व्यंग्य
अरुण कुमार कैहरबा
![]() |
PUBLISHED IN DAINIK SACH KAHOON (10-6-2017) |
नंबरों को लेकर ऐसी दीवानगी आज हर तरफ पसरी हुई नजर आ रही है। फेसबुक पर फोटो अपलोड करने के बाद लाइक और कमेंट गिन रहे हैं। कम लाइक मिले तो निराशा और लाइक ज्यादा मिल गए तो लोकप्रियता के पैमाने पर ज्यादा अंक हासिल करने का गुमान होने लगता है। शादी-विवाहों में लोग ज्यादा से ज्यादा दिखावा करके नंबर बनाते हैं। कुछ लोगों ने ज्यादा खा-पीकर अपने कपड़ों के नंबर बढ़ा लिए हैं। बेल्ट का साईज बढ़ जाने पर कुछ लोगों की हैसीयत नंबर वन हो जाती है। ऐसे में गाड़ियों का भी मनमाफिक नंबर चाहिए। गाड़ियों के मनचाहे नंबर के लिए पैसे फूंक रहे हैं। एक समय में हरियाणा नंबर वन के दावे किए जा रहे थे, लेकिन ऐसा दावा करने वाले दल को चुनावों में लोगों ने नंबर ही नहीं दिए। अब भी सरकार जनता में अपने ज्यादा नंबर होने का गुमान पाले हुए है। जनता कितने नंबर देगी, यह तो जनता ही जाने।
चमचे अपने प्रिय राजनेता के आगे नंबर बनाने में लगे हैं। वे दिन-रात बस एक ही धुन में रहते हैं, कि किस तरह वे अपने प्रिय नेता की नज़र में चढ़ जाएं। नेताओं को खुश करने के चक्कर में कईं तो फकीर हो गए हैं। अब जहां विद्यार्थियों को अच्छे नंबर लेने के लिए दिन-रात एक करनी पड़ती है, वहीं नेताओं को चुनावों में मेहनत तो करनी पड़ती है, लेकिन वह मेहनत उठा-पटक और साजिशों के रूप में होती है। नेताओं को वोटों के नंबर उनकी जाति, धर्म और धनबल के आधार पर मिलते हैं। जो नेता या राजनैतिक दल जितनी काबिलियत के साथ लोगों को बांटने में कामयाब हो जाए, वह उतने ही अधिक नंबरों के साथ कुर्सी पर आ बैठता है। इन दिनों राजनीति में नंबर बनाने के लिए भाषण कला का भी बोलबाला है। पूरी बेइमानी के साथ लच्छेदार भाषण देकर नेता लोगों को बहकाते हैं। एक बार सत्ता मिलने के बाद पांच साल तक लोग उनके आगे नंबर बनाने के लिए दुम हिलाते हैं। वे भूल जाते हैं कि पांच साल बाद उन्हें भी नंबर चाहिएंगे।
No comments:
Post a Comment