Wednesday, January 27, 2021

SHERE PUNJAB LALA LAJPAT RAI

 जयंती विशेष

आजादी की लड़ाई के अग्रणी नायक शेरे-पंजाब लाला लाजपत राय

अपने विचारों व कार्यों से कांग्रेस को दिया नया जोश

पंजाब नेशनल बैंक, लक्ष्मी बीमा कंपनी व डीएवी संस्थाओं के संस्थापक के रूप में निभाई महत्वपूर्ण भूमिका

अरुण कुमार कैहरबा

आजादी की लड़ाई में एक से बढक़र एक वीर व क्रांतिकारियों ने अपनी शहादत दी है। उन शख्सियतों के जीवन और संघर्षों पर नजर डालें तो हैरानी भी होती है और रगों में जोश भी भरता है। उन्हीं क्रांतिकारियों में से एक शेरे पंजाब व पंजाब केसरी के नाम से विख्यात लाला लाजपत राय हैं, जोकि बहु आयामी शख्सियत के मालिक हैं। वे जहां आजादी की लड़ाई में अंग्रेजों के साथ लोहा ले रहे थे। वहीं आर्य समाज व अन्य संस्थाओं के साथ जुड़ कर शिक्षा व समाज सुधार के लिए उल्लेखनीय कार्य कर रहे थे। अखबार व पत्रिकाएं निकाल कर आजादी के संदेश को जन-जन तक पहुंचाने में लगे थे। साईमन कमीशन के विरोध में आंदोलन के दौरान अंग्रेजी सरकार की लाठियों से घायल होने के बाद वे शहीद हो गए। उन्होंने कहा था कि मेरे शरीर पर पड़ी एक-एक लाठी अंग्रेजी शासन के ताबूत पर आखिरी कील साबित होगी। ऐसा ही हुआ और उनकी शहादत के बाद अनेक क्रांतिकारियों ने उसका बदला लेने के लिए कमर कस ली।
लाला लाजपत राय का जन्म 28 जनवरी, 1865 को गांव दुधिके में अपने ननिहाल में हुआ था। यह गांव अब पंजाब के मोगा जिले में पड़ता है। उनके अध्यापक पिता मुंशी राधाकृष्ण लुधियाना के जगरांव कस्बे में रहते थे। राधाकृष्ण उर्दू और फारसी के अच्छे जानकार थे और इस्लामी धार्मिक रीति-रिवाजों व धार्मिक अनुष्ठानों के अध्येता थे। लाला लाजपत राय को अपने वैश्य अग्रवाल पिता और सिक्ख माता गुलाब देवी से संस्कार मिले। 70 के दशक के अंत में पिता का तबादला रेवाड़ी में हो गया। रेवाड़ी के राजकीय स्कूल में ही उनकी प्रारंभिक पढ़ाई हुई। लाहौर में राजकीय कॉलेज से उन्होंने एफए व मुख्तारी की पढ़ाई साथ-साथ की। यहीं पर वे आर्य समाजी लाला साईंदास व लाला मदन सिंह के संपर्क में आए और आर्य समाज से जुड़ गए। जगरांव में उन्होंने मुख्तारी शुरू कर दी। लेकिन छोटा कस्बा होने के कारण आगे बढऩे की संभावना कम थी। वकालत की पढ़ाई के लिए वे रोहतक आ गए और 1885 में वकालत की पढ़ाई सफलता से पूरी की। 1886 से 1892 तक हिसार में वकालत की। यहां पर वे कांग्रेस की गतिविधियों में हिस्सा लेते हुए कांग्रेस के सक्रिय सदस्य बन गए थे। यहीं से वे अपने तीन अन्य साथियों के साथ 1888 में कांग्रेस के इलाहाबाद अधिवेशन का हिस्सा बने। वे हिसार नगरपालिका के सदस्य भी चुने गए थे और नगरपालिका के पहले भारतीय सचिव बने थे। लोगों पर उनका प्रभाव इतना गहरा था कि वे मुस्लिम बहुल इलाके से चुने गए थे। लाला जी आधुनिक हिसार के विकास के सूत्रधार थे। उनके कार्यकाल में हिसार में ईंटों की पहली पक्की सडक़ बनी थी। हिसार में ही उन्होंने शादी करवाई। हिसार की जैन गली निवासी राधा रानी उनकी जीवन संगिनी बनी। 1892 में लाला लाजपत राय ने फिर से लाहौर की ओर रूख किया।
आजादी की लड़ाई के साथ ही मोर्चा चाहे सामाजिक हो या शैक्षिक, लाला लाजपत राय पीछे नहीं रहते थे। 30 अक्तूबर, 1883 को स्वामी दयानंद के देहांत के बाद 9नवंबर को लाहौर में एक शोक सभा का आयोजन किया गया। शोक सभा में यह निर्णय किया गया कि स्वामी जी की याद में एक ऐसा महाविद्यालय स्थापित किया जाए, जिसमें वैदिक संस्कृति के साथ ही आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा दी जाए। अन्य आर्य समाजी नेताओं के साथ में लाला जी ने संस्थान स्थापित करने के लिए अथक मेहनत की। लाहौर में 1886 में पहले दयानन्द एंग्लो वैदिक संस्थान (डीएवी) की स्थापना की गई। इसके बाद डीएवी स्कूलों की स्थापना और प्रचार-प्रसार के लिए भी उन्होंने प्रयास किए। 1897 और 1899 में अकाल व समय-समय पर आई आपदाओं के समय पीडि़तों की मदद के कार्यों में लाला लाजपत राय अग्रिम मोर्चे पर रहे। अंग्रेज लेखक विन्सन ने लाला जी के स्वभाव व सेवाभाव की तारीफ करते हुए कहा था- लाजपत राय के सादगी और उदारता भरे जीवन की जितनी प्रशंसा की जाए कम है। उन्होंने अशिक्षित गऱीबों और असहायों की बड़ी सेवा की थी। इस क्षेत्र में अंग्रेजी सरकार बिल्कुल ध्यान नहीं देती थी।
लाला लाजपत राय ने देश के विकास के लिए व्यापार और उद्योग के विकास पर जोर दिया। उन्होंने कांग्रेस को अपने वार्षिक अधिवेशनों के दौरान औद्योगिक सम्मेलन आयोजित के भी सुझाव दिए। उन्होंने पंजाब नेशनल बैंक और लक्ष्मी बीमा कंपनी जैसी आर्थिक संस्थाओं की स्थापना की। साथ ही उन्होंने भारतीय व्यापारियों द्वारा निर्यात को बढ़ावा देने के लिए स्वदेशी संगठनों की स्थापना का पक्ष लिया, क्योंकि प्रतियोगिता के अभाव में ब्रिटिश उद्यमी भारी मुनाफा कमा रहे थे। उन्होंने छात्रों के राजनीतिक प्रशिक्षण के लिए तिलक स्कूल ऑफ पॉलिटिक्स की स्थापना की और देश के लिए निस्वार्थ भाव से काम करने का संकल्प करने वाले सदस्यों को भर्ती करने और प्रशिक्षित करने के लिए सर्वेंट ऑफ दा पीपुल सोसाइटी की स्थापना की। उन्होंने जातीय व साम्प्रदायिक लड़ाई लडऩे की बजाय गरीबी और अज्ञानता के विरूद्ध एकजुट होकर लड़ाई लडऩे की जरूरत पर बल दिया।
लाला लाजपत राय ने लोकमान्य बालगंगाधर तिलक व विपिन चन्द्र पाल के साथ मिलकर कांग्रेस में गर्म दल को जन्म दिया। तीनों की यह तिकड़ी इतिहास में लाल-बाल-पाल के नाम से मशहूर हुई। इसने कांग्रेस में प्रखर अभिव्यक्ति और आजादी के उग्र आंदोलन की जरूरत रेखांकित की। इससे पहले कांग्रेस पार्टी साल में एक बार अधिवेशन करने और शांतिपूर्ण ढ़ंग से अपनी मांगें रखने वाले लोगों का समूह था। लाला जी ने कांग्रेस के 1907 में हुए सूरत अधिवेशन में गर्म दल की विचारधारा का सूत्रपात किया। इससे पहले उन्होंने बंग-भंग का कड़ा विरोध किया। 1907 में ही जब किसान अपने अधिकारों के लिए उग्र हुए तो अंग्रेजी सरकार ने गुस्सा उतारते हुए लाला जी व स. अजीत सिंह को बर्मा के मांडले में नजरबंद कर दिया। सरकार के इस फैसले का जोरदार विरोध हुआ और सरकार को अपना फैसला वापिस लेना पड़ा। उन्होंने 1920 में गांधी जी द्वारा शुरू किए गए असहयोग आंदोलन का पंजाब में नेतृत्व किया। लेकिन आंदोलन को अचानक वापिस लिए जाने के प्रति उन्होंने रोष जताया। अंग्रेजी सरकार के शिक्षण संस्थानों का विरोध, विदेशी वस्तुओं व अदालतों का बहिष्कार, शराब के विरूद्ध आंदोलन, चरखा व खादी के प्रचार प्रसार के कामों में नेतृत्वकारी भूमिका निभाई। उन्होंने स्वराज पार्टी व नेशनलिस्ट पार्टी का गठन किया। अपने अमेरिका प्रवास के दौरान उन्होंने होमरूल लीग की स्थापना की। उन्होंने कईं बार ब्रिटेन व अमेरिका की यात्रा की और वहां पर भारतीयों की स्थितियों व अंग्रेजी शासन की क्रूरताओं से लोगों को अवगत करवाया।
संवैधानिक सुधारों पर चर्चा के लिए 1928 में साइमन कमिशन भारत आया। कमिशन में कोई भारतीय प्रतिनिधि नहीं होने के कारण भारतीय नागरिकों का गुस्सा भडक़ गया। देश भर में विरोध-प्रदर्शन होने लगे। 30 अक्तूबर के दिन लाहौर के विरोध-प्रदर्शन में लाला लाजपत राय आगे-आगे थे। पुलिस अधीक्षक जेम्स ए.स्कॉट ने मार्च को रोकने के लिए लाठी चार्ज का आदेश दे दिया। पुलिस ने लाजपत राय की छाती पर निर्ममता से लाठियां बरसाईं। बुरी तरह जख्मी हुए लाला लाजपत राय का 17 नवंबर, 1928 को निधन हो गया। लाला जी की मृत्यु से पूरे देश में गुस्सा फैल गया। भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव व चन्द्रशेखर आजाद सहित क्रांतिकारियों ने इस मौत का बदला लेने का निर्णय किया। उनकी मृत्यु के एक महीने बाद 17 दिसंबर को कार्रवाई करते हुए भगत सिंह व  राजगुरु ने स्कॉट पर गोली चलाई, लेकिन निशाना चूक जाने से गोली सहायक पुलिस अधीक्षक जॉन पी. सांडर्स को लगी। सांडर्स की हत्या के इल्जाम में भगत सिंह, राजगुरू व सुखदेव पर लाहौर षडयंत्र केस चला गया और उन्हें फांसी की सजा दी गई। देश को आजाद करवाने की लड़ाई ने गति पकड़ ली। महात्मा गांधी जी ने कहा था-‘भारत के आकाश पर जब तक सूर्य का प्रकाश रहेगा, लाजपत राय अमर रहेंगे।’
उच्च कोटि के राजनैतिक नेता, समाज सुधारक व संस्थाओं के जनक होने के साथ-साथ वे स्वतंत्र सोच के पत्रकार, संपादक, आजस्वी लेखक व प्रभावशाली वक्ता भी थे। जेलों में रहते हुए विशेष रूप से उन्होंने समय का सदुपयोग अध्ययन करके किया। उन्होंने यंग इंडिया नामक मासिक पत्रिका निकाली। जन जागृति व देश प्रेम पर आधारित उनकी पुस्तक ‘तरुण भारत’ पर ब्रिटिश सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया था। उन्होंने स्वराज के संदेश को जन-जन तक पहुंचाने के लिए ‘पंजाबी’, ‘वंदे मातरम’, ‘द पीपुल’ समाचार-पत्रों की स्थापना की। उन्होंने भारत का इंग्लैंड पर ऋण, भारत के लिए आत्मनिर्णय, नेशनल एजुकेशन, अनहैप्पी इंडिया और द स्टोरी ऑफ़ माई डिपोर्डेशन आदि पुस्तकें लिखीं, जो यूरोप की प्रमुख भाषाओं में अनुदित हो चुकी हैं। लाला लाजपत राय ने उर्दू दैनिक वंदे मातरम में लिखा था-
‘मेरा मज़हब हक़परस्ती है, मेरी मिल्लत क़ौमपरस्ती है, मेरी इबादत खलकपरस्ती है, मेरी अदालत मेरा ज़मीर है, मेरी जायदाद मेरी क़लम है, मेरा मंदिर मेरा दिल है और मेरी उमंगें सदा जवान हैं।’
अरुण कुमार कैहरबा
हिन्दी प्राध्यापक, स्तंभकार व लेखक
वार्ड नं.-4, रामलीला मैदान, इन्द्री,
जिला-करनाल, हरियाणा
मो.नं.-9466220145

VIR ARJUN 28-01-2021

JAMMU PARIVARTAN


DESHBANDHU 28-01-2021

SWADESH 28-01-2021


Sunday, January 24, 2021

हिन्दी की प्रसिद्ध कथाकार कृष्णा सोबती की पुण्यतिथि पर विशेष लेख

 कृष्णा सोबती: विभाजन की त्रासदी की कालजयी कथाकार
JAGAT KRANTI 25-01-2021


अरुण कुमार कैहरबा

भारतीय साहित्य की मशहूर कथाकार कृष्णा सोबती को शरीरी रूप से दुनिया से गए दो साल बीत गए। लेकिन उनका साहित्य अपने शिल्प, भाषा और चरित्रों की वजह से हमेशा चर्चाओं में रहेगा। उनके उपन्यासों, कहानियों, शब्द-चित्रों व संस्मरणों में विषयों व प्रस्तुति की विविधता और भाषा की जीवटता सहज ही पाठकों को अपनी तरफ आकर्षित करती है। 93 साल के जीवन काल में उन्होंने अनेक कालजयी रचनाएं लिखी, जोकि भारतीय साहित्य की अमूल्य निधि है।
कृष्णा सोबती का जन्म 18 फरवरी, 1925 को पश्चिमी पाकिस्तान (अब पाकिस्तान) के गुजरात में हुआ था। उनकी शुरूआती पढ़ाई गुजरात में ही हुई। जब देश का विभाजन हुआ तब वे फतेहचंद कॉलेज लाहौर की छात्रा थीं। उनका परिवार विभाजन की त्रासदी से गुजरा और जन्मभूमि छोड़ कर दिल्ली रहने लगा। उनकी आगामी पढ़ाई दिल्ली व शिमला में हुई। 1948 में लिखी गई उनकी कहानी-‘सिक्का बदल गया’ में उन्होंने विभाजन की पीड़ा को मार्मिक अभिव्यक्ति दी है। इस कहानी में अविभाजित कश्मीर में 65-70 साल की शाहनी अकेली रहती है। उनके पति शाह का देहांत हो चुका है। पढ़ा-लिखा बेटा कहीं बाहर रहता है। उसके सैंकड़ों कारिंदे हैं। मीलों तक फैले गांवों तक उसके खेत हैं। कहानी की शुरूआत शाहनी के चिनाब दरिया किनारे आकर नहाने से होती है। जहां वह पिछले पचास सालों से नहाती आ रही है। इसी दरिया के किनारे एक दिन वह दुल्हन बनकर आई थी। शेरे की मां के मरने के बाद शाहनी ने उसे पाल पोस कर बड़ा किया है। लेकिन विभाजन के दौर में अब शेरा दंगाईयों में शामिल होकर लूटपाट और हत्याओं में लगा हुआ है। शाहनी हवेली लौटती है तो उसे ट्रक आने की सूचना मिलती है। गांव वाले शाहनी की हवेली पर इक_ा होने लगते हैं। शाहनी को भी लगता है कि वक्त आ गया है। थानेदार दाऊद खां शाहनी को लेने आया है। वह शाहनी को सोना-चांदी-नगदी साथ लेने का सुझाव देता है, जिसे शाहनी ठुकरा देती है। दाऊद खां कहता है- ‘शाहनी मन में मैल न लाना। कुछ कर सकते तो उठा न रखते। वक्त ही ऐसा है। राज पलट गया है, सिक्का बदल गया है..।’ कैंप में पहुंच आहत मन से शाहनी सोचती है- ‘राज पलट गया..सिक्का क्या बदलेगा? वह तो मैं वहीं छोड़ आई!’ ‘आसपास के हरे-हरे खेतों से घिरे गाँवों में रात खून बरसा रही थी। शायद राज पलटा खा रहा था और सिक्का बदल रहा था..।’ कहानी में शाहनी की विभाजन से जुड़ी हृदयविदारक पीड़ा को व्यक्त किया गया है।
23 साल की उम्र में कृष्णा सोबती द्वारा लिखी गई यह कहानी उनके कहानी संगह-‘बादलों के घेरे’ में संकलित हुई है। इस संग्रह में जनवरी 1944 में लिखी गई उनकी पहली कहानी-नफीसा भी है, जोकि संभवत: उनकी पहली कहानी है। ‘लामा’ एक साल बाद लिखी गई।
कृष्णा सोबती विभाजन की पीड़ा को खुद झेलने और उसे प्रमाणिक रूप से अपनी रचनाओं में दर्ज करने वाली संभवत: विरली रचनाकार हैं। विभाजन पर कालजयी रचनाएं देने वाले के लिए उन्हें पहली कतार में रखा जाएगा। यशपाल का झूठा-सच, राही मासू रज़ा के आधा गांव और भीष्म साहनी के तमस के साथ-साथ कृष्णा सोबती का उपन्यास ‘जिंदगीनामा’ और ‘गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तान’ एक विशिष्ट उपलब्धि है। ‘सिक्का बदल गया’ सोबती जी की शुरूआती कहानियों में से एक है। आजादी और विभाजन के बाद संभवत: पहली कहानी है। 1979 में उनका उपन्यास जिंदगीनामा आया। जिस पर 1980 में उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया। उनका आखिरी उपन्यास 2017 में ‘गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तान’ आया, यह भी विभाजन से जुड़ा हुआ है। इससे पता चलता है कि विभाजन ने लेखिका को बहुत गहरे तक प्रभावित किया था।
भारत-पाक विभाजन 20वीं सदी की दक्षिण एशिया में हुई सबसे प्रमुख घटना थी। यह सदी की सबसे विध्वंसकारी घटनाओं में से एक थी। मानव इतिहास में इतने बड़े पैमाने पर लोगों का अपनी जड़ों से उखडऩा और उजडऩा संभवत: पहले नहीं हुआ होगा। उसके आंकड़े तो उपलब्ध नहीं हैं, लेकिन अनुमान के अनुसार डेढ़ करोड़ की आबादी का विस्थापन हुआ था। लाखों महिला, पुरूष, बच्चे जान से हाथ धो बैठे। बलात्कार सहित अनहोनी के डर में लड़कियों व महिलाओं ने कूओं में कूद कर जान दी। शरीर के घावों के साथ भावनात्मक चोट से आज भी लोग उबर नहीं पाए हैं। इतनी बड़ी त्रासदी पर कोई कलमकार व कलाकार चुप्पी कैसे साध सकता है। कृष्णा सोबती भी जैसे जीवन भर विभाजन की पीड़ा को मन में लिए अपना साहित्य सफर करती रही। उनकी रचनाएं उस त्रासदी की प्रमाणिक अभिव्यक्ति हैं। गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिन्दुस्तान एक आत्मकथात्मक शैली में लिखा गया उपन्यास है। इस उपन्यास के शुरू में लेखिका घोषित करती हैं कि उपन्यास के पात्र व घटनाएं सच और ऐतिहासिक हैं।
कृष्णा सोबती के पात्रों-मित्रो, साहनी, हशमत, नानबाईयों के मसीहा मियाँ नसीरूद्दीन सहित विभिन्न पात्रों को हमेशा याद रखा जाएगा। कृष्णा सोबती साहित्य में ही नहीं जीवन में भी गहरे सरोकार रखने वाली लेखक थीं। उन्होंने भारतीय लेखकों व सृजन को आगे बढ़ाने के लिए अपनी सारी जमापूंजी और दिल्ली के मयूर विहार इलाके का रिहायशी फ्लैट रज़ा फाउंडेशन के लिए दे दिया था। रज़ा फाउंडेशन के प्रशासक अशोक वाजपेयी का कहना है कि ऐसा कोई दूसरा लेखक नहीं जिसने दूसरे लेखकों व सृजन के लिए इतनी दरियादिली दिखाई हो। 2017 में उन्हें उत्कृष्ट लेखन के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। जीवन के आखिरी समय तक उन्होंने समसामयिक परिस्थितियों पर बेबाकी से अपनी राय रखी। 25 जनवरी, 2019 को वे अपना विस्तृत रचना संसार छोड़ कर दुनिया से विदा हुई।
अरुण कुमार कैहरबा
हिन्दी प्राध्यापक व स्तंभकार
वार्ड नं.-4, रामलीला मैदान, इन्द्री,
जिला-करनाल, हरियाणा
मो.नं.-9466220145
VIR ARJUN 25-01-2021


DAILY NEWS ACTIVIST 25-01-2021

ARTICLE ON BODY DONATION & EYE DONATION

चिंतन

नेत्रदान-देहदान करके अमर बनें जाते-जाते

अरुण कुमार कैहरबा

आज भी हमारा समाज अनेक प्रकार की भ्रांतियों में उलझा हुआ है। जन्म से लेकर मृत्यु तक अंधविश्वास और रूढिय़ां कितने ही मनुष्यों का पीछा नहीं छोड़ती हैं। मनुष्य को सर्वश्रेष्ठ प्राणी कहा गया है। निश्चय ही वह है भी। अपने विचारों, खोजों, आविष्कारों, कार्यों के जरिये वह विकास को नए आयाम देने में लगा हुआ है। दुनिया में आज जो भी तरक्की हम देख रहे हैं, वह मनुष्य की बल-बुद्धि व कार्यों का ही प्रताप है। इसके बावजूद मनुष्य की हठधर्मिता, पिछड़ेपन व रूढि़वादिता के कारण कितनी ही प्रकार की समस्याएं पैदा भी हुई हैं। जिस हवा, पानी, धरती, समाज के बिना मनुष्य का गुजारा नहीं है, विकास की अंधी दौड़ में उनको नुकसान पहुंचाने का आत्मघाती कार्य भी मनुष्य ही कर रहा है।
मृत्यु अंतिम सत्य है। जो आया है, उसे मृत्यु को प्राप्त होना है। मृत्यु के बाद धर्मिक विश्वासों के अनुसार या तो देह को जला दिया जाता है या फिर उसे दफना दिया जाता है। जलाने और दफनाने के साथ और उसके बाद भी कितने ही रिवाज ऐसे हैं, जो परेशान करने वाले हैं। ये रिवाज परिजनों के लिए आत्मीय जन के जाने के दुख को बढ़ाने वाले होते हैं। मृत्यु भोज भी इन्हीं रिवाजों में से एक है। मृत्यु भोज की प्रथा को समाप्त करने के लिए अनेक समाज सुधारकों ने उपदेश दिए हैं। लेकिन लीक पर चलने के आदी हो चुके लोग इससे अलग कुछ सोचने को ही तैयार नहीं हैं।
जहां एक तरफ पशुओं का शरीर, दांत, हड्डियां और खाल भी मृत्यु के बाद मनुष्य के काम आता है, वहीं विकल्प होने के बावजूद मानव देह को मृत्युपरांत जला दिया जाता है। मानव शरीर के कितने ही अंग दूसरों के काम आ सकते हैं। अंधेरी दुनिया में जीवन यापन कर रहे कितने ही लोग नेत्रदान का इंतजार कर रहे हैं। यदि लोग मृत्यु के बाद नेत्रदान का ही संकल्प कर लें तो दुनिया भर में बहुत बड़ी आबादी कोर्निया ट्रांसप्लांट के बाद आंखों की रोशनी प्राप्त कर सकती है। आंखों के अलावा भी अन्य अंग मौत के बाद दूसरों के काम आ सकते हैं। मेडिकल छात्र-छात्राओं की शिक्षा व मेडिकल शोध के लिए भी स्वास्थ्य महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों व अस्पतालों को मानव देह की जरूरत होती है। मृत्यु से पहले देहदान का संकल्प करके हम देह को जलाने व दफनाने से भी बच सकते हैं। यह मानवता को बड़ी देन हो सकती है। लेकिन जाने क्यों हम अपने जीवन में इस बारे में गंभीरता से सोच नहीं पाते हैं।
‘जीते-जीते रक्तदान और मरने के बाद नेत्रदान व देहदान’ किसी भी प्रगतिशील व वैज्ञानिक ही नहीं धार्मिक होने का दिखावा करने वाले समाज का भी मूलमंत्र होना चाहिए। वैसे तो बहुत से लोग मृत्यु के बाद भी अपने साहित्य, कार्यों, विचारों व आविष्कारों के लिए याद किए जाते हैं और किए जाते रहेंगे। लेकिन देहदान व नेत्रदान भी अमरता का एक कारक हो सकता है। इस मार्ग में सबसे बड़ी दिक्कत यही है कि सामाजिक रूप से हमने सोचना या तो बंद कर दिया है या फिर इतना कम कर दिया है कि उसका निर्णायक असर नहीं होता है।

बहुत कम लोग ही व्यक्तिगत रूप से देहदान का संकल्प करते हैं। उन संकल्पों को पूरा करने के मार्ग में अनेक बाधाएं आन खड़ी होती हैं। इस मार्ग में कोरोना महामारी भी एक बड़ी बाधा बनी देखी गई। कुछ दिन पहले एक मित्र की माता जी का देहांत हो गया। उन्होंने मृत्युपरांत शरीर दान का संकल्प कर रखा था। हरियाणा के जिस मेडिकल कॉलेज में शरीर दान का संकल्प किया था, उनके चिकित्सा अधिकारियों से संपर्क किया गया तो उन्होंने कोरोना के कारण शरीर दान प्राप्त करने में असमर्थता जता दी। फिर माता जी की अंतिम इच्छा पूरी करने के लिए एक के बाद एक हरियाणा, पंजाब, चंडीगढ़ व दिल्ली के कईं मेडिकल कॉलेजों व विश्वविद्यालयों से संपर्क किया गया। लेकिन सभी ने शरीर प्राप्त करने से मना कर दिया। आखिर अनुरोध पर एक कॉलेज के अधिकारी शरीर दान प्राप्त करने के लिए आए तो मित्र को सुकून मिला। लेकिन वहीं अंतिम संस्कार के लिए उतावला आस-पास का समाज शोकाकुल परिजनों पर दबाव बनाए हुए था। ये क्या हो रहा है हमारे समाज को। समाज की सोच व विचारों को काठ तो नहीं मार गया है। शरीर दान करने वाले इंसान व परिवार के नेक कार्य के लिए समाज को उनका आभारी होना चाहिए। इसलिए भी कि शरीर दान करके उन्होंने समाज को नेकी की राह दिखाई। क्या इस पहलु पर हम चिंतन-मनन करने के लिए तैयार हैं? 
PRAKHAR VIKAS 24-01-2021

Thursday, January 21, 2021

KISAN MOVEMENT ON DELHI BORDER

 किसान आंदोलन स्थल पर मूलभूत स्वच्छता सुविधाओं का अभाव चिंताजनक

बड़ी समस्याओं से बचने के लिए बातचीत का नतीजा निकलना जरूरी

अरुण कुमार कैहरबा

दिल्ली की सीमाओं पर तीन कृषि कानूनों को रद्द करवाने और न्यूनतम समर्थन मूल्य पर फसलों की खरीद के कानूनी हक के लिए किसानों के आंदोलन को 50 से अधिक दिन हो गए हैं। इतनी लंबी अवधि तक लाखों किसानों की भागीदारी के बावजूद शांतिपूर्ण और लोकतांत्रिक आंदोलन का संचालन इसे ऐतिहासिक बनाता है। खुला सच है कि ऐसे समय में अध्यादेश लाकर उसे कानूनी रूप दे दिया गया जबकि देश ही नहीं दुनिया कोरोना की महामारी से त्रस्त थी। विरोध के बावजूद कानून बनाते समय किसानों के साथ संवाद नहीं किया जाना सवाल खड़े करने के लिए काफी है। आंदोलन स्थल पर किसानों की स्वैच्छिकता एवं जोश कमाल का है। लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि जिस स्थान पर किसान आंदोलन करते हुए ठहरे हुए हैं, वे रहने की जगहें नहीं हैं। वहां पर जल भराव, अस्वच्छता, खुले में शौच, ठोस एवं गीले कचरे के प्रबंध नहीं होने को लेकर जो फोटो एवं सर्वेक्षण सामने आ रहे हैं, वे चिंता में डालने वाले हैं। स्वच्छता की स्थितियां भी सरकार की संवेदनहीनता पर सवाल उठाने एक और बड़ा कारण बन गई हैं।
दिल्ली और हरियाणा चैप्टर के जन स्वास्थ्य अभियान द्वारा 19 से 22 दिसंबर तक किसानों के आंदोलन के पांच स्थानों-सिंघु, टीकरी, शाहजहांपुर, गाजीपुर व पलवल बॉर्डर पर सर्वेक्षण किया गया। सर्वेक्षण में आंदोलन स्थल पर सुविधाओं के अभाव और अस्वच्छता के फैलाव के चिंताजनक आंकड़े सामने आए हैं। सर्वेक्षण में पाया गया है कि आंदोलन में हिस्सा ले रहे लोगों की जरूरत के अनुसार मोबाइल शौचालयों की पर्याप्त व्यवस्था नहीं है। जो शौचालय हैं, उनका रखरखाव भी अच्छी तरह नहीं हो पा रहा है। जिससे बड़ी संख्या में आंदोलनकारी किसानों को खुले में शौच जाने को मजबूर होना पड़ रहा है। सर्वेक्षण में खुलासा हुआ है कि हर पांच में से तीन व्यक्ति खुले में शौच जा रहे हैं। यह कुल आंदोलनकारियों का 57.5 प्रतिशत बनता है। सर्वेक्षण में जवाब देने वाले 10.5 प्रतिशत लोगों ने ही बताया कि आंदोलन स्थल पर इस्तेमाल किए जा रहे शौचालय स्वच्छ हैं। 47प्रतिशत लोगों ने बताया कि शौचालय आंदोलन स्थल से इतना दूर हैं कि उन तक पहुंचने में मुश्किल होती है। शौचालयों के पास रोशनी की समुचित व्यवस्था नहीं है। अंधेरे में उन्हें इस्तेमाल करना मुश्किल होता है। महिलाओं को और ज्यादा मुश्किलें उठानी पड़ रही हैं, क्योंकि अंधेरे में गंदे शौचालयों का इस्तेमाल करना किसी आफत से कम नहीं होता है।
सर्वेक्षणकर्ताओं को कईं महिलाओं ने रिपोर्ट किया कि वे आंदोलन के दौरान कम खाना खा रही हैं और कम पानी पीती हैं ताकि वे टॉयलेट के इस्तेमाल से बच सकें। अपर्याप्त मोबाइल टॉयलेट ने आंदोलनकारियों विशेष रूप से महिलाओं के स्वास्थ्य, पोषण व स्वच्छता के सामने अनेक प्रकार की चुनौतियां खड़ी कर दी हैं। आंदोलनकारियों के शारीरिक ही नहीं मानसिक स्वास्थ्य की समस्याएं भी सामने हैं। वे तनाव, अवसाद व आत्महत्या की प्रवृत्तियों से जूझ रहे हैं। आंदोलन के जल्दी सकारात्मक परिणाम नहीं आने के कारण किसानों द्वारा की गई आत्महत्याएं इसका सबूत हैं कि किस तरह आंदोलनकारी किसानों में घुटन व निराशा बढ़ रही है। आंदोलनकारियों के लिए मानसिक स्वास्थ्य की कोई सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं। हालांकि मनोरंजन के लिए सांस्कृतिक कार्यक्रमों के साथ-साथ अब खेलों आदि के भी आयोजन भी करवाए जा रहे हैं। लेकिन सरकार के रवैये ने किसानों को निराश किया है। किसानों के जोशो-खरोश के बावजूद बहुत से किसानों को लगने लगा है कि सरकार बातचीत का सिर्फ दिखावा कर रही है। उसका समस्या समाधान की तरफ कोई ध्यान नहीं है। बातचीत को लंबी खींचना ही सरकार का ध्येय है। बहुत से किसानों को लगता है कि सरकार बातचीत करते हुए केवल दिखना चाहती है, ताकि विभिन्न मंचों पर कहा जा सके कि सरकार बातचीत कर रही है। इस निराशा से जूझना आंदोलन के समक्ष बड़ी चुनौती है।
आंदोलनकारियों में ही बहुत से स्वयंसेवी व एनजीओ स्वच्छता के काम में लगे हैं। लेकिन लाख चाहने और मेहनत के बावजूद आंदोलन स्थल पर स्वच्छता बनाए रखना आसान कार्य नहीं है। पहले ही कोरोना की महामारी पूरी दुनिया के लिए खतरा बनी हुई है। ऐसे में आंदोलन स्थल  पर अस्वच्छता की तस्वीरें कहीं अन्य किसी बीमारी के फैलने का कारण ना बन जाएं। स्वच्छता के मामले में आंदोलनकारियों की स्वैच्छिक सेवा के साथ-साथ अधिकाधिक प्रशासनिक मदद मिलनी चाहिए। सरकार को भी जल्द ही किसानों की मांगों को पूरा करना चाहिए, ताकि घर पहुंच कर वे खेती-बाड़ी के काम को आगे बढ़ाएं। यह नहीं भूलना चाहिए कि किसान द्वारा खेत में की गई पैदावार से ही पेट भरता है। पंजाबी में कहावत है-पेट ना पईयां रोटियां, ते सभे गल्लां खोटियां। रोटी गूगल से डाउनलोड नहीं हो सकती। किसान अनाज पैदा करेंगे, तभी रोटी बनेगी। बेहतर है कि किसान खेती करें। आंदोलन का रास्ता मजबूरी का रास्ता है। आंदोलन की मजबूरी से किसानों को निकालना और समस्याओं का समाधान करना लोकतांत्रिक देश में सरकार की जिम्मेदारी है।

Saturday, January 16, 2021

VYANGYA मीटिंग की महिमा महान

 व्यंग्य

मीटिंग की महिमा महान

और कुछ हो या ना हो, बस मीटिंगें चलती रहें

अरुण कुमार कैहरबा

मीटिंगों की महिमा महान है। मीटिंगों में बिताया गया एक-एक पल महानता की सीढिय़ों पर चढ़ा सकता है। बताया जाता है कि महान क्रांतियों की नींव छोटी-छोटी मीटिंगों में रखी जाती है। यही मान कर कुछ लोग एक के बाद दूसरी..तीसरी..अनंत मीटिंगों का एक चक्र रचते हैं। एक मीटिंग में अगली मीटिंग का एजेंडा तय होता है। दूसरी मीटिंग में पिछली मीटिंग की समीक्षा और अगली मीटिंग का एजेंडा। पता ही नहीं चलता कि कब मीटिंगों से एजेंडा गायब हो जाता है। मीटिंगों के लिए मीटिंगें होने लगती हैं। मीटिंगों का चस्का लग जाता है। कोई जब महत्वपूर्ण काम करने के लिए कहे तो आप गर्व के साथ उसे जवाब दे सकते हैं-आज मैं मीटिंग में बिजी रहूंगा, इसलिए काम नहीं कर पाऊंगा। क्योंकि काम से ज्यादा मीटिंग महत्वपूर्ण हो जाती है।
मीटिंगें अहम एजेंडे से ध्यान भटकाने का भी जरिया हो सकती हैं। मीटिंगों के जरिये भली-भांति टाईम पास हो जाता है। कुछ हो या ना हो, मीटिंगों से यह लगता रहता है कि काम चल रहा है। कईं दिनों से चल रहे किसान आंदोलन को ही ले लें। किसान तीन कृषि कानूनों को काले कानून बता रहे हैं और तुरंत उसे वापिस लेने की मांग कर रहे हैं। आलोचकों ने जब सरकार पर आरोप लगाए कि सरकार किसानों के साथ बात ही नहीं करती। तो सरकार ने बात करने का ऐलान कर दिया। एक के बाद एक कईं दौर की मीटिंगें हो चुकी हैं। मीटिंग का कोई नतीजा नहीं निकलता। हां, एक मीटिंग में दूसरी मीटिंग की डेट जरूर तय हो जाती है। इन मीटिंगों की सरकार के लिए सबसे बड़ी सफलता यह है कि आलोचकों के मुंह बंद हो गए हैं। आखिर सरकार बात तो कर रही है। मीटिंग तो हो ही रही है।
मीडिया के लोगों को भी काम मिल जाता है। मीटिंग के बाद की खबर होती है-मीटिंग बेनतीजा..अगली मीटिंग.. को। उसके बाद अगली मीटिंग की बातचीत के कयास लगाए जाते हैं। आखिर मीटिंग में क्या हो सकता है? एक तरफ सरकार आंदोलित किसानों की जत्थेबंदियों के साथ मीटिंगें कर रही है। दूसरी तरफ कृषि कानूनों के पक्ष में नई मीटिंगों के लिए किसानों के संगठनों को पंजीकृत करवाकर माहौल बना रही है। अधिक से अधिक मीटिंगें होने पर लगता है कि अधिक से अधिक काम हो रहा है। इसे कहते हैं आम के आम गुठलियों के दाम।
मीटिंगों की सफलता तब अधिक मानी जाती है, जब मीटिंगों में जलपान की व्यवस्था अच्छी हो। इसमें भी किसान आंदोलन ही अपवाद निकला है, जिसमें सरकार के मंत्रियों के साथ मीटिंग में जाते हुए भी किसान नेता लंगर का खाना लेकर जाते हैं। वरना तो सरकार को जरूरतमंद पाकर कितने ही ऐरे-गैरे किसान नेता बनकर जलपान के लालच में ही मंत्रियों के साथ मीटिंग करने जा रहे हैं। इसका सबसे बड़ा फायदा यह हो रहा है कि मंत्री खुद फोटो ले-लेकर ट्वीट कर रहे हैं। दिल्ली किसानों से घिरी हुई है और सरकार किसानों से मीटिंगें कर रही है। समस्या का समाधान नहीं हो रहा, इसमें किसी का क्या कसूर। मीटिंगें तो चल रही हैं। हो सकता है कृषि कानूनों के पक्ष में मीटिंगें करने के लिए सरकार किसान नेताओं की भर्ती निकाल दे। क्योंकि बाकी कुछ हो या ना हो, बस मीटिंगें होती रहनी चाहिएं।  

धरा को फूलों, रंगों और खुश्बू से महकाने में लगे हैं फ्लावर मैन डॉ. रामजी जयमल

हरियाणा सहित कईं राज्यों में लगाए फूल

फूलों की मुहिम पर फिल्म निर्देशक नकुल देव ने बनाई डोक्यूमेंटरी- ‘बिफोर आई डाई’

फिल्म महोत्सवों में फिल्म और जयमल की हो रही चर्चा
DAILY NEWS ACTIVIST 10 JANUARY 2021

अरुण कुमार कैहरबा
फूल लगाएं, आओ धरा को रंगों और खुश्बू से महकाएं। ऐसा ही संकल्प लेकर एक शख्स कईं सालों से फूलों की खेती में जुटा हुआ है। यह खेती निजी लाभ की बजाय पर्यावरण को स्वच्छ और धरा को सुंदर बनाने की है। प्रकृति को माता मान कर उसका सम्मान बढ़ाने में लगा वह शख्स है- हरियाणा के जिला सिरसा के गांव दड़बी निवासी डॉ. रामजी लाल जयमल। अपने ही गांव से शुरू की गई उनकी मुहिम अब पूरे हरियाणा सहित दिल्ली, पंजाब, उत्तर प्रदेश व उत्तराखंड सहित अनेक राज्यों में पहुंच गई है। वे फूल उगाते हैं। फूलों के बीज संग्रहित करते हैं। उन्हें उगाते हैं। फूलों की पौध बांटते हैं। पौध को उगाने में लोगों का मार्गदर्शन करते हैं। इस वर्ष उन्होंने 50 से अधिक किस्म के फूलों के ढ़ाई अरब बीज हरियाणा, उत्तर प्रदेश व पंजाब के विभिन्न स्थानों पर बोए हैं। बीजों की पौध को पौध वितरण उत्सव आयोजित करके बांटा गया।
फ्लावर मैन ऑफ इंडिया के नाम से मशहूर हो चुके डॉ. रामजी के यह स्वैच्छिक प्रयास आगे बढ़ते जा रहे हैं। फिल्मकार व निर्देशक नकुल देव ने उनके कार्य पर चार साल उनके साथ रहते व मेहनत करके डोक्यूमेंटरी फिल्म बनाई है। फिल्म का नाम रखा गया है- ‘बिफोर आई डाई’ यानी मेरे मरने से पहले। फिल्म अन्तर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सवों में शामिल हो रही है। फिल्म का अनेक स्थानों पर प्रदर्शन हो चुका है, जिसे देखकर डॉ. रामजी की पर्यावरण के प्रति साधना व समर्पण के प्रति दर्शकों की आंखें नम हो जाती हैं। उनके दिल में संवेदनशीलता की कोंपलें उगने लगती हैं। फूलों की खेती करने के लिए वे भी उठ खड़े होते हैं।
डॉ. रामजी ने इस लेखक से विशेष साक्षात्कार में बताया कि उन्होंने करीब 14 साल पहले अपने गांव में ऐसे स्थान पर फूल उगाए, जहां पर लोग मरे पशुओं को डालने का काम करते थे। जब वे सार्वजनिक स्थान पर पौध उगा रहे थे, तो लोगों ने उन्हें तरह-तरह की बातें कहना शुरू कर दिया। उनके घरवालों को भी उन्हें समझाने की हिदायत दी गई। कुछ लोग उनसे नफरत भी करने लगे। उन्होंने बताया कि पौधे बड़े होने लगे और ज्यों-ज्यों उन पर फूल उगने लगे तो लोगों की भावनाएं भी बदलने लगी। एक गंदे स्थान पर खिले फूलों ने लोगों का उनके प्रति भाव बिल्कुल बदल दिया। उन्होंने कहा कि फूल केवल दृश्य को ही नहीं बदलते मनुष्य को भी बदलते हैं और उसकी सोच पर सकारात्मक असर डालते हैं।
DAINIK TRIBUNE 16 JAN.2021


डॉ. रामजी ने बताया कि तब से शुरू हुआ उनका यह अभियान लगातार आगे बढ़ता गया है। हालांकि धरा को सुंदर बनाने की मुहिम में अपने सारे आर्थिक संसाधन और ऊर्जा झोंक देने के कारण उनके परिवार में आर्थिक मुश्किलें तो बढ़ती गई। लेकिन उनके समर्पण और इरादों के आगे ये सारी मुश्किलें तुच्छ ही साबित हुई। उन्होंने फूलों से अपने गांव की गलियों के दोनों तरफ खाली पड़ी जमीन पर फूल उगाए। स्कूल के अध्यापकों का कहना है कि जिस स्थान से उठने वाली दुर्गंध पढऩे-पढ़ाने में बाधा बनती थी, अब वहां से फूलों की खुश्बू आती है। धीरे-धीरे आस-पास के गांवों के स्कूल व श्मशान भूमि गुलो-गुलजार होने लगी। करनाल रेंज की पुलिस महानिदेशक भारती अरोड़ा सहित पुलिस अधिकारियों का सहयोग मिला तो जेलों में भी फूल खिलने लगे। डॉ. रामजी की फूलों की मुहिम जेलों का रूखापन सोखने की मुहिम बन गई है। इससे कैदियों का जीवन बदल रहा है। वे फूलों की खेती में लगकर बेहद खूबसूरत और रचनात्मक काम में लग रहे हैं।

खाली जमीनों पर महकने लगे फूल-

पौध उगाने के लिए स्कूल के अध्यापक व किसान उन्हें स्वैच्छिक रूप से जगह मुहैया करवाते हैं। पौध उगाकर उसे लोगों को मुफ्त में ही वितरित किया जाता है। बस शर्त यह रहती है कि पौध लेने से पहले फूलों के चाहवान अपनी क्यारियां बनाकर व जमीन तैयार करके आएं और पौध को बिना खराब किए रोप डालें। उनके प्रयासों से खाली पड़ी जमीनों पर फूल महकने लगे हैं। इस बार करनाल जिला में ही निगदू, रायतखाना, नन्हेड़ा के सरकारी स्कूलों सहित पुलिस महानिदेशक के आवास और जेल में पौध लगाई गई। कैथल व यमुनानगर सहित कईं जिलों की जेलों में या तो फूलों के बीज बोए गए या फिर पौध रोपी गई। करनाल, गुरुग्राम, कुरुक्षेत्र, सिरसा सहित कई जिलों में  पौध वितरण उत्सव आयोजित करके फूलों के करोड़ों पौधे मुफ्त बांटे गए, जिनमें अब फूल खिल गए हैं।
DAINIK PRAKHAR VIKAS 11-01-2021


फूलों के जरिये करते पर्यावरण का संरक्षण-

डॉ. रामजी जयमल बताते हैं कि फूल उगाने का मतलब धरती पर फूल उगाने के साथ-साथ बच्चों व युवाओं के मन में प्रकृति प्रेम के बीज उगाना ही है। उनका मानना है कि फूलों से परिवेश तो सुंदर बनता ही है, लेकिन फूलों के जरिये वे बड़ा लक्ष्य लेकर चलते हैं। वे फूलों के बीच में ही ऐसे पौधे लगाना चाहते हैं, जोकि भविष्य में बड़े होकर पर्यावरण को बड़ा लाभ दें। फूलों के बीच-बीच में वे ऐसे पौधे उगाते हैं, जोकि बड़े पेड़ बनते हैं। लोग फूलों से मुहब्बत करते हैं। तीन-चार महीने की उम्र में लोग फूलों को बार-बार निहारते हैं। इससे उनके मन को सुकून मिलता है। उन्हीं के बीच में लगाए गए पौधे इसी दौरान पूरी खुराक प्राप्त करके कुछ समय के बाद पेड़ के रूप में उभर जाते हैं। इसे हम आम के आम और गुठलियों के दाम भी कह सकते हैं। उनका उद्देश्य पेड़ों से धरती को हरा-भरा बनाना है।

डोक्यूमेंट्री फिल्म-बिफोर आई डाई-

फिल्म निर्माता व निर्देशक नकुल देव ने बताया कि उन्हें डॉ. रामजी के फूल उगाने और बांटने के अभियान के बारे में पता चला तो दिल से प्रकृति प्रेमी होने के कारण इसके बारे में जानने गए। उनके मन में दो-तीन मिनट की कोई प्रचारात्मक सामग्री का निर्माण करके मुहिम में सहयोग करने की इच्छा भी थी। लेकिन जब उन्होंने डॉ. रामजी के प्रयासों व समर्पण को देखा तो उन्हें लगा कि इस पर कुछ अच्छा काम करना चाहिए। उन्हें डॉ. रामजी की सादगी व प्रचार से दूरी ने आकर्षित किया कि किस तरह यह प्रकृति का पुजारी मिट्टी में रम कर फूल उगाता है और फिर उन्हें लोगों को बांट कर खुशियां कमाता है। उन्होंने बताया कि डॉ. रामजी की मुहिम के विविध आयाम जानने के लिए उन्होंने उनके साथ कुछ समय बिताना शुरू किया तो किस तरह से चार साल बीत गए उन्हें भी पता नहीं चला और वे इस मुहिम का अभिन्न हिस्सा बन गए। उसमें से यह डोक्यूमेंटरी-बिफोर आई डाई उपजी है। फिल्म बनाते हुए वे स्वयं भी फूलों के इस शानदार सफर का हिस्सा बन गए हैं। डॉ. रामजी ने बताया कि नकुल देव ने उनकी टपकती छत के नीचे उनके साथ रातें बिताई हैं। उनके साथ ही नमक या चटनी के साथ सूखी रोटी खाई है। फिल्मकार की साधना कम नहीं है।

चारों तरफ हों मोर व गौरैया-

फिल्म में भी बड़े मार्मिक ढ़ंग से दिखाया गया कि किस तरह से घर की जरूरतों की उपेक्षा करते हुए भी उन्होंने फूलों को तरजीह दी। डॉ. रामजी का सपना है कि उनके मरने से पहले चारों तरफ मोर हों। उन्होंने कहा कि लगातार प्रकृति के साथ हो रहे खिलवाड़ के कारण जैव-विविधता पर बुरा असर हुआ है। कुछ वर्षों पूर्व उनके गांव व खेतों में मोर ही मोर दिखाई देते थे। लेकिन धरती से अधिकाधिक दोहन के लिए कीटनाशकों के  अंधाधुंध प्रयोग के कारण मोर कम होते गए हैं। ऐसे में उनके जीवन का बस एक ही सपना है कि धरती मां में जहर ना घोला जाए। उसके कुदरती रूप का संरक्षण हो। मोर, गौरया और मधुमक्खियां लौट आएं। उनका यही सपना फिल्म का शीर्षक बन गया।

बनाया गोबर का गमला-

पोलिथीन पर्यावरण के लिए सबसे बड़ा खतरा है। लेकिन पर्यावरण के लिए उगाए जाने वाले पौधे भी गमलों में उगाए और एक-दूसरे को दिए जाते हैं। सरकारी नर्सरियों में भी पोलिथीन का प्रयोग धड़ल्ले से होता है। इससे दुखी डॉ. रामजी जयमल ने पोलिथीन से मुक्ति पाने का विचार किया तो गोबर के गमले का आविष्कार हुआ। उन्होंने गाय व पशुओं के गोबर से ऐसा गमला इजाद किया, जोकि पौधे को पूरा पोषण देता है। पौधा जब दूसरी जगह लगाया जाता है तो गमले के साथ ही पौधा लगाया जाता है। इससे ना तो पौधों की जड़ें हिलती हैं और ना ही पौधे का कोई नुकसान होता है। बल्कि पोषक तत्वों से भरपूर गमले से पौधे का विकास तेज गति से होता है।

अरुण कुमार कैहरबा
हिन्दी प्राध्यापक, स्तंभकार व लेखक
वार्ड नं.-4, रामलीला मैदान, इन्द्री,
जिला-करनाल, हरियाणा
मो.नं.-9466220145