Tuesday, May 26, 2020

ये क्या हो रहा है?.. ..ऐसा तो नहीं सोचा था!ja


JAMMU PARIVARTAN 26-5-2020

अरुण कुमार कैहरबा
जिस दौर से आज हम गुजर रहे हैं, शायद उसके बारे में पहले किसी ने सोचा भी नहीं होगा। कोरोना वायरस दुनिया के लोगों की जान का दुश्मन बन जाएगा। वायरस से बचने के लिए दुनिया के नामी-गिरामी देशों को लॉकडाउन लगाना पड़ेगा। जहाज, रेल गाडिय़ां, बसें व वाहन नहीं चलेंगे। सडक़ें सुनसान व गांव-शहर वीरान हो जाएंगे। लोग अपने ही घरों में सिमट जाएंगे। लोगों का एक दूसरे से मिलना और इक_ा होना अपराध बन जाएगा। वे एक-दूसरे से कतराते फिरेंगे। सामाजिक एकता व मिलवर्तन के स्थान पर सामाजिक दूरी का प्रचार किया जाएगा। ये शेर तो जरूर सुना था- ‘कोई हाथ भी ना मिलाएगा, जो गले मिलोगे तपाक से, ये नए मिजाज का शहर है जरा फासले से मिला करो।’ लेकिन ऐसा तो नहीं ही सोचा था कि एक दूसरे से गले मिलकर और हाथ मिलाकर अभिवादन करने की बजाय दूरी बनाते हुए हाथ जोड़ कर मुंह को मास्क से ढ़ांपे हुए अभिवादन करने की रिवायत शुरू होगी। एकांतवास व क्वारंटाइन जैसे शब्द हवा में यूं उछाले जाएंगे। शहरों व गांवों को युद्ध स्तर पर सेनिटाइज करने की जरूरत आएगी। ये सारी चीजें अप्रत्याशित रूप से हम होते हुए देख रहे हैं।
DEVPATH 25-5-2020

यही नहीं इसके बारे में भी किसने सोचा होगा कि शासक लोगों को जनता कफ्र्यू के बारे में बताएंगे और घर पर ही रहने की अहमियत समझाएंगे। घर पर ही रह कर पूरी तरह ऊब चुके लोगों को घंटियां, थालियां व बर्तन बजाकर मनोरंजन करने के लिए कहा जाएगा। फिर एक दिन कोरोना को भगाने के लिए नौ बज कर नौ मिनट पर दीप जलाने के लिए कह दिया जाएगा। कुछ लोग इस अपील पर इतने अधिक उत्साहित हो जाएंगे कि वे गलियों में उतर कर उन्माद से भरे नारे लगाते हुए आतिशबाजी करने लगेंगे। बम फोडऩे वाले उन्मादियों के लिए तो शायद कोरोना को भगाने और सबक सिखाने का यही एकमात्र तरीका रहा होगा, लेकिन बाद में वो ही लोग अपने आप को ठगा सा महसूस करेंगे।
कहां किसी ने सोचा था कि फिर से लोगों को भारत-पाक विभाजन के दौरान लोगों के उजडऩे जैसे दृश्य दिखाई देंगे। एक ही देश में एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाकर रोजी-रोटी कमाने वाले मजदूरों को प्रवासी मजदूर बताया  जाएगा। अपनी आंखों में सपने लेकर अपने गांव छोड़ कर शहरों में आए, झोंपडिय़ां व कच्चे मकान बनाकर रह रहे लोगों को अपने से लगने वाले घरों में रोटी नहीं मिल पाएगी। काम छिन जाएगा। सरकारें उनके लिए रोटी का प्रबंध नहीं कर पाएंगी। वे सैंकड़ों किलोमीटर की दूरी पैदल तय करके अपने घरों को जाने को मजबूर होंगे। छोटे बच्चों को गोद में उठाए, सामान की पोटलियों को कंधों पर लटकाए व गर्भवती महिलाओं को साथ लिए जब वे जाएंगे तो रास्ते में कोरोना योद्धा कहलाने वाले पुलिसकर्मी उनका लाठियों से स्वागत करेंगे। देश के विकास की रीढ़ कहलाने वाले मजदूर रेलगाडिय़ों के नीचे दबकर मरेंगे। भूखे मरेंगे। सडक़ों में गर्भवती महिला मजदूरों को बच्चे जनने पड़ेंगे। मजदूरों को ना तो ससम्मान भेजा जाएगा और ना ही जाने दिया जाएगा। उनके रूकने के लिए बहुत से स्थानों पर शिविर बनाए जाएंगे, लेकिन वहां ना तो भरपेट रोटी दी जाएगी और ना ही अन्य सुविधाएं। देश के लाखों लोग बेरोजगार और बेघर-बार हो जाएंगे। जो नेता उनकी वोट पाकर सत्ता की ऊंचाईयों तक पहुंचते हैं, वे नेता उन मजदूरों को इस तरह अपने ही हाल पर छोड़ देंगे।
हालांकि हमारे नेताओं का व्यवहार अप्रत्याशित नहीं है। हमें अनुमान था कि हमारे नेता देश पर आने वाली हर आपदा के समय राजनीति से बाज नहीं आएंगे। कुछ दल और नेता शारीरिक दूरी के स्थान पर लोगों को सामाजिक रूप से बांटने के लिए साम-दाम-दंड-भेद कोई भी तरीका अपनाएंगे। धर्म-सम्प्रदाय को गोटियां बनाकर खेलने में व्यस्त होंगे। ऐसे गहरे संकट के समय में अप्रत्याशित और प्रत्याशित के बीच में कुछ नया सोचने और करने का समय है। क्या हम सोच सकते हैं कि सडक़ों पर मरने के लिए मजबूर हो रहे लोग भी कुछ अप्रत्याशित कर बैठे तो क्या होगा?

Saturday, May 23, 2020

मैं बन्दा हिन्द वालों का हूँ है हिन्दोस्तां मेरा.....करतार सिंह सराभा

भगत सिंह सहित क्रांतिकारियों के प्रेरणापुंज: शहीद करतार सिंह सराभा

अरुण कुमार कैहरबा

सेवा देश दी जिंदड़ीए बड़ी ओखी,गल्लां करनियां ढेर सुखल्लियां ने।जिन्नां देश सेवा विच पैर

पाइयाउन्नां लख मुसीबतां झल्लियां ने।
करतार सिंह सराभा की ये पंक्तियां उनकी सोच, विचारों व कार्यों को दर्शाने वाली हैं। इन पंक्तियों में वे कोरी बातों से आगे बढ़ कर देश की सेवा के लिए लाखों मुसीबतें झेलने के लिए खुद को व युवाओं को तैयार रहने की बात कर रहे हैं। आजादी की लड़ाई में जिन भगत सिंह को शहीदे आजम कहा जाता है, उनके भी करतार सिंह प्रेरणास्रोत रहे। भगत सिंह करतार सिंह की फोटो हमेशा अपने पास रखते थे। जब उन्हें अंग्रेजों ने गिरफ्तार किया था, तब उनकी जेब से सराभा की फोटो मिली थी। भगत सिंह ने अपनी मां को सराभा की फोटो दिखाते हुए कहा था कि यह मेरे हीरो हैं। लेख के शुरू में दी गई करतार सिंह सराभा के गीत की ये पंक्तियां उधम सिंह हमेशा अपनी जेब में रखा करते थे।

भारत को आजाद करवाने और व्यापक परिवर्तन का लक्ष्य लेकर विदेशों में रह रहे भारतीयों द्वारा शुरू किया गया गदर आंदोलन आजादी की लड़ाई में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। इस आंदोलन के अहम किरदारों में से एक हैं-करतार सिंह सराभा। छोटी-सी उम्र में ही उनके मन में भारत को आजाद करवाने की चाह बलवती हो उठी थी। शिक्षा हासिल करने के लिए अमेरिका में गए करतार सिंह वहां आजादी के लिए सक्रिय लोगों के सम्पर्क में आए और गदर पार्टी की नींव रखी गई तो पार्टी के अखबार का जिम्मा करतार सिंह को सौंपा गया। ‘शहीद उधम सिंह की आत्मकथा’ के लेखक सुभाष चन्द्र ने बताया है कि अखबार में सराभा बड़ा दिलचस्प विज्ञापन छापते थे- ‘जरूरत है जोशीले..बहादुर सैनिकों की। तनख्वाह-मौत, इनाम  -शहादत, पेंशन-आजादी, कार्यक्षेत्र-हिंदोस्तान।’


आजादी के सपने को साकार करने के लिए अनेक देशों की यात्रा करते हुए भारत पहुँचे और लोगों को लामबंद करना शुरू किया। क्रांतिकारी सरगर्मियों के कारण करतार ने साढ़े उन्नीस वर्ष की उम्र में ही हंसते-हंसते फांसी के फंदे को चूम लिया और देश के लिए कुर्बान होने वाले वीरों में अपना नाम स्वर्ण अक्षरों में अंकित करवाया।
पंजाब के लुधियाना शहर से करीब 15मील की दूरी पर स्थित सराभा गाँव में करतार सिंह का जन्म 24 मई, 1896 को माता साहिब कौर की कोख से हुआ। करतार के बचपन में ही पिता मंगल सिंह का देहांत हो गया था। करतार सिंह की एक छोटी बहन धन्न कौर भी थी। दोनों बहन-भाइयों का पालन-पोषण दादा बदन सिंह ने किया। करतार के तीन चाचा-बिशन सिंह, वीर सिंह व बख्शीश सिंह ऊंची सरकारी पदवियों पर काम कर रहे थे। करतार की प्रारंभिक शिक्षा लुधियाना के स्कूलों में हुई। बाद में उसे उड़ीसा में अपने चाचा के पास जाना पड़ा। उड़ीसा उन दिनों बंगाल प्रांत का हिस्सा था, जो राजनीतिक रूप से अधिक जागरूक और सरगर्म था। वहां के माहौल में सराभा ने स्कूली शिक्षा के साथ अन्य ज्ञानवर्धक पुस्तकें पढऩा भी शुरू किया। दसवीं कक्षा पास करने के उपरांत उसके परिवार ने उच्च शिक्षा प्रदान करने के लिए उसे अमेरिका भेजने का निर्णय लिया और 1 जनवरी, 1912 को सराभा ने अमेरिका की धरती पर पांव रखा। उस समय उसकी आयु पंद्रह वर्ष से कुछ महीने ही अधिक थी। किताबों से मिली चेतना के बाद अमेरिका जैसे आज़ाद देश में रहते हुए करतार के मन में राष्ट्रीय अस्मिता व आत्मसम्मान के साथ जीने की इच्छा पैदा हुई। एक बुजुर्ग महिला के घर में किराएदार के रूप में रहते हुए, जब अमेरिका के स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर महिला द्वारा घर को फूलों व वीर नायकों के चित्रों से सजाया गया तो सराभा ने इसका कारण पूछा। महिला के यह बताने पर कि अमेरिका के स्वतंत्रता दिवस पर नागरिक ऐसे ही घर सजा कर खुशी का इज़हार करते हैं तो सराभा के मन में भी यह भावना जागृत हुई कि हमारे देश की आज़ादी का दिन भी होना चाहिए।

अमेरिका में उन दिनों गोरे लोगों के नस्लीय भेदभाव से दुखी भारतीय मज़दूरों को संगठित करने के प्रयास चल रहे थे। करतार सिंह इस काम में लगे बाबा सोहन सिंह भकना, हरनाम सिंह टुंडीलाट व काशीराम व ज्वाला सिंह ठ_ीआं के सम्पर्क में आए। ज्वाला सिंह की प्रेरणा से वे बर्कले विश्वविद्यालय के विद्यार्थी हो गए। इस विश्वविद्यालय में पढ़ रहे भारतीय विद्यार्थी दिसंबर, 1912 में लाला हरदयाल के संपर्क में आए, जो उन्हें भाषण देने गए थे। लाला हरदयाल ने विद्यार्थियों के सामने भारत की गुलामी के संबंध में काफी जोशीला भाषण दिया। लाला हरदयाल और भाई परमानंद के विचारों से प्रभावित होकर धीरे-धीरे सराभा के मन में देशभक्ति की तीव्र भावनाएं जागृत हुईं और वह देश के लिए मर-मिटने का संकल्प लेने की ओर अग्रसर होने लगा।
ARTH PARKASH
21 अप्रैल, 1913 को कैलिफोर्निया में रह रहे भारतीयों ने एकत्र हो एक क्रांतिकारी संगठन गदर पार्टी की स्थापना की। गदर पार्टी का मुख्य उद्देश्य सशस्त्र संघर्ष द्वारा भारत को अंग्रेजी गुलामी से मुक्त करवाना और लोकतांत्रिक सरकार की स्थापना करना था। 1 नवंबर, 1913 को इस पार्टी ने गदर नामक एक समाचार पत्र का प्रकाशन करना प्रारंभ किया। यह समाचार पत्र हिंदी और पंजाबी के अलावा बंगाली, गुजराती, पश्तो और उर्दू में भी प्रकाशित किया जाता था। गदर का सारा काम करतार सिंह ही देखते थे। यह समाचार पत्र सभी देशों में रह रहे भारतीयों तक पहुंचाया जाता था। इसका मुख्य उद्देश्य अंग्रेजी शासन की क्रूरता और हकीकत से लोगों को अवगत करना था। कुछ ही समय के अंदर गदर पार्टी और समाचार पत्र दोनों ही लोकप्रिय हो गए।

1914 में प्रथम विश्व युद्ध के समय अंग्रेजी सेना युद्ध के कार्यों में अत्याधिक व्यस्त हो गई। इस अवसर का पूरा फायदा उठाते हुए गदर पार्टी ने अपनी सक्रियता बढ़ा दी। करतार सिंह पार्टी के अन्य साथियों के साथ कोलम्बो होते हुए कलकत्ता पहुंचे। युगांतर के संपादक जतिन मुखर्जी के परिचय पत्र के साथ करतार सिंह रास बिहारी बोस से मिले। करतार सिंह ने बोस को बताया कि जल्द ही 20,000 अन्य गदर कार्यकर्ता भारत पहुंच सकते हैं। सरकार ने विभिन्न पोतों पर गदर पार्टी के कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया। इसके बावजूद लुधियाना के एक गाँव में गदर सदस्यों की सभा हुई। सभा में गतिविधियों के संचालन में आर्थिक संकट से निपटने की रणनीति बनाई गई। 25 जनवरी, 1915 को रास बिहारी बोस के आने के बाद 21 फरवरी से सक्रिय आंदोलन शुरू करना तय हुआ। एक मुखबिर ने अंग्रेजी पुलिस के सामने दल की योजना का भंडाफोड़ कर दिया। पुलिस ने कई गदर कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर लिया। इस अभियान की असफलता के बाद सभी लोगों ने अफगानिस्तान जाने की योजना बनाई। लेकिन बीच रास्ते में ही करतार सिंह ने अपने गिरफ्तार साथियों के पास वापिस लौटने का निर्णय कर लिया। 2 मार्च, 1915 को करतार सिंह अपने दो साथियों के साथ वापिस लायलपुर, चौकी संख्या-5 पहुंचे। वहाँ सेना के अफसरों से विद्रोह करते हुए उन्हें साथियों के साथ गिरफ्तार कर लिया गया।
13 सितंबर, 1915 को करतार सिंह और उनके साथियों को लाहौर सेंट्रल जेल भेज दिया गया। अंग्रेजों के विरुद्ध पहली साजिश में 24 लोगों को फांसी की सजा दी गई। विद्रोहियों में सबसे खतरनाक ठहराते हुए करतार सिंह को 16 नवंबर, 1915 को छह अन्य साथियों के साथ फांसी दे दी गई। करतार सिंह सराभा गदर पार्टी के उसी तरह नायक बने, जैसे बाद में 1925-31 के दौरान भगत सिंह क्रांतिकारी आंदोलन के महानायक बने। यह अस्वाभाविक नहीं है कि करतार सिंह सराभा ही भगत सिंह के सबसे लोकप्रिय नायक थे। भगत सिंह करतार सिंह की इस $गज़ल को अक्सर गुनगुनाया करते थे-

यहीं पाओगे महशर में जबां मेरी बयाँ मेरा,मैं बन्दा हिन्द वालों का हूँ है हिन्दोस्तां मेरा।मैं हिन्दी ठेठ हिन्दी जात हिन्दी नाम हिन्दी है,यही मजहब यही फिरका यही है खानदां मेरा।मैं इस उजड़े हुए भारत का यक मामूली जर्रा हूँ,यही बस इक पता मेरा यही नामो-निशाँ मेरा।मैं उठते-बैठते तेरे कदम लूँ चूम ऐ भारत!कहाँ किस्मत मेरी ऐसी नसीबा ये कहाँ मेरा।तेरी खिदमत में अय भारत! ये सर जाये ये जाँ जाये,तो समझूँगा कि मरना है हयाते-जादवां मेरा।
JAGMARG

Thursday, May 14, 2020

ARTICLE ON SHAHEED SUKHDEV JAYANTI

जयंती विशेष

बेमिसाल संगठनकर्ता साहसी क्रांतिकारी शहीद सुखदेव

अरुण कुमार कैहरबा

इन दिनों के राजनैतिक विमर्श में भारत की आजादी के बाद के 70 सालों पर काफी बल दिया जाता है। तरह-तरह के राजनैतिक जुमलों के शोरगुल में आजादी के लिए किए गए संघर्षों पर लोगों का कम ही ध्यान जाता है। जबकि उन संघर्षों और उसमें योगदान व बलिदान देने वाले योद्धाओं के जीवन व विचारों को ज्यादा पढ़े-समझे जाने की जरूरत है। आजादी की लड़ाई को याद करना भावुकता भरा कार्य नहीं है, बल्कि इससे मौजूदा दौर की चुनौतियों के संदर्भ में हम बेहतर ढ़ंग से अपनी भूमिकाओं की पहचान कर सकते हैं। आजादी की लड़ाई में जहां महात्मा गांधी की अगुवाई में निरंतर अपने स्वरूप को बदलता अहिंसावादी आंदोलन था। कांग्रेस पार्टी का नरम व गरम दल में बंटना था। वहीं शहीद भगत सिंह व साथियों की अगुवाई में प्रखर वैचारिकता से लबरेज क्रांतिकारी आंदोलन भी था। क्रांतिकारी आंदोलन में भगत सिंह अपनी अध्ययनशीलता, विचारशीलता, योजना निर्माण व जोशो-खरोश के साथ क्रियान्वयन में अग्रणी भूमिका के लिए जाने जाते हैं। लेकिन उनके अन्य साथी भी कोई कम नहीं थे। 23मार्च, 1931 को लाहौर की सेंट्रल जेल में हंसते-हंसते फांसी के फंदे पर झूलने वाले भगत सिंह के दूसरे साथी सुखदेव व राजगुरू भी बेमिसाल थे। सुखदेव की जयंती के उपलक्ष्य में आज हम उन्हीं के बारे में खासतौर से बात कर रहे हैं। 

सुखदेव का जन्म 15 मई, 1907 को लुधियाना पंजाब में हुआ। उनके पिता का नाम रामलाल थापर व मां का नाम रल्ली देवी है। पिता की मृत्यु के बाद उनका लालन-पालन उनके ताऊ लाला अचिंतराम ने किया। परिवार की देशभक्तिपूर्ण भावना व कार्यों का उन पर गहरा प्रभाव पड़ा। बताते हैं कि बचपन में जब उनके दोस्त खेल-कूद में व्यस्त रहते थे, सुखदेव अपने आस-पास के शिक्षा से वंचित बच्चों को पढ़ाते थे। जब सुखदेव खुद स्कूल में पढ़ते थे तो अंग्रेज अधिकारी वहां आए। प्रधानाध्यापक के आदेश पर सभी ने उन्हें सेल्यूट किया, लेकिन सुखदेव ने किसी अंग्रेज को प्रणाम नहीं करने की बात कह कर सेल्यूट करने से मना कर दिया। लायलपुर के एसडी हाई स्कूल से उन्होंने दसवीं करने के बाद नेशनल कॉलेज लाहौर में दाखिला लिया। वहीं पर उनकी भेंट भगत सिंह व अन्य साथियों से हुई। एक ही तरह के विचार होने के कारण शीघ्र ही भगत सिंह से उनकी गहरी दोस्ती हो गई। बाद में वे देश की आजादी के संघर्षों के सहयात्री हो गए। 1926 में दोनों ने अन्य युवाओं के साथ मिलकर लाहौर में नौजवान भारत सभा का गठन किया। सितंबर, 1928 को दिल्ली के फिरोजशाह कोटला के खंडहरों में देश के प्रमुख क्रांतिकारियों की गुप्त बैठक हुई, जिसमें इस संगठन का नाम बदलकर हिन्दोस्तान सोशल रिपब्लिकन आर्मी कर दिया गया। सुखदेव को पंजाब के संगठन की जिम्मेदारी सौंपी गई। शिव वर्मा ने अपनी किताब संस्मृतियां में लिखा है- ‘भगत सिंह दल के राजनैतिक नेता थे और सुखदेव संगठनकर्ता, वे एक-एक ईंट रखकर इमारत खड़ी करने वाले थे। वे प्रत्येक सहयोगी की छोटी से छोटी आवश्यकता का भी पूरा ध्यान रखते थे।’ सुखदेव अपनी संगठन कुशलता के लिए जाने जाते हैं। 
भारत की राजनैतिक परिस्थितियों का अध्ययन करने के लिए अंग्रेजों ने भारत में साइमन कमीशन भेजा। कमीशन में एक भी भारतीय नहीं होने के कारण इसका जगह-जगह विरोध हुआ। पंजाब में लाला लाजपत राय की अगुवाई में इसके खिलाफ प्रदर्शन हुआ। एक विशाल जुलूस का नेतृत्व करते हुए अंग्रेजों ने लाठीचार्ज कर दिया, जिसमें लाला लाजपत राय बुरी तरह घायल हो गए। नवंबर में उनका देहांत हो गया। इस पर पूरे पंजाब में तीखी प्रतिक्रिया हुई। भगत सिंह व सुखदेव ने लाठीचार्ज करवाने वाले अधिकारी स्कॉट को मारने की योजना बनाई। लेकिन उसकी जगह सांडर्स मारा गया। अंग्रेजों के दमनचक्र पर रोष जताने व भारतीयों की भावनाओं को नजरंदाज करने वाली गूंगी-बहरी अंग्रेजी सरकार के कानों तक आवाज पहुंचाने के लिए 8 अप्रैल, 1929 को भगत सिंह व बटुकेश्वर दत्त ने केन्द्रीय असेंबली में बम धमाका कर दिया और गिरफ्तारी दे दी। इसी बीच लाहौर में बम बनाने की फैक्ट्री पकड़ी गई और 15 अप्रैल को सुखदेव व अन्य साथी भी गिरफ्तार हो गए। इस पर सुखदेव ने खासी खुशी का इजहार किया।
लाहौर षडय़ंत्र केस में हमिल्टन हार्डिंग द्वारा दर्ज की गई एफआईआर के अनुसार कोर्ट में चले केस को ‘क्राउन बनाम सुखदेव व अन्य’ के नाम से चला। इस केस में हालांकि सुखदेव की सीधी भूमिका नहीं थी। लेकिन केस में उन्हें मुख्य अभियुक्त बनाकर उनकी अप्रत्यक्ष भूमिका की महत्ता को ही रेखांकित किया गया। इस केस की निर्णय में कोर्ट ने कहा- ‘सुखदेव को साजिश का दिमाग कहा जा सकता है, जबकि भगत सिंह इसके दाहिने हाथ थे। सुखदेव एक व्यवस्था देखने वाले, सदस्यों की भर्ती करने और प्रत्येक की क्षमता के लिए उपयुक्त काम खोजने में उत्साही थे। वह हिंसा के कृत्यों में स्वयं भाग लेने में पिछड़े थे। लेकिन फिर भी उन्हें उन कार्यों के निष्पादन के लिए जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए जिनमें उनके दिमाग और संगठन शक्ति ने महत्वपूर्ण योगदान दिया।’
इसकी जानकारी लोगों को बहुत कम है कि हिन्दोस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी की केन्द्रीय कमेटी की बैठक में असेंबली में बम गिराने की जिम्मेदारी भगत सिंह को नहीं दी गई थी। कमेटी सदस्यों को खतरा था कि सांडर्स वध के मामले में पहले से पुलिस भगत सिंह की तलाश कर रही है। शिव वर्मा ने अपनी किताब संस्मृतियां में लिखा है कि एचएसआए की बैठक के तीन दिन बाद जब सुखदेव को पता चला तो बहुत नाराज हुए। वे जानते थे कि दल का मकसद भगत सिंह ही सबसे अच्छे ढ़ंग से रख सकते हैं। सुखदेव व भगत सिंह की इस मामले में तीखी चर्चा हुई। सुखदेव ने भगत सिंह को कायर तक कह दिया। अंत में कमेटी को अपना फैसला बदलना पड़ा और असेंबली में बम फेंकने की जिम्मेदारी में भगत सिंह को शामिल करना पड़ा। शिव वर्मा कहते हैं कि इस तरह से सुखदेव ने अपने प्रिय मित्र को मौत के जबड़े में धकेल दिया था। भगत सिंह के साथ तीखी चर्चा के बाद शाम को सुखदेव लाहौर के लिए रवाना हो गए। अगले दिन जब वे लाहौर पहुंचे तो दुर्गा भाभी के अनुसार उसकी आंखें सूजी हुई थी। दरअसल अपने निर्णय के बाद सुखदेव फूट-फूट कर रोया था। वह जानता था कि असेंबली में बम फेंक और गिरफ्तारी देकर भगत सिंह सबसे बेहतर कार्य कर सकता था। लेकिन अपने दोस्त को मौत के मुंह में धकेलने का उसे गम भी था। इस प्रकार जहां सुखदेव पत्थर से अधिक कठोर हैं तो फूल से भी अधिक कोमल हैं।
फांसी के निर्णय के बाद जब लोग उन्हें फांसी से कम सजा के लिए आंदोलन करने लगे तो उन्होंने कहा था- ‘हमारी सजा को बदल देने से देश का उतना कल्याण नहीं होगा, जितना फांसी पर चढऩे से।’ फांसी से कुछ समय पहले सुखदेव द्वारा महात्मा गांधी को लिखे पत्र में उनके विचारों की बानगी देखने को मिलती है। सुखदेव का वह पत्र उनके व्यवस्थित व तार्किक विचारों का दस्तावेज है।
अरुण कुमार कैहरबा
हिन्दी प्राध्यापक
मो.नं.-9466220145

Tuesday, May 12, 2020

WHEN 1ST TIME HOUSE CONNECTED WITH ELECTRICITY?

आखिर हम न्यायपूर्ण व संवेदनशील व्यवस्था क्यों नहीं बना पाए?

अरुण कुमार कैहरबा

तय हुआ था वंचना कोई ना होगी और ना होगा कोई भूखा, बुनियादी सुविधाएं होंगी सबके आंगन में, और खुशियां ही खुशियां सबके जीवन में। पर दुखद है कि आज तक वह सपना पूरा नहीं हो पाया है। आज भी कितने ही लोगों का जीवन अभावों और संकटों में घिरा हुआ है। कोरोना वायरस की आपदा में लगे लॉकडाउन ने गरीब लोगों का काम छीन लिया है और जीवन में अप्रत्याशित संकटों को न्योता दिया है। 
DAINIK SWADESH FROM BHOPAL
12-5-2020

आज इस लेख में हम आपको एक ही घर में रह रहे दो परिवारों की व्यथा-कथा सुना रहे हैं। हरियाणा के करनाल जिला के गांव कलरी खालसा में रहने वाले परिवारों में कुल मिलाकर 12 सदस्य हैं। इन सदस्यों में जहां एक 75वर्षीय वृद्धा है, वहीं एक नन्हा बच्चा भी है। परिवारों के दोनों मुखिया व नन्हें बच्चे को छोड़ कर बाकी 9 सदस्य लड़कियां व महिलाएं हैं। इनमें से एक परिवार के चार सदस्य कुछ समय से शहर में रह रहे थे। परिवार का मुखिया कढ़ी-चावल की रेहड़ी लगाता था। लेकिन लॉकडाउन के दौरान जब धंधा पूरी तरह से चौपट हो गया तो सभी का पेट भरने के लिए शहर से अपने गांव में आना पड़ा। बाकी आठ सदस्य-75 साला बुजुर्ग मां कलावंती, मुखिया मदन पाल, पत्नी पालो, पांच बेटियां-दसवीं, आठवीं और छठी में एक-एक और नौवीं में पढऩे वाली दो बेटियां। 
घर में ना तो बिजली का कनैक्शन है और ना ही शौचालय। इन दोनों बुनियादी सुविधाओं के अभाव में घर में ही नहीं जीवन में भी अंधेरा है। खुले में शौच जाने की मजबूरी के कारण महिलाओं व बच्चियों को कितनी मुश्किलों व अपमान का सामना करना पड़ता होगा, इसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। कहां गई गांव की बेटी-सबकी बेटी की संस्कृति? परिवार का मुखिया मदन टीबी की बिमारी का मरीज है। दुखद यह है कि इस परिवार का राशन कार्ड गरीबी रेखा से नीचे वाला नहीं है। गरीबी रेखा से ऊपर वाला राशन कार्ड है। जिससे परिवार सरकार की गरीब लोगों के लिए सस्ते राशन की योजना का भी लाभ नहीं ले पाता।
DAINIK HARIBHOOMI 13-5-2020

आजकल तो स्कूल बंद हैं। लेकिन स्कूल के दिनों में इस परिवार की छात्राओं से अध्यापक होमवर्क पूरा नहीं करके आने व नहा कर नहीं आने की शिकायत करते तो छात्राएं निरूत्तर हो जाती। अब मैडम व सर को क्या बताएं कि वे क्यों नहा कर स्कूल नहीं आ पाती हैं। आखिर कहां नहाएं? कहां तैयार हों? वे मन ही मन सोचती- बन ठन कर स्कूल आने वाली मैडम व सर को क्या मालूम कि वे कैसे पढ़ रही हैं। स्कूल से जाने के बाद घर पर कितने ही काम होते हैं। रात को अंधेरे में पढऩा भी मुश्किल होता है। परिवार की बच्चियां अपने जीवन की सारी व्यथा को बता नहीं पाती। आए दिन की इस पूछताछ को देख रहे एक मास्टर साहब को लगता है कि निरे उपदेश देने से कुछ नहीं होगा। परिवार की स्थितियों को जानने के लिए घर जाना चाहिए। वे घर जाते हैं तो सारी सच्चाई सामने आ जाती है। सामने यह भी आता है कि एक ही गांव में रहने वाले लोग अपने ही आस-पास रहने वाले लोगों के जीवन के प्रति उदासीन बने हुए हैं। परस्पर सहयोग करने की भावना खत्म होते जाने के कारण गांव में भी लोग अपने तक ही महदूद होकर रह गए हैं। किसी के घर में बिजली ही नहीं भोजन भी है या नहीं, किसी दूसरे को कुछ फर्क नहीं पड़ता है। कुछ परिवारों की भयानक आर्थिक स्थिति के बावजूद लोग बेअसर और संवेदनशून्य हैं। क्या इसी लिए गांव बसाए गए थे? क्या इसीलिए पंचायतों का चुनाव होता है? खैर, मास्टर जी मन ही मन परिवार के लिए सहयोग जुटाने की ठान लेते हैं।
DAINIK JAMMU PARIVARTAN
12-5-2020

अपनी सामाजिक जिम्मेदारी के अहसास से लबरेज मास्टर जी कुछ अधिकारियों के सामने परिवार की दशा का जिक्र करते हैं तो एक अधिकारी जेब से रूपये निकाल कर महिन्द्र मास्टर जी को ही बिजली का कनैक्शन लगवाने की जिम्मेदारी दे देते हैं। कुछ और साथी भी सहयोग करते हैं। मास्टर जी के आग्रह पर बिजली विभाग तत्परता के साथ बिजली चालू कर देता है। सालों बाद बिजली का बल्ब जलने पर परिवार में खुशी का माहौल था। रात को खाना खाने के बाद सारा परिवार बल्ब की रोशनी में नीचे पल्लड़ बिछा कर बैठा है। दादी और बच्चियां मिलकर ताली बजाते हुए गीत गा रहे हैं। 

मास्टर जी अपनी छात्राओं के घर में शौचालय निर्माण की तैयारियों में लग गए हैं। यह एक परिवार के लिए तो खुशी का कारण बना है। लेकिन देश में ऐसे तो कितने ही परिवार हैं, जहां पर सुविधाओं का अभाव है। ऐसे एक मास्टर जी ही नहीं अनेक चाहिएं। मास्टर जी ही क्यों? पूरा समाज आपसी सहयोग से समस्याओं का समाधान करने वाला क्यों नहीं बनता? सरकारें, प्रशासनिक इदारे, पंचायती राज संस्थाएं क्यों ऐसे लोगों की पहचान करके उन तक सुविधाएं नहीं पहुंचा पाती? या जानबूझ कर अपने-अपनों को लाभ पहुंचाना और अपना भरने के लिए कोई भी तरीका अपनाना, लेकिन जरूरतमंद को नजंदराज करते रहना। ऐसी भेदभावकारी नजर और नीति हमारे समाज का भला नहीं कर सकती। ऐसी स्थिति में आम गरीब लोगों पर लॉकडाउन में क्या बन रही होगी, इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है। पहली बार घर में बिजली के बल्ब जलने की खुशी को आपने भी वर्षों पहले महसूस किया था। आज भी बहुत से लोग इस खुशी से वंचित हैं। आईये, सहयोग का हाथ बढ़ाएं। 
ARTH PARKASH 13-5-2020

अरुण कुमार कैहरबा
हिन्दी प्राध्यापक
वार्ड नं.-4, रामलीला मैदान,
इन्द्री, जिला-करनाल, हरियाणा
मो.नं.-9466220145

Wednesday, May 6, 2020

ARTICLE ON GURUDEV RABINDERNATH TEGORE JAYANTI

विलक्षण प्रतिभा से गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने भारत की बढ़ाई शान

अरुण कुमार कैहरबा 

किसी भी देश की वास्तविक पूंजी उसके नागरिकों में ही छिपी होती है। इसीलिए मानव संसाधन के विकास पर अधिक बल दिया जाता है। लोगों की प्रतिभा और मेहनत से देश की शान भी बढ़ती है। यही नहीं कुछ लोग तो अपनी प्रतिभा के बल पर किसी देश व समाज की पहचान तक बन जाते हैं। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर भी ऐसी ही शख्सियत हैं, जिन्होंने भारत की सांस्कृतिक पहचान को चार चांद लगाए। उन्होंने अपनी प्रतिभा, मानवतावादी विचारों, कार्यों व लेखनी के माध्यम से दर्शन, साहित्य, संगीत, चित्रकला, शिक्षा सहित विभिन्न
क्षेत्रों को नई देन दी, जिसे सदा याद रखा जाएगा। अंग्रेजी शासन की नृशंस कार्रवाईयों को देखते हुए उन्होंने उनकी सर व नाइटहुड आदि की उपाधियों को लौटा दिया। उनके योगदान को देखते हुए देश की जनता ने उन्हें सम्मान स्वरूप गुरुदेव की उपाधि दी।
गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के कार्य देश की सीमा से निकल कर दुनिया भर में चमके। 1913 में उनके गीत संग्रह-गीतांजलि के लिए उन्हें नोबल पुरस्कार प्रदान किया गया। यह केवल भारत का ही नहीं बल्कि साहित्य के क्षेत्र में एशिया महाद्वीप का पहला नोबेल पुरस्कार था। वे दुनिया के पहले ऐसे व्यक्तित्व हैं, जिनके लिखे गए गीत दुनिया के दो देशों के राष्ट्रगान के रूप में विभूषित हुए। उनका लिखा गया-जन गण मन अधिनायक जय हे भारत का राष्ट्रगान है तो उन्हीं की रचना-आमार सोनार बांगला बांग्लादेश का राष्ट्रगान है। अपने जीवनकाल में उन्होंने देश-दुनिया के विभिन्न स्थानों की यात्राएं की और अनेक महान शख्सियतों के साथ मुलाकातें की। 

रवीन्द्रनाथ का जन्म 7मई, 1861 को कलकत्ता में देवेन्द्रनाथ ठाकुर व शारदा की चौदहवीं संतान के रूप में हुआ था। पिता ब्रह्म समाज से जुड़े थे। परिवार समृद्ध व सम्पन्न था। मां की तबियत ठीक नहीं रहती थी। बच्चों की देखरेख व खान-पान का जिम्मा नौकरों के हाथ में था। बच्चों की सक्रियता पर लगाम लगाने के लिए एक बार एक नौकर ने रामायण का लक्ष्मण रेखा प्रसंग सुनाया और लक्ष्मण रेखा लांघने पर मुसीबत में पड़ जाने का उपदेश दिया। बालक रबीन्द्रनाथ की पढ़ाई के लिए घर पर ही शिक्षक आते थे। अपने बड़े भाईयों की तरह उनका मन भी स्कूल जाने के लिए मचलता था। बताते हैं कि जब उन्होंने स्कूल जाने की इच्छा व्यक्त की तो अध्यापक ने उनकी पिटाई कर दी। बाद में उन्हें स्कूल में भेजा जाने लगा, लेकिन अध्यापकों की क्रूरता और मार-पिटाई से रवीन्द्रनाथ ठाकुर का मन शिक्षा से विचलित रहने लगा। उनके मन में सवाल पैदा हुआ कि जिन स्कूलों को विद्या मंदिर कहा जाता है, उनमें हिंसा आखिर क्यों होती है।
स्कूली शिक्षा से ऊबे बालक रबीन्द्रनाथ ने अपने पिता के साथ हिमालय की यात्रा की। शांतिनिकेतन से वे अमृतसर पहुंचे। यहां से सात हजार फीट की ऊंचाई पर डलहौजी पहुंचे। हिमालय की आगोश में उन्होंने चार महीने बिताए, जिसका उनकी सोच व संस्कारों पर गहरा प्रभाव पड़ा। घर लौटने पर वे परिजनों व आसपास के बच्चों को हिमालय के किस्से सुनाते।  
12 साल की उम्र में रबीन्द्रनाथ टैगोर ने अभिलाषा कविता लिखी, जोकि तत्वबोधिनी नामक पत्रिका में प्रकाशित हुई। रबीन्द्र की उम्र 13 साल की ही थी कि मां का देहांत हो गया और रबीन्द्र फिर से हिमालय जाने की सोचने लगे। ऐसे में बड़े भाई ज्योतिन्द्रनाथ और उनकी पत्नी कादंबरी देवी ने बड़ा सहारा दिया। सदमे से उबरने पर 14 वर्ष के रबीन्द्र ने 1600 शब्दों की कविता-वनफूल लिखी, जोकि ज्ञानांकुर पत्रिका में प्रकाशित हुई। 
रबीन्द्रनाथ के पिता उन्हें बैरिस्टर बनाना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने 1878 में रबीन्द्रनाथ को ब्रिटेन भेज दिया। वहां पर उन्हें पश्चिमी संगीत व नृत्य आदि कलाएं सीखने का मौका मिला। बाद में पढ़ाई बीच में छोड़ कर वे भारत आ गए। यहां वापिस लौटे तो घर में ना भाई-भाभी थे और ना पिता जी। अत: अकेलेपन में उन्होंने उदास गीतों की रचना की, जोकि उनके सांध्यगीत संग्रह में प्रकाशित हुए। इस दौरान उन्होंने दो नाटक भी लिखे। उनका विवाह 11वर्ष की मृणालिनी से कर दिया गया। पोस्टमास्टर, चित्रा, नदी, चैताली, विदाई अभिशाप, चिरकुमार सभा व काबुलीवाला सहित अनेक रचनाएं आई। उनकी काबुलीवाला पर तो हेमेन गुप्ता के निर्देशन में फिल्म भी बनी है, जिसमें बलराज साहनी ने मुख्य भूमिका निभाई। उनका बच्चों के लिए लिखा गया- शारदोत्सव नाटक बंगाल में बहुत प्रसिद्ध है। उनके उपन्यास नष्टनीड़ पर चारूलता फिल्म बनी। उनकी अनेक रचनाओं को आधार बनाकर फिल्मकारों ने फिल्मों का निर्माण किया। 
रबीन्द्रनाथ ठाकुर अराजनैतिक व्यकितत्व थे, जिनका दुनिया के अनेक शासकों ने स्वागत किया। भारत में हो रहे राजनैतिक बदलावों पर उन्होंने अपनी प्रतिक्रियाएं जताई। 1905 में बंगाल विभाजन का उन्होंने जोरदार विरोध किया। अनेक सभाओं का संबोधित किया। 1919 में जलियांवाला बाग के हत्याकांड ने रबीन्द्रनाथ को झकझोर दिया। उन्होंने नाइटहुड की उपाधि लौटाते हुए अंग्रेज वायसराय को पत्र लिखा। हत्याकांड के सबसे बड़े किरदार को अंग्रेजी संसद द्वारा माफ किए जाने पर उन्होंने रोष जताया। टैगोर और महात्मा गान्धी के बीच राष्ट्रीयता और मानवता को लेकर हमेशा वैचारिक मतभेद रहा। लेकिन दोनों एक दूसरे का बहुत अधिक सम्मान करते थे। टैगोर ने गान्धीजी को महात्मा का विशेषण दिया था। एक समय था जब शान्तिनिकेतन आर्थिक कमी से जूझ रहा था और गुरुदेव देश भर में नाटकों का मंचन करके धन संग्रह कर रहे थे। उस समय गान्धी जी के आह्वान पर टैगोर को 60 हजार रुपये के अनुदान का चैक दिया गया था।
शिक्षा की दृष्टि से रबीन्द्रनाथ के मन में बड़ी बेचैनी थी। 22 दिसंबर1901 में उन्होंने शांति निकेतन में उन्होंने आश्रम शुरू कर दिया। पांच बच्चों और इतने ही अध्यापकों के साथ स्कूल की स्थापना हुई थी। गुरुदेव प्रकृति को सर्वश्रेष्ठ शिक्षक मानते थे। यही कारण है कि आश्रम में पेड़ों के नीचे कक्षाएं लगती थी। रबीन्द्रनाथ ने बच्चों के लिए प्रार्थना लिखी थी। उनका मानना था कि अध्यापक दीपक की तरह होता है, उसके ज्ञान से बच्चे सीखते हैं। आश्रम को चलाने के लिए पत्नी मृणालिनी ने शादी के जेवर व सोने की घड़ी तथा अपने लिए बनवाया गया घर तक बेच दिए। आश्रम का खर्च चलाने के लिए कर्ज भी लेना पड़ा। कोलकाता में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ। गुजरात के आया प्रतिनिधिमंडल शांति निकेतन में पहुंच गया और आर्थिक सहयोग का आश्वासन दिया। योग, कसरत, खेल, बागवानी, बंगाली, अंग्रेजी, इतिहास, गणित, विज्ञान, चित्रकला, संगीत, नृत्य आदि विषय थे। 1921 आते-आते विद्यालय का नाम विश्व भारती हो गया। विश्व भारती विश्वविद्यालय देश में शिक्षा का ऐसा केन्द्र है, जहां पर दुनिया भर के विभिन्न देशों के विद्यार्थी पढऩे के लिए आते हैं। भारतीय संस्कृति व कला के साथ ही दुनिया की विभिन्न भाषाओं की यहां पर शिक्षा दी जाती है। हिन्दी के प्रसिद्ध आलोचक हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इस संस्थान में कईं वर्षों तक हिन्दी शिक्षण किया। उन्होंने अपने संस्मरणों में भी गुरुदेव की संवेदनशीलता व प्रकृति प्रेम को उजागर किया है। एक कुत्ता और एक मैना नामक रचना में द्विवेदी जी बेजुबान पशु-पक्षियों के प्रति गुरुदेव के स्नेह को प्रकट करते हैं।
गुरुदेव का बनावटी और दिखावटी शिक्षा के प्रति आक्रोश उनकी कहानी-तोता में बड़े तीखेपन के साथ प्रकट होता है। जिस तोते को पढ़ाने का जिम्मा राजा के द्वारा दिया जाता है, सारी व्यवस्था उस तोते को नजरंदाज करते हुए भी आत्ममुग्ध होती है। सारे उपक्रमों और क्रियाओं के बीच ही तोता मर जाता है। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ का शिक्षा-दर्शन उस बच्चे को खेल, रचनात्मक क्रियाओं के द्वारा प्राकृतिक माहौल में शिक्षा प्रदान करने की पक्षधरता करता है। रवीन्द्रनाथ अपने जीवन के आखिरी वर्षों में चित्रकारी को अभिव्यक्ति का माध्यम बनाने वाली विरली शख्सियत हैं। वे तीन हजार के करीब  पेंटिंग बनाते हैं और चित्रकला में अपना अन्यतम स्थान बनाते हैं। संगीत के क्षेत्र में उनके नाम से रवीन्द्र की एक धारा चल पड़ती है। उनका संगीत जहां एक ओर प्रकृति के साथ जुड़ा है, वहीं उसमें पाश्चात्यत संगीत के तत्व भी देखे जा सकते हैं। 
संक्षेप में कहें तो रवीन्द्रनाथ टैगोर का व्यक्तित्व इतना विराट था कि किसी एक रचना से उसे समझा नहीं जा सकता। उनकी कविताएं, गीत, कहानी, उपन्यास, नाटकों ने साहित्य के क्षेत्र में अपनी विशेष पहचान बनाई तो संगीत, नृत्य, नाट्य व चित्रकला के क्षेत्रों को भी देन दी। अपने शिक्षा संस्थान को चलाने के लिए उन्होंने देश भर में जा-जाकर नाटक खेले। सात अगस्त, 1941 को उनका निधन हो गया, लेकिन अपने काम व रचनाओं के जरिये वे सदा भारत की शान व पहचान बने रहेंगे।