बेटियों की बराबरी के लिए मुठभेड़ करती ‘दंगल’
अरुण कुमार कैहरबा
हाल ही में रिलीज हुई नितेश तिवारी निर्देशित आमिर खान की फिल्म दंगल ने हरियाणा के पितृसत्तात्मक समाज को झिंझोडऩे की सफल कोशिश की है। फिल्म पुत्र लालसा और बेटियों को दोयम दर्जा देने वाले समाज को ना केवल आईना दिखाने का काम करती है, बल्कि बदलाव की राह भी दिखाती है। थियेटर में देखते हुए दर्शक फिल्म के मोहपाश में बंध जाता है। वह हरियाणा के आम जन की मानसिकता को देखता है और अपने भीतर भी झांकता है। फिल्म मनोरंजन भी करती है और बदलाव की चेतना भी पैदा करती है। अपनी प्रासंगिकता और सार्थकता के कारण फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर तहलका मचा दिया है।दंगल हरियाणा के समाज पर आधारित यथार्थपरक फिल्म है। हरियाणा के गांव बलाली निवासी पहलवान महावीर सिंह फोगाट की भूमिका में मिस्टर परफैक्शनिस्ट के नाम से विख्यात आमिर खान ने शानदार अभिनय किया है। यह फिल्म महावीर फोगाट और उनकी बेटी गीता व बबीता के जीवन पर शोधपरक वास्तविक फिल्म है। फिल्म को रोचक बनाने के लिए निश्चय ही कल्पना का सहारा भी लिया गया है। फिल्म वास्तविक जीवन रूपी समुद्र से बूंद भर लेती है तो लोटा भर देती भी है। कला के लिए कला या फिर निरे मनोरंजन के लिए कला के कानफोडू शोर के बीच यह फिल्म कला की आवश्यक भूमिका को एक बार फिर से रेखांकित करने वाली है।
फिल्म में राष्ट्रीय चैंपियनशिप में पदक विजेता पहलवान महावीर सिंह फोगाट कुश्ती में देश का नाम रोशन करने के लिए एक बेटे की कामना करता है। इसके विपरीत जब बेटी का जन्म हो जाता है तो गांव में हर कोई उसे बेटे के जन्म के लिए टोटके सुझाने लगता है। झाड़-फूंक और गंडा-ताबीज तक सब कुछ किया जाता है। लेकिन फिर से बेटी का जन्म होता है। एक के बाद एक बेटियों के जन्म से महावीर पूरी तरह से निराश हो जाता है। बेटे के जरिये कुश्ती के संसार में परचम लहराने का उसका सपना टूट जाता है। एक दिन स्कूल से आती हुई उसकी बेटियों-गीता व बबीता को जब कुछ लडक़े गाली देकर अपमानित करते हैं तो दोनों बेटियां लडक़ों की अच्छी तरह मरम्मत कर देती हैं। पिटे-छिते लडक़े अपने परिजनों के साथ महावीर के घर में शिकायत लेकर आते हैं, तो लडक़ों की कमजोरी और लड़कियों की बहादुरी से लडक़ों के माता-पिता खुद ही शर्मशार होते हैं। यहीं से महावीर का मन पलट जाता है।
पहलवान महावीर को बेटियों में उम्मीद की किरण नजर आती है। पदक तो पदक है बेटा लाए या बेटी। बेटियों के माध्यम से अपने सपने को परवान चढ़ाने का विचार जब वह पत्नी के सामने रखता है तो वह भी राजी नहीं होती। महावीर अपनी पत्नी से एक वर्ष तक का समय मांगता है। अल सुबह बेटियों को नींद से उठाकर उन्हें भागदौड़ करवाता है। भागदौड़ करने में लड़कियों के लिए परंपरागत सूट-सलवार बाधा बनते हैं तो उसकी जगह निक्कर-टीशर्ट ले लेती है। महावीर बेटियों के लंबे बालों को कटवा देता है तो बेटियां बुरी तरह रोने लगती हैं। सुबह शाम कड़े अभ्यास और पिता के कुश्ती के नशे से गीता और बबीता भी परेशान हो जाती हैं और किसी तरह से ऐसे अनुशासन व शारीरिक अभ्यास से बचने की जुगत लगाने लगती हैं। ऐसे में कहानी में फिर नया मोड़ तब आता है जब गांव की ही एक लडक़ी की शादी में हिस्सा लेने के लिए पिता की नजरों से बचते हुए गीता व बबीता काफी लंबे समय के बाद लड़कियों की तरह तैयार होती हैं। बेटियों द्वारा शादी में जाने से महावीर आग-बबूला हो जाता है और विवाह समारोह में पहुंच कर ही हंगामा कर देता है। गीता व बबीता छोटी उम्र में दुल्हन के रूप में सजी-धजी अपनी सहेली के सामने पिता के इस व्यवहार के प्रति अफसोस जताती हैं तो दुल्हन का दर्द छलक जाता है। दुल्हन गीता व बबीता से कहती है कि उनके पिता उनके बारे में सोचते तो हैं, नहीं तो कम उम्र में ही बेटियों को शादी की भ_ी में झोंक कर माता-पिता अपनी जिम्मेदारी से बरी होना चाहते हैं। अपनी सहेली के ये शब्द गीता व बबीता को अंदर तक हिला देते हैं और वे अब पहलवान बनने की तैयारियों में जान झोंक देती हैं। गांव की गलियों में बेटियों को दौड़ते देखना, लडक़ों की तरह लड़कियों के छोटे बाल लोगों के लिए हैरान करने वाले अनुभव हैं। पहलवान तो अखाड़े में बेटियों से अभ्यास करवाने की महावीर की इच्छा पर तरह-तरह की बातें कहते हैं। धुन का पक्का महावीर अपने खेत में ही अखाड़ा बनाता है और बेटियों को कुश्ती के दांव-पेंच सिखाता है।
हरियाणा के गांवों में तीज-त्योहारों और मेलों पर विशाल दंगल आयोजित किए जाते हैं। इन दंगलों में पुरूष पहलवान अपना दमखम दिखाते हैं। लेकिन दंगल में बेटियों द्वारा जीत-हार के लिए जोर आजमाईश की बात आज भी अकल्पनीय है। यही नहीं बल्कि लड़कियों व महिलाओं का कुश्ती देखना भी वर्जित है। ऐसे में जिद्दी महावीर अपनी बेटियों को दंगल में लडक़े पहलवानों से कुश्ती करवाने के लिए ले जाता है तो हंसी का पात्र बन जाता है। एक बार तो दंगल के आयोजक महावीर व नवोदित पहलवान गीता को कोरा जवाब दे देते हैं। लेकिन बाद में दंगल के विख्यात होने की लालसा में गीता को कुश्ती लडऩे की अनुमति मिलती है। इसके बाद एक के बाद एक दंगल में जाकर पुरूष प्रधान समाज के दंगल में महावीर अपनी बेटियों के साथ पुरूषों की बहादुरी को चुनौती देता है। गीता व बबीता की कुश्तियों से बेटियों की बहादुरी स्थापित होने लगती है। नेशनल में गोल्ड जीतने के बाद अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर देश का नाम रोशन करने के लिए महावीर गीता को पटियाला कैंप में भेजता है। वहां पर जाकर गीता को बहुत कुछ नया सीखने का मौका मिलता है। बीच में जब वह अपने गांव आती है तो अपने पिता एवं कोच महावीर सिंह फोगाट द्वारा बताए गए कुश्ती के दांव के विपरीत वह अपनी बहन को नए दांव सिखाने लगती है। इसका महावीर विरोध करता है तो दोनों में ठन जाती है। बाप-बेटी में रोमांचक कुश्ती होती है और गीता अपने पिता और पुरूषों की मर्दानगी को शिकस्त देती है। इस पर पिता भी मायूस हो जाता है। लेकिन गीता पर अहंकार का नशा चढऩे लगता है। वह घर से बाहर खुली दुनिया का आनंद लेती है, लेकिन देश से बाहर मुकाबला हार जाती है।
इसके बाद बबीता भी नेशनल गोल्ड जीत कर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के मुकाबलों की तैयारी के लिए बहन के पास पहुंच जाती है। वह गीता को उसके अहं का अहसास करवाती है। फिर दिल्ली में 2010 के कॉमनवैल्थ की तैयारियों के लिए पिता अपनी बेटी की तैयारी करवाने के लिए पटियाला पहुंचता है और बाहर कमरा किराए पर लेकर अनओफिशियली दोनों बेटियों को अलग से अभ्यास करवाता है। फिर फिल्म में दर्शकों कॉमनवैल्थ गेम का रोमांच देखने को मिलता है। अपने कोच के विपरीत पिता द्वारा बनाई गई रणनीति के अनुसार गीता जीत दर्ज करती है और अंतत: उतार-चढ़ाव के बीच कड़े मुकाबलों में स्वर्ण पदक जीत लेती है। फिल्म खेलों के क्षेत्र की दुनिया की भी पोल खोलती है। जीत के पीछे गीता की मेहनत के अलावा पिता महावीर का जुनून भी देखने को मिलता है। लैंगिक समानता का संदेश देने वाली फिल्म होने के बावजूद फिल्म महावीर फोगाट की भूमिका में आमिर खान पर केन्द्रित है। इस फिल्म को पुरूष-पात्र केन्द्रित फिल्म कह कर आलोचना भी हो सकती है। महिलाओं की समानता में पुरूषवादी मानसिकता जब एक बड़ा अवरोध है तो पुरूष व पिता जब बेटियों को आगे बढऩे में सहारा बनें तो ही तो बेहतर व समतामूलक समाज का सपना साकार हो सकता है। ऐसे में फिल्म पूरी तरह से सफल हुई है। फिल्म को देखकर बेटियों की शादी व दहेज सहित विभिन्न प्रकार के दबाव में रहने वाले बेटियों के माता-पिताओं में जोश का संचार होता है। फिल्म में मुख्य व केन्द्रीय भूमिका में आमिर खान हैं। उनके अभिनय व हरियाणवी संवाद अदायगी की जितनी प्रशंसा की जाए कम है। लेकिन आमिर की पत्नी की भूमिका में साक्षी तंवर, गीता फोगाट की भूमिका में बाल कलाकार ज़रीना वसीम और फातिमा साना शेख, बबीता की भूमिका में सुहानी व सान्या मल्होत्रा का अभिनय भी किसी से कम नहीं है। हरियाणा के कलाकार विरेन्द्र ने अपनी छोटी सी भूमिका के जरिये विशेष छाप छोड़ी है। दंगल बॉक्स आफिस पर ही नहीं देश विशेषकर हरियाणा के लोगों में एक इतिहास रचने जा रही है। इस फिल्म की धुन में ही हम नए साल में प्रवेश कर रहे हैं। आशा है 2017 में हमें इस तरह की और भी फिल्में देखने को मिलेंगी।
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