व्यंग्य
अरुण कुमार कैहरबा
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अब प्रकृति तो प्रकृति है। प्रकृति तो भगवान ही है। उस पर किसका बस है। लेकिन सरकार तो लोगों ने ही बनाई है। अपने सृजन को कोसने का यह अद्भुत उदाहरण है। अमेरिका की जनता ने पहले डोनाल्ड ट्रंप को जिताया और बाद में लगे उसके खिलाफ प्रदर्शन करने। यह रेत का घरौंदा नहीं है, जिसे बच्चा बनाकर पैर से गिरा दे। यह तो सरकार है। एक बार बनाने के बाद पांच साल तक तो झेलनी ही पड़ेगी। अब सरकार चुन दी है तो उसकी नीतियों को भी देख लो। अब रोने-झींकने से क्या काम चलेगा। अब सरकार का बस है तो वह अपनी मर्जी करेगी। कभी जीएसटी और आधार का विरोध करने वाली पार्टी की सरकार अब इसे लागू कर रही है। उसकी मर्जी है। आखिर सरकार है। जब जनता की बारी आएगी, वह अपने मन की कर लेगी। जैसे को तैसा। सत्ता में आने के बाद अपने आप को देवता मानने वाले लोगों की चुनावों में नींद टूटती है। उन्हें पता चलता है कि लोकतंत्र में अंतिम शक्ति तो जनता के पास ही है। लेकिन गर्मी-सर्दी का तो कुछ नहीं किया जा सकता।
मौसम का तो आनंद लेने में ही फायदा है। गर्मी में शरीर को कपड़ों का बोझ तो नहीं उठाना पड़ता। ना रजाई ना कंबल। ना जर्सी ना मफलर। हल्के-फुल्के कपड़े फंसाओ और चल पड़ो। जिस सर्दी में पानी से डर लगता है। गर्मी में उसी पानी में नहाने का मजा ही कुछ और है। यदि पानी है तो मजे से नहाईये नहीं है तो सर्दी को याद कीजिए जब नहाना किसी यातना जैसा लगता था। वाह क्या गर्मी है। गर्मी नहीं है तो क्या हुआ। हाथ का पंखा लेकर हवा कीजिए और हाथ की एक्सरसाइजन करने का सुख भोगिये। पंजाबी में कहावत है कि मन दा की समझाणा, ओधरों पुटणा ऐधरों लाणा। अपने मन को समझाने से समाधान होगा।
भारत में तो भाग्यवाद की एक समृद्ध एवं गौरवशाली परंपरा है। कमाल है कि इसके बावजूद लोग रो क्यों रहे हैं। क्या भाग्य पर लोगों को भरोसा नहीं रहा। नहीं तो यही एक चीज है, जिसके सहारे काम चलाया जा सकता है। मनोकामना पूरी नहीं होने पर ग्रहदशा को आसानी से कोसा जा सकता है। किस्मत का सितारा डूबने की चर्चा की जा सकती है। सरकार का ऐतबार किया नहीं जा सकता। भले ही वह आपकी चुनी हुई है।