Thursday, August 29, 2024

BLOCK LEVEL CULTURAL FEST-2024 IN INDRI, DISTT.- KARNAL

 खंड स्तरीय सांस्कृतिक महोत्सव

कला-संस्कृति का क्षेत्र जीवन को आनंददायी बनाने के साथ देता रोजगार: डॉ. गुरनाम

समूह गायन, एकल गायन, लघु नाटिका व रागनी की प्रतियोगिताएं हुई

विद्यार्थियों ने अपनी कला से बांधा समां

इन्द्री, 29 अगस्त
शिक्षा विभाग द्वारा बीईओ कार्यालय इन्द्री के साथ लगते राजकीय मॉडल संस्कृति प्राथमिक पाठशाला के परिसर में सांस्कृतिक महोत्सव धूमधाम से आयोजित किया गया। महोत्सव में कक्षा पांच से आठ और नौवीं से 12वीं कक्षा समूह के विद्यार्थियों ने हरियाणवी समूह लोक गायन, एकल गायन, स्किट, रागनी आदि कार्यक्रमों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। कार्यक्रम की अध्यक्षता बीईओ डॉ. गुरनाम सिंह मंढ़ाण ने की। नोडल प्रभारी की भूमिका बीआरपी रविन्द्र शिल्पी ने निभाई। कार्यक्रम का संयोजन हिन्दी प्राध्यापक अरुण कुमार कैहरबा व बीआरपी कविता कांबोज ने किया। मंच संचालन एबीआरसी शैलजा ने किया। संगीत और रंगमंच के विशेषज्ञ ज्योति सैनी, राहुल और रविन्द्र कुमार ने निर्णायक मंडल की भूमिका निभाई। कार्यक्रम को सफल बनाने में बीईओ कार्यालय सहायक रमेश कांबोज, सुनील कांबोज, कर्मवीर, शिक्षक धर्मवीर, महिन्द्र कुमार, सबरेज अहमद सहित अनेक अध्यापकों और एबीआरसी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। कार्यक्रम के दौरान संगीत शिक्षक संजीव कुमार ने बीईओ को पगड़ी पहनाकर स्वागत किया।

बीईओ डॉ. गुरनाम सिंह मंढ़ाण ने अध्यापकों और विद्यार्थियों को सबोधित करते हुए कहा कि कला और संस्कृति का क्षेत्र जीवन को आनंददायी बनाने के साथ-साथ रोजगार के अवसर भी प्रदान कर रहा है। उन्होंने कहा कि सरकारी स्कूलों में पढऩे वाले छोटे और बड़े सभी विद्यार्थी प्रतिभा की खान हैं। उनकी प्रतिभा को पहचान कर उन्हें विकसित करने का कार्य करना स्कूल प्रशासन और अध्यापकों का सबसे अहम दायित्व है। कार्यक्रम संयोजक अरुण कैहरबा ने कहा कि गायन, वादन, नृत्य, नाटक आदि विधाएं निरंतर साधना की मांग करती हैं। कला प्रतिभाओं को निखारने के लिए सभी को मिलकर कार्य करना होगा। रविन्द्र शिल्पी व रमेश कांबोज ने कार्यक्रम को सफल बनाने में वाले सभी अध्यापकों व कर्मचारियों का आभार ज्ञापन किया।

ब्याना स्कूल की समूह व एकल नृत्य टीम ने पाया पहला स्थान
कक्षा नौ से 12 में समूह लोक नृत्य में राजकीय मॉडल संस्कृति वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय ब्याना की टीम ने पहला, राजकीय कन्या स्कूल की टीम ने दूसरा, मुरादगढ़ टीम ने तीसरा और डबकौली कलां स्कूल की टीम ने सांत्वना पुरस्कार पाया। रागनी में ब्याना स्कूल की महक ने पहला, कलसौरा स्कूल की अक्षरा ने दूसरा, हिनौरी स्कूल के हिमांशु ने तीसरा और कन्या स्कूल की काफी ने सांत्वना पुरस्कार प्राप्त किया। एकल नृत्य में राजकीय स्कूल ब्याना की सोनपरी ने पहला, कलसौरा की काजल ने दूसरा स्थान प्राप्त किया। स्किट में गढ़ीबीरबल स्कूल की टीम ने पहला और हिनौरी स्कूल की टीम ने दूसरा स्थान पाया।  

कक्षा पांचवीं की इकनूर ने गायन में पाया पहला स्थान-
कक्षा पांच से आठ में समूह नृत्य में लडक़ों के राजकीय वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय की टीम ने पहला स्थान पाया। राजकीय स्कूल नन्हेड़ा ने द्वितीय और मुरादगढ़ स्कूल की टीम ने तीसरा स्थान पाया। गढ़ी गुजरान की टीम ने सांत्वना पुरस्कार प्राप्त किया। एकल नृत्य में इन्द्री स्कूल के हरमन ने पहला, टपरियां की अवनी ने दूसरा, गढ़ी गुजरान की तनवी ने तीसरा और गढ़ी गुजरान की ज्योति ने सांत्वना पुरस्कार पाया। रागनी में इन्द्री प्राथमिक पाठशाला की इकनूर ने पहला, इन्द्री लडक़ों के स्कूल के अभिषेक ने दूसरा, पीएम श्री गढ़ीबीरबल स्कूल की कुसुम ने तीसरा और इन्द्री कन्या प्राथमिक स्कूल की जैनिफ ने सांत्वना पुरस्कार पाया।  

HARYANA PRADEEP 30-8-2024


AMAR UJALA 30-8-2024

DAINIK BHASKAR

DAINIK TRIBUNE 30-8-2024

DAINIK JAGMARG




Wednesday, August 21, 2024

DEHATI DUNIYA / WRITER- SHARATCHANDER / BOOK REVIEW BY ARUN KAHARBA


पुस्तक समीक्षा

उपन्यास : देहाती दुनिया
लेखक : शरतचन्द्र
प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स
पृष्ठ-110
मूल्य : रु. 150.
ग्रामीण जीवन की झांकी है शरतचन्द्र का उपन्यास

उपन्यास में गांव में जातिवाद, साम्प्रदायिकता, घटिया दर्जे की राजनीति, गरीबी, कर्ज की समस्याओं को उठाया गया है।

अरुण कुमार कैहरबा  

शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय बांग्ला के बेहद प्रसिद्ध कहानीकार एवं उपन्यासकार हैं। वैसे तो उनके बहुत से उपन्यास बांग्ला से अनुवादित होकर विश्व साहित्य का हिस्सा हो चुके हैं। हम यहां पर उनके बांग्ला उपन्यास पल्ली समाज पर ही चर्चा करेंगे। जिसका श्री रामनाथ सुमन ने देहाती दुनिया के रूप में हिन्दी अनुवाद किया है। उपन्यास ग्रामीण जीवन की झांकी प्रस्तुत करता है। आदर्शवादी आईने से इतर उपन्यास का केन्द्र बिंदु गांव कुंआपुर जातिवाद से बुरी तरह से त्रस्त, साम्प्रदायिकता की भावना से आहत, कुरीतियों व बुराईयों से परेशान, गंदी राजनीति का अड्डा और साम-दाम दंड भेद से ग्रस्त दिखाई देता है।
आम तौर गांव, खेत-खलिहान और संबंधों को भावनात्मक ढ़ंग से देखा जाता है और ग्राम्य जीवन की महिमा गाई जाती है। उपन्यास के मुख्य पात्र रमेश घोषाल की शिक्षा गांव से बाहर शहर में हुई है। शहर में रहते हुए वह अक्सर गांव को इसी तरह से देखा करता था। किताबें पढक़र लोगों से सुन कर और कल्पनाएं करके वह कितनी ही बार सोचा करता था-
‘हमारी बंगाली जाति के पास चाहे और कुछ भी न हो, पर एकांत में बसे गांवों की वह शांति और स्वछंदता तो है जो बहुजनाकीर्ण शहरों में नहीं है। बहुत थोड़े में संतुष्ट रहने वाले ये गांवों के निवासी सहानुभूति से पिघल जाते हैं। एक आदमी के ऊपर दुख पड़ता है तो दूसरा आदमी अपनी छाती लगा देता है और एक आदमी कुछ सुखी होता है तो दूसरा उसके यहां बिना बुलाए ही पहुंच कर आनंद मनाने लगता है। सिर्फ वहीं और उन्हीं सब हृदयों में बंगालियों का वास्तविक ऐश्वर्य अक्षय हो रहा है।’
लेकिन जब वह गांव के यथार्थ से रूबरू हुआ तो उसे बहुत निराशा हुई। गांव का यथार्थ क्या है? भावुक दृष्टि को त्याग दें तो ही हमें सच्चाई का पता चलेगा। समीक्ष्य उपन्यास का मुख्य केन्द्र कुंआपुर गांव है। नजदीकी गांव पीरपुर है, जोकि मुस्लिम बहुल है। दोनों गांव के जमींदार कुंआपुर में ही रहते हैं। शहर से इंजीनियरिंग की पढ़ाई करके रमेश तब गांव में आता है, जब उसके पिता तारिणी घोषाल की मृत्यु हो जाती है। उसके ताऊ का बेटा वेणी घोषाल गांव का महत्वाकांक्षी जमींदार है। चाचा की मृत्यु के बाद वह गांव की सम्पत्ति और राजनीति पर वर्चस्व स्थापित करना चाहता है। उसकी हरसंभव कोशिश है कि अपने चाचा के मृत्यु भोज में कोई भी व्यक्ति शामिल ना हो और रमेश वापिस शहर चला जाए ताकि जमीन-जायदाद पर उसका एकाधिकार स्थापित हो जाए। वह यदुनाथ मुकर्जी की बेटी और उपन्यास की मुख्य महिला किरदार रमा व उसकी मां को उकसाता है कि वे किसी भी सूरत में रमेश के घर ना जाएं।
रमेश के पिता तारिणी कभी रमेश का विवाह रमा से करना चाहते थे। रमा के दिल के किसी कोने में रमेश के प्रति प्रेम है। रमेश की मां रमा के ऊपर स्नेह बरसाती थी। लेकिन रमा की मां अपने मुकर्जी गोत्र को ऊंचा और घोषालों को नीचा मानती है। रमेश जब मृत्यु भोज का सारा कार्यभार रमा को सौंपने के लिए आता है तो वहीं पर उसकी अपने चचेरे भाई वेणी से भी भेंट होती है। रमा की मां रमेश को जली-कटी सुनाती है। यह वेणी की योजना के अनुसार था। इससे वेणी को अपार खुशी होती है। इससे रमेश को एक बात समझ आ जाती है कि कुंआपुर गांव के लोग पिता के श्राद्ध में शामिल नहीं होंगे। हालांकि गोविंद गांगूली व धर्मदास जैसे लोग शामिल होने का दिखावा करते हैं, लेकिन वे वेणी घोषाल की तरफ से तैयारियों में रंग में भंग डालने के लिए कार्यक्रम में शामिल होते हैं। इस बात को वेणी की मां और रमेश की ताई विश्वेश्वरी अच्छी तरह जानती है। वह रमेश के प्रति सहानुभूति रखती है और बातचीत के दौरान वह गांव के सच पर कहती है-
‘बेटा बहुत सी बातें हैं। यदि यहां रहोगे तो आप ही सब जान लोगे। किसी का सचमुच का कुछ दोष या अपराध होता है और किसी पर यों ही झूठ-मूठ अपराध लगा दिया जाता है और फिर मामले-मुकदमों और झूठी गवाही-साखियों के कारण भी बड़ी-बड़ी दलबंदियाँ होती हैं।’
विश्वेश्वरी ने रमेश को सारी सच्चाई बता दी। रमेश पिता के श्राद्ध का बड़ा कार्यक्रम करने के प्रति संकल्पित है। आखिर कार्यक्रम का दिन आ जाता है। गोविंद भट्टाचार्य, पराण हालदार, क्षेन्ती व अन्यों ने बखेड़ा खड़ा कर दिया। जाति के मुद्दे पर ब्राह्मण लोग रमेश को घेरने लगे। ऐसे में विश्वेश्वरी ने मोर्चा संभाला और स्थिति को सख्ती के साथ शांत किया। रमेश की जान में जान आई। उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि ताई विश्वेश्वरी इस तरह स्थिति को संभाल लेंगी। लेकिन रमेश गांव की सारी स्थिति से बुरी तरह आहत है। वे दीनू भट्टाचार्य से गांव में ईष्र्या-द्वेष का कारण पूछते हैं। दीनू कुंआपुर गांव के अलावा अपनी मुनिया के मामा के गांव का हाल सुनाता है कि किस तरह से वहां पर चार दल हैं।
वेणी की मां विश्वेश्वरी ने श्राद्ध भोज में स्थिति को संभाला था। इसी वजह से वेणी रमा की मां से उसे प्रताडि़त करवाता है। यह बहुत ही विचित्र है कि बेटा अपनी राजनीति के लिए मां को भी बख्श नहीं रहा है। गांव की एक प्रकृति है कि यहां कोई भी खबर छुप नहीं सकती है। पुत्र द्वारा मां के अपमान की खबर भी चारों दिशाओं में फैल जाती है।
रमेश द्वरा गांव में स्कूल की दशा सुधारने को लोग सकारात्मक ढ़ंग से लेने की बजाय नकारात्मक ढ़ंग से लेते हैं। रेलवे स्टेशन की तरफ जाने वाली सडक़ की खस्ता हालत को सुधारने की बजाय उम्मीद करते हैं कि यह सब रमेश खुद कर देगा। मंदिर के लिए भी वे रमेश से सहयोग लेना चाहते हैं। लेकिन इसके लिए उसका आदर करने की बजाय मजाक उड़ाते हैं। इस स्थिति से आहत होकर रमेश अपनी ताई विश्वेश्वरी के पास विदाई लेने के लिए जाता है। ताई से बात कर रमेश को समझ आता है- ‘शिक्षा के अभाव के कारण इतने अंधे हैं कि अपने पड़ोसियों के बल का नाश करने को ही अपने बल-संचय का सबसे श्रेष्ठ उपाय समझते हैं, भलाई करते देखकर भी संशय से कंटकित हो जाते हैं। उन लोगों के ऊपर क्रोध करने या चिढऩे से बढक़र भ्रम भला और क्या हो सकता है?’
उसके बाद फिर से रमेश बाबू पूरी प्रतिबद्धता से जनहितैषी कामों की तरफ ध्यान देते हैं। उसके पास कुछ किसान आते हैं, जलभराव के कारण जिनकी खेती को संकट है। वेणी और रमा के खेतों की तरफ से पानी को काटना जरूरी था। लेकिन वहां उनकी मछलियां थी, जिससे उनका थोड़ा नुकसान होता। दोनों ने रमेश के पानी काटने के प्रस्ताव को सिरे से नकार दिया। इसके बाद रमेश ने जबरन पानी तुड़वा दिया। इस मामले में रमेश के व्यक्ति भजुआ को गिरफ्तार कर लिया गया। भैरव की गवाही पर भजुआ छूटा। भैरव ने वेणी के इशारे पर रमेश के घर जाकर नाटक कर दिया। राधानगर निवासी वेणी के चचिया ससुर सनत मुकर्जी ने 11सौ से अधिक रूपये की डिग्र्री करा ली है। अब कोर्ट के सम्मन के मुताबिक यह रूपये उन्हें भरने हैं। रमेश चैक काट कर गोपाल सरकार को हर्जाना भरने का निर्देश देता है। जिस दिन भैरव आचार्य की कोर्ट में पेशी थी, उस दिन रमेश देखता है कि उसके घर में शादी का सा माहौल है। गांव भर के लोगों को बुलाया गया है। लेकिन रमेश को इस बात की खबर तक नहीं। वह उसके घर जाता है तो पता चलता है कि गांव के ब्राह्मणों ने रमेश का बहिष्कार कर रखा है। इसलिए उसे बुलाया नहीं गया है। उसे यह समझते भी देर नहीं लगी कि कोर्ट में डिग्री और हरजाना सिर्फ रमेश को गुमराह करने के लिए था। रमेश भैरव के घर गया और उसके हाथ को पकड़ कर उसे घुमा देते हैं। भैरव और परिवार के सभी सदस्य शोर मचाने लगते हैं। रमेश भैरव से सवाल पूछ रहे थे-ऐसा क्यों किया? शोर सुन लोग इक_ा हो जाते हैं। वेणी भी वहां आता है। लेकिन वह कुछ कह नहीं पाता। वहां पर रमा भीड़ को चीरती हुई आती है और रमेश को भैरव को छोड़ देने और घर जाने का आदेश देती है। तभी रमेश उसे छोड़ कर चला जाता है। वेणी के लिए यह स्वर्णिम अवसर था, उसे जेल भेजने का। रमेश के खिलाफ मुकदमा चलता है, उसमें रमा गवाही देती है। हालांकि रमेश के ऊपर लगाए गए छुरी लेकर भैरव को मारने, डकैती डालने आदि के आरोपों से वह अनभिज्ञता जताते हुए वह कहती है कि रमेश भैरव को मारने आए थे। पुलिस के रजिस्टर में रमेश पर तरह-तरह के आरोप लगाए गए थे। ऐसे में नए मजिस्ट्रेट ने रमेश को छह महीने के सश्रम कारवास की सजा सुनाई और उसके बाद भी पुलिस को उन पर नजर रखने का परामर्श दिया। रमा को कोर्ट में अपना बयान देते हुए भी इस सजा की उम्मीद नहीं थी। उसे लगता था कि सौ-दो सौ रूपये का जुर्माना उस पर लगाया जाएगा। आखिर अपने मन से वह भी रमेश को चाहती थी। रमेश को सजा मिलने के बाद रमा की हालत खराब थी। वह बीमार रहने लगी। दूसरी तरफ सतनाम हाजरा से वेणी व रमा को पता चला कि जब से रमेश जेल गए हैं। तब से कुंआपुर व पीरपुर गांवों के लोग गुस्साए हुए हैं। वे पीरपुर में जाफर के घर पर रोज इक_ा होते हैं। किसी दिन वे बाहर मिल गए तो उन हमला कर सकते हैं। सतनाम बताता है कि पीरपुर के लोग तो रमेश को भगवान की तरह पूजते हैं। उनके नाम पर नमाज अदा की जाती है। अब सारी स्थिति पलटी हुई है। इस सूचना से वेणी घबरा जाते हैं। उन पर हमला भी कर दिया जाता है, जिसकी वजह से वह कईं दिन अस्पताल में रहता है। लेकिन अपनी राजनैतिक चाल को आगे बढ़ाते हुए वह जाफर के घर पर पुलिस की रेड करवाता है। हालांकि रमा लोगों को पहले ही आगाह कर देती है।
जिस दिन रमेश के जेल से छूटने का वक्त आता है, उस दिन वेणी व दोनों गांव के लोग उसे लेने जाते हैं। वेणी हृदय परिवर्तन का नाटक करता है। रमेश को रमा के बयान पर सजा हुई थी, इसलिए वह रमेश को रमा के खिलाफ भडक़ाता है। इसका प्रभाव यह पड़ता है कि वह कईं दिन रमा से बात नहीं करता। बीमारी से बिस्तर पर पड़ी रमा रमेश को बुलाती है और उसे अपनी सारी जायदाद संभालने और भाई यतीन्द्र को अपनी तरह शिक्षित व देशभक्त बनाने का संकल्प लेना चाहती है। रमेश के मन में रमा के प्रति वेणी द्वारा पैदा किया गया वैरभाव था, जिससे वह ना तो रमा को माफ कर पाता है और ना ही उक्त दो जिम्मेदारियों के बारे में कोई संकल्प करता है। इससे रमा बेहद आहत होती है।
उपन्यास का अंत ताई विश्वेश्वरी और रमा के घर छोड़ कर किसी तीर्थ पर जाने से होता है। इस अंतिम समय में ताई रमेश के मन में रमा के प्रति भरे गए वैरभाव को निकाल देती है। लेकिन वह आखिरी क्षण थे। रमेश ताई की चरण रज लेता है।
सत्यकथा पर आधारित यह उपन्यास पाठकों के मन से ग्राम्य समाज की भावुक तस्वीर को निकाल देता है और यथार्थपरक समस्याओं और स्थितियों के प्रति जागरूक करता है। गांव की तेजधार राजनीति और भयावह स्थितियों के कारण ही आज पढ़े-लिखे युवा बड़ी संख्या में गांव को छोड़ कर शहरों की तरफ रूख कर रहे हैं। हालांकि अच्छे पढ़े-लिखे लोगों को गांव में ही रहकर बदलाव की जमीन तैयार करने का आह्वान करता है। रमेश की स्थिति को देखकर यह काम आसान नहीं लगता है। उपन्यास के आखिरी मोड़ पर जब विश्वेश्वरी व रमा दोनों रमेश के कारण गांव में बड़े बदलाव की कल्पना कर रही हैं, ऐसे में भी रमेश वेणी की चालबाजियों का शिकार बना हुआ है। उसके पास गांव व वहां के लोगों के बारे में अपना आकलन नहीं है। बड़े बदलाव को रोकने के लिए वेणी ने हृदय परिवर्तन का स्वांग रच लिया है। हालांकि रमेश के गांव में विकास व बदलाव के लिए किए जा रहे सारे प्रयास अपने आप में ही प्रेरणास्रोत बन जाते हैं। सम्पन्न और प्रभावशाली होने के कारण रमेश के लिए जो कार्य आसान हैं, वे कम संसाधनों वाले पढ़े-लिखे युवाओं के लिए और भी मुश्किल काम हैं। उपन्यास में गांव में मलेरिया के प्रकोप, गरीबी और कर्ज, शिक्षा की हालत और शहरों की स्थिति का भी चित्रण पाठकों को सोचने के लिए मजबूर करता है।


अरुण कुमार कैहरबा
समीक्षक व हिन्दी प्राध्यापक
वार्ड नं.-4, रामलीला मैदान, इन्द्री,
जिला-करनाल, हरियाणा
मो.नं.-9466220145
JAGMARG 18-8-2024


DAILY NEWS ACTIVIST

INDIA'S COMMON CULTURAL HERITAGE

भारत की सांझी सांस्कृतिक विरासत

बहुत व्यापक है भारत का सांस्कृतिक कैनवास: डॉ. एम.एच. कुरेशी

कहा: महत्वपूर्ण है संस्कृति और प्रकृति का रिश्ता

संगोष्ठी में साहित्य, संस्कृति और इतिहास के विद्वानों ने किया विचार-मंथन

अरुण कुमार कैहरबा
डॉ. ओमप्रकाश ग्रेवाल अध्ययन संस्थान, कुरुक्षेत्र द्वारा भारत की सांझी सांस्कृतिक विरासत पर ऑनलाइन संगोष्ठी का आयोजन किया गया। संगोष्ठी में मुख्य वक्ता के रूप में जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय सीएसआरडी के पूर्व प्रोफेसर डॉ. एम. एच. कुरेशी ने मुख्य वक्ता के रूप में बोलते हुए प्रकृति और संस्कृति, भाषा और संस्कृति और भारत की संस्कृति की विविधता आदि को केन्द्र में रखते हुए विस्तार से अपने विचार व्यक्त किए। संगोष्ठी की अध्यक्षता कुुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय इतिहास विभाग के पूर्व प्रोफेसर डॉ. केएल टुटेजा ने की और संचालन संस्थान के अध्यक्ष डॉ. महावीर जागलान ने किया।
डॉ. एम. एच. कुरेशी

डॉ. कुरेशी ने कहा कि विरासत हमें अपने बुजुर्गों से मिलती है। जो चीज हमें दी गई, उसे हमने कैसे संभाला यह विरासत के अंतर्गत ही आता है। उन्होंने कहा कि प्रकृति और संस्कृति का रिश्ता बहुत महत्वपूर्ण है। पहाड़ों को हमने अपनी संस्कृति और धार्मिक सिद्धांतों का आधार बनाया है। कैलाश पर्वत को हमने शिव से जोड़ा है। विष्णु को हमने क्षीर सागर से जोड़ा। हमें दिखाई देता है कि विष्णु के ज्यादा अवतार हैं। राम व कृष्ण सहित कितने ही आराध्य विष्णु के अवतार हंै। नदियों को हमने बहुत महत्व दिया है। नदियों के किनारे ही हमारी बसावट हुई है। जैसे तालाब के किनारे मेंढक़ और जीव इक_े हो जाते हैं। वैसे ही नदियों के किनारे सभ्यताएं विकसित हुई। गंगा को हमने आराध्य माना है। आदि शंकाराचार्य ने गंगा पर बहुत से श£ोक लिखे हैं। रावण ने अपनी अराधना में गंगा के पानी का जिक्र किया है। कितने ही मिथकों में इनका वर्णन है। गंगा में नहाने, नर्मदा के दर्शन करने और ताप्ती के स्मरण मात्र से ही पुण्य मिलता है।
वहीं उर्दू के कवि के अनुसार भगवान और मनुष्य के संवाद में भगवान कहता है कि मैंने तो तुम्हें मिट्टी और पानी से बनी दुनिया दी थी, जिसे तुमने हिस्सों में बांट दिया। मैंने तो तुम्हें मिट्टी में लोहा मिलाकर दिया था। उससे तुमने एक दूसरे को खत्म करने के लिए हथियार बना लिया। मैंने तुम्हें वन व पेड़ और पंछी दिए थे। इसके जवाब में मनुष्य कहता है कि तुमने मिट्टी बनाई, हमने प्याला बनाया। तुमने राख बनाई, हमने चिराग बनाया। तुमने जंगल, पहाडिय़ां और रेगिस्तान बनाए, लेकिन हमने हर तरह के मकान बनाए। हमने कलात्मकता से भरपूर ताज महल से लेकर विभिन्न प्रकार की झोंपडिय़ां व घर बनाए। हमने घर में कमरे, छज्जे और खिड़कियां बनाई। इसमें बहुत विविधता है। औजार, हथियार व उपकरण बनाए हैं। हमने मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे बनाए। सभी के डिजाईन अलग-अलग हंै। हमने सृजन के साथ विभेदन और विशिष्टीकरण किया। विविधता बनाई है।
भाषाएं किसी विशेष धर्म की नहीं होती, सबकी होती हैं-
डॉ. कुरेशी ने कहा कि भारत में 10490 बोलियां और भाषाएं हैं। भाषाएं अभिव्यक्ति का खंडित माध्यम हैं। भाषा के अलावा मनुष्य अपनी अभिव्यक्ति को संपूर्ण बनाने के लिए नृत्य, पेंटिंग और संगीत जैसी कलाओं का प्रयोग करता है। पंजाब से लेकर बंगाल तक भाषाओं की विविधता कमाल की है। उर्दू को मुसलमानों की भाषा माना जाना हास्यास्पद है। यदि ऐसा होता तो कुंवर महेन्द्र सिंह, राजेन्द्र सिंह बेदी, गोपी नाथ नारंग सहित कितने ही हिन्दू लेखकों की भाषा उर्दू ना होती। उन्होंने कहा कि भाषाएं सभी की होती हैं। जैसे संगीत किसी एक समुदाय का नहीं होता, सभी का होता है। उन्होंने कहा कि अंग्रेजों ने विकास के नाम पर कलकत्ता को हब के रूप में विकसित किया। यूपी के बहुत बड़े हिस्से के मर्द अपनी पत्नियों को छोड़ कर कलकत्ता जाते थे। इससे एक विधा विकसित हुई-बिरहा। जो लोग पीछे छूट जाते थे, वे बिरहा गाते थे। भिखारी ठाकुरी बिरहा के बहुत बड़े गायक बने। रेलिया बैरन पिया को लिए जाए रे। इतनी बारिश हो कि टिकट ही गल जाए। जौने साहबिया के हमार घर नौकर, साहब मर जाए रहे। कजरी भी एक ऐसी विधा है, जो हमारी मनोदशा को दर्शाती है। पड़ गए झूले, इस रितू आई रे। उन्होंने कहा कि बांगला में टैगोर और नजरूल इस्लाम को समान रूप से इज्जत मिली। बंटवारे के बाद कहा जाने लगा कि इधर भी बंगाल और उधर भी बंगाल। उन्होंने कहा कि सांस्कृतिक विविधता हमारी धरोहर है। बंगाल में बाऊल परंपरा है। बाऊल का मतलब है-पागल। वह सूफी है। अमीर खुसरो कहते हैं- मुझे नहीं मालूम है कि जब मैं अपने गुरु को देखता हूं तो क्यों नाचने लग जाता हूँ। नाचना दिमागी मंथन के समान है। जिस आध्यात्मिकता को हम धारण करते हैं, वह अनुभवपरक है, यह प्रयोगात्मक नहीं है। उन्होंने कहा कि हमारा सांस्कृतिक कैनवास बहुत व्यापक है। इसे समेटना बहुत बड़ी चुनौती है। मनुष्य की क्षमता अपार है।
आज अर्थसत्ता ने वर्चस्व स्थापित किया-
डॉ. एम. एच. कुरेशी ने अपने वक्तव्य को आगे बढ़ाते हुए कहा कि तीन तरह की सत्ताएं होती हैं। ज्ञान सत्ता, राज सत्ता और अर्थ सत्ता। ये सत्ताएं विभिन्न कालों में ऊपर-चीने होती रहती हैं। कभी ज्ञान सत्ता सबसे बड़ी थी। उसके नीचे राज सत्ता आती थी। उसके बाद अर्थ सत्ता आती थी। समय बदला राज सत्ता ऊपर चली गई। अकबर ने सारे ज्ञानियों को नौ रत्न बनाकर अपने दरबार में रख लिया। राज सत्ता सर्वोपरि हो गई। आज के जमाने में अर्थ सत्ता सबसे ऊपर है। उसके नीचे राजसत्ता और सबसे नीचे ज्ञान सत्ता आ गई है। सत्ताएं बदलती रहती हैं। यह हमारी संस्कृति का हिस्सा है कि हम सत्ताओं से कैसे संवाद करते हैं। जब क्षेत्रीय संदर्भ में हम संस्कृति व कलाओं को देखते हैं। परंपरागत ज्ञान को ग्रहण करके अपने विचारों को व्यक्त करना महत्वपूर्ण कार्य है। इस चुनौती को कबीर ने स्वीकार किया-
अजगर करे ना चाकरी, पंछी करे ना काम,
दास मलूका कह गए, सबके दाता राम
कबीर ने उस धारणा को भी चुनौती दी कि काशी में मरने से स्वर्ग में जाते हैं। उन्होंने मगहर में जाकर मरना स्वीकार किया और समाज में व्याप्त भ्रांतियों को तोडऩे का प्रयास किया। कुरेशी ने कहा कि हम संस्कृति बनाते भी हैं, उसे अपनाते भी हैं और उसे समझने की कोशिश भी करते हैं। यह हमारे पूर्वजों ने हमें दी है। धरोहर एक बहुत बड़ी दौलत है। सांझी संस्कृति को हमें आगे बढ़ाते रहना है।
प्रतिभागियों के सवाल एवं टिप्पणियां-
मुख्य वक्ता के संबोधन के बाद संगोष्ठी के प्रतिभागियों ने अपने टिप्पणियां और सवाल किए। सूरजभान भारद्वाज ने कहा कि हिंदुस्तान की संस्कृति की विविधता का कोई जवाब नहीं है। पहले कूआं खोदते हुए कस्सी से पहला ढ़ेला खोदा जाता था और उसे ख्वाजा खिज्र कहते थे। बाद में वहां पर ब्राह्मण को बुलाया जाता है और वह पूजा करता थे। जितने भी हमारे देवता हैं, वे कितने ही मुस्लिम पृष्ठभूमि से हैं। बीएस मलिक ने कहा कि आज संस्कृति के सांझेपन को को समाप्त किया जा रहा है। बाहर संस्कृति का बंटवारा करने वाले हैं। सांझी संस्कृति वाले ड्राईंग रूम में सिकुड़े हैं। आरबी भगत ने कहा कि मिली जुली संस्कृति को तोडऩे के लिए काफी लंबे समय से प्रयास किए जा रहे हैं। संस्कृति पहचान से जुड़ गई है। पहचान की राजनीति हो रही है। यह राजनीति संस्कृति की तरफ मुड़ गई है। संस्कृति को शुद्ध, स्थिर और ठोस बताया जा रहा है। पहचान और बंटवारे की राजनीति का मुकाबला मुकाबला कैसे हो? राजेश बिंद्रा ने सवाल उठाया कि सामान्य व्यक्ति की तरह से हमें क्या करना चाहिए। सांझी संस्कृति की बयार बहाने के लिए क्या व्यवहारिक गतिविधियां की जानी चाहिएं? प्रो. टीआर कुंडू व सुचित्रा सेन ने कहा कि कोई भी संस्कृति फासीवादी नहीं होती है। संस्कृति परिवर्तनशील होती है।
प्रो. कुरेशी ने अपने जवाब में कहा कि संस्कृति बदलती है। उसमें एक निरंतरता होती है। पहनावे में कितने बदलाव हुए हैं। एक समय की संस्कृति को बेहतर नहीं कहा जा सकता। पुराने जमाने के लोगों का खाना-पीना और रहना अब बदल गया है। कच्चे घरों के स्थान पर पक्के घर बन गए हैं। हर गांव का एक ग्राम देवता होता है। हर एक वंश का कुलदेवता होता है। उन्होंने कहा कि सांस्कृतिक निरंतरता रहेगी, उसमें बदलाव होते रहेंगे। माहौल बदलेगा। प्रवासन भी होगा। माइग्रेशन में हम कुछ चीजें अपनी लेकर चलते हैं, कुछ चीजें नए स्थान पर जाकर अपनाते हैं। भूगोल का संस्कृति पर प्रभाव पड़ता है। हम कैसे व्यवसाय में हैं, कैसे माहौल में रहते हैं तो यह हमें प्रभावित करता है। विविधताएं रहेंगी और इनके साथ हमें रहना है।
प्रो. केएल टुटेजा

अपने अध्यक्षीय संबोधन में प्रो. केएल टुटेजा कहा कि डॉ. कुरेशी द्वारा संस्कृति को प्रकृति से जोडऩा अद्भुत है। उन्होंने सांझी संस्कृति व परंपरा के विभिन्न चरण रखे हैं। महत्वपूर्ण है कि संस्कृति एक प्रक्रिया है। यह प्रक्रिया चलती रहती है। जब संस्कृति को स्थिर करके उसे थोंपे जाने की कोशिश होती है तो वह इतिहास की प्रक्रिया को रोकना है। उन्होंने कहा कि 1860 से पहले भाषाओं को धर्म से नहीं जोड़ा जाता था। हिन्दी के पढऩे वालों की संख्या बहुत कम थी और उर्दू के पढऩे वालों की संख्या बहुत अधिक थी। भाषा को धीरे-धीरे धर्म के साथ जोड़ा जाने लगा। आधुनिक समाज में ब्रिटिश समय से परिवर्तन हो रहा है। ब्रिटिश काल में ही हमें हिंदू, मुस्लिम, सिख पहचान दे दी गई। उन्होंने कहा कि संस्कृति विशिष्ट नहीं होती, यह मिली-जुली हुई होती है। उन्होंने कहा कि आज संस्कृति के नाम पर जो मिथ्याकरण हो रहा है, बुद्धिजीवी के रूप में संस्कृति की तासीर को समझते हुए उसे आम जन में व्याख्यायित करने की जरूरत है।
मुख्य व्याख्यान से पूर्व डॉ. महावीर जागलान ने मुख्य वक्ता का परिचय कराते हुए कहा कि प्रो. कुरेशी ने 40 साल तक शिक्षण कार्य किया है। 2005 में एनसीईआरटी की भूगोल विषय की पाठ्यपुस्तकों को तैयार करने में उनकी अहम भूमिका रही है। डॉ. ओमप्रकाश ग्रेवाल अध्ययन संस्थान के उपाध्यक्ष सुरेन्द्र पाल सिंह ने संगोष्ठी में शामिल वक्ताओं का आभार व्यक्त करते हुए कहा कि सांझी संस्कृति के बहुत से आयाम हैं। इस विषय पर संगोष्ठियों का सिलसिला भी चलाया जा सकता है। उन्होंने कहा कि आने वाले समय में भी इस प्रकार की संगोष्ठियां की जाएंगी। संस्थान के सदस्य विकास साल्याण ने संगोष्ठी का तकनीकी पक्ष संभाला।

अरुण कुमार कैहरबा
हिन्दी प्राध्यापक एवं स्वतंत्र पत्रकार
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HARYANA PRADEEP 19-8-2024

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