Monday, June 19, 2017

चाहे ना हो फायदा, रोने का बन गया कायदा!

व्यंग्य

अरुण कुमार कैहरबा

आज कल गर्मी पड़ी हुई है तो लोग गर्मी को रो रहे हैं। भई बहुत गर्मी है। पहले ऐसी गर्मी नहीं पड़ती थी। ओहो पसीना। घर में बैठना भी दूभर हो गया है। बाहर भी कहां जाएं। सूरज आग बरसा रहा है। ऊपर से बिजली नहीं है। बिजली नहीं है तो पानी भी कहां से आएगा। बस गर्मी की पूंछ पकड़ कर बिजली-पानी तक पहुंच गए। इसके बाद बारी सरकार की है। सत्ता में आने से पहले सत्ता वाली पार्टी ने 24घंटे बिजली-पानी देने का वादा किया था। अब मीटर बाहर निकलवाने लगे हैं। सत्ता के मजे लूटते हुए संत बन कर बिजली चोरी नहीं करने के उपदेश दे रहे हैं। उसके बाद भी पूरी बिजली की कोई गारंटी नहीं है। राजनीति का भी कोई दीन-धर्म ही नहीं है। क्या यही आजादी है, जिसके लिए युवकों ने हंसते-हंसते अपनी शहादत दी थी। रोने का यह सिलसिला भईया रूकने वाला नहीं है। 24घंटे बिजली-पानी आए या नहीं आए लेकिन आम भारतीय चौबीस घंटे रो जरूर सकता है। सरकार से लेकर प्रकृति तक की फजीहत कर सकता है।
अब प्रकृति तो प्रकृति है। प्रकृति तो भगवान ही है। उस पर किसका बस है। लेकिन सरकार तो लोगों ने ही बनाई है। अपने सृजन को कोसने का यह अद्भुत उदाहरण है। अमेरिका की जनता ने पहले डोनाल्ड ट्रंप को जिताया और बाद में लगे उसके खिलाफ प्रदर्शन करने। यह रेत का घरौंदा नहीं है, जिसे बच्चा बनाकर पैर से गिरा दे। यह तो सरकार है। एक बार बनाने के बाद पांच साल तक तो झेलनी ही पड़ेगी। अब सरकार चुन दी है तो उसकी नीतियों को भी देख लो। अब रोने-झींकने से क्या काम चलेगा। अब सरकार का बस है तो वह अपनी मर्जी करेगी। कभी जीएसटी और आधार का विरोध करने वाली पार्टी की सरकार अब इसे लागू कर रही है। उसकी मर्जी है। आखिर सरकार है। जब जनता की बारी आएगी, वह अपने मन की कर लेगी। जैसे को तैसा। सत्ता में आने के बाद अपने आप को देवता मानने वाले लोगों की चुनावों में नींद टूटती है। उन्हें पता चलता है कि लोकतंत्र में अंतिम शक्ति तो जनता के पास ही है। लेकिन गर्मी-सर्दी का तो कुछ नहीं किया जा सकता।
मौसम का तो आनंद लेने में ही फायदा है। गर्मी में शरीर को कपड़ों का बोझ तो नहीं उठाना पड़ता। ना रजाई ना कंबल। ना जर्सी ना मफलर। हल्के-फुल्के कपड़े फंसाओ और चल पड़ो। जिस सर्दी में पानी से डर लगता है। गर्मी में उसी पानी में नहाने का मजा ही कुछ और है। यदि पानी है तो मजे से नहाईये नहीं है तो सर्दी को याद कीजिए जब नहाना किसी यातना जैसा लगता था। वाह क्या गर्मी है। गर्मी नहीं है तो क्या हुआ। हाथ का पंखा लेकर हवा कीजिए और हाथ की एक्सरसाइजन करने का सुख भोगिये। पंजाबी में कहावत है कि मन दा की समझाणा, ओधरों पुटणा ऐधरों लाणा। अपने मन को समझाने से समाधान होगा।
भारत में तो भाग्यवाद की एक समृद्ध एवं गौरवशाली परंपरा है। कमाल है कि इसके बावजूद लोग रो क्यों रहे हैं। क्या भाग्य पर लोगों को भरोसा नहीं रहा। नहीं तो यही एक चीज है, जिसके सहारे काम चलाया जा सकता है। मनोकामना पूरी नहीं होने पर ग्रहदशा को आसानी से कोसा जा सकता है। किस्मत का सितारा डूबने की चर्चा की जा सकती है। सरकार का ऐतबार किया नहीं जा सकता। भले ही वह आपकी चुनी हुई है।

Saturday, June 10, 2017

नंबर का खेल, कोई पास कोई फेल!


व्यंग्य 

अरुण कुमार कैहरबा

PUBLISHED IN DAINIK SACH KAHOON (10-6-2017)
नंबर का खेल भी अजीब है। हर कोई नंबर बनाने में लगा है। कोई नंबर वन बनना चाहता है और कोई अधिकाधिक नंबर लूटने में ही जीवन की सार्थकता समझ रहा है। जीवन नंबर गेम में तब्दील हो गया है। नंबर बनाने के लिए कुछ लोगों को कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं, वहीं कुछ लोग बिना हड़-फिटकरी के चोखा रंग कमा रहे हैं। बच्चे परीक्षा में अधिक से अधिक नंबर लेने के लिए दिन-रात एक कर देते हैं। फिर भी मेहनत और आशा के अनुरूप अंक कहां मिलते हैं। रही-सही कसर दूसरों के अंक देखकर पूरी हो जाती है। मुर्गा अपनी जान से हाथ धो बैठता है और खाने वाले को मजा नहीं आता है। बच्चों के मां-बाप मुंह बिगाड़ते हुए कहते हैं-फलां के बच्चों ने देखो कितने अच्छे अंक लिए हैं। इस तरह की जली-कटी बातें बच्चे के हृदय को छीलती हुई गुजरती हैं। बोर्ड की परीक्षाओं में ज्यादा नंबर लूटने के लिए मां-बाप बच्चों को कमरों और किताबों में कैद कर देना चाहते हैं। बच्चे ना हुए नंबर लेने की मशीनें हो गईं। अभिभावकों को भी अपने बच्चों के अंकों से ज्यादा मतलब नहीं होता। बल्कि उन्हें अपने नंबरों की चिंता सताती है। बच्चे के जितने ज्यादा नंबर होंगे, मां-बाप के भी अपने मोहल्ले व मित्र-मंडली में उतने ही अधिक नंबर बनेंगे। यह नंबरों का खेल बच्चों की जान ही ना लेकर छोड़े। नंबरों के खेल ने शिक्षा के मूल्यों को तो धराशायी कर ही दिया है। शिक्षा प्राप्त कर रहे नौनिहालों की ही तरह सट्टेबाजी में लगे लोगों में भी कुछ-कुछ नंबरों की ऐसी ही होड़ होती होगी। हर चीज में नंबर ढूंढ़ते हुए उन्हें दिन-रात लक्की नंबर की तलाश रहती है। 
नंबरों को लेकर ऐसी दीवानगी आज हर तरफ पसरी हुई नजर आ रही है। फेसबुक पर फोटो अपलोड करने के बाद लाइक और कमेंट गिन रहे हैं। कम लाइक मिले तो निराशा और लाइक ज्यादा मिल गए तो लोकप्रियता के पैमाने पर ज्यादा अंक हासिल करने का गुमान होने लगता है। शादी-विवाहों में लोग ज्यादा से ज्यादा दिखावा करके नंबर बनाते हैं। कुछ लोगों ने ज्यादा खा-पीकर अपने कपड़ों के नंबर बढ़ा लिए हैं। बेल्ट का साईज बढ़ जाने पर कुछ लोगों की हैसीयत नंबर वन हो जाती है। ऐसे में गाड़ियों का भी मनमाफिक नंबर चाहिए। गाड़ियों के मनचाहे नंबर के लिए पैसे फूंक रहे हैं। एक समय में हरियाणा नंबर वन के दावे किए जा रहे थे, लेकिन ऐसा दावा करने वाले दल को चुनावों में लोगों ने नंबर ही नहीं दिए। अब भी सरकार जनता में अपने ज्यादा नंबर होने का गुमान पाले हुए है। जनता कितने नंबर देगी, यह तो जनता ही जाने। 
चमचे अपने प्रिय राजनेता के आगे नंबर बनाने में लगे हैं। वे दिन-रात बस एक ही धुन में रहते हैं, कि किस तरह वे अपने प्रिय नेता की नज़र में चढ़ जाएं। नेताओं को खुश करने के चक्कर में कईं तो फकीर हो गए हैं। अब जहां विद्यार्थियों को अच्छे नंबर लेने के लिए दिन-रात एक करनी पड़ती है, वहीं नेताओं को चुनावों में मेहनत तो करनी पड़ती है, लेकिन वह मेहनत उठा-पटक और साजिशों के रूप में होती है। नेताओं को वोटों के नंबर उनकी जाति, धर्म और धनबल के आधार पर मिलते हैं। जो नेता या राजनैतिक दल जितनी काबिलियत के साथ लोगों को बांटने में कामयाब हो जाए, वह उतने ही अधिक नंबरों के साथ कुर्सी पर आ बैठता है। इन दिनों राजनीति में नंबर बनाने के लिए भाषण कला का भी बोलबाला है। पूरी बेइमानी के साथ लच्छेदार भाषण देकर नेता लोगों को बहकाते हैं। एक बार सत्ता मिलने के बाद पांच साल तक लोग उनके आगे नंबर बनाने के लिए दुम हिलाते हैं। वे भूल जाते हैं कि पांच साल बाद उन्हें भी नंबर चाहिएंगे।