्टेडियम में आयोजित विशाल साक्षरता रैली में महामहिम राज्यपाल बाबू परमानंद ने मुरसलीन को अपने परिजनों समेत खुद साक्षर होने और साक्षरता के कार्यों के लिए सम्मानित किया। 2006 में सांसद अरविंद शर्मा ने भी मुरसलीन को प्रशस्ति-पत्र व स्मृति चिन्ह देकर तथा शॉल ओढ़ाकर सम्मानित किया।
मुरसलीन व उनके अब्बू मंजूर अहमद ने दैनिक ट्रिब्यून से बातचीत करते हुए कहा कि पढ़-लिखकर उसके परिवार में आत्मविश्वास आया है। उन्हें सही-गलत का पता चला है। ग्रामीणों को जब विभिन्न समस्याएं पेश आती हैं तो वे बेझिझकर उनके पास आ जाते हैं और वे उनका समाधान करने में लग जाते हैं। उन्होंने कहा कि जिस प्रकार खेती नलाई से संवरती है, उसी प्रकार जिंदगी पढ़ाई से संवरती है। जब सर्च राज्य संसाधन केन्द्र हरियाणा के सलाहकार प्रो. वी.बी. अबरोल, जिला साक्षरता कार्यक्रम के सचिव रहे डॉ. अशोक अरोड़ा और जिला संयोजक रहे महिन्द्र खेड़ा से इस बारे में बात की गई तो उन्होंने कहा कि अभियान में साक्षर होने वाला मो. मुरसलीन साक्षरता का प्रेरक और साहसी सिपाही है।

Tuesday, January 17, 2012

GOVT. PRIMARY SCHOOL, INDRI - A SUCCESS STORY


मुख्यमंत्री स्कूल सौंदर्यीकरण पुरस्कार योजना।
इन्द्री के राजकीय प्राथमिक स्कूल ने पाया पहला स्थान
अरुण कुमार कैहरबा
कौन कहता है कि आसमां में छेद नहीं हो सकता, एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो। शायर की इन पंक्तियों को इन्द्री के राजकीय प्राथमिक स्कूल के अध्यापकों ने सच कर दिखाया है। जिस काम को जिले के कईं स्कूलों में 40 साल में भी अंजाम नहीं दिया जा सका, उसे इस स्कूल में चार साल में ही पूरा कर दिखाया गया है। कभी शहर के कूड़े के ढ़ेर के रूप में पहचान रखने वाले इस स्कूल को मुख्यमंत्री स्कूल सौंदर्यीकरण पुरस्कार योजना के तहत इन्द्री खंड में प्रथम स्थान प्राप्त हुआ है।
शहर की राजकीय प्राथमिक पाठशाला चार वर्ष पहले तक दयनीय हालत में थी। स्कूल का प्रांगण मुख्य सडक़ से कईं फुट नीचे था। जिससे शहर की नालियों का गंदा पानी और बरसात का पानी स्कूल में आया करता था। यही नहीं स्कूल का प्रांगण आवारा पशुओं की शरणस्थली था और आस-पास के लोगों के लिए यह शौच करने की जगह था। स्कूल में चारों ओर झाड़-झंखाड़, पॉलीथीन व कांग्रेस घास का साम्राज्य था। स्कूल की चारदिवारी क्षतिग्रस्त अवस्था में थी, जिससे स्कूल में लोगो व पशुओं की आवाजाही से स्कूल में पढऩे-पढ़ाने का बढिय़ा माहौल नहीं बन पाता था। स्कूल के बीचों-बीच माता के थान बने हुए थे, जिसमें स्कूल समय में ही लोगों की आवाजाही रहती थी। इस स्थान पर लोग टोने-टोटके करते थे, जिससे बच्चों में भी भय का माहौल बना रहता था। स्कूल प्रांगण में बिजली का ट्रांसफार्मर था, जिससे बच्चों को हर समय खतरा बना रहता था। स्कूल मूलभूत सुविधाओं से वंचित था। इसमें विद्यार्थियों की संख्या लगातार कम होती जा रही थी।
इसी दौरान अध्यापक महिन्द्र खेड़ा तबादला होकर इस स्कूल में आए। उन्होंने विशेष अध्यापक ज्ञानचंद के साथ मिल कर स्कूल सुधारीकरण की योजना बनाई। सबसे पहले स्कूल में शहर के गंदे पानी का प्रवेश बंद करवाया गया। समाजसेवी जगदीश गोयल की मदद से माता के थान को स्कूल से स्थानांतरित कर बाहर बनवाया गया। इसके बाद लोगों की मदद लेकर स्कूल में मिट्टी भराव का काम शुरू किया गया। इस काम में इन्द्री के उपमंडलाधीश रहे दिनेश सिंह यादव व उपमंडलाधीश प्रदीप डागर की अगुवाई में प्रशासन, कईं गांवों के सरपंच, जेसीबी संचालक, अध्यापक व दूसरे स्वयंसेवियों का सहयोग लिया गया। लोगों की मदद से करीब पौने दो लाख रूपये की मिट्टी से प्रांगण को समतल बनाया गया। स्कूल में पौधा-रोपण व पौधापोषण अभियान चलाते हुए स्कूल के अध्यापकों व विद्यार्थियों ने दिन-रात मेहनत की। क्यारियां बना कर फूल-पौधे लगाए गए। बदलाव की ऐसी बयार चली कि चार साल बाद सबसे गंदा माना जाने वाला स्कूल खंड का सबसे सुंदर स्कूल बन गया। अतिरिक्त उपायुक्त, एसडीएम व शिक्षा विभाग के अधिकारी जिन्होंने भी इस स्कूल का निरीक्षण किया, वे इसके सौंदर्य से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके। अधिकारियों ने इस स्कूल का चयन मुख्यमंत्री स्कूल सौंदर्यीकरण योजना के तहत किया है। गणतंत्र दिवस के अवसर पर करनाल के कर्ण स्टेडियम में आयोजित होने वाले जिला स्तरीय समारोह में स्कूल को प्रथम पुरस्कार प्रदान किया जाएगा। इस उपलब्धि पर स्कूल के अध्यापकों रणधीर सिंह, अशोक कुमार, मनीष खेड़ा, गोपाल सिंह व विशेष अध्यापक अरुण कुमार ने खुशी का इजहार किया है।


Friday, January 13, 2012

BULBUL NATAY MANCH-LOHRI UTSAV










आंए मत समझो बेटी बोझ.. .. ..
लोहड़ी उत्सव में बेटी बचाने का किया आह्वान।
बुलबुल नाट्य मंच ने सांस्कृतिक प्रस्तुतियां देकर बांधा समां।
अरुण कुमार कैहरबा
कैहरबा गांव में बुलबुल नाट्य मंच द्वारा 13 जनवरी 2012 को बेटी के नाम लोहड़ी मनाई गई। गांव की चौपाल में आयोजित भव्य समारोह में मंच के कलाकारों ने रंगारंग सांस्कृतिक प्रस्तुतियां दी। वरिष्ठ नागरिक हरिचंद गणहोत्रा, बलवंत सिंह व माम चंद सैनी ने लोहड़ी को प्रज्वलित किया। अग्रि के गिर्द घूमते हुए ग्रामीणों ने मत समझो बेटी बोझ, बेटी सै घर का चिराग आदि गीत गाकर बेटियों को बचाने का संकल्प लिया। समारोह की अध्यक्षता मंच के संयोजक गोपाल व साक्षी ने की।
समारोह में सबसे पहले मंच के कलाकारों-अप्सरा, ज्योति, मीना, पूजा, नेहा, निशा, अंजू, मुस्कान, सुनीता, अभिषेक, रविन्द्र, कोमल, दीपा, खुशी, साक्षी, बंसी, गोपाल, पूनम, कमलेश, मंजीत, सुमन, पूजा, मुकेश, दलीप, रजनी, प्रियंका, गुंजन, नरेश, नरेन्द्र व अरुण ने विश्वास गीत गाते हुए इस धरती को मिलकर स्वर्ग बनाने का आह्वान किया। इसके बाद गांव के बच्चों को एकाग्रता के खेल करवाए गए। विभिन्न खेलों में अव्वल रहने वाले बच्चों को पुरस्कार वितरित किए गए। मंच के कलाकारों ने कहा कि समाज में नए समय के अनुकूल नई परंपराएं और रीतियां विकसित करने की जरूरत है। कार्यक्रम का संचालन करते हुए रंगकर्मी नरेश नारायण ने कहा कि आज लड़कियों की घटती संख्या को देखते हुए लोहड़ी को बेटियों को समर्पित रखा गया है। उन्होंने कहा कि नाट्य मंच एक नई शुरूआत नाटक की तैयारी में लगा हुआ है जिसमें लड़कियों व महिलाओं को केन्द्र में रखकर समाज को देखने का संदेश दिया गया है।
इस मौके पर सामाजिक कार्यकर्ता हेमंत सैनी ने ग्रामीणों को देश की पहली शिक्षिका सावित्री बाई फुले के बारे में बताते हुए कहा कि उन्होंने ज्योतिबा फुले के साथ मिलकर नारी मुक्ति का संदेश दिया था। उन्होंने कहा कि मौजूदा पूंजीवादी व्यवस्था में उनकी कुर्बानियों को भुला दिया गया है। उन्होंने ग्रामीणों को सावित्री बाई फुले के जीवन से सीखने की अपील की। कार्यक्रम में शहीद सोमनाथ स्मारक समिति से जुड़े सुभाष लांबा, नरेश मीत, गुंजन, गीता शाहपुर व अरुण कुमार ने भी अपने विचार रखे।
इस मौके पर नत्थू लाल पूंडरीक, पंचायत सदस्य श्रीपाल, सुनील, सुनील शर्मा, धर्मेन्द्र, रवि, प्रदीप, सुरेन्द्र, धनीराम जैनपुर सहित अनेक लोग उपस्थित रहे।

Tuesday, January 3, 2012

SAVITRI BAI FULE (3JAN.1831-10 MARCH,1887)


सावित्री फुले जयंती पर विशेष।
लड़कियों की शिक्षा और महिला अधिकारों की योद्धा: सावित्री बाई फुले। पति ज्योतिबा फुले के साथ मिल कर सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ लोहा लियादेश की पहली शिक्षिका व कवयित्री हैं सावित्री।
अरुण कुमार कैहरबा
सावित्री बाई फुले एक समाज सुधारक थी, जिन्होंने ब्रिटिश शासन के दौरान अपने पति ज्योतिबा फुले के साथ मिलकर लड़कियों की शिक्षा और महिला अधिकारों की अलख जगाई। वह देश के पहले बालिका विद्यालय की पहली महिला शिक्षिका है। उन्हें देश की प्रथम महिला शिक्षाविद््, प्रथम कवयित्री तथा महिलाओं की प्रथम मुक्तिदात्री होने का गौरव प्राप्त है। समाज की कुरीतियों के खिलाफ लोहा लेने के लिए उन्हें अनेक प्रकार की यातनाएं सहनी पड़ी लेकिन उन्होंने अपने लक्ष्य से कभी मुख नहीं मोड़ा।
सावित्री बाई का जन्म महाराष्ट्र के सतारा जि़ले में एक सम्पन्न किसान परिवार में 3 जनवरी 1831 को हुआ था। नौ वर्ष की उम्र में उनका विवाह ज्योतिबा फुले के साथ हुआ, जोकि समाज में फैली अज्ञानता के विरूद्ध संघर्ष करने के प्रति संकल्पबद्ध थे। सबसे पहले उन्होंने अपनी पत्नी को पढ़ाने और प्रशिक्षण दिलाने का निश्चय किया। अध्ययन पूरा हो जाने पर सावित्री बाई ने अपने पति के साथ मिलकर 1848 में पुणे में प्रथम बालिका विद्यालय स्थापित किया। उन्होंने अपने पति के साथ मिलकर पुरूष प्रधान समाज में स्त्री शिक्षा और स्त्री मुक्ति को सांस्कृतिक माध्यमों का प्रयोग करते हुए एक मिशन बना दिया। विधवा पुनर्विवाह को मान्यता दिलाने और छूआछूत के खात्मे के लिए सामाजिक बुराईयों के साथ कड़ा संघर्ष किया। रूढि़वादी समाज स्त्री शिक्षा के लिए इस दुस्साहस को सहन करने के लिए तैयार नहीं था। जब वह घर से बाहर निकलती थी तो उसके ऊपर गोबर और पत्थर तक फेंके जाते थे और उसे गालियां दी जाती थी। लेकिन वह स्कूल पहुंच कर बालिकाओं को पढ़ाने में लग जाती थी। परम्परागत सामाजिक अवरोधों के बावजूद उन्होंने अपना प्रयास जारी रखा और एक के बाद एक बालिकाओं के लिए कुल पांच स्कूल खोले। शिक्षा के क्षेत्र में सराहनीय कार्य करने के लिए 1852 में सावित्री बाई और ज्योतिबा फुले को ब्रिटिश शासन द्वारा भी सम्मानित किया।
सावित्री बाई के अन्य काम भी क्रांतिकारी थे। उस समय समाज में बाल विवाह और अनमेल विवाह की कुप्रथाएं भी प्रचलित थी। बड़े-बूढ़ों के साथ नन्हीं बालिकाओं की शादी कर दी जाती थी। बुढ़ापे और बिमारी के कारण पति की मृत्यु के बाद विधवा महिलाओं का जीवन किसी यातना से कम नहीं था। विधवाओं को सजने-संवरने का अधिकार नहीं था। उनके बलपूर्वक बाल काट दिए जाते थे। सावित्री और ज्योतिबा ने विधवा महिलाओं की दुर्दशा को देखते हुए नाईयों को लामबंद किया और नाईयों ने महिलाओं के बाल काटने से मना करते हुए हड़ताल कर दी। यह उस समय इस प्रकार की पहली हड़ताल थी। उन्होंने हर प्रकार के सामाजिक पूर्वाग्रहों और कुरीतियों से लोहा लिया। उस समय दलित समुदाय के लोगों को अछूत समझा जाता था और उन्हें सवर्णों के कूंओं व नलों से पानी लेने का अधिकार नहीं था। उन्होंने छूआछूत का विरोध करते हुए दलितों के पानी के अधिकार के लिए कड़ा संघर्ष किया। ब्रिटिश शासनकाल में सावित्री बाई ने लोकतंत्र की भावना के अनुकूल अन्य क्षेत्रों में भी लोगों का पथ प्रदर्शन किया। एक बार ज्योतिबा फुले ने गर्भवती महिला को आत्महत्या करने से रोका और जन्म के बाद उसके बच्चे को अपना नाम देने का आश्वासन दिया। सावित्रीबाई ने इस फैसले को सहर्ष स्वीकार किया और स्वेच्छा से महिला की प्रसूति में सहयोग देने का भरोसा दिलाया। ज्योतिबा और सावित्रीबाई ने बाद में उस बच्चे को अपना बच्चा स्वीकार किया, जोकि बड़ा होकर डॉक्टर बना। बाद में उसी बच्चे ने ज्योतिबा की चिता को मुखाग्रि देकर बेटे का फर्ज निभाया। इस घटना ने विवाहित जोड़ों के सामने नया क्षितिज खोल दिया। उन्होंने हिन्दू समाज की महिलाओं की शोचनीय दशा को देखते हुए उनके लिए एक प्रसूति गृह स्थापित किया जिसका नाम उन्होंने बाल हत्या प्रतिबंधक गृह रखा।
सावित्री बाई और ज्योतिबा ने मूर्ति पूजा का विरोध किया और किसानों व मजदूरों के हितों की आवाज बुलंद की। उन्होंने उन लोगों के घातक हमले भी सहन किए जिनके भेदभाव और शोषणकारी व्यवहार पर उन्होंने सवाल उठाए थे। ज्योतिबा के देहांत के बाद सावित्रीबाई ने सत्यशोधक समाज की जिम्मेदारी सम्भाल ली और बैठकों की अध्यक्षता करते हुए कार्यकर्ताओं को मार्गदर्शन प्रदान किया।
प्लेग की महामारी की चपेट में आए लोगों की सावित्रीबाई ने अनथक सेवा की। यह कहा जाता है कि वह महामारी के दौरान करीब दो हजार लोगों को हर रोज खाना खिलाती थी। बीमार बच्चों की सेवा करते हुए वह खुद भी प्लेग की चपेट में आ गई और 10 मार्च, 1887 को उनका देहांत हो गया। सावित्रीबाई अपने सामाजिक कार्यों के साथ-साथ कलम की भी धनी थी। उनकी लिखी कविताएं आज भी हमारे लिए प्रेरणास्रोत हैं। उनकी कविताओं की दो पुस्तकें प्रकाशित हुई। एक 1934 में ‘काव्य फुले’ और दूसरी 1982 में ‘बावन काशी सुबोध रत्नाकर’। 10 मार्च 1998 को भारतीय डाक ने उनके योगदान को सम्मानित करते हुए उनकी याद में एक डाक टिकट जारी किया। सावित्रीबाई शिक्षा और समाज सुधार के क्षेत्र में कार्य करने वालों के लिए आज भी एक प्रेरणाा स्रोत हैं।