Tuesday, December 27, 2016

‘दंगल’ फिल्म-समीक्षा

बेटियों की बराबरी के लिए मुठभेड़ करती ‘दंगल’

अरुण कुमार कैहरबा

हाल ही में रिलीज हुई नितेश तिवारी निर्देशित आमिर खान की फिल्म दंगल ने हरियाणा के पितृसत्तात्मक समाज को झिंझोडऩे की सफल कोशिश की है। फिल्म पुत्र लालसा और बेटियों को दोयम दर्जा देने वाले समाज को ना केवल आईना दिखाने का काम करती है, बल्कि बदलाव की राह भी दिखाती है। थियेटर में देखते हुए दर्शक फिल्म के मोहपाश में बंध जाता है। वह हरियाणा के आम जन की मानसिकता को देखता है और अपने भीतर भी झांकता है। फिल्म मनोरंजन भी करती है और बदलाव की चेतना भी पैदा करती है। अपनी प्रासंगिकता और सार्थकता के कारण फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर तहलका मचा दिया है।
दंगल हरियाणा के समाज पर आधारित यथार्थपरक फिल्म है। हरियाणा के गांव बलाली निवासी पहलवान महावीर सिंह फोगाट की भूमिका में मिस्टर परफैक्शनिस्ट के नाम से विख्यात आमिर खान ने शानदार अभिनय किया है। यह फिल्म महावीर फोगाट और उनकी बेटी गीता व बबीता के जीवन पर शोधपरक वास्तविक फिल्म है। फिल्म को रोचक बनाने के लिए निश्चय ही कल्पना का सहारा भी लिया गया है। फिल्म वास्तविक जीवन रूपी समुद्र से बूंद भर लेती है तो लोटा भर देती भी है। कला के लिए कला या फिर निरे मनोरंजन के लिए कला के कानफोडू शोर के बीच यह फिल्म कला की आवश्यक भूमिका को एक बार फिर से रेखांकित करने वाली है।
फिल्म में राष्ट्रीय चैंपियनशिप में पदक विजेता पहलवान महावीर सिंह फोगाट कुश्ती में देश का नाम रोशन करने के लिए एक बेटे की कामना करता है। इसके विपरीत जब बेटी का जन्म हो जाता है तो गांव में हर कोई उसे बेटे के जन्म के लिए टोटके सुझाने लगता है। झाड़-फूंक और गंडा-ताबीज तक सब कुछ किया जाता है। लेकिन फिर से बेटी का जन्म होता है। एक के बाद एक बेटियों के जन्म से महावीर पूरी तरह से निराश हो जाता है। बेटे के जरिये कुश्ती के संसार में परचम लहराने का उसका सपना टूट जाता है। एक दिन स्कूल से आती हुई उसकी बेटियों-गीता व बबीता को जब कुछ लडक़े गाली देकर अपमानित करते हैं तो दोनों बेटियां लडक़ों की अच्छी तरह मरम्मत कर देती हैं। पिटे-छिते लडक़े अपने परिजनों के साथ महावीर के घर में शिकायत लेकर आते हैं, तो लडक़ों की कमजोरी और लड़कियों की बहादुरी से लडक़ों के माता-पिता खुद ही शर्मशार होते हैं। यहीं से महावीर का मन पलट जाता है। 
पहलवान महावीर को बेटियों में उम्मीद की किरण नजर आती है। पदक तो पदक है बेटा लाए या बेटी। बेटियों के माध्यम से अपने सपने को परवान चढ़ाने का विचार जब वह पत्नी के सामने रखता है तो वह भी राजी नहीं होती। महावीर अपनी पत्नी से एक वर्ष तक का समय मांगता है। अल सुबह बेटियों को नींद से उठाकर उन्हें भागदौड़ करवाता है। भागदौड़ करने में लड़कियों के लिए परंपरागत सूट-सलवार बाधा बनते हैं तो उसकी जगह निक्कर-टीशर्ट ले लेती है। महावीर बेटियों के लंबे बालों को कटवा देता है तो बेटियां बुरी तरह रोने लगती हैं। सुबह शाम कड़े अभ्यास और पिता के कुश्ती के नशे से गीता और बबीता भी परेशान हो जाती हैं और किसी तरह से ऐसे अनुशासन व शारीरिक अभ्यास से बचने की जुगत लगाने लगती हैं। ऐसे में कहानी में फिर नया मोड़ तब आता है जब गांव की ही एक लडक़ी की शादी में हिस्सा लेने के लिए पिता की नजरों से बचते हुए गीता व बबीता काफी लंबे समय के बाद लड़कियों की तरह तैयार होती हैं। बेटियों द्वारा शादी में जाने से महावीर आग-बबूला हो जाता है और विवाह समारोह में पहुंच कर ही हंगामा कर देता है। गीता व बबीता छोटी उम्र में दुल्हन के रूप में सजी-धजी अपनी सहेली के सामने पिता के इस व्यवहार के प्रति अफसोस जताती हैं तो दुल्हन का दर्द छलक जाता है। दुल्हन गीता व बबीता से कहती है कि उनके पिता उनके बारे में सोचते तो हैं, नहीं तो कम उम्र में ही बेटियों को शादी की भ_ी में झोंक कर माता-पिता अपनी जिम्मेदारी से बरी होना चाहते हैं। अपनी सहेली के ये शब्द गीता व बबीता को अंदर तक हिला देते हैं और वे अब पहलवान बनने की तैयारियों में जान झोंक देती हैं। गांव की गलियों में बेटियों को दौड़ते देखना, लडक़ों की तरह लड़कियों के छोटे बाल लोगों के लिए हैरान करने वाले अनुभव हैं। पहलवान तो अखाड़े में बेटियों से अभ्यास करवाने की महावीर की इच्छा पर तरह-तरह की बातें कहते हैं। धुन का पक्का महावीर अपने खेत में ही अखाड़ा बनाता है और बेटियों को कुश्ती के दांव-पेंच सिखाता है। 
हरियाणा के गांवों में तीज-त्योहारों और मेलों पर विशाल दंगल आयोजित किए जाते हैं। इन दंगलों में पुरूष पहलवान अपना दमखम दिखाते हैं। लेकिन दंगल में बेटियों द्वारा जीत-हार के लिए जोर आजमाईश की बात आज भी अकल्पनीय है। यही नहीं बल्कि लड़कियों व महिलाओं का कुश्ती देखना भी वर्जित है। ऐसे में जिद्दी महावीर अपनी बेटियों को दंगल में लडक़े पहलवानों से कुश्ती करवाने के लिए ले जाता है तो हंसी का पात्र बन जाता है। एक बार तो दंगल के आयोजक महावीर व नवोदित पहलवान गीता को कोरा जवाब दे देते हैं। लेकिन बाद में दंगल के विख्यात होने की लालसा में गीता को कुश्ती लडऩे की अनुमति मिलती है। इसके बाद एक के बाद एक दंगल में जाकर पुरूष प्रधान समाज के दंगल में महावीर अपनी बेटियों के साथ पुरूषों की बहादुरी को चुनौती देता है। गीता व बबीता की कुश्तियों से बेटियों की बहादुरी स्थापित होने लगती है। नेशनल में गोल्ड जीतने के बाद अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर देश का नाम रोशन करने के लिए महावीर गीता को पटियाला कैंप में भेजता है। वहां पर जाकर गीता को बहुत कुछ नया सीखने का मौका मिलता है। बीच में जब वह अपने गांव आती है तो अपने पिता एवं कोच महावीर सिंह फोगाट द्वारा बताए गए कुश्ती के दांव के विपरीत वह अपनी बहन को नए दांव सिखाने लगती है। इसका महावीर विरोध करता है तो दोनों में ठन जाती है। बाप-बेटी में रोमांचक कुश्ती होती है और गीता अपने पिता और पुरूषों की मर्दानगी को शिकस्त देती है। इस पर पिता भी मायूस हो जाता है। लेकिन गीता पर अहंकार का नशा चढऩे लगता है। वह घर से बाहर खुली दुनिया का आनंद लेती है, लेकिन देश से बाहर मुकाबला हार जाती है। 
इसके बाद बबीता भी नेशनल गोल्ड जीत कर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के मुकाबलों की तैयारी के लिए बहन के पास पहुंच जाती है। वह गीता को उसके अहं का अहसास करवाती है। फिर दिल्ली में 2010 के कॉमनवैल्थ की तैयारियों के लिए पिता अपनी बेटी की तैयारी करवाने के लिए पटियाला पहुंचता है और बाहर कमरा किराए पर लेकर अनओफिशियली दोनों बेटियों को अलग से अभ्यास करवाता है। फिर फिल्म में दर्शकों कॉमनवैल्थ गेम का रोमांच देखने को मिलता है। अपने कोच के विपरीत पिता द्वारा बनाई गई रणनीति के अनुसार गीता जीत दर्ज करती है और अंतत: उतार-चढ़ाव के बीच कड़े मुकाबलों में स्वर्ण पदक जीत लेती है। फिल्म खेलों के क्षेत्र की दुनिया की भी पोल खोलती है। जीत के पीछे गीता की मेहनत के अलावा पिता महावीर का जुनून भी देखने को मिलता है। लैंगिक समानता का संदेश देने वाली फिल्म होने के बावजूद फिल्म महावीर फोगाट की भूमिका में आमिर खान पर केन्द्रित है। इस फिल्म को पुरूष-पात्र केन्द्रित फिल्म कह कर आलोचना भी हो सकती है। महिलाओं की समानता में पुरूषवादी मानसिकता जब एक बड़ा अवरोध है तो पुरूष व पिता जब बेटियों को आगे बढऩे में सहारा बनें तो ही तो बेहतर व समतामूलक समाज का सपना साकार हो सकता है। ऐसे में फिल्म पूरी तरह से सफल हुई है। फिल्म को देखकर बेटियों की शादी व दहेज सहित विभिन्न प्रकार के दबाव में रहने वाले बेटियों के माता-पिताओं में जोश का संचार होता है। फिल्म में मुख्य व केन्द्रीय भूमिका में आमिर खान हैं। उनके अभिनय व हरियाणवी संवाद अदायगी की जितनी प्रशंसा की जाए कम है। लेकिन आमिर की पत्नी की भूमिका में साक्षी तंवर, गीता फोगाट की भूमिका में बाल कलाकार ज़रीना वसीम और फातिमा साना शेख, बबीता की भूमिका में सुहानी व सान्या मल्होत्रा का अभिनय भी किसी से कम नहीं है। हरियाणा के कलाकार विरेन्द्र ने अपनी छोटी सी भूमिका के जरिये विशेष छाप छोड़ी है। दंगल बॉक्स आफिस पर ही नहीं देश विशेषकर हरियाणा के लोगों में एक इतिहास रचने जा रही है। इस फिल्म की धुन में ही हम नए साल में प्रवेश कर रहे हैं। आशा है 2017 में हमें इस तरह की और भी फिल्में देखने को मिलेंगी। 
   

Friday, December 9, 2016

गरीबी असमानता भ्रष्टाचार, कैसे मिलेंगे मानवाधिकार?

विश्व मानवाधिकार दिवस के अवसर पर दैनिक समाचार-पत्र सच कहूँ में दिनांक 10दिसंबर, 2016 को प्रकाशित लेख-

Tuesday, December 6, 2016

डॉ. आंबेडकर का था सपना, भेदभाव मुक्त हो भारत अपना

अरुण कुमार कैहरबा

बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर एक बहुमुखी प्रतिभाशाली शख्सियत हैं, जिन्होंने भारत में जाति-वर्ण की बेडिय़ों को तोडऩे के लिए अथक संघर्ष किया। दलित एवं अछूत समझी जाने वाली जाति में पैदा होने के कारण उनके रास्ते में बाधाओं के पहाड़ खड़े थे। अपनी प्रतिभा के बल पर उन्होंने सभी रूकावटों को पछाड़ कर आगे बढऩे के रास्ते बनाए। उन्होंने जाति की जंजीरों में बुरी तरह से जकड़े भारतीय समाज में शिक्षा, संगठन व संघर्ष का जोश व जज़्बा जगाया। डॉ. आंबेडकर को आजाद भारत के पहले कानून मंत्री, भा
रतीय संविधान के शिल्पकार, आधुनिक भारत के निर्माता, शोषितों, दलितों, मजदूरों, महिलाओं के मानवाधिकारों की आवाज बुलंद करने वाले समता पुरूष के रूप में जाना जाता है। 
भीमराव रामजी आंबेडकर का जन्म 14 अप्रैल, 1891 में तत्कालीन केन्द्रीय प्रांत और आधुनिक मध्य प्रदेश में महू में रामजी मालोजी सकपाल और भीमाबाई की 14वीं संतान के रूप में हुआ था। उनका परिवार मराठी था और वो महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले के अंबावडे नामक स्थान से संबंध रखता था। वे अछूत समझी जाने वाली हिंदू महार जाति से संबंध रखते थे। रामजी सकपाल भारतीय सेना की महू छावनी में सूबेदार के पद पर तैनात थे। सामाजिक रूप से निचले पायदान पर स्थित होने के बावजूद उनकी अपने बच्चों को पढ़ाने की बहुत इच्छा थी। उन्होंने बच्चों को सरकारी स्कूल में दाखिल किया। लेकिन जाति की जकडऩ के कारण शिक्षा की डगर आसान नहीं थी। भीमराव व अन्य अछूत मानी जाने वाली जातियों के बच्चों को स्कूल में अलग बिठाया जाता था। स्कूल में बहुत ऊपर से पात्र द्वारा पानी कोई डालता तो भीमराव प्यास बुझाता। इसी कारण कईं बार बच्चों को प्यासे रह जाना पड़ता था। इस तरह के भेदभाव के बावजूद भीमराव की प्रतिभा को देखते हुए कुछ अध्यापकों का स्नेह भी उन्हें मिला। एक अध्यापक ने तो उनके नाम से सकपाल नाम हटाकर परिवार के मूल गांव अंबावडे के आधार पर आंबेडकर नाम जोड़ दिया।
1894 मे रामजी सकपाल सेवानिवृत्त हो जाने के बाद सपरिवार सतारा चले गए और इसके दो साल बाद 1896 में भीमराव की मां की मृत्यु हो गई। बेहद कठिन परिस्थितियों में  आंबेडकर के दो भाई और दो बहनें ही जीवित बचे। 1904 में आंबेडकर ने एल्फिंस्टोन हाई स्कूल में दाखिला लिया। 1907 में मैट्रिक परीक्षा पास करने के बाद उन्होंने बंबई विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया और इस तरह वो भारत में कॉलेज में प्रवेश लेने वाले पहले अस्पृश्य बन गये। 1913 में पिता की मृत्यु के बावजूद उन्होंने पढ़ाई जारी रखी। गायकवाड शासक ने संयुक्त राज्य अमेरिका के कोलंबिया विश्वविद्यालय में जाकर अध्ययन के लिये आंबेडकर का चयन किया गया साथ ही इसके लिये एक 11.5 डॉलर प्रति मास की छात्रवृत्ति भी प्रदान की। 1916 में उन्हें पी.एच.डी. से सम्मानित किया गया। इस शोध को अंतत: उन्होंने पुस्तक इवोल्युशन ओफ प्रोविन्शिअल फिनान्स इन ब्रिटिश इंडिया के रूप में प्रकाशित किया। अनेक प्रकार की बाधाओं के बाजवूद उन्होंने अध्ययन जारी रखा। कानून, अर्थशास्त्र एवं विज्ञान विषयों की पढ़ाई की और अनेक डिग्रियां प्राप्त की, जोकि अपने आप में एक रिकार्ड था। 
शोषितों की आवाज को बुलंद करने के लिए उन्होंने मूकनायक, बहिष्कृत भारत जैसे अखबार निकाले। आजादी की लड़ाई को उन्होंने अपनी सरगर्मियों और विचारों के जरिये नई विषय-वस्तु दी। राजनैतिक आजादी से भी पहले उन्होंने सामाजिक और आर्थिक आजादी का सवाल उठाया। सार्वजनिक स्थानों, कूओं व तालाबों पर जाने के दलितों के अधिकार के लिए आंदोलन चलाए। जाति के नाम पर चल रहे भेदभाव को लेकर उन्होंने बहुत ही सशक्त ढ़ंग से अपने विचार व्यक्त किए तो महात्मा गांधी के साथ भी उनके वैचारिक मतभेद रहे। उन्हें संविधान सभा का सदस्य चुना गया। देश की आजादी के बाद उन्हें देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने अपने मंत्रीमंडल में कानून मंत्री की जिम्मेदारी दी। उन्हें संविधान की प्रारूप समिति का अध्यक्ष नियुक्त किया गया। स्वतंत्रता आंदोलन के शहीदों के सपनों और जनता की आकांक्षाओं के अनुकूल देश के संविधान का निर्माण एक बड़ी चुनौती था। संविधान सभा के सदस्यों का नेतृत्व करते हुए आंबेडकर ने इस चुनौती को स्वीकार किया। संविधान निर्माण के लिए उन्होंने दुनिया के 60 से अधिक देशों के संविधान का अध्ययन किया और देश संचालन के लिए एक बहुत ही बेहतर संविधान का निर्माण किया। संविधान बनाने में उनके महत्वपूर्ण योगदान के कारण ही उन्हें संविधान निर्माता की संज्ञा दी जाती है। 
देश की आजादी के बाद भी जात-पात की बुराई के बरकरार रहने के कारण वे बहुत ही व्यथित थे। उन्होंने हिंदू धर्म की ब्राह्मणवादी वर्ण व्यवस्था की कड़ी आलोचना प्रस्तुत की। जाति से त्रस्त हिन्दु धर्म से जब वे बेचैन हो गए तो अपने लाखों अनुयायियों को लेकर उन्होंने 14अक्तूबर, 1956 को बौद्ध धर्म ग्रहण किया। 6दिसंबर, 1956 को आंबेडकर का महापरिनिर्वाण हो गया। देहांत के बावजूद अपने विचारों एवं संघर्षों के जरिये उन्होंने देश की राजनीति को गहरे तक प्रभावित किया है। आंबेडकर भारतीय इतिहास की महात्मा बुद्ध, महात्मा ज्योतिबा फुले व कबीर के विचारों और उनकी परंपराओं को आगे बढ़ाने वाली शख्सियत हैं। एक जातिमुक्त समतावादी एवं न्यायसंगत समाज बनाने के लिए उनके प्रयासों से दिशा लेते हुए आज भी बहुत से लोग लगे हुए हैं। आधुनिक भारत के निर्माण में उनके योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकेगा और ना ही उनके विचारों की उपेक्षा की कोशिशें सफल होंगी।

Saturday, December 3, 2016

समावेशी समाज का अरमान, अशक्तजनों को सम्मान

विश्व अशक्तता दिवस के उपलक्ष्य में 3दिसंबर, 2016 को दैनिक हरिभूमि में प्रकाशित लेख-

Friday, December 2, 2016

दास प्रथा आज भी कईं रूपों में मौजूद

अन्तर्राष्ट्रीय दास प्रथा मुक्ति दिवस के उपलक्ष्य में दिनांक 2दिसंबर, 2016 को दैनिक हरिभूमि में प्रकाशित लेख-

Thursday, December 1, 2016

जागरूकता की नाव से होगा एड्स से बचाव

विश्व एड्स दिवस के अवसर पर दिनांक 1दिसंबर, 2016 को दैनिक जगमार्ग में प्रकाशित लेख-