लघु शोध-प्रबंध
‘दरवाज़ों के बाहर: संवेदना और शिल्प’
शोधकर्ता-अरुण कुमार कैहरबा
प्रथम अध्याय
जयपाल: व्यक्तित्व एवं कृतित्व
1.0 प्रस्तावना:-
व्यक्तित्व की अवधारणा बहुत ही जटिल है। यह व्यक्ति के अपने और दूसरे के प्रति किए जाने वाले व्यवहार का एक समग्र चित्र है। इसमें व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक तथा सामाजिक रूप में जो कुछ भी वह होता है, वह सभी सम्मिलित होता है। साहित्यकार के व्यक्तित्व और कृतित्व में गहरा संबंध होता है। साहित्यकार के व्यक्तित्व का प्रभाव उसकी रचना पर पड़ता ही है। आलोच्य काव्य संग्रह ‘दरवाज़ों के बाहर’ के रचयिता जयपाल के व्यक्तित्व की बात करने से पहले व्यक्तित्व की अवधारणा को समझना अति आवश्यक है।
1.1 व्यक्तित्व का अर्थ एवं परिभाषा-
‘व्यक्तित्व’ शब्द का उद्गम लैटिन भाषा के ‘पर्सनेअर’ शब्द से हुआ है, जिसका अर्थ ध्वनि करने के सदृश से है अर्थात यह शब्द वेश बदले हुए पात्र की आवाज को व्यक्त करता है। इस संदर्भ में यह कहना उचित होगा कि ईसा से करीब एक सदी पूर्व ‘पर्सोना’ शब्द नाटकों आदि में जो मुखौटा प्रयोग में लाया जाता था, उसे पहने हुए व्यक्ति के कार्यों को स्पष्ट करने के लिए प्रयोग में लाया जाता था। इस प्रकार कृत्रिम रूप में व्यक्ति जब किसी पात्र की भूमिका अदा करने के लिए मुखौटा लगाकर नाटक में भाग लेता था, तो पर्सोना शब्द व्यक्ति के अवास्तविक रूप को स्पष्ट करता था।
इस शाब्दिक उत्पत्ति के ठीक विपरीत आधुनिक समय में व्यक्तित्व के अर्थ को वैज्ञानिक ढंग से समझने की चेष्टा की जाती है तथा व्यक्ति के वास्तविक तथा विश्वसनीय गुणों का अध्ययन किया जाता है। इस प्रकार आधुनिक मनोविज्ञान में प्राय: यह स्वीकार कर लिया गया है कि ‘व्यक्तित्व’ व्यक्ति के आंतरिक एवं बाह्य विशेषताओं का गत्यात्मक संगठन है। व्यक्तित्व की अवधारणा को समझने के लिए मनोवैज्ञानिकों की परिभाषाओं पर विचार करना जरूरी होगा।
वुडवर्थ एवं मारक्विस के अनुसार, ‘व्यक्ति का व्यक्तित्व व्यवहार की समस्त विशेषता है जो उसकी विचार-प्रणाली तथा विचारों की अभिव्यक्ति, उसकी अभिवृत्ति तथा रूचि, उसके व्यवहार द्वारा प्रकट होती है।’
वैरेन के अनुसार, ‘व्यक्तित्व व्यक्ति की संज्ञानात्मक, भावात्मक, क्रियात्मक एवं दैहिक विशेषताओं का एक ऐसा सुव्यवस्थित संगठन है जिस रूप में वह अन्य व्यक्तियों से स्वयं स्पष्टत: प्रस्तुत करता है।’
आलपोर्ट के अनुसार, ‘व्यक्तित्व व्यक्ति की मनोदैहिक प्रणालियों का आंतरिक गत्यात्मक संगठन है, जिसके द्वारा उसका वातावरण के साथ एक अनोखा समायोजन निर्धारित होता है।’
इस प्रकार व्यक्तित्व का संबंध व्यवस्थित एकीकृत व्यवहार से है। जन्मजात और अर्जित गुणों की सहायता से ही व्यक्ति समाज में समायोजन के लिए प्रयास करता है और इस सक्रिय प्रयास से ही व्यक्तित्व का निर्माण होता रहता है।
1.2 जयपाल: व्यक्तित्व:-
जयपाल के व्यक्तित्व को समझने के लिए निम्न बिंदुओं के तहत जानकारियाँ दी जा रही हैं-
1.2.1 जन्म और जन्म-स्थान:-
जयपाल का जन्म तहसील व जिला अम्बाला के गांव दुराना में श्री जवंतर राम और श्रीमती कमला देवी के घर 15अप्रैल, 1962 में हुआ। जयपाल के माता-पिता अनपढ़ थे और कच्चे मकान में रहते थे। कड़ी मेहनत और संघर्ष के बावजूद गरीबी का जीवन जी रहे थे।
1.2.2 पारिवारिक पृष्ठभूमि:-
जयपाल के मां-बाप मेहनत-मजदूरी करते थे और उनके पास शिक्षा व साहित्य के लिए कोई समय नहीं था। अत: हम कह सकते हैं कि उनकी कोई साहित्यिक पृष्ठभूमि नहीं है। पिछड़े नाई समुदाय से संबंध होने के कारण उनके साथ जातीय भेदभाव होता था, जिसका जयपाल के व्यक्तित्व के ऊपर गहरा प्रभाव पड़ा। वे संकोचशील होते गए, लेकिन कविता में जब वे अपनी अभिव्यक्ति करते हैं, तो बड़ी नफ़ासत के साथ व्यवस्था की विसंगतियों को उजागर करते हैं। जयपाल के दो भाई और दो बहनें हैं। इनमें एक भाई बड़ा और एक छोटा है।
1.2.3 बाल्यकाल:-
ग्रामीण पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण जयपाल का बचपन विविध प्रकार के आंचलिक अनुभवों से भरा हुआ था। वे बचपन में ही खेतों में मां-बाप का हाथ बंटाने लगे थे और पशुओं को चराने जैसे अनेक प्रकार के कार्य करते थे। यही कारण है कि गांव के जीवन पर उनकी गहरी पकड़ है। वे गांव के गरीब परिवारों की दिक्कतों को बड़ी संवेदनशीलता से देखते हैं और अपनी अनुभूतियों को सहज रूप से काव्य रूप देते हैं।
1.2.4 शिक्षा:-
सामाजिक-आर्थिक विषमताओं से बाहर आने के लिए उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में कड़ी मेहनत की। दसवीं कक्षा में आते-आते उन्होंने अपनी पढ़ाई का खर्च निकालने के लिए ट्यूशन पढ़ानी शुरू कर दी थी। 1976 में जयपाल जी ने अपनी दसवीं की परीक्षा पास की। उसके बाद एसडी कॉलेज अंबाला से 1983 में हिन्दी ऐच्छिक व संस्कृत विषय के साथ बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की। इसके बाद उन्होंने अध्यापक बनने की गरज से शिक्षा स्नातक में दाखिला लिया और 1984 में बीएड की। अब जयपाल की पढ़ने की ललक तो उफान पर थी लेकिन आजीविका की समस्याएं भी मुंह बाए खड़ी थी। इसलिए उन्हें पढ़ाई को विराम देना पड़ा और 1985 में गुरूनानक वरिष्ठ माध्यमिक स्कूल कुरुक्षेत्र में हिन्दी अध्यापक के रूप में काम करना शुरू कर दिया। अब नौकरी करते हुए उनके लिए औपचारिक तौर पर पढ़ाई करना तो संभव नहीं था। इसलिए उन्होंने प्राईवेट विद्यार्थी के तौर पर एम.ए. हिन्दी में दाखिला लिया। 1992 में उन्होंने एम.ए. कर लिया और उसके बाद हिन्दी विषय में ही राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा (नेट) भी क्वालीफाई कर लिया।
1.2.5 विवाह:-
जयपाल जी का विवाह 1988 में पानीपत की रहने वाली नीलम से हुआ। उस समय उनकी उम्र 26 वर्ष थी। विवाह सामाजिक मान्यताओं व रीतियों के अनुसार हुआ। उनकी पत्नी एम.ए. हिन्दी और बीएड किए हुए हैं और उनका साहित्यिक रूझान भी है। वे अपने जीवन-साथी की साहित्य के प्रति रूचि को ना केवल समझती हैं, बल्कि कईं बार उनकी कविताओं पर टिप्पणी करती हैं। इससे जयपाल को अपने रचनाकर्म में पत्नी का सक्रिय सहयोग मिल रहा है।
1.2.6 जीवन-यापन:-
डॉ. हरिशरण शर्मा के अनुसार, ‘‘जब हम किसी लेखक की संवेदना को समझने का प्रयास करते हैं तो हमें निश्चय ही उसके परिवेश और उसकी कृति का ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक हो जाता है। परिवेश का ज्ञान इसलिए अपेक्षित होता है कि हम उससे यह निष्कर्ष पा सकते हैं कि कलाकार का सृजन किस संदर्भ और किन धरातलों से जुड़ा है।’’
जयपाल का परिवार के गुजर-बसर और जीवन यापन के लिए संघर्ष तो दसवीं कक्षा में शुरू हो गया था, जब उन्होंने ट्यूशन पढ़ाना शुरू किया था। परिवार की कमजोर आर्थिक स्थिति के दृष्टिगत उन्होंने शिक्षा के साथ-साथ जीवन-यापन के लिए कड़ी मशक्कत की। लेकिन बी.एड. करने के बाद तो उनके लिए नौकरी करना अवश्यंभावी हो गया। उन्होंने इसके लिए तलाश भी शुरू कर दी। अंतत: कुरूक्षेत्र के गुरूनानक वरिष्ठ माध्यमिक स्कूल में उनका हिन्दी अध्यापक के रूप में चयन हो गया। यहां पर किराए के मकान में रहते हुए उन्होंने अपनी नौकरी शुरू कर दी। यहां रहते हुए साहित्य से जुड़े अनेक व्यक्ति उनके मित्र बन गए और साहित्यिक गोष्ठियों-संगोष्ठियों में शामिल होने का सिलसिला शुरू हो गया। 1995 तक जयपाल ने इसी स्कूल में अपनी सेवाएं देनी जारी रखी। उसके बाद उनका चयन पंजाब में अध्यापक के रूप में हो गया। आज भी वे इस पद पर कार्यरत हैं।
1.2.7 लेखन की प्रेरणा:-
यह पहले ही लिखा जा चुका है कि जयपाल के घर में किसी की भी साहित्यिक पृठभूमि नहीं थी। इसके बावजूद उनके अनुभव और अनुभूतियाँ इतनी तीव्र हैं कि उनकी रचनाएँ सामाजिक विषमताओं और विद्रूपताओं को अभिव्यक्त करने के साथ-साथ पूंजीवादी व्यवस्था की साजिशों को बेपर्दा भी करती हैं। अत: किसी भी रचनाकार को उसकी सामाजिक स्थितियों से काट कर देखना उचित नहीं है। अन्तर्मुखी प्रवृत्ति एवं संकोची स्वभाव होने की वजह से जयपाल ने किताबों को शीघ्र ही अपना मित्र बना लिया था। कुरुक्षेत्र में साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों के अगुवा वरिष्ठ आलोचक डॉ. ओम प्रकाश ग्रेवाल व वरिष्ठ कहानीकार तारा पांचाल को जयपाल अपना प्रेरणास्रोत मानते हैं। यही कारण है कि उन्होंने अपने पहले काव्य संग्रह ‘दरवाज़ों के बाहर’ को इन वरिष्ठ साहित्यकारों की स्मृति को समर्पित करते हुए हार्दिक श्रद्धांजलि दी है। निराला की साहित्य साधना, अवतार सिंह ‘पाश’, प्रेमचंद, शहीद भगत सिंह, मुक्तिबोध, नागार्जुन, नामवर सिंह, कुंवर नारायण, मैनेजर पांडेय, ओम प्रकाश बाल्मिकी, कंवल भारती, मनमोहन, पंकज बिष्ट, रामविलास शर्मा, आनंद प्रकाश व स्वदेश दीपक सहित अनेक साहित्यकारों के साहित्य ने उनको प्रभावित किया। उनकी अध्ययनशीलता के कारण अनेक अध्ययनशील लोग उनके मित्र बनते चले गए। अनेक पत्र-पत्रिकाओं ने भी उनके लेखन को गति देने में अहम भूमिका निभाई है। इनमें एसडी कॉलेज की पत्रिका ‘सनातन संचारिका’, ‘तारिका’, ‘युग-किरण’, ‘जतन’, ‘सारिका’, ‘हरिगंधा’, दैनिक समाचार-पत्र ‘दैनिक ट्रिब्यून’ व ‘जनसत्ता’ आदि मुख्य हैं।
1.2.8 संस्कार व स्वभाव:-
जयपाल का जीवन सादा एवं सरल है। वे सरलता, सौजन्यता एवं उदारता की मूर्ति हैं। स्वभाव संकोची है लेकिन संवेदनाएं बहुत प्रखर हैं। उनकी कविताओं में भी उनकी सादगी और वैचारिक प्रखरता की झलक मिलती है।
1.2.9 विचारधारा:-
मूल रूप से तो जयपाल जी मानवतावादी हैं। इसके बावजूद उनका वैचारिक क्षितिज लगातार विकसित होता हुआ नजर आता है। बचपन में सत्संग व कथा-कीर्तन में जाया करते थे। वातावरण से प्रभावित होकर उन्होंने बाईबल, सत्यार्थ प्रकाश व रामचरित मानस सहित विभिन्न धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन किया। इससे उनकी विचारधारा मानवतावादी थी। लेकिन कॉलेज के दिनों में रजनीश को पढ़ा तो धर्म से अरूचि हुई। वे निरंकारी सत्संग में भी चले जाते थे। यहां से विद्रोही होते चले गए। दलितों के प्रति संवेदनाएं उनमें शुरू से रही हैं। बाद में प्रगतिवादी साहित्य पढ़कर उनमें वर्गीय चेतना का विकास होता है और उनकी विचारधारा साम्यवादी हो गई। आज वे जनवादी लेखक संघ के साथ जुड़े हुए हैं और साहित्य का मुख्य उद्देश्य समतामूलक एवं न्यायसंगत समाज की स्थापना में योगदान करना मानते हैं।
1.3 कृतित्व:-
‘दरवाज़ों के बाहर’ काव्य-संग्रह जयपाल का पहला प्रकाशित काव्य संग्रह है। इस काव्य-संग्रह का विमोचन आलोचक नामवार सिंह ने 2010 में दिल्ली के विश्व पुस्तक मेले में किया था। इसके साथ उनकी रचनाएं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। कविता के साथ-साथ उन्होंने कहानियां, लघु-कथाएं, व्यंग्य तथा समसामयिक लेख भी लिखे हैं। उनकी रचनाएं विचार, चेतनशीलता, विद्रोह व सरोकारों से लबरेज हैं।
1.4 निष्कर्ष:-
जयपाल का व्यक्तित्व और कृतित्व एक दूसरे का पूरक है। उनका संकोची व्यक्तित्व कविताओं में मुखर हो जाता है और समाज के सबसे कमजोर व्यक्ति के हक में खड़ा होता है। अपने सामाजिक जीवन की विद्रूपताओं को वे बड़ी ही सरलता व सहजता से अपनी कविताओं में पिरोते हैं और एक नई दुनिया का सपना देखते हैं, जहां पर अन्याय व गैरबराबरी नहीं होगी।
द्वितीय अध्याय
संवेदना एवं शिल्प: सैद्धांतिक पक्ष
2.0 प्रस्तावना:-
काव्य कवि की जीवन-जगत की अनुभूतियों और कल्पना के सहज समन्वय का रूपाकार है। इसमें मानवीय संवेगों की भव्य एवं यथार्थ अभिव्यक्ति होती है। काव्य की यही संवेग तीव्रता उसे हृदय ग्राह्य एवं संवेद्य बनाती है। वस्तुत: संवेग सृष्टि इन्द्रियों और मन के अनुभव का परिणाम है। रचना में जितनी यथार्थ अनुभूति होगी, वह उतनी ही शीघ्रता से पाठक के हृदय में प्रविष्ट हो सकने में समर्थ होगी।
कवि अपने देश और युग की भौगोलिक, नैतिक, धार्मिक, राजनीतिक, सामाजिक, बौद्धिक और दार्शनिक-संक्षेप में सांस्कृतिक-परिस्थितियों से प्रभावित होते हैं, किंतु उनका यह प्रभावित होना उस चीज से भिन्न है, जिसे भौतिक तथ्यों एवं घटनाओं के संदर्भ में, निर्धारित होना कहते हैं। लेखक, कलाकार या कवि को उसके परिवेश में पाई जाने वाली सामग्री उसी अर्थ में प्रभावित करती है, जैसे किसी भी तरह का कच्चा माल उस कारीगर को, जो उस माल का उपयोग किसी वस्तु के निर्माण में करता है। परिवेश से ली गई अनुभूतियां ही कवि की काव्यगत संवेदनाएं बनती हैं।
रचना प्रक्रिया की दृष्टि से काव्य के दो पक्ष हैं- पहला यह कि ‘काव्य में क्या कहा गया है?’ और दूसरा यह कि ‘वह कैसे कहा गया है’? ‘क्या’ वाला प्रश्न संवेदनात्मक पहलु है, जबकि ‘कैसे’ वाला प्रश्न शिल्पगत पहलु है। कवि क्या कहना चाहता है? उसका उद्देश्य क्या है? किन भावनाओं और अनुभूतियों को उसने कविता में अभिव्यक्त किया है? ये सभी बातें संवेदना के अन्तर्गत आती हैं।
समाज के संदर्भ में कवि के हृदय में जो अनुभूतियां पैदा होती हैं अर्थात् परिवेश से कवि हृदय में जो प्रतिक्रियाएं होती हैं, कवि उन्हें साकार रूप देता है। कविता का सृजन भाव, विचार और कल्पना पर ही केंद्रित होता है। कवि के मन में जो संवेदनाएं उत्पन्न होती हैं, तो वह उनकी अभिव्यक्ति करता है। अनुभूतियों को कवित्वपूर्ण वाणी देना ही उसकी अभिव्यक्ति कहलाता है। काव्य-सृजन के लिए ये दोनों तत्व अनिवार्य हैं। इन तत्वों की सापेक्षिक स्थिति को शरीर और आत्मा से समझ सकते हैं। काव्य की संवेदना काव्य की आत्मा तथा काव्य का शिल्प पक्ष बाह्य आवरण या स्थूल कहा जाता है। संवेदना अथवा अनुभूति काव्य का मूलाधार है। शरीर बाह्य रूप है, इसी तरह शिल्प के साधन शब्द, बिंब, प्रतीक, अलंकार आदि कविता के बाह्य उपकरण हैं।
2.1 संवेदना : अर्थ एवं स्वरूप:-
किसी वस्तु या घटना के प्रभाव से उपजी भावनाओं एवं अनुभूतियों को संवेदना कहा जाता है। कविता इन्हीं संवेदनाओं की अभिव्यक्ति है। ये ऐसे अनुभव होते हैं जो कवि के व्यक्तित्व में घुल मिलकर-छनकर जब सामने आते हैं तो संवेदना के रूप में व्यक्त होते हैं। रचनाकार इन तथ्यों को कल्पना से जोड़कर जब शब्दों में बांध देता है तो ये वास्तविक बन जाते हैं और सत्य का यह रूप अनुभूतियों से जुड़कर कुछ अधिक तीव्र व सूक्ष्म होकर संवेदना बनता है। संवेदना को समझने के लिए कवि का परिवेश, उस परिवेश की हलचल और उस हलचल में शामिल व्यक्तियों की स्थिति, परिस्थिति और मन:स्थिति आधार का काम करती है। स्पष्ट है कि संवेदना शून्य में आकार ग्रहण नहीं करती, अपितु युग बोध से प्रभावित होती है। युग बोध और संवेदना का अत्यंत करीबी रिश्ता है।
डॉ. हरिशरण शर्मा के अनुसार, ‘‘युग बोध को दो स्तरों पर ग्रहण किया जा सकता है-बौद्धिक धरातल पर और संवेदना के धरातल पर। कलाकार का युग बोध उसकी संवेदना का स्तर बनकर आता है। जब युगबोध संवेदना के स्तर पर ग्रहण किया जाता है तो उसमें प्रभाव, वास्तविक और आकर्षण का गुण कईं गुणा बढ़ जाता है।’’
संवेदना को कविता की आत्मा कहा जाता है क्योंकि संवेदना के अभाव में कविता शब्दों के निर्जीव ढ़ांचे के समान होगी। भावों का सर्वश्रेष्ठ रूप रस निष्पत्ति है, क्योंकि भाव रस की कोटि पर पहुँच कर ही आस्वाद्य बनते हैं। फलत: काव्य के अंतर में भाव की प्रतिष्ठा होती है। रस निष्पत्ति मुख्यत: भावना के परिपोषण और उसके आस्वादन पर अवलंबित है। मानवीय अन्त:करण में अनेक भावनाओं का समुद्र सदैव हिल्लोलित रहा करता है। इस भाव समुद्र में अनेकानेक लहरियाँ उठा करती हैं परंतु सभी क्षुद्र और क्षणजीवी भावनाएँ रस नहीं बन पातीं। जो भावना स्थायी मूलभूत और व्यापक होगी वही परिपुष्ट होकर रस निष्पत्ति में समर्थ होगी और वही सच्चे अर्थों में संवेदना होती है।
डॉ. शिव शंकर पांडेय का कहना है कि संवेदना उन व्यक्तिगत या समष्टिगत अनुभूतियों की अभिव्यक्ति है, जो साहित्यकार जीता है। इसका संबंध जीवन की उन यथार्थ स्थितियों से होता है, जिनके भीतर मामूली से मामूली आदमी सांस लेता है। आज का कवि समग्र जीवन को उसकी सारी अच्छाईयों, बुराईयों सहित अपनी रचना में प्रस्तुत करता है। युग की आवश्यकता के अनुरूप उसे ढ़ालता है।
रघुवीर सहाय के अनुसार, ‘विचारवस्तु का कविता में खून की तरह दौड़ते रहना कविता को जीवन और शक्ति देता है, और यह तभी संभव है जब हमारी कविता की जड़ें यथार्थ में हों।’
काव्य में कवि का बोध और संवेदनशीलता परस्पर अविभाज्य रूप में गुम्फित रहते हैं। भोलानाथ तिवारी ने लिखा है-‘‘सुख-दु:खात्मक अनुभूति से वेदना उत्पन्न होती है। अत: भावात्मक दृष्टिकोण अथवा बोध की प्रधानता के कारण ही कवि तत्कालीन समाज एवं परिवेश से विविध विषयों का बोध प्राप्त करता है। संवेदना के स्तर भी प्रत्येक युग में भिन्न रहते हैं। यही कारण है कि परिस्थितिवश किसी युग के काव्य में भाव-पक्ष की प्रबलता दृष्टिगत होती है, तो किसी अन्य युग के काव्य में कला-पक्ष की प्रधानता रहती है। किसी युग के काव्य में कवि अंतर्मुखी हो गया है तो किसी युग का कवि बहिर्मुखी है।’’
साहित्यकार चाहे किसी भी भाव की आंतरिक अनुभूतियों की अभिव्यंजना करे, उनमें भी उसके व्यक्तित्व की झलक विद्यमान रहती है। यद्यपि अनुभूति कवि के अंत:करण की ही एक प्रक्रिया है, तथापि उसका संबंध सामाजिक परिवेश से भी है। इतना ही नहीं वह जिन भावनाओं को अपने साहित्य में सर्वोच्च स्थान देता है, वे वस्तुत: उसके व्यक्तित्व की अनुभूति ही है।
साहित्कार समाज में रहते हुए उचित-अनुचित व अच्छाईयों-बुराईयों की ओर ध्यान देता है। वह अनुचित व बुराईयों का खंडन करते हुए अच्छाईयों का पोषण करता है। इस प्रकार उसका लक्ष्य आदर्शात्मक बन जाता है। जब साहित्यकार अपने साहित्य में संत्रास, निरर्थकता, निराशा व कुरीतियों आदि की अभिव्यक्ति करता है, तब उसका साहित्य यथार्थपरक बन जाता है। अत: संवेदना आदर्श और अनादर्श से जुड़े तथ्यों की संतुलित अभिव्यक्ति से जुड़ा हुआ है। जिसमें कवि आशा-निराशा की अभिव्यक्ति करता है।
2.2 संवेदना के पर्याय:-
संवेदना शब्द अत्यंत व्यापक है। इसकी व्यापकता को केंद्रित करके विभिन्न विद्वानों ने पर्यायवाची शब्द और आयाम निर्धारित किए हैं। कथ्य, वर्ण्य, विषय-वस्तु, भावपक्ष और विचार आदि शब्द संवेदना के लिए प्रयोग किए जाते हैं। अर्थ भावना की दृष्टि से तो किसी भी पर्याय का प्रयोग किया जा सकता है। किंतु कविता के लिए विशेषकर संवेदना का प्रयोग किया जाना उचित है।
2.2.1 कथ्य:-
कथ्य शब्द संस्कृत की ‘कथ’ धातु और यत् प्रत्यय से बना है, जिस का अर्थ है- कथनीय, कहने योग्य अथवा जो कहा गया हो। अंग्रेजी में कथ्य का पर्यायवाची शब्द थीम है। इससे पूर्व कथ्य शब्द के स्थान पर संदेश, अभिप्रेत, अर्थ, मंतव्य, सम्प्रेक्ष्य व लक्ष्य आदि शब्दों का प्रयोग प्रचलन में रहा है। हिन्दी में थीम के लिए ‘कथासूत्र’ शब्द का प्रयोग होता है। इन कथासूत्रों के आधार पर कलाकृतियों की नई प्रकार की समीक्षा का मार्ग प्रशस्त हो गया है। इसी आधार पर इसे विचार-लेख भी कहा जाता है। पाश्चात्य साहित्यकारों ने कथ्य शब्द का विवेचन-विश£ेषण करते हुए विवेकपूर्ण एवं तर्कसंगत परिभाषा दी है। ‘डालास्ट्रीम ने थीम (कथासूत्र) को विषय, स्थिति और कथावस्तु से परिभाषित करते हुए उसे दिशा-निर्देशक विचार, अभिप्राय, उपदेश और निश्चित उक्ति कहा है। थीम-संवाद संभाषण, प्रवचन, आधारभूत कार्य अथवा वह सामान्य प्रकरण है, जिसे विचार-विशेष के द्वारा उद्धृत किया गया हो।’ 2.2.2 वर्ण्य विषय:-
वर्ण्य विषय कवि के ध्येय का निर्धारण करता है। वर्ण्य से अभिप्राय है-जिसका वर्णन किया गया हो, जो वर्णन करने योग्य हो अथवा जिसे लेखक या कवि अपनी रचना के माध्यम से समझ पाया हो तो विस्तार से ब्यान करना चाहता हो। इस प्रकार कविता में जो कहा जाता है, वह वर्ण्य विषय है। अनावश्यक विस्तार का त्याग करके ही वर्ण्य विषय की प्रस्तुति गागर में सागर भरने का सफल प्रयास किया जाता है।
2.2.3 विषय-वस्तु:-
विषय-वस्तु विषय के प्रति दृष्टिकोण से जुड़ी होती है। विषय वस्तु से भी यही भाव परिलक्षित होता है। ‘विषय का शब्दकोषीय अर्थ है- कोई ऐसी बात जिसके संबंध में कुछ कहा, या सोचा जाए।’ वस्तु का यही तात्पर्य अमूर्त भावों के मूर्त रूप से है। अत: जिन संवेदनाओं को विचारोपरांत कवि शब्दों का परिधान पहना देता है, वे विषय बन जाती हैं।
2.2.4 भाव पक्ष:-
केन्द्रीय भावों से जुड़ी संवेदना को भावपक्ष के अंतर्गत लिया जाता है। कथ्य को भाव पक्ष भी कहा जाता है। भाव के बारे में डॉ. भोलानाथ तिवारी का कहना है कि ‘‘भाव वह है जो मन में महसूस किया जाए। इसलिए भाव पक्ष का सीधा सा अर्थ हुआ-विविध भावों, संवेगों अथवा अनुभूतियों की लामबंदी। भाव पक्ष काव्य का अंतरंग पक्ष माना गया है। इसे काव्य की ‘आत्मा’ कह सकते हैं। भाव पक्ष की सर्वश्रेष्ठ परिणति रस निष्पत्ति है। भाव रस-कोटि के चरम पर पहुंच कर ही आस्वाद्य बनते हैं। फलत: कथ्य के अंतर में भाव रस की ही प्रतिष्ठा होती है। रस निष्पत्ति मुख्यत: भावना के परिपोषण और उसके आस्वादन पर अवलम्बित है। अत: स्पष्ट है कि कविता भावों का सागर है। इन्हीं भावों और संवेगों का समन्वित रूप ही संवेदना कहलाता है।’’
2.3 संवेदना के विविध आयाम:-
कविता की संवेदना बहुरंगी, बहु आयामी और बहुस्तरीय होती है। कहीं कवि ने भौतिकवादी जीवनशैली के चलते निज जीवन में व्याप्त अवसाद, तनाव व आत्म संघर्ष को उकेरा है, तो साथ ही राजनैतिक-सामाजिक व्यवस्था के विकृत रूप को उजागर किया है। अंध-उपभोक्तवादी संस्कृति के परिणामस्वरूप मानवीय संवेदनशून्यता, भागमभाग व आपाधापी से उत्पन्न छटपटाहट भरी मनोस्थिति के बिंब हैं, तो कहीं पर व्यवस्था के नाम पर अव्यवस्था और घिनौनी स्थितियां हैं। कहीं अवमूल्यन के प्रति भारी असंतोष है, तो कहीं सामाजिक परिवेश की विसंगतियों का लेखा-जोखा है। कविता में यदि एक ओर आक्रोश, विद्रोह और समूचे ढ़ांचे को परित्याग करने का उद्घोष है, तो दूसरी ओर मानवीय सहृदयता का अंकन भी अनिवार्यत: रहता है। समसामयिक कविता की जहां तक बात है, यह किसी भी दृष्टि से उपर्युक्त संवेदनाओं से रिक्त नहीं है। अपितु व्यक्ति से लेकर परिवार और समाज से होती हुई, राजनैतिक-धार्मिक स्तर तक की संवेदनाओं को इस क्षेत्र की कविता में उन्मुक्त एवं विराट अंकन मिला है। कविता में राजनीति, संस्कृति, परिवार इत्यादि पक्षों से जुड़ी संवेदनाओं के संदर्भों को सैद्धांतिक मान्यताओं के आईने का प्रयास करेंगे ताकि आगे इन संवेदनाओं के व्यवहारिक पक्ष को उचित एवं सटीक ढ़ंग से प्रस्तुत किया जा सके।
2.3.1 वैयक्तिक आयाम:-
व्यक्तिगत भाव ही समष्टिगत अवस्था को प्राप्त होते हैं। व्यक्ति समाज को हाशिये पर रखकर समाज-संस्कृति इत्यादि दृष्टि से विचार नहीं कर सकता। मूलत: सार्वभौमिक संवेदनाएं व्यक्ति के मन में ही पनपती हैं। तदंतर विकास पाकर समाज और संस्कृति इत्यादि से जुड़ जाती हैं। सुमित्रानंदन पंत का मानना है कि कोई भी महान कलाकार न तो पूर्णरूपेण वस्तुनिष्ठ होता है और न ही पूर्णरूपेण आत्मनिष्ठ। संवेदना का बीज कलाकार की निजी संवेदनशीलता में ही होता है, परंतु जब वह बीज कलाकृति रूपी पुष्प का रूप धारण करता है तो वह पूर्ण रूप से वस्तुनिष्ठ हो जाता है। साहित्य को जनता की संचित चित्तवृत्तियों का प्रतिबिंब कहा जाता है। ‘जनता’ शब्द के मूल में व्यक्ति ही है, उसी की संवेदनाएं संचित होकर साहित्य बनती हैं। व्यक्ति के निजी अनुभव, राग-विराग, सुख-दु:ख, तनाव-दबाव, आशा-निराशा, इच्छा-अनिच्छा, प्रेम-विरह, विश्वास-धोखे, संघर्ष-पलायन इत्यादि उसके मन को उद्वेलित कर देते हैं। अनुभव ही उसके विचारों से पुष्ट होकर संवेदनाओं का रूप पाकर काव्य में अभिव्यक्त होते हैं। रचना आत्मनिष्ठ होते हुए भी वस्तुनिष्ठ होती है। अत: स्पष्ट है कि समूचे काव्य के बीच व्यक्ति नितांत अकेला, कुंठित, असुरक्षित व निराश दिखाई देता है तथा कहीं, आशावान और आनंदित। उपरोक्त तथ्यों को ही कथ्य का आधार बनाया जाता है।
2.3.2 पारिवारिक आयाम:-
परिवार व्यक्ति और समाज दोनों के लिए परस्पर धुरी के समान है। समाज में स्त्री और पुरूष विवाह के बंधन में बंधकर परस्पर विपरीत मनोभावों व वैचारिकता में सामंजस्य बैठाकर परिवार का सृजन करते हुए आपस में सहयोग की भावना का विकास करते हैं। परिवार में परस्पर सहयोग की भावना होती है। ‘समाजशास्त्री मैकाइवर एवं पेज लिखते हैं- ‘परिवार पर्याप्त निश्चित यौन संबंध द्वारा परिभाषित एक ऐसा समूह है जो बच्चों को पैदा करने तथा लालन-पालन करने की व्यवस्था करता है। परिवार अपने सदस्यों को संरक्षण प्रदान करने और उनके संस्कारों के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली संस्था बनकर सामने आता है। परिवार के सभी सदस्य परिवार की सामूहिक उन्नति, विकास एवं हित-चिंतन हेतु प्रेरित करते हैं।’’ उपरोक्त परिभाषाएं पारिवारिक स्तर के यथार्थ को प्रस्तुत करने में समर्थ हैं। परिवार उन व्यक्तियों के समूह को कहते हैं, जो विवाह, रक्त संबंध या गोद लेने द्वारा परस्पर सम्बद्ध हो। ये संबंध एक दूसरे पर प्रभाव डालें व एक दूसरे के साथ अंतत: सम्पर्क रखें और इस प्रकार एक सर्व सामान्य संस्कृति का सृजन करके सुसंगठित रहे। भारतीय परिवारों में मूल्यों का विघटन हुआ है। वे एक अजनबीपन, दिशाहीनता, कलह और घुटन का शिकार हुए हैं। दाम्पत्य संबंधों में तनाव पनपा है। पति-पत्नी वैमनस्य से गुजर रहे हैं। जयपाल ने पितृसत्तात्मक ढ़ांचे में महिलाओं के साथ होने वाले भेदभाव को उजागर किया है।
2.3.3 सामाजिक आयाम:-
‘‘जयपाल हमारे समय के बहुत जरूरी कवि हैं, जिनकी सीधी-सरल कविताएं मुख्यत: समाज के उपेक्षित, पीड़ित, वंचित वर्ग पर केंद्रित हैं। उनके पास कविता की बहुत ही गहरी पकड़ है। अपने आकार में कविता चाहे कितनी ही छोटी या विशालकाय हो, वह एक मुकम्मल विचार, स्थिति व भावना का वर्णन करती है।’’ जयपाल जी की सामाजिक विसंगतियों पर पैनी निगाह है। अत: इनकी रचनाओं में समाज की विभिन्न विसंगतियों उजागर हुई हैं।
मैक वेबर एवं पेज ने समाज की सटीक परिभाषा देते हुए लिखा है कि समाज संबंधों का जाल है। यह अपने आप में रीतियों, कार्यविधियों, अधिकार व आपसी सहायता, अनेक समूहों तथा उनके विभाजनों, मानव व्यवहार के नियंत्रणों तथा स्वतंत्रताओं की व्यवस्था है। यह निरंतर परिवर्तित होती रहती है। इसके अन्तर्गत मानवीय संबंधों की पूर्ण जटिलता या संकुलता निहित है, चाहे वे संबंध साध्य साधन, स्वाभाविक, प्रतीकात्मक अथवा क्रियाओं से उत्पन्न हों। कोई भी व्यक्ति समाज से अलग नहीं है। घने बीहड़ों में निवास करने वाले साधु-सन्यासी भी समाज के दायरे में ही आते हैं। नाथों, सिद्धों और अन्यान्य ऐसे विरागी साधुओं ने समाज से एक निश्चित दूरी रखी, परंतु वे फिर भी किसी न किसी रूप में समाज से संबंधित रहे और समाज भी उनसे प्रेरणाएं पाता रहा। कवि स्वयं भी समाज का अभिन्न हिस्सा है और उसके अधिकांश विषय भी समाज से जुड़े होते हैं। विशेषकर आधुनिक कविता सामाजिक अनुभूतियों के रंगों से खूब रंगी हुई है। सामाजिक जड़ताओं और कुसंस्कारों के विरूद्ध वैज्ञानिक सोच से जुड़कर इन कविताओं में जीवन की चिंताओं के व्यापक अहसास प्रकट हुए हैं। आज की कविता में मानवीय संबंधों में गिरावट, सामाजिक मूल्यों का अवमूल्यन और सामाजिक विषमताओं की सार्थक अभिव्यक्ति हुई है।
कवि कर्म उसकी संवेदना पर केंद्रित होता है। वह समाज का तिरस्कार नहीं कर सकता। इस काव्य संग्रह में कवि की रचनाधर्मिता में युग व समाज की संवेदना है। समाज में व्याप्त समस्याएं रचना को व्यापकता प्रदान करती हैं। युग की परिस्थितियां रचनाकार की चेतना को रूपायित भी करती हैं। कोई भी रचना युग के संदर्भ से अलग रखकर नहीं आंकी जा सकती। जयपाल जी की कविताओं में सामाजिक परिवर्तन की गहरी तड़प है।
2.3.4 राजनीतिक आयाम:-
देश की समसामयिक मुख्यधारा की राजनीति स्वार्थ, अवसरवाद, परिवारवाद, धनबल, बाहुबल व छलकपट पर टीकी हुई है। चुनाव प्रक्रिया को लोकतंत्र की प्राणवायु कहा जाता है, लेकिन चुनावों में राजनैतिक दल व राजनेता सभी प्रकार के मूल्यों को तिलांजलि देकर सत्ता की दौड़ में लग जाते हैं और जाति-धर्म की संकीर्णताओं को हवा देकर लोगों की सामाजिक एकता को तोड़कर रख देते हैं। चुनाव का मौसम दलबदल का मौसम बन जाता है। नेता चुनाव जीतने के लिए जनता से झूठे और खोखले वादे करते हैं और सत्ता में आने पर लोगों के दु:ख-दर्द को भूल कर अपनी स्वार्थसिद्धी में लग जाते हैं। राजनैतिक संवेदनशून्यता के कारण ही देश की आजादी के 68 वर्ष बाद आज देश की बहुत बड़ी आबादी दो जून रोटी के लिए तरस रही है। बच्चे स्कूल जाने की बजाय ढ़ाबों व ईंट-भट्ठों पर मेहनत-मजदूरी कर रहे हैं। लगातार चौड़ी होती जा रही असमानता की खाई ने आजादी के लिए अपने प्राण न्यौछावर करने वाले वीरों के सपनों पर पानी फेर दिया है। सत्ता के केन्द्रों की वादाखिलाफी और बेवफाई के कारण जनमानस असंतुष्ट और क्षुब्ध है। ये राजनैतिक प्रवृत्तियां आम जन के साथ-साथ संवेदनशील कवि को भी उद्वेलित करती हैं और वह इन सभी अनुभूतियों को अपनी रचनाओं का आधार बनाता है। वह अपनी कविताओं में राजनीति की अनैतिकता को अनावृत्त करता है और आक्रोश को वाणी प्रदान करता है।
जयपाल राजनैतिक रूप से बहुत ही सजग रचनाकार हैं और कविता के राजनैतिक सरोकारों के प्रति भी जागरूक हैं। उनकी कविताएं उत्पीड़ित व शोषित तबकों की आवाज बनती हैं और जनपक्ष को मजबूत करने के लिए समाज में मौजूद प्रचलित धारणाओं को तोड़ने के लिए संघर्ष करती हैं। यही नहीं वे शोषक वर्ग की विचारधारात्मक चालाकियों को भी उजागर करते हैं। वे अपनी कविताओं का प्रयोग जुझारू लोगों के संघर्षों को मजबूत करने के लिए करते हैं।
2.3.5 आर्थिक आयाम:-
विकास के सभी कालों में ‘अर्थ’ व ‘रोटी’ सबसे बड़ा प्रश्न रहा है। अर्थ ने जीवन के हर पहलु को प्रभावित किया है, अथवा आधुनिक जीवन शैली में संपूर्ण क्रियाकलाप अर्थतंत्र से जुड़े हैं। व्यक्ति का मूल्यांकन अर्थ के परिप्रेक्ष्य में होता है। यह हमारे जीवन के विभिन्न पहलुओं को नियंत्रित करता है। आज अर्थ जीवन की धुरी है। अर्थ की प्रधानता ने व्यक्ति, परिवार और समाज के प्रतिमानों को बहुत गहरे तक प्रभावित किया है। अवमूल्यन के इस दौर में व्यक्ति का मापदंड अर्थ ही है। यहां तक कि जीवन मूल्यों, योग्यता, प्रतिभा, नैतिकता आदि गुणों का मूल्यांकन भी अर्थ के परिप्रक्ष्य में होने लगा है। आज के समय में ‘बाप बड़ा ना भैया सबसे बड़ा रूपैया’ जैसी कहावत को हम अमल होते हुए देख रहे हैं।
जब देश की आजादी का संघर्ष चल रहा था, तो महात्मा गांधी व शहीद भगत सिंह ने आर्थिक-सामाजिक समानता का सपना देखा था। उन्होंने ऐसी व्यवस्था की कल्पना की थी, जहां पर हर हाथ को काम मिले और सभी की रोटी, कपड़ा, मकान जैसी बुनियादी जरूरतें पूरी हों। संविधान बनाने वालों ने समतावादी व न्यायप्रिय व्यवस्था निर्माण के इस सपने को साकार करने की जरूरत पर पूरा ध्यान दिया। देश की आजादी के बाद संविधान की प्रस्तावना में संशोधन करते हुए ‘समाजवादी’ शब्द जोड़ा गया लेकिन उसके बाद पूंजीवादी ताकतों ने राजनीति पर अपनी पकड़ मजबूत कर ली। वोट की राजनीति करने वाले राजनैतिक दलों ने समाजवादी मूल्यों को पूरी तरह से तिलांजलि दे दी और अपने स्वार्थ सिद्ध करने के लिए पूंजीवादी नीतियों को बढ़ावा दिए जाने की प्रक्रिया तेज गति से जारी है। मुख्यधारा में रहने वाले राजनैतिक दल तो पूरी तरह पूंजीवादी नीतियों के प्रचारक बने हुए हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनियों से मोटा कमीशन पाने के लालच में सरकारों द्वारा उनके आगे नतमस्तक होने के उदाहरणों की आज कमी नहीं है। समाज के सबसे कमजोर वर्गों की भलाई करना और उनके जीवन स्तर को ऊपर उठाने की तरफ राजनेताओं का ध्यान नहीं है। उनकी पूंजीवादी, साम्प्रदायिक व भेदभाव आधारित आर्थिक नीतियों के कारण अब गरीब आदमी और अधिक गरीब तथा अमीर और अधिक अमीर होता जा रहा है। असमानता की बढ़ती खाई ने जीवन में उलझाव पैदा कर दिया है। भूख, गरीबी, बेरोजगारी और महंगाई ने आम आदमी की कमर तोड़ दी है। मान-सम्मान के साथ उसका जीवन मुश्किल हो गया है। विषमता ने अनेक समस्याएं पैदा कर दी हैं।
जयपाल जी राजनीति और वित्तीय पूंजी की सांठगांठ को बहुत अच्छी तरह से समझते हैं। खुद एक मजदूर परिवार से होने के कारण उन्होंने आर्थिक विषमताओं की त्रासदी को झेला है और आर्थिक दरिद्रता में फंसे लोगों की बदहाली को अपनी कविताओं में अभिव्यक्त किया है।
2.3.6 धार्मिक आयाम:-
लोगों की आस्था का केन्द्र-बिंदु होने के कारण धर्म दीर्घकाल तक भारतीय जीवन के विविध पक्षों को प्रभावित करता रहा है। इसी प्रकार कला-साहित्य व संस्कृति भी इससे अछूती नहीं रही। धार्मिक केन्द्रों में कला व साहित्य को संरक्षण प्रदान किया गया है। आज भी अनेक धार्मिक स्थानों पर समुन्नत कलाएं विकसित हो रही हैं। लेकिन समय-समय पर धर्म-गुरूओं व धर्माधिकारियों के घिनौने कृत्यों ने लोगों में धर्म के प्रति वितृष्णा पैदा कर दी है। धर्म अपने बाहरी रूप, रीतियों व कर्मकांडों के कारण पुरोहितों-पंडे-पुजारियों व मौलवियों के अधीन रहा है और आम आदमी धार्मिक क्रियाओं में उनकी व्याख्याओं पर निर्भर रहा है। एक विशेष वर्ग ने धर्म के उच्च पदों पर जाति के आधार पर कब्जा करके रखा और उनकी विलासिता और भ्रष्ट आचरण भी लोगों में चर्चित रहा। इससे धर्म का सही रूप तिरोहित हो गया और यह कर्मकांड बनकर रह गया। धर्म विभिन्न प्रकार के झगड़ों व साम्प्रदायिक उपद्रवों का भी कारण बनता रहा है। धर्म के नाम पर राजनीति के चलते विभिन्न धार्मिक स्थल विवादास्पद हो गए हैं। धर्म गुरूओं ने भी राजनैतिक दलों की शरण ली है और राजनीति में उनके स्वार्थ सर्वोपरि रहे हैं।
काव्य संग्रह के रचनाकार जयपाल भी जन्म से धर्म में आस्था रखने वाले व्यक्ति थे लेकिन बाद में उन्हें वास्तविक स्थितियों से अवगत होते देर नहीं लगी। बाद में मार्क्सवादी विचारधारा के बरक्स उन्होंने धर्म को समझा और अपनी रचनाओं में भी धार्मिक पाखंडों की पोल खोली। उन्होंने धर्म की आड़ में होने वाले गोरखधंधों की पोल खोलने के साथ ही धर्म के नाम पर होने वाली साम्प्रदायिक-फासीवादी राजनीति द्वारा अयोध्या में राममंदिर और गुजरात में साम्प्रदायिक नरसंहार की भयावहता को उजागर किया है।
2.3.7 सांस्कृतिक आयाम:-
इतिहासकार लाल बहादुर वर्मा के अनुसार, ‘‘वास्तव में संस्कृति इतिहास का वह सार-संकलन है जिसमें बौद्धिक व शारीरिक आदि सभी प्रकार के श्रम, आत्मिक उपलब्धियां व अनुभव आदि सब सन्निहित हैं। संस्कृति अतीत का सार, वर्तमान की ऊर्जा एवं प्रेरणा तथा भविष्य के लिए दिशा संकेत है। इतिहास-बोध संस्कृति का ही निर्धारक पहलू है।.... गौर करें तो संस्कृति का क्षेत्र बहुत व्यापक है। वह रसोई से खेत, कारखाने से दफ्तर तक, जन्म से मृत्यु तक, समाज और हरएक व्यक्ति के जीवन के हर पहलू तक सर्वव्यापी है। संस्कृति की सूक्ष्मता और व्यापकता, साधारणता और विशिष्टता, एकता एवं विविधता उसके नैसर्गिक पहलू हैं। वह कार्य और सपनों, व्यवहार और आदर्शों को समान रूप से संजोती है।’’
संस्कृति मनुष्य की सर्वोत्तम साधनाओं की निधि है। लेकिन आज संस्कृति को संकीर्ण दायरों में बांध दिया जा रहा है। हिन्दू संस्कृति, मुस्लिम संस्कृति, ग्रामीण संस्कृति और शहरी संस्कृति आदि के विभाजन इसके उदाहरण हैं। यही नहीं गांव के मुकाबले शहर, दलित के मुकाबले सवर्ण, भारतीय भाषाओं के मुकाबले अंग्रेजी को श्रेष्ठ और सुसंस्कृत करार दिया जाता है। प्राय: जनजातियों, दलितों और ग्रामीणों को संस्कृति की परिधि से बाहर रखा जाता है। उनके लिए लोकसंस्कृति एक अलग श्रेणी गढ़ ली गई है। असमर्थ को असभ्य और शासकों की संस्कृति का अनुकरण न करने या कर पाने वालों को असंस्कृत करार दे दिया जाता है।
संस्कृति को जानने के लिए अपसंस्कृति से इसके भेद को भी समझा जाना जरूरी है। अपसंस्कृति वह है जो प्रकृति के प्रतिकूल होती है, उसका परिणाम विकृति, विरूपण और विनाश होता है। वह मनुष्य को तुच्छ, संकीर्ण, लोभी और दिशाहीन बनाती है, जबकि संस्कृति व्यक्ति और समाज को अर्थ, ऊर्जा और आदर्श प्रदान करती है। हिन्दी साहित्य में सांस्कृतिक मूल्यों की अभिव्यक्ति हुई है। इस काव्य संग्रह में कवि ने सांस्कृतिक अवमूल्यन पर चिंता जाहिर की है।
सारांशत: कवि की अनुभूतियों, भावनाओं और कल्पनाओं की अभिव्यंजना के द्वारा ही संवेदनाओं की पहचान होती है। व्यक्तिगत जीवन के कड़वे-मीठे अनुभव, आशाएं-निराशाएं, परिवेशगत घात-प्रतिघात से उद्वेलित भावों के साथ जब कल्पना का सामंजस्य हो जाता है तो कविता का सृजन होता है।
2.4 शिल्प: सैद्धांतिक पक्ष:-
प्रस्तुत लघु शोध-प्रबंध का विषय जयपाल कृत ‘दरवाज़ों के बाहर: संवेदना और शिल्प’ है। अत: संवेदना के विवेचन-विश£ेषण के उपरांत शिल्प की समीक्षा की जा रही है। परिवेश से उत्पन्न भावों के साथ जब कल्पना का उचित समन्वय होता है तो कविता का सृजन होता है। इन संवेदनाओं को शब्दों का चोला पहनाना पड़ता है। संवेदनाओं को अस्तित्व प्रदान करने के लिए जिन तत्त्वों का सहारा लेना पड़ता है। उन सभी का विवेचन शिल्प के अन्तर्गत किया जाता है।
शिल्प किसी भी कवि के जागरूक एवं सचेष्ट प्रयत्नों की मूर्त्त सिद्धि है। इसकी मदद से कवि अपनी संवेदना को सम्प्रेषित करता है। डॉ. बैजनाथ सिंहल के शब्दों में- ‘‘किसी भी काव्य कृति के निर्माण में जिन उपादानों द्वारा काव्य का ढ़ांचा तैयार किया जाता है, वे सब काव्य के शिल्प के तत्व कहे जाते हैं।’’ शिल्प कथ्य को अभिव्यक्ति प्रदान करने का एकमात्र साधन है। कविता के लिए केवल संवेदना ही पर्याप्त नहीं होती, अपितु भावानुकूल भाषा, उपयुक्त शब्द, सार्थक पद-विन्यास, अलंकार, बिम्ब, प्रतीक आदि की भी जरूरत होती है। इनके अभाव में अभिव्यक्ति को प्रभावशाली ढ़ंग से प्रस्तुत नहीं किया जा सकता। श्रेष्ठ और सुंदर कविता के लिए संवेदना एवं सम्प्रेषण का समुचित समन्वय परमावश्यक है। अत: स्पष्ट है कि किसी भी उत्तम काव्य की रचना के लिए संवेदना पक्ष जितना महत्त्वपर्ण है, शिल्प पक्ष उतना ही सशक्त एवं सबल होना जरूरी है।
2.4.1 शिल्प: अर्थ एवं परिभाषा:-
शिल्प का प्रभाव काव्य पर प्रत्यक्ष रूप से पड़ता है। ‘शिल्प’ शब्द ‘शील’ धातु में ‘प’ प्रत्यय लगने से बना है। ‘शील’ का अर्थ है-ध्यान करना, पूजन करना, अर्चन करना, अभ्यास करना। ‘प’ प्रत्यय पीने के अर्थ में प्रयुक्त होता है। अत: समवेत रूप में ‘शिल्प’ शब्द का अर्थ होगा- ध्यान या अभ्यास पीने वाला। वी.एस. आप्ते के मतानुसार इस शब्द की व्युत्पत्ति शिल्+पक् है।
कालिका प्रसाद ने शिल्प को वस्तु के रचने का ढ़ंग या तरीका, कारीगरी, हस्तकर्म, रूप में स्वीकार किया है। हाथ से काम करने का हुनर मानते हुए रामचंद्र वर्मा ने शिल्प को परिभाषित किया है। श्यामसुंदर दास दस्तकारी व हस्तकला आदि के अर्थ में शिल्प को मानते हैं। ‘हलायुध कोश’ में शिल्प का अर्थ ‘क्रियाकौशलम्’ किया गया है। शिल्प के इन अर्थों पर यदि दृष्टिपात किया जाए तो स्पष्ट है कि इस शब्द का संबंध सामान्यत: उस कारीगरी से है जो श्रमसाध्य और अभ्यास-जन्य होती है। इस अर्थ में इस शब्द का स्पष्ट संबंंध उपयोगी कलाओं से जुड़ता है। सरल शब्दों में यदि कहा जाए तो शिल्प से अभिप्राय हाथ से कोई वस्तु तैयार करने तथा दस्तकारी से है। कविता क्योंकि अमूर्त्त भावनाओं की दस्तकारी है, अत: यहां तकनीक का अत्यधिक महत्व है।
उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि शिल्प का अर्थ किसी वस्तु के रचना के बाहरी आवरण से संबंधित होता है। किसी वस्तु को रचने का ढ़ंग, तरीका और पद्धति ही शिल्प-विधान है। रचना निर्माण की पद्धति ही शिल्प-विधि है। कलाकार अपने मन में छिपी हुई भावनाओं को साकार और मूर्त रूप प्रदान करने हेतु जो विधियाँ, जो तरीके या ढ़ंग अपनाता या स्वीकार करता है, उन्हें शिल्प विधान के अन्तर्गत रखा जाता है। कवि अपने हृदय में उपजी कल्पनाओं को शिल्प के माध्यम से ही पाठकों अथवा श्रोताओं तक पहुंचाता है। दूसरे शब्दों में शिल्प संवेदना को प्रेषणीय करने का एकमात्र साधन है। संवेदनाओं की सुंदर, प्रभावशाली एवं दीर्घजीवी अभिव्यक्ति शिल्प के माध्यम से ही होती है। अनुभूति पक्ष की अभिव्यक्ति का आधार शिल्प ही है।
2.4.2 शिल्प के पर्याय:-
साहित्य में प्रचलित ‘शिल्प’ शब्द के पर्यायवाची शब्दों के अर्थ एवं स्वरूप को जानना आवश्यक है। संस्कृत साहित्य में ‘शिल्प’ शब्द का प्रयोग अनेक अर्थों में मिलता है। ऐतरेय-ब्राह्मण में विधाता की रचना को ‘देव-शिल्प’ और मनुष्य की सृष्टि के लिए ‘एतेषाम् वैशिल्पनाम अनुकृति’ कहा गया है। मनुस्मृति में इस शब्द का प्रयोग कला-कौशल के अर्थ में हुआ है। भरतमुनि के नाट्यशास्त्र में कलाओं तथा शिल्प को काव्य का एक अंग माना गया है। स्पष्ट है कि संस्कृत में ‘शिल्प’ शब्द का प्रयोग मुख्यत: साहित्य, संगीत व कला आदि के लिए होता है।
हिन्दी समीक्षक शिल्प, शिल्प विधि, शिल्प विधान आदि शब्दों का प्रयोग अंग्रेजी भाषा के आर्ट, टेकनीक, एक्सप्रेशन, क्राफ्ट आदि किसी न किसी शब्द के पर्याय के रूप में प्रयोग करते हैं। ‘एक्सप्रेशन’ शब्द में कौशल तथा व्यंजना का भाव निहित नहीं है। ‘टेकनीक’ शब्द को ‘शिल्प’ के पर्याय के रूप में स्वीकार करने पर आलोचकों एवं साहित्यकारों में मतभेद या विवाद है। ‘टेकनीक’ शब्द का अर्थ है- रचना प्रणाली, प्रविधि तन्त्र, प्रविधा विधि विशेष, किसी कार्य को निष्पन्न करने की विशेष विधि आदि। ‘टेकनीक’ से शिल्प नियम या शिल्प विज्ञान का बोध होता है, जबकि शिल्प का अर्थ कौशलपूर्ण रचना से है। अत: ‘टेकनीक’ शब्द ‘शिल्प’ का पर्याय नहीं हो सकता।
अंग्रेजी का एक शब्द ‘स्ट्रक्चर’ भी है जो शिल्प के पर्याय रूप में प्रयुक्त हुआ है। वस्तुत: इस शब्द के लिए हिन्दी संरचना शब्द का अधिक प्रचलन है और वह उपयुक्त भी है। ‘शिल्प’ शब्द साहित्य में उपयोगी कलाओं से जुड़ा है। इस शब्द में साहित्यिक कृतियों के कलात्मक सौंदर्य का निमित्त कारण बनने, अन्विति की व्यंजना देना आदि की पूरी क्षमता है। कोई अन्य शब्द इसका पर्याय नहीं हो सकता।
शिल्प को कला का पर्याय मानना भी उचित नहीं है। कला एक ओर तो सृजन मात्र का पर्याय है, दूसरी ओर साहित्य के क्षेत्र में कला शब्द के प्रयोग पर विद्वानों को आपत्ति भी है। इस स्थिति में काव्य शिल्प के लिए कला शब्द का प्रयोग ग्राह्य नहीं हो सकता।
शिल्प के लिए ‘शैली’ शब्द का भी प्रयोग प्राय: मिलता है। परंतु पर्यायवाची नहीं है। शैली शब्द शील जो आंतरिक भाव या चारित्रय का सूचक है, से बना है और साहित्य एवं काव्य में यह लेखक या कवि के निजी व्यक्तित्व को ही प्रमुखता से प्रकाशित करने के लिए नियत है। शैली सामान्यत: भाषागत रूप-रचना से संबंधित है जबकि शिल्प का संबंध वस्तु की समग्र रूप-रचना से है।
2.4.3 शिल्प का स्वरूप:-
रचना-पद्धति कोई निश्चित प्रक्रिया नहीं है। यह कवि की रूचि, प्रतिभा और दृष्टिकोण विषय की विविधता के अनुसार बदलती रहती है। परिणामत: शिल्प के क्षेत्र में प्रयोग स्वत: होते रहते हैं। वह आकाश के मेघखण्डों के समान नित्य नवीन रूप ग्रहण करता है, वह विकास के अनुकूल है और रूढि़ के प्रतिकूल। आकाश के मेघखण्डों के समान नित्य नूतन रूप धारण करने पर भी वह अपने समान स्वछन्द तथा उच्छृंखल नहीं, क्योंकि विषय की अनुरूपता तथा अनुकूलता से अनिवार्यत: बंधा हुआ है।
कृति साहित्यकार के भावों की अभिव्यक्ति होती है और अभिव्यक्ति का कोई भी रूप निश्चित सार्वकालिक, सार्वदेशिक व स्थायी नहीं होता। अत: अभिव्यक्ति का विषय बदलते ही उसके शिल्प का परिवर्तित हो जाना स्वाभाविक भी है। यद्यपि साहित्य की कुछ रूढि़यां ऐसी होती हैं, जिनका परम्परागत पालन अनिवार्य है, लेकिन फिर भी साहित्य मात्र उन्हीं में बंधकर नहीं चलता। वास्तव में शिल्प अचल पदार्थ की भांति गतिहीन नहीं है। यह प्रवाहशील जल की भांति गतिशील है।
काव्य शिल्प के स्वरूप के विषय में भारतीय तथा पाश्चात्य विद्वानों ने विभिन्न विचार प्रस्तुत किए हैं। ‘काव्यकृति के निर्माण में जिन उपादानों द्वारा काव्य का ढ़ांचा तैयार किया जाता है वे सब काव्य-शिल्प के तत्त्व हैं।’ कैलाश वाजपेयी का यह मत शिल्प के तत्त्वों से जुड़ा है।
डॉ. मोहन अवस्थी ने शिल्प की विशद व्याख्या करते हुए लिखा है- ‘‘काव्य शिल्प पर विचार करते समय काव्य-विधान, काव्य विधा कला, काव्य शैली, काव्य-रीति, काव्य-विधि आदि शब्द सामने आने से कविता करने के तरीके से लेकर कविता के गुण-दोषों पर विचार उसमें आ जाता है। काव्य-शिल्प और विधान में निराकार और साकार, मूर्त्त और अमूर्त्त का अन्तर है। काव्य-विधान बीज है, पर शिल्प सुंदर पौधा है। विधान को मूर्त्त करने का प्रयास ही शिल्प है। काव्य-शिल्प का अध्ययन कवि को कुशलतर बनाता है और पाठक की दृष्टि को सूक्ष्मता प्रदान करता है।’’
बॉन कारनर ने इस शब्द का पर्याय टेकनीक मानते हुए लिखा है-साहित्यकार के पास टेकनीक ही ऐसा साधन है जिसके द्वारा वह अपने विषय का अनुसंधान करता है, उसका विश्वास करता है और उसका अर्थ समझाते हुए उसका मूल्यांकन करता है।
यूनानी समीक्षक लॉजाइनस ने सुंदर शब्द योजना को शिल्प बताते हुए कहा-‘सुन्दर शब्द योजना, व्यक्त कवि मानस का विशिष्ट व्यापार ही शिल्प है।’ कोलरिज के अनुसार, ‘अच्छा भाव कृति का शरीर है, फैन्सी उसके वस्त्र, मनोभाव इसका जीवन, कल्पना इसकी आत्मा जो सबमें है। ये सब कला शिल्प को जन्म देते हैं।’
संक्षेप में पाश्चात्य विद्वानों की शिल्प विषयक धारणा यह रही है कि शिल्प पर ही काव्य की उच्चता तथा सुन्दरता निर्भर करती है।
2.4.4 शिल्प के नियामक तत्व:-
काव्यकार स्वानुभूति को व्यक्त करने के लिए कुछ तत्वों को माध्यम स्वीकार करता है। अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में स्वीकृत ही काव्य-शिल्प के तत्व हैं। प्राचीन और आधुनिक पाश्चात्य और भारतीय अनेक विद्वानों ने तत्वों के संदर्भ में कुछ दिशा-निर्देश तो दिए ही हैं। नियामक तत्वों की समीक्षा इस प्रकार की जा रही है:-
2.4.4.1 भाषा:-
काव्य कृतियों में अभिव्यक्ति का प्रमुख तत्व भाषा को ही माना गया है। भाषा के सम्बन्ध में कॉलरिज का कथन है कि ‘‘भाषा मानव-मन का शास्त्रागार है, जिसमें उसके अतीत के विजय-स्मारक और भावी विजयों के शस्त्र एक साथ रहते हैं। इसका अर्थ यही होता है कि पूर्व-प्रयोग भाषा की क्षमताओं, सबलताओं, अभिव्यंजना और सम्पे्रषण के अपेक्षित शक्ति स्रोतों सम्बन्धी अनुभव संजोए रहते हैं। यही अनुभव भविष्य की अपेक्षाओं, आकांक्षाओं और आवश्यकताओं में सहायक की भूमिका निभाते हैं।’’
‘‘भाषा ही अपने विविध वर्णों द्वारा भाव, विचारों, पदार्थों आदि के संशि£ष्ट चित्र अंकित किया करती है, भाषा के द्वारा ही भाव में परिपूर्ण स्वर्गीय संगीत की सृष्टि होती है, और भाषा ही ज्ञान-विज्ञान की असीम निधियों का उद्घाटन करके पाठकों के हृदय में उन्हें प्राप्त करने की प्रेरणा एवं जिज्ञासा उत्पन्न करती है। इस प्रकार भाषा एक ओर तो भावों एवं विचारों की अभिव्यक्ति का साधन है और दूसरी ओर वह सांसारिक पदार्थों का बोध कराती है। मुख्यत: काव्य-भाषा का कार्य यही है कि वह भावों एवं विचारों की अभिव्यक्ति में लीन रहती है। भाषा प्रस्तुत-योजना का मूल मंत्र और अभिव्यक्ति का साधन है। पंत ने भाषा को संसार का नादमय चित्र कहा है और डॉ. जानसन ने भाषा को विचारों का परिधान माना है।’’
कविता की भाषा सामान्य जन-जीवन की भाषा होनी चाहिए। इस प्रश्न पर अंग्रेजी साहित्य में वर्डसवर्थ से लेकर ब्लैकमर तक तथा आधुनिक हिन्दी साहित्य में पंत के पल्लव-प्रवेश से लेकर चौथे-सप्तक में अज्ञेय की भूमिका तक काफी विचार-विमर्श हुआ है और इस मुद्दे को लेकर बहस अभी भी जारी है। आज भी इस बहस में किसी मत तक नहीं पहुंचा गया है। विविध मतान्तरों की स्थिति में डॉ. हरिचरण शर्मा के मत से सहमत हुआ जा सकता है। उनका कथन है कि ‘‘भाषा ही वह शक्ति है जो जीवन की सच्चाईयों से अवगत करा सकती है। जो भाषा अनुभूतियों को सम्प्रेषित करने में असमर्थ होती है, वह काव्य-भाषा नहीं हो सकती। प्रत्येेक शब्द का एक अर्थ होता है और हरेक अर्थ के साथ कुछ संकेत भी होते हैं। कवि की सफलता इस बात में नहीं है कि वह शब्द को पकड़े वरन् इस बात में है कि उसमें छिपे संकेत को उजागर करे।’’
यह सब कवि के शब्द चयन और उनके प्रयोग पर निर्भर करता है। समसामयिक कविता का शब्द चयन काफी हद तक अनुभूतियों को सम्प्रेषित करने में समर्थ है। नई चेतना के अनुरूप शब्द भी नये होते हैं और समसामयिक जीवन को रूपायित करने में उसी की अर्थवत्ता के अनुसार शब्दों का चयन किया गया है।
2.4.4.2 बिम्ब-विधान:-
काव्य में भाव और भाषा का मणि-कांचन योग ही उसके अन्तर और बाह्य को प्रकाशित कर, सहृदय के अंत: स्थल में बिम्ब उपस्थित करता है। प्रश्न पैदा होता है कि बिम्ब क्या है? इसका अर्थ एवं स्वरूप क्या है?
‘बिम्ब अंग्रेजी के शब्द ‘इमेज’ का हिन्दी रूपांतर है। ‘इमेज’ शब्द का सामान्य अर्थ है- प्रतिमा, जिसकी रचना अपने मानस में स्मृति, विगत अनुभव, विशुद्ध कल्पना अथवा संयुक्त रूप से स्मृति और कल्पना के आधार पर करता है। काव्य में जब यह मानस प्रतिमा कवि की अनुभूति के सम्प्रेषण का शब्दार्थमय बनती है तो उसे काव्य-बिम्ब कहा जाता है।’
हिन्दी साहित्य कोश में लिखा गया है कि, ‘‘मनुष्य के जीवन में बिम्ब विधान अथवा कल्पना का बड़ा महत्व है। प्रस्तुत परिवेश के संवेदनों और प्रत्यक्ष के अतिरिक्त उसके मानस में अतीत की तथा कभी अस्तित्व न रखने वाली वस्तुओं और घटनाओं की असंख्य प्रतिमाएँ भी रहती हैं। बिम्ब शब्द इस मानस प्रतिमा का पर्याय है।’’
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने कविता में बिम्ब की अनिवार्यता प्रतिपादित करते हुए कहा है कि, ‘‘काव्य का काम है कल्पना में बिम्ब या मूर्त्त भावना उपस्थित करना, बुद्धि के सामने कोई विचार लाना नहीं।’’ भारतीय विद्वान मानते हैं कि बिम्ब किसी की आत्मीय अनुभूति के संदर्भ में वह ऐन्द्रिय रचना है, जिसके पीछे कवि के अन्त:करण का दीर्घ आत्म संघर्ष और शक्तिशाली वासना की सत्ता विद्यमान रहती है।
‘इंसाइकलोपीड़िया’ ब्रिटेनिका में बताया गया है कि ‘बिम्ब वह चेतन स्मरण शक्ति है, जो मूल उद्धीपन की अनुपस्थिति में पूर्वानुभूति का पूर्ण या आंशिक प्रतिरूप पुस्तुत करती है।’ पाश्चात्य विद्वान सी.डी. लेवीस काव्य बिम्ब की व्याख्या करते हुए लिखते हैं- ‘‘काव्य-बिम्ब सामान्यत: ऐन्द्रिय संवेदनायुक्त शब्द चित्र होता है, जिसकी अन्तर्धारा के रूप में कुछ सीमाओं तक रहस्यात्मक संदर्भों में कोई मानवीय संवेग विद्यमान रहता है। उसमें यह संवेग केवल विद्यमान ही नहीं रहता, वह अपने पाठक को भी इस काव्यात्मक संवेग अथवा भावुकता से आप्लावित करता है।’’ उन्होंने काव्य-बिम्ब का सीधा संबंध सम्प्रेषण से स्वीकार करते हुए यह प्रतिपादित किया है कि बिम्ब के स्वरूप निर्धारण की प्रक्रिया में कवि कल्पना का प्रमुख हाथ रहता है। डॉ. नगेन्द्र ने भी इसी तथ्य को पुष्ट करते हुए लिखा है कि काव्य-बिम्ब शब्दार्थ के माध्यम से कल्पना द्वारा निर्मित एक ऐसी मानव छवि है जिसके मूल में भाव की प्रेरणा रहती है।
कवि की कल्पना एवं दर्शना शक्ति सामान्य व्यक्ति से कहीं अधिक तीव्र एवं सूक्ष्म होती है। वह जब काव्य सृजन में प्रवृत्त होता है तो उसके मानस में एकत्रित अनुभूतियों का खजाना उसकी कल्पना में आने लगता है। वह अपने विवेक से अनावश्यक का त्याग और आवश्यक को ग्रहण करता हुआ उसका उचित संश£ेषण करके अभीष्ट बिम्बों की रचना कर लेता है। इस प्रकार बिम्ब-निर्माण की प्रक्रिया वस्तुत: काव्य निर्माण की ही प्रक्रिया और काव्य सृजन भाव को बिम्ब रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास है। बिम्ब के अभाव में कविता शब्द जाल बन कर रह जाती है, परन्तु उसमें हृदयग्राह्यता और सरसता बिम्ब ही भरते हैं। काव्य-शिल्प में एक तत्व के रूप में बिम्ब का स्थान अन्य कोई तत्व नहीं ले सकता।
2.4.4.3 प्रतीक:-
‘प्रतीक शब्द का प्रयोग उस दृश्य (गोचर) वस्तु के लिए किया जाता है, जो किसी अदृश्य (अगोचर या अप्रस्तुत) विषय का प्रतिविधान उसके साथ अपने सहचर्य के कारण करती है अथवा कहा जा सकता है कि किसी अन्य स्तर की समानुरूप वस्तु द्वारा किसी अन्य स्तर के विषय का प्रतिनिधित्व करने वाली वस्तु प्रतीक है। अमूर्त्त, अदृश्य, अश्रव्य, अप्रस्तुत विषय का प्रतीक प्रतिविधान मूर्त्त, श्रव्य, प्रस्तुत विषय द्वारा करता है। जैसे अदृश्य या अप्रस्तुत ईश्वर, देवता अथवा व्यक्ति का प्रतिनिधित्व उसकी प्रतिमा या अन्य कोई वस्तु कर सकती है।’
आचार्य रामचंद्र शुक्ल का कहना है कि प्रतीक, बिम्ब और मिथक से भिन्न है। रूपक में सादृश्य का अभाव रहता है, लेकिन प्रतीक सादृश्य के आगे भावना जगाने का कार्य करता है। प्रतीक द्वारा अदृश्य की अभिव्यक्ति होती है। बार-बार प्रयुक्त होने पर बिम्ब प्रतीक बन जाते हैं। धर्म और विज्ञान के प्रतीकों से साहित्यिक प्रतीक इस अर्थ में भिन्न होते हैं कि पहले दोनों में उनका अर्थ सुनिश्चित होता है, पाठक और प्रयोक्ता एक ही अर्थ ग्रहण करते हैं, किंतु साहित्यिक प्रतीक के संबंध में पाठक और प्रयोक्ता के बीच मतैक्य नहीं भी हो सकता है, प्राय: नहीं होता।
‘प्रतीक (सिम्बल) शब्द का सरल अर्थ है-किसी शब्द, चिह्न, ध्वनि, संकेत अथवा वस्तु द्वारा किसी अप्रस्तुत वस्तु को सूचित करना।’ पाश्चात्य विद्वान वैबस्टर ने प्रतीक की परिभाषा देते हुए कहा है-प्रतीक अपने संबंध सामंजस्य, रूढि़ अथवा संयोग से किसी दूसरी वस्तु को संकेतित करता चलता है, किंतु इससे यह नहीं समझ लेना चाहिए कि प्रतीक का उद्देश्य समानता या सादृश्य है। वस्तुत: प्रतीक तो किसी अदृश्य वस्तु का दृश्य संकेत भर है। वास्तव में प्रतीक लम्बी-चौड़ी बात को संक्षेप में कहने का माध्यम है। इसमें अधिक से अधिक अर्थों को कम से कम शब्दों में कहने की विशेषता होती है।
प्रतीक काव्य-शिल्प में चमत्कार उत्पन्न करके कुतुहल वृत्ति को जागृत करता है। भारतीय उपनिषदों, बौद्ध और संत साहित्य में तथा हमारी भाषाओं में विभिन्न रहस्यवादी काव्यों में प्रतीकों का आश्रया लिया गया है। पाश्चात्य काव्य जगत में भी प्रतीक को काव्य शिल्प का एक अनिवार्य अंग माना गया है। प्रतीक मानव की सुप्त तथा दमित भावनाओं को जगाकर काव्य के सौंदर्य को उद्घाटित करते हैं। प्रतीकों में लक्षण एवं व्यंजना शक्ति वह चमत्कार है, जिससे भाषा की लाक्षणिकता एवं व्यंजनात्मकता को गतिशीलता मिलती है। अज्ञेय ने लिखा है- ‘कोई भी स्वस्थ काव्य-साहित्य नए प्रतीकों की सृष्टि करता है। जब वह ऐसा करना बंद कर देता है, तो वह जड़ हो जाता है।’
प्रतीक का मुख्य क्षेत्र धर्म व दर्शन है, जबकि बिम्ब में संगीत, मूर्ति व चित्रकला का समाहार होता है। प्रतीक में बोद्धिकता और बिम्ब में ऐन्द्रियता होती है। प्रतीक का उद्देश्य है भाव या विचार का प्रतिनिधित्व करना, जबकि बिम्ब का उद्देश्य है भाव या विचार को मूर्त्त रूप देकर प्रेक्षणीय बनाना। प्रतीक अधिकांशत: जातीय चेतना के आधार पर निर्मित होते हैं, जबकि बिम्ब के निर्माण में प्राय: निजी चेतना क्रियाशील रहती है।
2.4.4.4 अलंकार:-
कवि भाषा और भावों के सौंदर्य में वृद्धि करना चाहता है। इसके लिए वह जिन साधनों को अपनाता है, उसे अलंकार कहते हैं। अलंकार को संस्कृत साहित्य में काव्य की आत्मा सिद्ध किया गया है लेकिन आज यह शिल्प के सामान्य उपादान के रूप में प्रतिष्ठित है।
अलंकारों से रसमयी रचना की शोभा बढ़ाई जा सकती है। काव्य में अलंकारों का प्रयोग सहज होना चाहिए। सायास प्रयोग से ये काव्य पर भार स्वरूप प्रतीत होने लगते हैं। विद्वानों ने अलंकारों को तीन श्रेणियों में विभाजित किया है-शब्दालंकार, अर्थालंकार व उभयालंकार।
जहां शब्द में चमत्कार हो वहां शब्दालंकार का प्रयोग माना जाता है। परिवर्तन से शब्दालंकार नहीं रह सकता। इसके अन्तर्गत अनुप्रास, श्लेष, यमक, वीप्सा, पुनरूक्ति, वक्रोक्ति अलंकार आते हैं।
अर्थालंकार अर्थ विशेष पर आश्रित होते हैं। इसमें अलंकार अर्थ चमत्कार का साधन बनकर आता है अर्थात् किसी शब्द को बदलनकर उसका पर्यायवाची शब्द रख लेने पर भी अलंकार बना रहता है। इसमें उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, संदेह, उल्लेख, अतिश्योक्ति, समसोक्ति, विभावना व एकावली आदि अलंकार आते हैं। उभयालंकार वहां पर होते हैं, जहां किसी एक पद्य में दो या दो से अधिक शब्दालंकार अथवा अर्थालंकार मिश्रित हों। काव्य रचना प्रणाली में अलंकार की महत्ता सर्वमान्य है। अलंकार कविता-कामिनी की शोभा बढ़ाने वाला कारक है।
‘ इसके द्वारा अभिव्यक्ति में स्पष्टता, भावों में प्रेषणीयता तथा भाषा में सौंर्द का सम्पादन होता है। स्पष्टता और प्रभावोत्पादकता के लिए वाणी अलंकार का रूप धारण करती है। इसलिए काव्य में इनका महत्वपूर्ण स्थान है। लेकिन फिर भी काव्य में रमणीयता और चमत्कार का उद्रेक करने के लिए अलंकारों की उपस्थिति आवश्यक है, अनिवार्य नहीं।’
कवि को काव्य में अलंकारों का प्रतिस्पर्धात्मक प्रयोग करना चाहिए लेकिन इस बात का अवश्य ध्यान रखना चाहिए कि इनके बोझ तले काव्य के भाव दब न जाएं। अलंकारों का फूहड़ एवं मोहवश अनावश्यक प्रयोग करना कविता के सौंदर्य को ‘चार-चांद’ लगाने की बजाय ‘ग्रहण’ भी लगा सकता है। समसामयिक कविताओं में कवियों ने अलंकारों का प्रयोग काफी जागरूकता एवं विवेक के साथ किया है।
2.4.4.5 छन्द :-
कविता में लय, गति और संगीतात्मक प्रवाह की प्रतिष्ठा करने की सिद्धि को छन्द कहा जाता है। अधिक गहराई में जाएं तो कह सकते हैं कि ‘अक्षर, अक्षरों की संख्या एवं क्रम, मात्रा, मात्रा-गणना तथा यति-गति आदि से संबंधित विशिष्ट नियमों से नियोजित पद्य रचना छन्द कहलाती है।’ भारतीय काव्य शास्त्र में ‘छन्द-शास्त्र’ एवं ‘पिंगल-शास्त्र’ तथा पाश्चात्य काव्य-शास्त्र में ‘मीटर’ एवं ‘प्रोसोड़ी’ के अन्तर्गत इसका विवेचन हुआ है। छन्द मूलत: लय का मूर्त्त और साकार रूप है। लय अपने आप में एक इंद्रिय-संवेद्य किंतु अमूर्त तत्व है जो शब्द, स्वराघात आदि से युक्त छंद में मूर्त्त आकार ग्रहण कर लेती है। अत: राग और भाव के अतिरेक और आवेग से स्वभावत: उच्छ्वसित लयबद्ध छंद काव्य-रचना के सभी अंतरंग और बहिरंग उपकरणों की विश्रृंखला में सांमजस्य उत्पन्न करता है।
‘छंद में अंगभूत तत्व हैं-पंक्ति, वर्ण एवं चरण तथा विधायक तत्व हैं-अक्षर, गति, यति, लयक्रम और स्वराघात।’ कविता के लिए छन्द विधान आवश्यक भी है और अनिवार्य भी, क्योंकि कविता एक रागात्मक अभिव्यक्ति है और छन्द रागात्मक अभिव्यक्ति का ही अन्तर्वर्ती घटक है जिसमें राग का अर्थ संगीत या गायन भी है और भावावेग भी। इसका अर्थ है कि जिस ललित अभिव्यक्ति में राग या भावावेग की प्रधानता होती है, उसी में संगीत की प्रमुखता होती है। इस प्रकार छंद कविता में भाव-सौंदर्य और नाद-सौंदर्य को एकाकार करने वाला तत्व है। यति और गति के घात-प्रतिघात से छंद के कलेवर में लय की सृष्टि होती है। इस प्रकार कविता को विशिष्ट संवेदनाओं को वहन करने में अतिरिक्त शक्ति मिलती है।
भले ही छायावाद पूर्व का कवि परम्परागत छंद प्रयोग को कविता की पहचान अथवा कसौटी मानता रहा है। उसके अनुसार अनुभूति या संवेदना, भाव या विचार की लयात्मक, कलात्मक और रसात्मक अभिव्यक्ति ही कविता का लक्षण है और यह केवल छंद में ही लिखी जा सकती है। लेकिन आज मन्तव्य बदला है। आज का कवि मुक्त छंद की कविता को अधिक प्रभावी मानता है लेकिन यह कविता भी छंद से पूर्णत: मुक्त नहीं होती। इसमें भी छंद अनिवार्यत: रहता है। क्योंकि छंद केवल वही नहीं है जो छंद-शास्त्रों में वर्णित है। छंद तो वास्तव में एक लय के संगीतात्मक प्रवाह का ही नाम है, जो कविता का प्राण होता है। वह किसी भी रूप में कविता में रह सकता है। मुक्त छंद की कविताओं में भी लय का प्रवाह निरंतर बना रहता है। ‘मुक्त छंद’ कहने से साधारणतया छंदहीनता का बोध होता है लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है। मुक्त छंद कहने का तात्पर्य कविता का छन्दहीन होना नहीं है। इस विषय में कहा गया है कि बहुत सी ऐसी कविताएँ जो स्पष्टत: छंदयुक्त प्रतीत नहीं होती और जिन्हें सहसा छंदहीन भी नहीं कहा जा सकता, वे छंद मुक्त शब्द से ही व्यंजित की जा सकती है। प्रसिद्ध आलोचक टी.एस. इलियट का कहना है कि ‘कोई भी कविता छंद से मुक्त नहीं हो सकती’।
2.5 निष्कर्ष :-
अत: निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि संवेदना कविता की आत्मा और शिल्प कविता का शरीर है। इन दोनों के समन्वित रूप से ही कविता को सजीवता, रोचकता और प्रभावोत्पादकता मिलती है।
तृतीय अध्याय
‘दरवाज़ों के बाहर’ में संवेदना
3.0 प्रस्तावना:-
जयपाल का जीवन संकटों और मुसीबतों में बीता है। इसकी झलक उनकी कविताओं में भी देखने को मिलती है। उनके जीवन के अभाव के साथ उनकी वैचारिकता का काव्य-संवेदना पर सीधा प्रभाव पड़ा है। वे बहुत सीधी-सरल भाषा में कविता कहते हुए विद्रूपताओं, विसंगतियों और विड़ंबना को उद्घाटित करते हैं। उनके पास समाज और व्यवस्था पर पड़ रहे वैश्विक प्रभावों को पहचानने की गहरी दृष्टि और समझ है। उनकी काव्य-संवेदना की चर्चा करते हुए ‘दरवाज़ों के बाहर’ काव्य संग्रह में प्रकाशक द्वारा की गई टिप्पणी को उद्धृत करना जरूरी जान पड़ रहा है-‘‘जयपाल हमारे समय के बहुत जरूरी कवि हैं, जिनकी सीधी-सरल कविताएँ मुख्यत: समाज के उपेक्षित, पीड़ित, वंचित वर्ग पर केन्द्रित हैं। उनके पास कविता की बहुत गहरी पकड़ है। अपने आकार में कविता चाहे कितनी ही छोटी या विशालकाय हो, वह एक मुकम्मल विचार, स्थिति, भावना का वर्णन करती है।’’
जयपाल की सीधी-सरल कविताओं में समाज के उपेक्षित, पीड़ित, वंचित वर्ग के जीवन के विविध पक्ष आए हैं। कविताओं में बार बार ‘बाहर रह गया आदमी’ व ‘बाहर एक आदमी खड़ा है चुपचाप’ आता है। लोक लुभावने नारों और सत्ता-केन्द्रों के दावों के बावजूद यह आदमी लगातार विकास की मुख्यधारा से बाहर धकेला जा रहा है। बड़े-बड़े इदारे इसके विकास के लिए बनाए गए हैं, लेकिन इन संस्थाओं और संस्थानों की चर्चाओं-परिचर्चाओं, नीति और योजनाओं तथा मीडिया से यह गायब होता जा रहा है। इसी आदमी और कमजोर तबकों को केन्द्र में रखकर ही जयपाल ने अपनी कविताओं का सृजन किया है। जयपाल की कविताएं इस ‘बाहर रह गए आदमी’ को पूरी सहानुभूति व संवेदना के साथ पाठक के समक्ष पेश करती हैं।
3.1 कविता से अपेक्षाएं :-
भागमभाग और जटिलताओं से युक्त दौर में कविता एक महत्वपूर्ण हथियार की तरह है। कम शब्दों में कविता ही इतनी बड़ी बात कह देती है जो कई बार कहानी, उपन्यास या अन्य विधाएं कह नहीं पाती हैं। कविता अपने समय की सच्चाईयों, संघर्षों को साथ लेकर चलती है और निरंतर मुठभेड़ करती है। कविता समय के भीतर खो रही संवेदनाओं को पकड़ने का काम करती है। कविता को किसी टीआरपी की ज़रूरत नहीं होती कि वह संवेदनाओं को मारकर कहीं भी और किसी पर भी हमला कर दे। वह हंसने और रोने के फर्क को बखूबी समझती है।
सत्य प्रकाश सिंह के अनुसार,
‘‘कविता क्या होती है और कविता क्यों होती है? यह एक ऐसा सवाल है जो किसी भी कविता को पढ़ते हुए मन में उठता है। हरेक कविता एक सवाल अनायास उठाती है। जैसे-जैसे कविता के शब्द दृश्यों, बिंबों, जीवन-स्थितियों और मानव छवियों में बदलते जाते हैं, हरेक कविता अपने क्या और क्यों का जवाब देती जाती है। इस तरह से हरेक कविता अपने स्तर पर कविता के मायने रचती है, रचती रहती है। कविता कवि की दुनियावी समझ से परे नहीं होती है। कविता का जीवन-संदर्भ वस्तुत: समाज का जीवन संदर्भ होता है।’’
हर कवि की अपने कविता-कर्म से कुछ अपेक्षाएँ होती हैं, संकल्प होते हैं। ये अपेक्षाएँ और संकल्प ही उसकी कविता की विषयवस्तु को तय करता है और शिल्प को प्रभावित करता है। लगभग हर कवि अपने मंतव्य को कविता में स्पष्ट करता है। जयपाल के लिए कविता न तो अपने शौक को पूरा करने का ज़रिया है और न ही अपने निजी किस्म की भावनाओं-विचारों को व्यक्त करने का टाइमकाटू साधन। कविता से उनकी कुछ अपेक्षाएँ हैं, कविता उनके लिए संघर्ष में हथियार की तरह है। उनके लिए कविता वैचारिक उहापोह को समाप्त करके दरवाजे के बाहर खड़े वंचित लोगों के हकों की अभिव्यक्ति का माध्यम है। कविता आदिकाल से चली आ रही मानव विरोधी प्रक्रियाओं को तोड़ती है। कविता समय के साथ चलते हुए भी समय से आगे रहते हुए संघर्षशील लोगों का पथप्रदर्शन करती है। इसकी अभिव्यक्ति काव्य-संग्रह की पहली ही कविता ‘समय से आगे’ में होती है-
कविता देख लेती है हमारी आंखों में दूर-दूर तक बिखरे स्वप्न
कविता तलाश लेती है गुमशुदा चीजों के टूटे हुए रिश्ते
कविता सुन लेती है दरवाजे के बाहर खड़े समय की पदचाप
कविता लड़ती है विचारों के अंधकूप से
कविता लड़ती है भावनाओं की बंद गुफाओं से
कविता तोड़ती है बर्बरता की आदिम प्रतिमाएं
कविता चलती है समय के साथ
रहती है समय से आगे
जयपाल कविता को बेमानी बनाने की चालबाजियों को अच्छी तरह समझते हैं। साहित्यकारों का एक तबका कविता को कवि से स्वतंत्र करके उसे शुद्ध कविता के जादू में तब्दील करने की वकालत करता है। वे कविता को दिल्लगी और मन बहलाव का साधन मानते हैं। ऐसा करते हुए वे कविता को रीतिकालीन पतनशील संस्कृति का एक साधन बनाने पर उतारू हैं। समय की चुनौतियों को वे ना तो देखना चाहते हैं और ना ही इसमें हस्तक्षेप से उन्हें कोई मतलब है। कविता को जादू कह कर दरअसल उसे अराजनीतिक दिशा में धकेलने की कोशिश की जाती है। वे यह भी कहते पाए जाते हैं कि दुनिया को अब किसी क्रांति की ज़रूरत नहीं है। जयपाल जहां कविता के माध्यम से क्रांति की मशाल को जलाए रखना चाहते हैं, वहीं अपनी कविता ‘क्रांति की ज़रूरत’ में वे रेखांकित करते हैं कि कविता को भी क्रांति की जरूरत है-
क्रांति की जरूरत है कविता के लिए
ताकि कविता किताबों से बाहर आ सके
3.2 वंचित वर्गों की पक्षधरता:-
जयपाल की कविताओं में उनकी स्पष्ट पक्षधरता दिखाई देती है। दरअसल वर्ग-विभाजित समाज में साहित्य-संस्कृति भी किसी न किसी वर्ग की पक्षधरता करती है। कहीं रचनाकार सचेत तौर पर पक्षधर होता है तो कहीं सचेत न होते हुए वह किसी न किसी वर्ग के हित साध रहा होता है। कविता से उनकी जो अपेक्षाएँ हैं, उन्हें हासिल करने के लिए वे कविता में जद्दोजहद करते हैं। वे सचेत तौर पर शोषित-वंचित वर्ग को मजबूत करने के लिए शोषक वर्ग की विचारधारात्मक चालाकियों की पोल खोलते हैं। वे समाज परिवर्तन में सामाजिक शक्तियों के बीच मौजूद संघर्ष में शोषित वर्ग के पक्षधर हैं। इसलिए वे अपनी कविताओं को जुझारू व संघर्षशील वर्गों को समर्पित करते हैं। अपने काव्य संग्रह के बारे में वे स्वयं लिखते हैं-
उन आँखों के लिए
जो फोड़ दी गई हैं
लेकिन सपने देखती हैं
उस जुबान के लिए
जो काट दी गई है
लेकिन बेजुबान नहीं हुई
उन होठों के लिए
जो सिल दिए गए हैं
लेकिन फड़फड़ाना नहीं भूले
जयपाल की कविताएं अपनी सहज अभिव्यक्ति के लिए विशेष रूप से जानी जाती हैं। उनकी कविताओं में कहीं भी दिखावा नहीं है। बनावट नहीं है। अपने समय की जटिलताओं और विसंगतियों को जिस सहजता से वे उजागर कर देते हैं, पाठक हैरान रह जाता है। यथार्थ के विभिन्न पक्षों को वे बहुत ही विश्वसनीय ढ़ंग से प्रस्तुत करते हैं। सामाजिक-शक्तियों के बीच चल रहे संघर्षों का वर्णन करती उनकी इस पहले संग्रह की कविताएँ जनता के पक्ष को मजबूत करने के लिए समाज में मौजूद प्रचलित धारणाओं को तोड़ती हैं। जनता के प्रति अपनी प्रतिबद्धता उनकी कविताओं में सीधे तौर पर मौजूद है।
आलोचक डॉ. सुभाष के अनुसार, ‘‘जयपाल की कविताएं हिम्मत हार चुके हताश-निराश व्यक्ति की नहीं हैं, इसीलिए इनकी कविता में वंचित-शोषक वर्ग के विगलित करने वाले कारूणिक चित्र भी नहीं हैं। अभावों में जी रही आबादियों की व्यथा व्यक्त करने के लिए जयपाल की कविता को कोई अतिरिक्त मशक्कत नहीं करनी पड़ती।’’
देश में बढ़ती विषमता किसी से छिपी नहीं है। एक तरफ तो पूंजीपति वर्ग के द्वारा बहुमंजिला इमारतें बनाई जा रही हैं, जिसमें तालाब और हवाई जहाज उतरने तक की सुविधा भी है, वहीं बहुत से लोग अभावों का जीवन जीते हैं। हिन्दुस्तान की 80 करोड़ जनता 20 रूपये प्रतिदिन पर अपना जीवन निर्वाह करती है। ‘एक रूपये का सिक्का’ उनके जीवन को व अभावों में बन रहे संबंधों को सहज ही बता जाता है। निम्न मध्यमवर्गीय नौकरीपेशा लोगों का जीवन वेतन पर किस तरह से निर्भर करता है। सारा वेतन पिछले महीने का कर्ज चुकाने में चला जाता है और फिर जेब में सिर्फ एक रूपये का सिक्का ही बचता है। अभावों से सामाजिक संबंध किस तरह से प्रभावित होते हैं। इसे इन पंक्तियों में देखा जा सकता है-
पिता जी आँगन में खड़े थे
मां ने पता नहीं क्या बड़बड़ की
तीर की तरह बाहर निकल गए
बेटा स्कूल जाते समय फीस की जिद करने लगा
लेकिन तभी अचानक बस्ता उठाकर भाग पड़ा
शायद कुछ समझ गया था बेटा भी
फिर सोचा घर से निकलूँ तो कुछ बचाव हो
बाज़ार में कईं मित्र मिले
वो बोल कम रहे थे
देख ज्यादा रहे थे
मुझे दर्जी भाइयों पर गुस्सा आया
आखि़र ये लोग जेब छाती पर क्यों टाँग देते हैं
अभावों भरा जीवन कविता में एकदम सजीव हो उठता है। ‘एक घर था ऐसा वैसा’ कविता में सामान की सूची इसकी खबर दे जाती है। अभावमय जीवन की तकलीफों को विश्वसनीयता से व्यक्त करने के लिए जयपाल दो वर्गों को आमने सामने रख देते हैं। एक ही घटना का समाज के गरीब वर्ग तथा अमीर वर्ग पर क्या प्रभाव पड़ने वाला है, इसके चित्र देकर वे सहज ही वर्गों की मौजूदगी और उनमें अत्यधिक अन्तर को सामने रख देते हैं।
‘सर्दी आ रही है’ कविता में सर्दी से बचने की तैयारी के लिए वंचित वर्ग तो अपने फटे पुराने कपड़ों को देखते हैं। मजदूर पुरानी रजाई को सिर्फ निहार कर आपस में टकरा जाते हैं। लेकिन दूसरी तरफ रईसजादे सर्दी का आनन्द लेने के लिए घूमने का कार्यक्रम बना रहे होते हैं। सर्दी के अर्थ दोनों वर्गों के लिए अलग-अलग हैं। इसके साथ व्यवस्था की पोल भी खुल जाती है, उसमें प्राकृतिक घटनाओं से अपना बचाव करने के लिए भी जरूरी सामान नहीं है। सर्दी से या लू से लोगों के मरने की खबरें समाचार-पत्रों में अक्सर पढ़ने को मिलती हैं। जयपाल की कविता इस तरह की दृष्टिहीनता को समाप्त करके हमारे सामने सच्चाई को सही परिप्रेक्ष्य में रखती है कि असल में लोग लू या सर्दी से नहीं मारे जाते, बल्कि कपड़ों या फिर मौसम के अनुकूल कपड़े, घर या पर्याप्त भोजन के अभाव में शारीरिक ताकत की कमी में मारे जाते हैं और अपने नागरिकों को जीने के लिए समस्त चीजें मुहैया करवाना व्यवस्था और राज्य का ही काम है। राज्य और व्यवस्था की अफलता का जिम्मा मौसम पर नहीं डाला जा सकता। इसका अहसास जयपाल की कविता देती है। वर्ग-विभक्त समाज में वर्चस्वशाली वर्ग इसी तरह से भ्रम पैदा करते हैं और क्रूर व बर्बर व्यवस्था को छुपा लेते हैं।
सर्दी आ रही है..
नौकर रामदीन इस हफ्ते कुछ ज्यादा ही खांस गया है
उसने दवा की शीशियां भी सहेज कर रख ली हैं
दुकान के बाहर रखी रजाइयों को मुड़ मुड़कर देखते हुए
दो मजदूर एक दूसरे से टकरा गए
रेस्तरां में बैठे दो रईसजादे सोच रहे थे
इस बार जब सर्दियों में बर्फ गिरेगी
दोस्तों के साथ कुफरी चलेंगे
बड़ा मज़ा आएगा।
3.3 मानवीय संबंधों की त्रासदी का चित्रण:-
अभावों और संकटों के बावजूद जीवन में कुछ न कुछ सकारात्मक होता है, जो मनुष्य के जीवन में कुछ आशा बनाए रखता है, जयपाल इस जीवन-सूत्र को बखूबी पकड़ते हैं। ग्रामीण जीवन के अभावों का चित्र खींचते हुए वे उसकी सामूहिकता को नजरअंदाज नहीं करते। उनकी दृष्टि में सारतत्व व थोथे में अन्तर करने की क्षमता है। कवि का यह आलोचनात्मक विवेक ही पाठक में प्रबोधन पैदा करता है। शासक वर्ग आम जनता की एकता को तोड़कर, विभिन्न आधारों पर विभाजन करके ही अपना शासन व शोषण जारी रखता है। वह समाज की संरचना को भी इस तरह का आकार व दिशा प्रदान करता है कि जनता एकत्रित व एकजुट न हो, बल्कि उसमें परस्पर वैमनस्य, संदेह व अविश्वास पनपता रहे। लेकिन सच्चाई यह है कि बुनियादी तौर पर मनुष्य सामाजिक प्राणी है और एकजुट व सामूहिक संघर्षों से ही उसने मानवता की विकास यात्रा तय की है। प्राकृतिक शक्तियों पर व वर्चस्वशाली सामाजिक शक्तियों पर विजय प्राप्त करने में समाज की सामूहिकता कारगर व निर्णायक रही है। जयपाल की कविताएं सामूहिकता के चित्र देकर मनुष्य में इस अहसास को तीखा करती हैं। ‘एक घर था ऐसा वैसा’ में पूरा गांव अपनी तमाम विद्रुपताओं, अन्तर्विरोधों व पिछड़ेपन के बावजूद एक ईकाई है और उसके टूटने व बिखरने की गहरी चिन्ता यहां मौजूद है।
सारा गांव एक ही टाब्बर
एक सी चाल एक सी ढाल
बीच में सबके एक सी तार
इसी तार पर खतरा भारी
रल मिल सोचो जनता सारी।
‘सबके बीच में एक सी तार पर खतरा भारी है’ इसका अहसास जयपाल की पारिवारिक संरचनाओं व रिश्तों पर आधारित समस्त कविताओं में मौजूद है। कविताओं में बेजान हो गए मानवीय संबंध इस दौर की सबसे बड़ी त्रासदी प्रतीत होते हैं। ये संबंध परिवार से शुरू होते हैं। ‘पिता जी’, ‘दादा’, ‘माँ’, ‘आधुनिक नगर’ में मानवीय सामूहिकता की अनुपस्थिति को कवि उद्घाटित करता है। यही उसकी सबसे बड़ी चिंता भी है। ‘पिता’ कविता में पिता अपने नगर में बसे बेटे के पास आता है और फिर गाँव में लौट जाता है। आगे बढ़ने की अंधी दौड़ में खो गई सामुहिकता को वे गांव से शहर में ढूंढ़ते हैं, लेकिन नहीं मिलती तो फिर गांव में जाते हैं। वहां भी तत्व उसे नहीं मिलता है। इसी प्रकार की कविता ‘माँ’ है, जिसमें माँ खोई-खोई सी रहती है। यह हादसा कब, कहां और क्यों हुआ। इससे वह स्वयं अनजान है-
माँ शुरू से ही
खोई-खोई सी रहती है
वह कब खो गई थी
कहाँ खो गई थी
किसलिए खो गई थी
उसे भी नहीं पता।
इसी संदर्भ में जयपाल की अन्य कविता ‘दादा’ भी द्रष्टव्य है-
दादा जी कहते हैं
पहले तो दूर से ही दिख जाता था घर
अब तो घर के अंदर आकर भी
नज़र नहीं आता है घर।
‘आधुनिक नगर’ जयपाल को सामूहिकता के अभाव में ही ‘श्मशान’ दिखाई देता है-
जहां गलियां सुनसान
मकान बेजान
दरवाजे बंद
खिड़की परेशान
एक आधुनिक नगर में
कितने श्मशान।
जयपाल की कविताओं की विशेषता यह भी है कि वे सामूहिक अनुभव व सामूहिक सवालों पर आधारित हैं। इनमें निजी रूचियों की कोई गुंजाइश नहीं है। सामूहिकता में ही लेखक की निजता भी शामिल है। ‘गांव’, ‘किसान’, ‘बच्चे’, ‘खाली हाथ’, ‘मेज, कुर्सी और आदमी’, ‘मजदूर औरत’, ‘एक घर था ऐसा वैसा’ आदि कोई भी कविता लें सभी कविताएं एक बड़ी आबादी से संबंधित हैं। यहां किसी व्यक्ति या निजी घटना का जिक्र नहीं है।
3.4 बच्चा:-
पूंजीवादी व्यवस्था की सामाजिक-पारिवारिक संरचना सामुदायिकता पर प्रहार करती है, लेकिन जयपाल की पैनी दृष्टि इन संरचनाओं को तोड़ने वाली शक्तियों को भी देख लेती है, जहां पूंजीवादी मूल्य स्वयं को लाचार व असहाय महसूस करते हैं। इन शक्तियों को बांटने और विभाजित रखने के लिए पूंजीपति वर्ग द्वारा अनेक प्रकार की साजिशें रची जाती हैं। लेकिन इसके बावजूद इनमें परिवर्तन की अपार संभावनाएं हैं। जयपाल इन्हें विभिन्न प्रकार से अपनी कविताओं में लेकर आते हैं।
बच्चा जयपाल जी की कविताओं का प्रिय विषय है। अपनी कविताओं में वे कभी अपने बालपन को तलाशते हैं। कभी परिवारों में बच्चों की भावनाओं पर प्रकाश डालते हैं और कभी समाज में उन्हें बाल मजदूरी का बोझ उठाते हुए देख कर चिंता व्यक्त करते हैं। जयपाल जी के काव्य संग्रह में तीन कविताओं के शीर्षक भी बच्चों पर आधारित हैं।
संग्रह की दूसरी कविता है- ‘बच्चा’। इस कविता में करतब दिखाने वाले बच्चों की निडरता की ओर संकेत करते हुए उसके गुलाम जीवन की विड़ंबना को उजागर किया गया है। यह कविता मालिक-सेवक, शोषक-शोषित के रिश्तों को उजागर करती है। जो बच्चा तरह-तरह के करतब करके लोगों का मनोरंजन करता है। उसकी क्रियाओं को देखकर लोग दांतों तले उंगली दबा लेते हैं। तमाशा दिखाता हुआ बच्चा साँप, नेवले, बंदर, भालू, शेर, हाथी से नहीं डरता है। वह आग में जलने की चिंता किए बिना आग में कूद पड़ता है। हवा में विभिन्न प्रकार की कलाबाजियां करता है। लेकिन-
मालिक की तरफ देखता है बच्चा
सहम जाता है बच्चा।
इंसान का सबसे उज्ज्वल पक्ष बच्चों में नजर आता है। व्यवस्था की परिपाटियों, रूढि़यों, संकीर्णताओं के विषाणुओं से वे अभी बचे हुए हैं। हमारा समाज लगातार उन्हें संकीर्णताओं के बंधनों में जकड़ने की कोशिश करता है। जाति, धर्म, सम्प्रदाय के नाम पर लड़ने-झगड़ने की आदत बड़ों की है, बच्चों की नहीं। बच्चे अपने सहज-स्वाभाविक रूप में मानवता का पक्ष लेते हैं। उन्हें तरह-तरह के पाठ पढ़ाए जाते हैं। जात-पात, लड़ाई-झगड़े और तरह-तरह की वर्जनाओं का हवाला देते हुए उन्हें किसी के घर में ना जाने के लिए कहा जाता है तो भी वे इसकी परवाह नहीं करते हैं। समाज को जोड़ने में उनकी भूमिका को जयपाल के संग्रह की बारहवीं कविता ‘कहां मानते हैं बच्चे’ बहुत ही कुशलता से उजागर करती है।
कितना ही समझाओ
कितना ही सिखाओ
कहां मानते हैं बच्चे!
दीवाली पर
हमारे बच्चे उनके घर पटाखे बजा आए
होली पर
उनके बच्चे हमारे घर रंग डाल गए
ना हमारी चली
ना उनकी।
काव्य संग्रह की चौबीसवीं कविता ‘बच्चे’ में बाल मजदूरी, कूड़ा बीनने और भिक्षावृत्ति कर रहे बच्चों को लुटते-पिटते दिखाया गया है। वास्तव में ही हमारे समाज में बच्चों की स्थिति बहुत विचित्र है। बच्चे जानकर उन्हें तरह-तरह से दुत्कारा, फटकारा और लताड़ा जाता है। गरीबी के कारण वे तरह-तरह के काम करने को मजबूर हैं-
होटलों पर बर्तन मांजते बच्चे
घरों, दुकानों, कारखानों और खेतों में काम करते बच्चे
बूट पालिश करते, कूड़ा बीनते और भीख मांगते बच्चे
दो पैसे के लिए रोते-गिड़गिड़ाते और पैरों में पड़ते बच्चे
लुटते-पिटते, गालियाँ और थप्पड़ खाते बच्चे
एक महान देश की महानता से बेख़बर बच्चे।
बच्चों के बारे में इसी प्रकार के भाव ‘भूखे पेट क्या होता है’ में भी उजागर होते हैं। जब कवि कहता है-
यह बात सही है
कि भूखे पेट कुछ नहीं होता
फिर भी भूखे पेट रहकर
एक मजदूर माँ पालती है अपने बच्चे
भूखे पेट रहकर ही
एक बच्चा माँजता है दूसरों के झूठे बर्तन
जयपाल गरीब और वंचित बच्चों के लिए चीजों का मतलब किस तरह से बदल जाता है, इसे खूब जानते हैं। ‘कब तय करेंगे’ कविता में राजेश जोशी की कविता ‘बच्चे काम पर जा रहे हैं’ की झलक मिलती है। जहां समृद्ध परिवारों के बच्चों के लिए सूरज निकलने का मतलब स्कूल में जाने के लिए तैयार होना होता है, वहीं गरीब परिवारों के बच्चों के लिए इसका मतलब मजदूरी के लिए काम पर निकलना हो जाता है-
जहाँ सूरज निकलने का मतलब हो
बच्चों का मज़दूरी के लिए निकलना..
जहां बच्चे सपने में जाते हों स्कूल
जागने पर पहुंचते हों कूड़े के ढ़ेर पर
साम्राज्यवाद के खिलाफ संघर्ष करके भारत ने आजादी प्राप्त की। लाखों लोगों ने बलिदान दिए। जनता की स्वतन्त्रता से कुछ अपेक्षाएं थी, लेकिन आजादी के बाद पूंजीवादी विकास का रास्ता अपनाया गया। जिसमें कुछ लोगों का तो खूब विकास हुआ, लेकिन अधिकांश आबादी आजादी के फलों से वंचित रही। आजादी के नाम पर उनको केवल आजादी दिवस मिला, जिस पर वे स्वर्णिम संघर्ष को याद कर लेते थे। लेकिन जनता की आशाओं पर खरा न उतरने वाली सरकारों ने दमन का रास्ता अपनाया और जनता की ओर से मंुह मोड़ लिया। ‘पंद्रह अगस्त की तैयारी’ कविता में गरीब बस्तियों के बच्चों को दृश्य से ओझल किया जा रहा है, ताकि नेताओं चमचमाता दृश्य ही नज़र आए-
मैदान के बाईं तरफ एक गंदा नाला है
यहां भूखे-नंगे बच्चे फटेहाल घूमते रहते हैं
नालों को लकड़ी के फट्टों से ढ़क दिया गया है
बच्चों को कहा गया है कि वे शहर के दूसरी तरफ चले जाएँ
‘विद्यार्थी’ कविता में भी कवि बच्चों को जुबान देता है। किस तरह से हमारे बच्चे पेट भरने के लिए रोटी को तरस रहे हैं और यही स्थिति किताबों से वंचित बच्चों की है जोकि सीखना चाहते हैं। लेकिन उन्हें किताब ही नहीं मिलती-
होटल पर बर्तन माँजता हुआ बच्चा
जिस तरह देखता है रोटी को
कुछ इसी तरह से
एक निर्धन विद्यार्थी देखता है
बाज़ार में सजी हुई किताबें।
इसके अलावा भी अनेक कविताओं में बच्चे सहज तौर पर आते हैं। बच्चों को हमारा कथित बड़ों का समाज समझ नहीं पाता है। घर में भी वे अपने सपनों का एक महल बना लेते हैं। ‘घर’ कविता में कवि ने बताया है-
बच्चे अपने सपनों का एक महल हमेशा सजाए रखते हैं
अपने ही घर में
‘सर्दी आ रही है’ कविता में सर्दी का हरएक पर अलग प्रभाव है। ठंडी हवा का झोंका चलता है तो बच्चा क्या करता है-
एक हवा का झोंका आया
बच्चे ने फटाक से खिड़की बंद कर दी
‘एक रूपये का सिक्का’ कविता में बेटे के रूप में बच्चे का इस प्रकार दर्शाया गया है-
बेटा स्कूल जाते समय फीस की जिद करने लगा
लेकिन तभी अचानक बस्ता उठाकर भाग पड़ा
शायद कुछ-कुछ समझ गया था बेटा भी
‘खाली हाथ’ कविता में मज़दूर रोते-बिलखते बच्चों को छोड़कर ही तो काम की तलाश में जाते हैं।
‘गुजरात के दोहे’ में बच्चों की उपेक्षा करने वाली सरकार के प्रति कवि का गुस्सा देखिए-
औरत का उपहास है बच्चों का चित्कार
ये कैसा राम का राज है ये कैसी सरकार
कवि बचपन को जीवन का सबसे अहम हिस्सा मानता है। लेकिन उस पर खतरे भी अनेक हैं। इन खतरों से बचने के लिए व्यापक परिवर्तन की जरूरत है, ताकि बचपन बचाया जा सके। अपनी ‘क्रांति की जरूरत’ कविता में कवि कहता है-
क्रांति की जरूरत है बच्चों के लिए
ताकि बचपन को लौटाया जा सके
3.5 स्त्री:-
किसी ने कहा है कि महिलाएं दुनिया का सबसे पुराना उपनिवेश हैं। घर-परिवार, कार्य स्थल और सार्वजनिक स्थान उसके शोषण स्थल बने हुए हैं। उसके ऊपर काम का बोझ अधिक है और अधिकारों के मामले में उसे दोयम दर्जे का प्राणी माना जाता है। स्त्री का अपना कोई घर नहीं होता। माता-पिता द्वारा बच्चियों को अनचाहा बोझ और पराया धन माना जाता है। आज भी समाज में ‘बेटा मरै नरभाग का और बेटी मरै भागवान की’ आदि कन्या विरोधी कहावतें प्रचलित हैं। विवाहोपरांत बेटी अपना घर छोड़ कर ससुराल चली जाती है और अपने बचपन को स्मृतियों के टोकरे में धकेल देती है। ससुराल भी उसका अपना घर नहीं माना जाता। ससुराल में मायका प्रतिबंधित किताब है। ‘पत्नी’ कविता इस स्थिति को बड़े ही मार्मिक ढ़ंग से बयान करती है-
पत्नी का लौट आता है बचपन
जब दूर पार से मिलने आते हैं पिता जी
पत्नी की आँखों में उतर आता है समंदर
जब अचानक आकर माँ सिर पर रखती है हाथ
पत्नी को याद आने लगती है मुट्ठी में बंद तितलियाँ
जब बहनों के आने का समाचार मिलता है
पत्नी भूल जाती है ससुराल के पाठ
जब भाई आकर घर में कदम रखता है
इस तरह घर में खुल जाती है एक प्रतिबंधित किताब
मानव इतिहास लड़ाई-दंगों और युद्धों से भरा हुआ है। पुरूषों द्वारा मर्दानगी के प्रदर्शन के लिए लड़े गए युद्धों की सबसे ज्यादा मार महिलाओं को झेलनी पड़ी है। औरतों ने इस प्रकार की क्रूरताओं का विरोध किया है। औरतों ने क्रूरताओं के खिलाफ लड़ाई लड़ी है। एक औरत हर आदमी में बसी होती है। औरतें मानवता की प्रतीक हैं। इसलिए जब भी हम क्रूर क्रियाओं में लगते हैं, तो हमारी आत्मा के रूप में हमारे भीतर बैठी औरत मना करती है। औरतें हर युग की मानवता की कसौटी भी हैं। ‘भीतरी औरत’ कविता का उदाहरण देखिए-
वे नहीं सुन सके
अपने भीतर किसी भीतरी औरत का क्रंदन
कहते हैं हर आदमी के भीतर रहती है एक आत्मा
इसलिए जो लोग सुनते हैं आत्मा की आवाज़
दरअसल वे सुनते हैं इसी औरत की आवाज़
यह भीतरी औरत
किस युग में कितनी बची है शेष
इसी से नाप सकते हैं हम
उस युग की गहराई और ऊंचाई।
एक तरफ तो खुंखार से खुंखार पुरूष में भी औरत होती है, जो उसे क्रूरताओं से रोकती है और इन्सानी समाज बनाने के लिए प्रेरित करती है। वहीं औरतों में भी पुरूषवादी सोच होती है। दरअसल पितृसत्तात्मकता लगातार अपने तर्कों-कुतर्कों के माध्यम से अपने पक्ष में माहौल बनाती है। अपने को पाक-साफ साबित करती है। अंधउपभोक्तावदी संस्कृति भी पितृसत्ता की क्रूरताओं को उजागर नहीं होने देती। इसके प्रभाव में औरतें अपना सब कुछ भूल गई जाती हैं। पितृसत्तात्मक समाज के महिला विरोधी खोखले तर्क उनकी विद्वता का परिचय देते हैं। उन्हें महिला ही महिला की दुश्मन है जैसी फैलाई जा रही धारणा पर यकीन हो गया है। दूसरी तरफ सारा दिन काम में खटने और खपने वाली मजदूर महिलाएं हैं। परिवर्तन के लिए जयपाल को मज़दूर औरतें ज्यादा संभावनाशील नज़र आती हैं। उनकी कविता ‘मजदूर औरत’ मजदूर औरतों की मेहनत के सृजनात्मक पहुल को उजागर करती है।
इस कविता के पहले भाग में मज़दूर औरत के 24घंटे की मेहनत को दर्शाया गया है-
खिली हर सुबह
तपी हर दोपहर
ढ़ली हर शाम
अँधकार में दबी रही रात भर।
कविता के दूसरे भाग में मजदूर औरत का जीवन पत्थर से भी अधिक कठोर दिखाया गया है-
ढ़ोती रही पत्थर
तोड़ती रही पत्थर
खाती रही पत्थर
कविता के तीसरे हिस्से में मजदूर औरत के पसीने की महक महसूस की जा सकती है, जिससे सारी व्यवस्था चल रही है। घर-परिवार की और संसार की।
पसीने से महक उठे खेत
धुल गए गाँव-नगर-बस्तियाँ
पल गए घर-परिवार।
कविता का चौथा भाग भी महिलाओं के श्रम को विकास की धुरी घोषित करता है। यदि स्त्री का श्रम के प्रति समर्पण ना हो तो मानव विकास की दौड़ में कहीं पीछे रह जाता।
ईंट गारा बनकर
दीवारों में चिन गई
बजरी बन सड़कों पर
पाँव तले बिछ गई।
महिलाओं की मेहनत किस तरह से अदृश्य और अनचिह्नी रह जाती है। इसकी बानगी पांचवा भाग देता है-
कोई भी न देख सका
कितना वह कर गई
किसी को न पता चला
कहाँ वह चली गई।
मजदूर औरतों से भी अधिक कवि समाज के सबसे निचले पायदान पर बैठे दलित और उनमें भी सबसे अधिक नीचे गिने जाने वाली सफाई वालियों के योगदान को रेखांकित करता है। जिनकी तरफ हमारा सभ्य समाज हेय दृष्टि से देखता है। अपनी नज़रों और व्यवहार में उनका बहिष्कार किए रहता है। सफाई व्यवस्था सभ्यता का प्रतीक मानी जाती है। बड़े-बड़े नेता हाथ में झाडू उठाकर अपने आप को स्वच्छता अभियान का प्रणेता बनाने-बताने की होड़ में रहते हैं। लेकिन हर रोज सफाई करने वाली महिलाओं के जीवन में कभी कोई उजियारा नहीं आता है। ‘बहिष्कृत औरत’ कविता की बानगी देखिए-
शहर के बाहर से
एक औरत शहर के अंदर आती है
घरों पर से मिट्टी झाड़ती है
फर्श चमकाती है
गलियों को बुहारती है
पी जाती है नालियों की सारी दुर्गन्ध
गली-मुहल्लों को सजा देती है अपनी-अपनी जगह
इस तरह
जब सारा शहर रहने लायक हो जाता है
यह औरत शहर से बाहर चली जाती है।
‘एक चुप्पी’ कविता भी सफाई करने वाली महिलाओं के संघर्ष, घुटन और संत्रास को उजागर करती है-
सवेरे-सवेरे
एक हाथ में टोकरी
दूसरे में झाड़ू
वह निकल पड़ती है घर से
जाती है एक घर से दूसरे घर
एक मोहल्ले से दूसरे मोहल्ले..
करती है मज़ाक तरह-तरह के
सुनाती है किस्से यहाँ-वहाँ के
लगता है सब कुछ कह जाती है
लगता है सब कुछ सुन जाती है
पर एक खास तरह की चुप्पी
उसके चारों तरफ हमेशा मौजूद रहती है।
आज भले ही हम 21वीं सदी में जी रहे हैं। लेकिन हमारा समाज 13वीं-14वीं सदी की मानसिकता में जी रहा है। जिसमें औरतों की आजादी का कोई मतलब ही नहीं है। महिला द्वारा जुल्म के खिलाफ आवाज उठाने का परिणाम मौत तक हो सकता है। बेटी के जन्म लेने पर आज भी परिवार में मुर्दनी छा जाती है। उसे उपभोग की वस्तु से अधिक कुछ नहीं देखा जाता। हमारा पुरूषवादी समाज महिलाओं पर तरह-तरह की तोहमतें लगाकर अपने अहं का परिचय देता है। सती प्रथा जैसी घिनौनी प्रथा के चिह्न आज भी दिखाई देते हैं। कईं बार तो महिलाओं को जबरदस्ती पति की चिता के साथ जलाया जाता है। उत्पीड़न का शिकार हुई महिलाओं को अदालतों में भी यातनाएं भुगतनी पड़ती हैं। लड़कियों के जन्म पर तो घर व पूरे समाज में मातम का माहौल पैदा हो जाता है। ‘औरत’ कविता महिला विरोधी और अमानवीय स्थितियों को खोल कर हमारे सामने रख देती है-
आज भी औरत की स्वेच्छा का मतलब है फाँसी का फँदा
या सल्फास की गोली
आज भी औरत ज़न्दिा जला दी जाती है पति की चिता पर
पर पति की चिता को दाग़ देना है पाप
आज भी भंवरी बाई समझी जाती है कुलटा
और अदालत बन जाती है बलात्कारियों की ढ़ाल
आज भी जुल्म के खिलाफ आवाज़ उठाने का मतलब है तिरिया चरित्र
आज भी नारी है ताड़न की अधिकारी और नरक का द्वार
आज भी औरत का मतलब है एक यौन-प्रतीक
आज भी समस्त गालियों के बीच मौजूद है एक औरत
3.6 दलित:-
भारतीय समाज में दलित वर्ग आर्थिक-सामाजिक तौर पर सर्वाधिक शोषित है। सामाजिक स्थिति उसके आर्थिक शोषण को वैधता प्रदान करती है तो आर्थिक शोषण उसे समाज के सबसे निचले पायदान पर बनाए रखता है। समाज के इस वर्ग के हिस्से में दूसरों के लिए काम करना ही आया है और उनकी मेहनत का फल कोई दूसरा भोगता है। स्त्री, दलित तथा सर्वहारा होने के कारण दलित-स्त्री तिहरे शोषण को झेलती है। मैला ढ़ोती-उठाती, सड़कों-नालियों को साफ करती औरतों के बिना मौजूदा शहरी जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती, लेकिन कथित ‘सभ्य-सुसंस्कृत’ समाज की संवेदना-सहानुभूति को नहीं जगा पाई हैं। डा. भीमराव आम्बेडकर ने भारतीय गांवों को दलित-उत्पीड़न के यातना-शिविरों की संज्ञा देते हुए शहरों में बसने की सलाह भी दी थी। लेकिन भारतीय शहर भी दलितों को कोई राहत नहीं दे पाए। ‘बहिष्कृत औरत’ न केवल घरेलू काम व शहर को साफ-सुथरा रखने में ‘कामवालियां’ नए शहरी जीवन की सच्चाई है।
जयपाल जी अपनी कविता ‘पेड़ और दलित’ में पेड़ और दलित की समनताएं बताते हैं और पर्यावरण संरक्षण के लिए गरीब दलितों द्वारा किए जा रहे प्रयासों की गाथा खुल जाती है। दलित भी पेड़ की ही तरह जमीन को बहुत कुछ प्रदान करते हैं। जिस प्रकार विकास की अंधी दौड़ में पेड़ों को काटने का सिलसिला चला हुआ है। उसी प्रकार दलितों का उत्पीड़न और शोषण किया जा रहा है। उसे दुत्कारा-फटकारा जा रहा है। यदि पेड़ की जड़ों पर प्रहार किया जाए, तो पेड़ सूख जाता है। उसी प्रकार समाज का दलितों के साथ किया जा रहा सलूक उनकी गरिमा ही नहीं उनके जीवन को भी नष्ट कर रहा है-
पेड़ और दलित लगभग एक जैसे होते हैं..
लेकिन अगर हाथ में पत्थर लेकर
उनकी जड़ों पर किया जाए प्रहार
उनकी मिट्टी को किया जाए लांछित
उनकी चमड़ी को देखकर गढ़ी जाए सौंदर्य की परिभाषा
उनकी शाखाओं और पत्तों को उछाल दिया जाए हवा में
फूलों और फलों पर बिठा दिया जाए पहरा
उनकी छाती पर आरी ना भी चलाई जाए
तो भी
कितने दिनों तक हरे रहेंगे दोनों
जयपाल समाज के उपेक्षित, शोषित वर्ग की दृष्टि से चीजों को देखते हैं। अपनी मिट्टी, वतन, गांव या फिर जन्मभूमि से मनुष्य का स्वाभाविक तौर पर भावनात्मक लगाव हो जाता है, लेकिन जिस व्यक्ति के लिए ‘उसका गांव’ यातना-गृह की तरह रहा हो, उसमें उसके प्रति लगाव की भावना कैसे पैदा हो सकती है। मातृभूमि-प्रेम जैसे विचारों को एक दलित की दृष्टि से देखने पर अलग ही तस्वीर नजर आती है। गांव सदियों से दलित-उत्पीड़न के केन्द्र रहे हैं। गांव से बाहर प्रतिष्ठा के साथ जीने वाला ‘मास्टर चन्द्रप्रकाश’ गांव में प्रवेश करते ही ‘चंदा चमार’ हो जाता है।
भारतीय समाज में वर्ण-व्यवस्था अभिशाप है, जो उच्च वर्ण के मनुष्य में अहंकार व श्रेष्ठता का दंभ पैदा करके उसकी मानवता को समाप्त करती है, तो दूसरी ओर निम्न वर्ग को मानव का दर्जा ही नहीं देती। सवर्णों की जिस हिकारत व नफरत का दलित को सामना करना पड़ता है, वह कितना पीड़ादायक है इसका अहसास जयपाल की कविताएं करवाती हैं और उसके लिए सहानुभूति बटोरती हैं। बदल रही परिस्थितियों ने जाति-व्यवस्था के समक्ष चुनौती पेश की है जयपाल की कविता इसे व्यक्त करती है। अन्तर्जातीय विवाह को डा. आम्बेडकर ने जाति-प्रथा को समाप्त करने के लिए कारगर तरीका बताया था। अन्तर्जातीय विवाह हो भी रहे हैं, लेकिन इसमें ब्राह्मणवाद अपना बचाव करता है और दलित के साथ इस तरह के संबंध को सहज स्वीकार नहीं करता। वह अपनी शर्तों पर इसे स्वीकार करना चाहता है। सच्ची घटना पर आधारित ‘आम्बेडकर और रविदास’ कविता इस पर प्रकाश डालती है। जिसमें दलित अधिकारी से शादी होने पर सवर्ण परिवार के सदस्य उसे रविदास और अम्बेडकर के चित्र तक घर से उतारने की हिदायत देते हैं-
अधिकारी महोदय
तुम चाहे जिस भी जाति से हों
हम अपनी बेटी की शादी तुम्हारे बेटे से कर सकते हैं
पर हमारी भी एक प्रार्थना है
सगाई से पूर्व तुम्हें अपने घर से
रविदास और आम्बेडकर के चित्र हटाने होंगे
कल को हम रिश्तेदार बनेंगे
तो आना जाना तो होगा ही
कैसे हम तुम्हारे घर ठहरेंगे
कैसे खाना खाएंगे
और कैसे दो बात करेंगे
जब सामने आम्बेडकर-रविदास होंगे
जयपाल की कविता का दलित पस्त व हारा हुआ नहीं है और न ही आक्रोशित है, बल्कि बहुत ही संयमित व गम्भीर है। दलित की गम्भीरता ही उसका पक्ष निर्माण करती है। वह बेचारा नहीं है, लेकिन अपनी स्थिति को भलीभांति समझता है, बराबरी के व्यवहार की अपेक्षा करता है, उसमें हीनता-बोध नहीं है और सवाल करने की हिम्मत करता है। वे तरह-तरह के सवाल करके लोगों की चेतना को झकझोरने का काम करते हैं। सवाल उनके हाथों में एक हथियार की तरह बन जाता है, जिससे वे अपने पक्ष का निर्माण करते हुए एक बेहतर समाज बनाने के लिए प्रयासरत दिखाई देते हैं। वे सवालों के जरिये सवर्ण मानसिकता वाले समाज के दलित-विरोधी चाल-चरित्र पर उंगलियां उठाते हैं। दलितों के महापुरूषों के प्रति लोगों के व्यवहार की पोल खोलते हैं। स्कूलों में दलित बच्चों के साथ भेदभाव को उजागर करते हैं। ‘उनका सवाल’ कविता दलित-जीवन की त्रासदी व सवर्ण के अंहकार को सामने रख देती है।
वे पूछते हैं -
आज भी उनके सिर पर गंदगी का टोकरा क्यों रखा है
उनकी बस्ती शहर या गांवों से बाहर ही क्यों होती है
उनके मंदिरों-गुरुद्वारों में दूसरे लोग क्यों नहीं आते
अनपढ़ता बेकारी और गरीबी उनकी बस्ती में क्यों रहती है
उनकी बहु बेटियों को लोग खाने पीने की चीजें क्यों समझते हैं..
उनकी जाति को गाली में क्यों बदल दिया गया है
अंत में वे एक सवाल और पूछते हैं -
उनके सवाल को आखिर सवाल क्यों नहीं माना जाता!
जयपाल की कविताओं का दलित कुछ भौतिक सुविधाओं के लिए नहीं, बल्कि मानवीय गरिमा के लिए लड़ रहा है। मानव गरिमा हासिल करने के लिए जिस तरह से वह सवाल उठाता है उसका प्रभाव अवश्य पड़ता है। ‘दलित विद्यार्थी’ के लिए भारतीय समाज में जिस तरह के पूर्वाग्रहों का सामना करना पड़ता है, उसे दलित साहित्यकारों ने अपनी आत्मकथाओं में व्यक्त किया है। शिक्षकों से उन्हें ज्ञान व स्नेह की अपेक्षा नफरत मिलती है।
दरअसल तुम जैसे छात्रों को
बचपन में बचपने जैसी कोई हरकत नहीं करनी चाहिए
तुम्हें हमेशा याद रखना चाहिए
तुम केवल एक स्कूल के विद्यार्थी ही नहीं हो
एक दलित बाप के दलित बेटे भी हो
दलित उत्पीडऩ की रोंगटे खड़े कर देने वाली घटनाएं हरियाणा में पिछले कुछ वर्षों में घटित हुई हैं। दुलीना, हरसौला, गोहाना, जाटू लुहारी व मिर्चपुर जैसे अनेक काण्ड मानवीय व्यवहार को कटघरें में खड़ा कर देते हैं। वे भेदभाव की प्रणालियों को खोल कर रख देते हैं। सवाल यही है कि आखिर इतने बर्बर व क्रूर अमानवीय व्यवहार के लिए वैधता कहां से मिलती है? जयपाल ने घटनाओं का विवरण न देते हुए इसके आधार को पहचानने की कोशिश की है। वे दलित उत्पीडन के दार्शनिक आधार की ओर संकेत करते हैं और धार्मिक संरचनाओं में इसकी जड़ों को तलाशते हैं। ‘बंद दरवाजे’ कविता दलित उत्पीडन के कारणों की ओर संकेत करती है। दलितों की ओर से दिमाग के विवेक के दरवाजे बंद कर रखे हैं।
3.7 मध्यवर्ग:-
मध्यवर्ग समाज का बहुत बड़ा वर्ग है, जिसने समय-समय पर समाज को नेतृत्व प्रदान किया है। विश्व की महान क्रांतियों और बुनियादी बदलावों में उसने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। लेकिन अब अंध-उपभोक्तवादी संस्कृति की गिरफ्त में है, जिसके चलते यह वर्ग पिछले समय से निहायत अवसरवादी व आत्मकेंद्रित हो गया है और वह सिकुड़कर अपने में घुस गया है। खाओ-पीओ और सौ जाओ उसके जीवन मूल्य हो गए हैं। दवह अपने ऐतिहासिक दायित्व को भूल गया है। जयपाल ने ‘मध्यवर्ग के कारनामे’ में उसके जीवन व सोच को, इसकी रूचियों व मंतव्यों को उद्घाटित किया है। सामाजिक संघर्ष, विमर्श और परिश्रम से बचता हुआ वह स्वर्ग और मोक्ष के चक्कर में पाखंडों को बढ़ावा दे रहा है। उसके लिए किताबें पढ़ना भी किसी दिखावे से कम नहीं है। वह अब अपनी जड़ों और भाषा से भी कटता जा रहा है। मौज-मस्ती ही उसका ध्येय है। यही मध्यवर्ग है, जोकि कन्या भ्रूण हत्याओं के लिए कुख्यात है। अपनी कारगुजारियों के कारण ही वह निराशा और हताशा के जाल में फंसता जा रहा है और इसी कारण से इसी वर्ग के लोग बड़ी संख्या में आत्महत्याएं कर रहे हैं। जयपाल की कविता में किसी वर्ग को दुत्कारने-फटकारने की बजाय उसके विड़ंबनात्मक व्यवहार को बेपर्दा किया गया है। कवि तथ्यों व स्थितियों को समझने में निष्पक्ष और मंतव्य में प्रतिबद्ध है। बदलाव के लिए माहौल बनाना उनका मुख्य मंतव्य है-
चलो-
खाएँ
पिएँ
और सो जाएँ
करें-
हत्या
आत्महत्या
भ्रूण हत्या
जिएँ-
अपने लिए
परिवार के लिए
घर-बार के लिए
मरें-
स्वर्ग के लिए
मोक्ष के लिए
ईश्वर के लिए
बचें-
संघर्ष से
विमर्श से
कर्म से
परिश्रम से।
मध्यवर्ग को किस तरह से सरकारें वास्तविकता से दूर रखने के लिए प्रपंच रचती हैं। उनकी आँखों के आगे पर्दा डाल देती हैं। पर्दे के पार देख पाने की सारी संभावनाओं को समाप्त करने के लिए उन्हें समारोहों में उलझा लेती हैं। मध्य के आगे बढ़े हुए लोगों को सरकार के द्वारा सम्मानित करके उन्हें सामाजिक बदलाव में उनकी भूमिका से भटका दिया जाता है। ‘पन्द्रह अगस्त की तैयारी’ कविता इसे बखूबी उजागर करती है-
दो दिन बाद पन्द्रह अगस्त है
शहर में झंडा फहराने मंत्री जी आ रहे हैं
पिछले दिनों इस बस्ती के एक घर में
एक मजदूर की भूख के कारण मर गया था
उस घर के आगे पुलिस बिठा दी गई है
साहित्यकर्मियों और जन संगठनों को कहा गया है
वे पन्द्रह अगस्त तक इधर से ना गुजरें
संतो-महन्तों, स्थानीय नेताओं और राजकवियों को
निमन्त्रण पत्र भेज दिए गए हैं
शहर के जाने माने प्रतिष्ठित व्यक्तियों को
स्वागत समिति में रखा गया है
3.8 जटिलताओं से परिपूर्ण यथार्थ की अभिव्यक्ति-
डॉ. सुभाष चन्द्र के अनुसार, ‘‘जयपाल की कविता में यथार्थ सीधा-सपाट नहीं, बल्कि अपनी पूरी जटिलता के साथ आता है। वे वास्तविकता को कई पहलुओं से कविता में प्रस्तुत करते हैं और पाठक को उसके अनछुए पहलुओं से अवगत कराते हैं। जयपाल की कविताओं की बुनावट में ही समाज का वर्गीय स्वरूप स्पष्ट है, उन्हें इसके लिए अतिरिक्त मशक्कत नहीं करनी पड़ती। जयपाल की कविताओं में ‘बड़े दरवाजे’ के साथ अनिवार्य तौर पर ‘छोटा दरवाजा’ भी है, शातिर बगुला है तो उसकी चालाकियों से अनजान भोली मछली भी है, अपने वाचाल शब्दजाल के नीचे सामाजिक भेदभाव को छुपाने की कोशिश करता सवर्ण मानसिकता धारण किए चालाक व्यक्ति है तो उनकी इस ‘चतुराई’ को समझने वाला सचेत दलित भी है। लोकतांत्रिक-प्रणाली से लाभ पाया हुआ आजादी का पाखण्डपूर्ण जश्न मनाता वर्ग है तो उसका विरोध भी दर्ज है।’’
सामाजिक शक्तियों में व्याप्त अन्तर्विरोधों व संघर्षों को जयपाल की कविता स्पष्ट करती है। साम्राज्यवादी-पूंजीवादी व्यवस्था में कई स्तरों पर संघर्ष चलता है, जिसे शोषक वर्ग कभी नजरअंदाज नहीं करता, लेकिन शोषित वर्ग इस जटिल प्रक्रिया को नहीं समझ पाता। ‘बगुला और मछली’ के माध्यम से शोषक-शासक व वर्चस्वशाली वर्ग के घाघपन व चालाकियों को उद्घाटित किया है और उनके आपसी द्वन्द्वों, संघर्षों को भी दर्शाया है-
बगुला केवल मछली को ही नहीं देखता
पानी को भी देखता है
कितने पानी में है मछली..
बगुला केवल मछली को ही नहीं देखता
किनारे खेलते बच्चों को भी देखता है
जिनके हाथों में रोड़े पत्थर हैं
बगुला केवल मछली को ही नहीं देखता
वह और भी देखता है बहुत कुछ
जो शायद मछली नहीं देखती
निजीकरण, उदारीकरण और भूमंडलीकरण के दौर में जनता को ठगने के लिए शब्दों का जितना दुरूपयोग किया है, उतना शायद इतिहास के किसी भी दौर में नहीं हुआ होगा। शासन व सत्ता अपना शोषण जारी रखने के लिए तरह तरह के मिथ्या प्रचार व झूठ का सहारा लेते रहे हैं, लेकिन इस मामले वे इतने बेशर्म कभी नहीं हुए होंगे कि भाषा को बिल्कुल विपरीत कार्यों के लिए प्रयोग करें। एक सचेत कवि की तरह से जयपाल की कविताएं शब्दों के नीचे छुपे शासकों के मंतव्यों को समझाती हैं और मेहनतकश जनता को इस भाषायी पाखण्ड से आगाह भी करती हैं। साम्राज्यवादी नीतियों की शब्दावली के मकसद बिल्कुल उलट हैं, जब वे विकास की बात करते हैं तो विनाश कर रहे होते हैं। जब वे शान्ति की बात करते हैं तो युद्ध का ऐलान कर रहे होते हैं और जब वे लोकतंत्र व आजादी की बात करते हैं तो तानाशाही और गुलाम बना रहे होते हैं। जब वे आर्थिक सुधार की बात कर रहे होते हैं तो यह सुधार कुछ ही लोगों के लिए होता है। उन सुधारों से बड़ी आबादी का जीवन दूभर हो जाता है। रोजगार की बात होती है तो बड़ी कंपनियों को लाभ पहुंचाकर छोटे कारोबारियों का रोजगार छीनकर उनके रोजी-रोटी छीन ली जाती है। शिक्षा के नाम पर व्यापार केन्द्र खोल दिए जाते हैं। वे पैप्सी और शीतल पेयों की बात करते हैं तो पानी छीन कर प्यासे मारने की साजिश रच रहे होते हैं। आलोच्य काव्य-संग्रह की 32वीं कविता ‘पाखण्डी’ में इस कटु यथार्थ की बानगी देखिए-
वे बाँध बनाएँगे
बस्तियाँ उजाड़ देंगे
वे शान्ति की अपील करेंगे
जंग का ऐलान कर देंगे
वे लोकतंत्र की बात करेंगे
लोगों पर बम बरसा देंगे
इस तरह
वे हमारे आंसू पोछेंगे
और दृष्टि छीन लेंगे।
जयपाल की कविता जन मानस के समक्ष मौजूद वास्तविकता की सही तस्वीर रखने के लिए जद्दोजहद करती है। समाज के वर्चस्वशाली शोषक वर्ग अपने शोषण व लूट को जारी रखने के लिए तथा समाज में अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए हर तरह के गैर इंसानी व गैर कानूनी तरीकों को इस्तेमाल करते हैं, लेकिन जनता के समक्ष अपनी लोक लुभावनी व लोक हितैषी की तस्वीर भी प्रस्तुत करते हैं। इससे ही वे अपने पक्ष में जन समर्थन जुटाते हैं। शासक वर्ग अपना शासन कायम रखने के लिए समाज में मिथ्या चेतना व झूठ का सहारा लेता है। वह तरह-तरह के झूठ को प्रसारित करता है। राजसत्ता का यह हथकण्डा बहुत प्राचीन है। चाणक्य ने राजाओं को शासन करने के जो गुर सिखाए हैं उसमें अंधविश्वासों को फैलाने पर विशेष जोर दिया गया है। हर समय की राजसत्ता जनता को भ्रमित करने के लिए इस तरह के प्रचार करती है। जन हितैषी व जन प्रतिबद्ध रचनाकारों व बुद्धिजीवियों का ही काम है कि राजसत्ताओं के इन मिथकों की सफाई करके सच्चाई की सही तस्वीर पेश करे। जयपाल की कविता इस उत्तरदायित्व को अपने ऊपर लेती है और उसका बखूबी निर्वहन करती है।
जयपाल सचेत तौर पर देखते हैं कि शासक वर्ग ‘जाले’ बुनता है, जनता को फंसाने के लिए और परिवर्तनकामी शक्तियों को ये जाले साफ करने पड़ते हैं, परिवर्तन के लिए। हर युग का शासक वर्ग अपने जाले बुनता है-
जाले हर युग में होते हैं
जाले हर युग के होते हैं
हर युग बुन लेता है अपने जाले
हर युग चुन लेता है अपने जाले
धूल मिट्टी से सने प्राचीन जाले
मोती से चमकते नवीन जाले
समय इन जालों से टकराता है
जाले समय से टकराते हैं
युग परिवर्तन चलता रहता है
अंधविश्वास या मिथक केवल प्राचीन समय के ही नहीं हैं, बल्कि हमारे समय के शासक वर्ग जिस तरह के विकास की तस्वीर व आंकड़े पेश करते हैं। जनता को भरमाने के लिए नए नए सिद्धांत खोजकर लाते हैं और उन्हीं में उनको उलझाए रचाते हैं, वे भी उसी तरह के ही अंधविश्वास का काम करने लगते हैं, जैसे भाग्यवाद और नियतिवाद के अंधविश्वास। ये इतने नवीन व उज्ज्वल पक्ष पेश करते हैं कि आम चेतना इनके भीतर छुपे शासकीय सोच को नहीं पकड़ पाती।
3.9 धर्म और साम्प्रदायिकता-
कभी धर्म का कोई मानवीय रूप रहा होगा या नहीं इसके बारे में तो कुछ नहीं का जा सकता। लेकिन धर्म के नाम पर कर्मकांडों और पाखंडों की कमी नहीं है। साम्प्रदायिक राजनीति करने वाले यहां धर्म का नाम लेकर लाशें बिछाने में लगे हुए हैं। धर्म आवरण बन गया है। एक ऐसा नकाब जिससे अपने पाप आसानी से छुपाए जा सकते हैं। धर्म के नाम पर दंगे किए जा सकते हैं और इनसे अपने राजनैतिक स्वार्थ साधे जा सकते हैं। धर्म के पीछे इन्सानियत कराह रही है। जयपाल इसकी आवाज सुनते भी हैं और सुनाते भी हैं। उनकी आकार में छोटी लगने वाली कविता ‘इन्सानियत’ गूढ़ अर्थ लिए हुए है-
दंगों के बीच
घिरी हुई एक गर्र्भवती औरत
जिस तरह सोचती है
अपनी सुरक्षा के बारे में
कुछ इसी तरह से सोचती है
धर्मों के बीच घिरी हुई इन्सानियत
धर्म-मार्ग में भक्ति किस तरह असली चेहरे को छुपाने की क्षमता लिए हुए है। रामभक्त बनने के बहुत से फायदे हैं। वैसे किसी को मारने पर अपराधी का तमगा मिलता है, लेकिन रामभक्त बनकर हत्या करने पर प्रतिष्ठा बढ़ जाएगी। भक्ति के दिखावे को देखते हुए जयपाल अपनी कविता ‘रामभक्त’ में व्यंग्य कसते हुए कहते हैं-
यूँ सरे बाज़ार
किसी को चाकू से क्यों मारते हो
क़ातिल कहलाओगे
तुम्हें उम्रकैद हो सकती है
ऐसा करो
ईंट पर राम का नाम लिखो
जिसके चाहो उसके सिर पर मार दो
ईंट रामशिला बन जाएगी
तुम रामभक्त कहलाआगे।
इसी प्रकार ‘पंथ के संत’ कविता भी धर्म की पोल खोल रही है-
यूँ खुले में
बेकसूर लोगों पर रिवाल्वर क्यों दागते हो
तुम्हें फाँसी भी हो सकती है
ऐसा करो
धर्म की ध्वजा उठाओ
और धर्मस्थल में घुस जाओ
तलवारें चमकाओ और रिवाल्वर दागो
जयकारे लगाओ और बम फेंको
तुम्हें पंथ का संत कहा जाएगा।
धार्मिक ग्रंथों को पवित्र बताकर उनकी आलोचना नहीं किए जाने से लोगों में अंधश्रद्धा बढ़ रही है। जयपाल अपनी रचनात्मकता से ऐसे माहौल को तोड़कर बदलाव लाना चाहते हैं। वे गीता के उपदेशों के खोखलेपन को पड़ते हुए ‘गीता उपदेश’ कविता में कहते हैं-
श्रीकृष्ण ने
पहले तो अर्जुन से कहा-
न कोई किसी को मारता है
न कोई किसी से मरता है
लेकिन जब युद्ध समाप्त हुआ
मुट्ठी भर को छोड़कर सब मारे गए
बाद में
वे मुट्ठी भर भी स्वर्गवासी हो गए
जिसको कहा था
वह पर्वतों को पार करता हुआ चल बसा
जिसने कहा था
वह एक शिकारी के तीर से मारा गया
कुछ भी तो न बचा
गीता उपदेश को छोड़कर।
धर्म के नाम पर अतीत में चला क्रूरताओं का सिलसिला रूकने का नाम नहीं ले रहा है। यीशू के पूरे बदन को कीलें ठोंक-ठोंकर कर छलनी कर दिया गया। उड़ीसा में ग्राह्म स्टेंस और उसके दो मासूम बच्चों को जिंदा जला दिया गया। गुजरात कांड में एक विशेष समुदाय के लोगों को भी मौत के घाट उतार दिया गया। ऐसी क्रूरताओं के बावजूद दोषियों के लिए प्रार्थना करना निरी अज्ञानता का सूचक है। अपनी ‘प्रार्थना’ कविता में हत्या करने वाले साम्प्रदायिक लोगों को अज्ञानी मानने से इन्कार किया गया है।
साम्प्रदायिक राजनीति का फासीवादी चेहरा आज बेनकाब हो चुका है। राम राज स्थापित करने के नाम पर छिपा एजेंडा अब छिपा नहीं रह गया है। जयपाल ने ‘राम के दोहे’ और ‘गुजरात के दोहे’ शीर्षक से सात-सात दोहे लिख कर साम्प्रदायिक हिंसा को नंगा किया है। कुछ दोहे देखिए-
घायल अयोध्या हो गई, घायल पड़े हैं राम।
कातिल देखो रट रहा, राम राम श्री राम।।
रावण ने सीता छली, भगतों ने छले राम।
संतों ने जनता छली, बोलो जय श्री राम।।
बस्ती खाली हो गई लूट सके तो लूट।
दंगों का यह दौर है फिर न मिलेगी छूट।।
जयपाल ईश्वर को भी आसमान से उतार कर जमीन पर ले आना चाहते हैं। मनुष्य द्वारा भगवान के नाम पर बनाए गए धार्मिक स्थानों में किए जा रहे कुकृत्य से स्वयं भगवान आहत है। अयोध्या में राम मंदिर के नाम पर हुए दंगे सहित विभिन्न धर्म-सम्प्रदाय के अनुयायियों द्वारा की गई हिंसक कार्रवाईयों से भगवान दुखी होकर मनुष्य के समान परिवार का सुख भोगना चाहते हैं। काव्य-संग्रह की 62वीं कविता ‘भगवान से एक मुलाकात’ जयपाल अपनी भगवानी से दुखी भगवान को दिखाते हैं। इस कविता में भगवान कहता है-
अरबों-खरबों साल की मेरी उम्र हो गई
न मैं जी सका, न मर सका
अनादि-अनंत ही बना रहा
दरअसल जब मुझे पैदा होने से ही रोक दिया गया
तो मैं मरता भी कैसे
लेकिन अब मैं जीना चाहता हूँ
और जीने के बाद मरना भी चाहता हूँ
अब मैं आसमान में नहीं धरती पर बसना चाहता हूँ
मानवता के सामने सबसे बड़ी चुनौती साम्प्रदायिकता के माध्यम से प्रकट हुई है। साम्प्रदायिकता का जहर मानवता को खा रहा है। अपने धर्म को सर्वोच्च मानने वाले लोग राजनीतिक हितों को पूरा करने के लिए आबादियों को बेघर कर देते हैं। यह एक तथ्य है कि साम्प्रदायिकता से मरने वाले, घायल व बेघर हुए लोगों की संख्या दोनों विश्वयुद्धों में मारे गये लोगों से भी अधिक है। साम्प्रदायिकता की मानसिकता व राजनीति को साहित्यकारों और कवियों ने अपनी रचनाओं में व्यक्त किया है। लगभग हर रचनाकार ने इस दर्द को अपनी रचना में उतारा है। जयपाल की कविता ‘लक्कड़-बग्घा’ गुजरात के नरसंहार व फासीवादी राजनीति को व्यक्त करते हुए इसकी बहुत सी परतों को उजागर करती है। जयपाल की चिन्ता में घटनाओं व समस्याओं के प्रभाव आते हैं, जो लोकचेतना का हिस्सा बन चुके होते हैं। वे उनमें मौजूद अमानवीयता को व्यक्त करके हमारी मानवीय नैतिकता व विवेक को जगाते हैं। इसमें जयपाल का ध्यान साम्प्रदायिक दंगों को तफसील से व्यक्त करने में नहीं है, बल्कि उससे जो सोच व असर पड़ता है उसे व्यक्त करते हैं। जयपाल की चिन्ता यह है कि साम्प्रदायिकता को अब साम्प्रदायिकता भी नहीं माना जाता। इसे अपराध मानने की बजाय धार्मिकता का तमगा पहनाकर सम्मानित किया जा रहा है। साम्प्रदायिक शक्तियां अब छुपकर नहीं, बल्कि गर्व के साथ शहीदों की तरह से स्वयं को पेश कर रही हैं। विधर्मियों को मारने पर उसे देश भक्त की पदवी देकर सम्मानित किया जाता है। अब वह समाज में सम्मानजनक स्थान पाने लगा है। वह अपने कुकर्मों पर शर्माता नहीं, बल्कि उसका उत्सव मनाता है। वह इतना शक्तिशाली हो गया है कि राजनीतिक तंत्र और न्याय तंत्र उसके आगे पानी भरते नज़र आते हैं। वह सब इसके समक्ष अपने को लाचार व असहाय पाते हैं। साम्प्रदायिक-फासीवाद सभी संस्थाओं-प्रणालियों को अपने गिरफ्त में ले रहा है। साम्प्रदायिकता का यह ‘लक्कड़-बग्घा’-
किसी की पकड़ में नहीं आता
राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री या सुप्रीम कोर्ट - सब इससे डरते हैं
यह सारा काम योजनाबद्ध ढ़ंग से करता है
यह लक्कड़बग्घा जानवर का मांस नहीं खाता
आदमी का मांस खाता है
इसलिए शाकाहारी कहलाता है
दूसरे धर्मों को मिटाता है
इसलिए धार्मिक कहलाता है
मां के गांव का लक्कड़बग्घा जाकर खेतों में छिप जाता था
लेकिन यह लक्कड़-बग्घा गौरव यात्रा निकालता है
और सिंहासन पर सज जाता है
धर्मस्थल इसके सुरक्षित खेत हैं,
यह राष्ट्र की बात करता है
राष्ट्रवासियों पर हमला कर देता है
धर्म की बात करता है
जयपाल ‘लक्कड़बग्घा’ की चालाकियों और हिंसक रूप से चिंतित हैं, लेकिन उससे भी अधिक उसकी बढ़ती प्रतिष्ठा और लोकप्रियता है। अब वह समाज में अलग-थलग नहीं पड़ता, बल्कि लोगों को नेतृत्व प्रदान करता है, लोग उसे महात्मा समझते हैं। साम्प्रदायिकों की ‘रथ-यात्राओं’, ‘गौरव-यात्राओं’ में उमड़ती भीड़ उनके बढ़ रहे समर्थन की ओर संकेत है। कवि कहता है-
इससे तो गांव का लक्कड़बग्घा ही अच्छा था
किसी का जात-धर्म तो नहीं देखता था
बाज़ारों में लूट तो नहीं मचाता था
बस्तियों की होली तो नहीं जलाता था
चौराहे पर बलात्कार तो नहीं करता था
भीड़ देखता था तो भाग जाता था
कम से कम डर तो था उसमें
अपराधबोध भी रहता था
मारने खाने के बाद
गांव जाकर सरपंच तो नहीं बन जाता था
लोग उसे महात्मा तो नहीं कहते थे
पुलिस खोजकर उसे पकड़ती थी
सुरक्षा तो नहीं देती थी
कम से कम लोग उसे अपना दुश्मन तो समझते थे
चार आदमियों में उसे गाली दी जाती थी
3.10 गांव और शहर:-
जयपाल ग्रामीण पृष्ठभूमि से जुड़े हुए हैं। अत: ग्राम्य जीवन के विविध रंग उनकी कविताओं में उभर कर सामने आए हैं। लेकिन ऐसा नहीं है कि उनकी कविताओं में शहर नहीं हैं। शहरों की चमक-दमक में वे वंचित-शोषित लोगों की भूमिका को पहचानते हैं और उनकी विड़ंबनाओं पर प्रकाश डालते हैं। गांव से शहर में आए मजदूर दुकान के बाहर रखी रजाईयों को देखकर आपस में टकरा जाते हैं। सर्दियों से बचने के लिए रजाई भी उनके लिए सपना है, वहीं शहर के रेस्तराँ में बैठे हुए रइसजादे सर्दियों में बर्फ पड़ने पर शिमला जाने की तैयारी कर रहे हैं। वे शहर की कोठियां और ऊँची इमारतें देखते हैं तो शहर के बाहरी बनी बस्ती को भी देखते हैं और उनकी चुप्पी को भी देखते हैं। वे गांव और गांव की संस्कृति का बेतुका महिमा मंडन करने की बजाय उसकी विसंगतियों और विद्रूपताओं को उजागर करते हैं।
उनकी कविता ‘गाँव’ में प्राकृतिक और मानवीय आपदाओं को झेलता हुआ गांव है, जिसे कदम-कदम पर ठगा गया है। गांव का मानवीकरण करते हुए बताया गया है कि गांव ने माथे पर हाथ रखा हुआ है और वह बिलखते हुए अपनी किस्मत को रो रहा है। ‘खाली हाथ’ कविता में रोजगार की तलाश में हर गांव से शहर आने वाले लोगों की दयनीय दशा को दर्शाया गया है। अपने रोते-बिलखते बच्चों को छोड़ कर पत्नी से झूठे-सच्चे वादे करके बेरोजगार व्यक्ति शहर के चौराहे पर आकर खड़े हो जाते हैं। अपने हाथों अपने हाथ बेचने के लिए वे चौराहे पर काम का इंतजार करते हैं। काम करते हुए वे शहर की सूरत को संवारते हैं, लेकिन अपनी दशा के बारे में वे बेफिक्र रहते हैं। उन्हें उनकी मेहनत का प्रतिफल नहीं मिलता और वे शाम को मुंह लटकाए हुए अपने घरों की तरफ वापिस लौट जाते हैं। ‘किसान’ कविता में गांवों और शहर को जोड़ने वाले खेतों और उनमें काम करने वाले किसान के जीवन-संघर्षों और आत्महत्या करने की दशा का मार्मिक चित्रण किया गया है।
उनकी ‘हवा’ कविता में गांव की एकता और भाईचारे के संस्मरण दिखाई देते हैं। लेकिन वह समय अब नहीं रहा है, जब एक प्रकार की हवा गांव की पहचान होती थी। ‘एक घर था ऐसा-वैसा’ में गांव के जीवन का सजीव चित्रण है।
3.11 लोक-जीवन:-
जयपाल की कविता में लोक जीवन के विविध पक्ष देखने को मिलते हैं। ‘हवा’ कविता में गांव में मोहल्ला-पड़ोस, खेत-खलिहान, मेले, तीज-त्योहार, शादी-ब्याह, तेरहवीं-सत्तारहवीं, कईं दिन पहले आए रिश्तेदार, झगड़ों के निपटारे के लिए पंचायत आदि के दृश्य हैं, जो आज पुराने समय की बात हो गए हैं। कभी इन सभी में प्रेमचंद की कहानियों जैसी एक हवा बहा करती थी।
3.12 निष्कर्ष-
जयपाल अपनी कविताओं में सीधे सरल लोक-जीवन की झांकियों में हमारे समय के यथार्थ के विभिन्न पक्षों को बहुत विश्वसनीय ढंग से प्रस्तुत करते हैं। सामाजिक-शक्तियों के बीच चल रहे संघर्षों का वर्णन करती ये कविताएं जनता के पक्ष को मजबूत करने के लिए समाज में मौजूद प्रचलित धारणाओं को तोड़ती हैं। जनता के प्रति अपनी प्रतिबद्धता कविताओं में सीधे तौर पर मौजूद है। जनता के संघर्ष व आन्दोलन कविताओं का विषय नहीं है, लेकिन विचाराधारात्मक परिप्रेक्ष्य शोषित-वंचित वर्ग का है।
चतुर्थ अध्याय
‘दरवाज़ों के बाहर’ का शिल्प
4.0 प्रस्तावना:-
कविता संवेदना और शिल्प का समन्वित रूप होती है। कवि अपनी अनुभूति को भाषा के माध्यम से अभिव्यक्ति प्रदान करता है। भाषा संवेदनाओं को साकार रूप प्रदान करती है। काव्य के जिन तत्वों के माध्यम से कवि अपनी संवेदनाओं को साकार रूप देता है, वह तत्त्व शिल्प के अन्तर्गत आता है। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि शिल्प वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा कवि अपनी संवेदना को सम्प्रेषित करता है। शिल्प के इन तत्वों में भाषा, बिम्ब, प्रतीक, अलंकार, काव्य रूप आदि को समाहित किया जाता है। विद्वानों का कथन है कि अनुभूति की सच्चाई के साथ एक सशक्त शिल्प का विधान होना भी कवि कर्म के लिए बहुत आवश्यक है। यदि सघन अनुभूति कविता का प्राण है, तो उसकी अभिव्यक्ति के लिए उत्तम शब्द चयन, अलंकार, बिम्ब, प्रतीक भी आवश्यक हैं।
इस बारे में लीलाधर जगूड़ी का कहना है, ‘एक अच्छी रचना में कथ्य और शिल्प आपस में गुंथे होते हैं। आज तक कोई रचना केवल शिल्प के लिए नहीं लिखी गई। कथ्य हर बार अपना एक शिल्प ले आता है। इसका मतलब यह नहीं है कि शिल्प का कोई महत्व नहीं है। शिल्प का महत्त्व कुछ-कुछ इस तरह का है, जैसे किसी के चेहरे के नाक-नक्श, किसी का शारीरिक-सौष्ठव..किसी के संपूर्ण व्यक्तित्व की झलक.. लेकिन इतने मात्र से संपूर्ण जीवन के कर्म, विचार, सम्पूर्ण जीवन के व्यवहार समझ में नहीं आ सकते। एक रचना के लिए कथ्य भी जरूरी है और शिल्प भी..। शिल्प के बिना अच्छा कथ्य भी अपना आकर्षण खो बैठता है। शिल्प की कोई निर्धारित पहचान और सीमा नहीं है..। कथ्य की तरह शिल्प भी पैदा करना पड़ता है। किसी भी रचना में भाषा, संकेत और ध्वन्यार्थ का पुनर्निर्माण करना पड़ता है।’
जयपाल की आलोच्य कृति दरवाज़ों के बाहर के बारे में डॉ. सुभाष चंद्र का कहना है, ‘‘जयपाल के पास कविता की बहुत गहरी पकड़ है। अपने आकार में कविता चाहे कितनी ही छोटी या विशालकाय हो, उसमें एक मुकम्मल विचार, स्थिति, भावना का वर्णन करती है। इस सूत्र के सहारे ही वह व्यक्त होती है। यदि यह सूत्र ढीला पड़ता है, निश्चित रूप से कविता के रूप में भी ढीलापन आएगा, जो कविता की संप्रेषणीयता व प्रभावशीलता को नकारात्मक रूप से प्रभावित करती है। जयपाल की कविता कसावट लिए है, ऐसा यहां कुछ भी नहीं, जो कविता के कलेवर में न समाता हो। एक विचार सूत्र को विभिन्न कोणों से देखते हुए न तो कसावट से डोरी टूटती है और न ही ढीली होती है। कविता की उचित कसावट पर कवि की मेहनत उल्लेखनीय है। ये कविताएं किसी स्वत:स्फूर्त भावोच्छ्वास की कविताएं नहीं, बल्कि अपने स्वरूप में जितनी सीधी-सरल हैं उतनी ही इनकी ठुकाई-पिटाई की गई है। जयपाल की कविताएं सचेत निर्मितियां हैं।’’ आगे वे कहते हैं- ‘‘जयपाल की कविताएं बहुत ही सरल हैं। जिसमें न तो जटिल प्रतीक हैं, न ही शब्दों की घुमावदार सीढि़याँ हैं और न ही विचारधारा की महीन कताई है। जयपाल की कविता सहज है, जो परिप्रेक्ष्य उद्घाटित कर देती है। सच्चाई उनकी कविता की विश्वसनीयता का आधार है। यहां कुछ भी काल्पनिक नहीं है। सच्चाई को कविता का रूप देने में सृजनात्मक कल्पना का सहारा लिया गया है।’’ काव्य की परंपरागत रूपक योजना एवं प्रतीक विधान का परित्याग कर जयपाल ने अपनी भाषा एवं शैली दोनों ही दृष्टियों से सपाट बयानी को अपनी कविता का आधार बनाया।
4.1 भाषा:-
भाषा भावाभिव्यक्ति का प्रमुख व सशक्त माध्यम होने के कारण काव्य-शिल्प का महत्वपूर्ण अंग है। भाव और भाषा में अटूट संबंध है। भावहीन काव्य को यदि काव्य नहीं कहा जा सकता तो कोरे विचार भी उत्कृष्ट भाषा के अभाव में प्रभावोत्पादक नहीं हो सकते। वस्तुत: काव्य में भाव और भाषा का मणि-कांचन योग ही उसके अन्तर और बह्य को प्रकाशित कर, सहृदय के अन्त:स्थल में बिम्ब उपस्थित करता है। सामान्यत: जो वाणी से व्यक्त होती है, उसे भाषा कहते हैं। जयपाल की भाषा सीधी-सरल और सपाट है। उसमें लोक जीवन और लोक भाषा के रंग हैं। उनकी भाषा में एक खास प्रकार का गुरूत्वाकर्षण है। उन्होंने अपने भावों पर भाषा थोंपी नहीं है, बल्कि उनकी भाषा सहज तौर पर ही भावों की अनुगामिनी बन कर सामने आई है। उनकी भाषा की विशेषताओं को निम्न बिंदुओं के अन्तर्गत विश£ेषित करने की कोशिश की जा रही है-
4.1.1 सटीक शब्द-चयन-
जयपाल की कविता की शक्ति शब्दों के चुनाव में है। शब्द चयन ही कविता में वक्रता लाता है, उसी से व्यंग्य और गम्भीरता आती है। बिना कुछ अतिरिक्त प्रयास के शब्द से समस्त कार्य साधते हैं। जयपाल का शब्द चयन पाठक को एक विशेष जगह ले जाता है। पाठक को यहां मनोवांछित अर्थ ग्रहण करने की छूट नहीं मिलती। अपने लक्षित अर्थ तक पाठक को ले जाना कवि की सफलता कही जा सकती है। उनकी भाषा में ना क्लिष्टता है और ना दुरूहता। उनकी भाषा एवं शब्दावली पूरी तरह से सहज, सरल, भावानुकूल, विषयानुकूल और सम्प्रेषणीय है। जयपाल की भाषा से भाव सहज तौर पर पाठक तक पहुंचते हैं और उसकी सोई चेतना को झकझोरते हैं।
4.1.1.1 हिन्दी-उर्दू सद्भाव की भाषा-
अपनी कविताओं में उन्होंने तत्सम और तद्भव शब्दों के साथ ही उर्दू-फारसी के उन शब्दों का प्रयोग किया है, जोकि लोगों की जु़बान पर रहते हैं। इस तरह से उन्होंने जनसाधारण की भाषा का प्रयोग किया है, जोकि पाठकों पर गहरी छाप छोड़ती है। उनकी कविताओं में उर्दू शब्द संस्कृतनिष्ठ तत्सम शब्दों के साथ घी-शक्कर की तरह मिले हुए हैं। उनकी भाषा से हिन्दी और उर्दू के शब्दों को जुदा नहीं किया जा सकता। उनकी कविता का कथ्य जहां साम्प्रदायिकता की परतें खोलता हुआ सद्भाव को मानव विकास के लिए जरूरी मानता है, उसी प्रकार भाषा उर्दू के शब्दों का भरपूर इस्तेमाल करती हुई हिन्दी-उर्दू दोस्ती की नई इबारत गढ़ती है।
उनकी कविताओं में उर्दू-फारसी के शब्दों के कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं-
जंजीरों में जकड़े, महाजन, गिरवी, जलूस, ज़ुबान, बेज़ुबान, फड़फड़ाना, गुमशुदा, बर्बरता, दरवाज़ों के बाहर, तमाशा, मालिक, बुज़र्ग, हफ़्ते, ज़्यादा, दवा, मज़दूर, बाज़ार, रईसजादे, मज़ा, तनख्वाह, खत्म, ज़माने, अमीर, आखि़र, दफ्तर, सवाल, जवाब, ज़मीन, जे़वर, अखबार, बेजान, आदमी, असर, जिम्मेवारी, फुदकते, खुद, सुनसान, श्मशान, बेखबर, वायदे, वापिस, बिलखते, किस्मत, ज़िंदगी, तलाश, नक्शा, सर्द, सन्नाटा, कोहरा, खौफ़, बरकरार, फायदे, क़द, साजिश, खिलाफ़, खतरा, गौर, ज़रूरत, बाकी, पर्दा, फैसला, खुदक़शी, गुलामी, मतलब, वक़्त, जलील, जंग का ऐलान, आज़ादी, क़त्ल, कानून, अदालत, लायक, मज़ाक, ज़िंदा, ज़मीन, शामियाना, कर्ज़, मर्ज़, तमाम, बेखबर, दाग़, ज़ुल्म, ज़मीन, सवाल, चौराहे, सरेआम, असलाह बारूद, याददाश्त, फायदे, सज़ा, कातिल, मुन्सिफ, फतवे, बगल, नामोनिशान, खासियत, अंदाजा, हमला, खैर, ख्याल, नाज़-नखरों व बरामदा आदि।
इसी प्रकार तत्सम शब्दों के कुछ उदाहरण देखिए-
प्रतिरोध, आदिम, प्रतिमाएँ, पदचाप, अंधकूप, नीड़, प्राचीन, नवीन, युग परिवर्तन, सामान्य ज्ञान, दूरदर्शन, साहित्य, विश्वविद्यालय, पाठ्यक्रम, कूप-मंडूक, ईश्वरीय शब्द, आत्महत्या, भ्रम, आतंक, विचित्र, उपहास, अध्याय, सम्पूर्ण विश्व, मुक्ति, अपहरण, बहिष्कृत, प्रतिष्ठित, निमंत्रण-पत्र, प्रशस्तियाँ, प्रतिबंधित, क्रूरता, सम्राट, विलाप, क्रन्दन, दुर्गन्ध, निर्वस्त्र, अग्नि-परीक्षा, अनुपम, तृप्त व प्रायश्चित आदि।
4.1.1.2 लोकभाषा के देशज शब्दों का प्रयोग-
जयपाल ने हरियाणा के देशज शब्दों का अपनी कविताओं में प्रचूर प्रयोग किया है। उनकी कविता एक घर था ऐसा-वैसा में जैसे उन्होंने हरियाणा के ग्राम लोक का चित्र ही उकेर दिया है। देशज शब्दों के प्रयोग से उनकी कविता प्रामाणिक हो गई है। दरवाज़ों के बारह संग्रह में प्रयोग किए गए देशज शब्दों की एक सूची इस प्रकार है-
बड़बड़, कानस, तड़के, पराँठे, अकादमी, कोठी, जुता हुआ, रेहड़ा, मुंह-अंधेरे, ओढ़ना, चूल्हा, लू, तवा, रोड़े, बुहारना, टोकरी, कुलटा, अंगीठी, टोकरा, करतूत, तिड़के, कोठड़े, मंजे-मंजियाँ, दूणे-हांडियाँ, घड़े-माट, डब्बे-कनस्तर, कट्टे, बोरी, मूढ़े, पीढ़े, बोईये, बाण, सूआ, सूतली, हारे-तंदूर, कोठी-कुठले, खाल-खलूचे, आड़-कबाड़, भीरड़, ततैए, कुत्ते-कतुरुए, दराणी-जठाणी, कूड़म, जंवाई, दसूठण, ताग्गा-तबीज, टूणा-टाम्मण, पीड़, गप्पी, डंगर, बाड़ा, हुक्का, अम्बियाँ, छोरा-छोरी, टाब्बर आदि।
4.1.1.3 अंग्रेजी शब्दों का प्रभाव-
जयपाल ने उन अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग करने में कोई संकोच नहीं किया है, जोकि लोगों में आम बोले जाते हैं। विशेष प्रकार के भावों को उजागर करने में इन अंग्रेजी शब्दों का प्रभाव अचूक है। इन्टरव्यू और ड्राईंग रूम कविताओं के शीर्षक भी अंग्रेजी में ही हैं। इसी प्रकार उनकी कविता में इस्तेमाल अंग्रेजी शब्दों के कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं-
डबल रेट, इंटरव्यू, सर्टीफिकेट, फोटोस्टेट, ओवर-एज, शेव, बैंक, बैलेंस, रेल, पार्टी, ड्राईंग रूम, स्कूल, कॉलेज, सर्कस, क्रिकेट, कम्प्यूटर, सिगरेट, होटल, बूट पालिश, गारंटी, पुलिस मैन, जनरल, रिवाल्वर, अल्ट्रासाउंड, सुप्रीम कोर्ट, रेलवे स्टेशन, पैसेंजर, वाटर कूलर, बेंच, प्लॉट, फ्री, सन आफ गॉड, स्टैंप, सर्टीफिकेट, स्कैंडल, फोल्डिंग, टेबल फैन, डाक्टर, मास्टर, स्कूल व अफसर आदि।
4.1.2 मुहावरे और सूक्तियों का प्रयोग-
जयपाल के काव्य संग्रह में मुहावरे और सूक्तियों का भी भरपूर प्रयोग हुआ है। उनकी कविताओं में नए मुहावरे, कहावतें और सूक्तियाँ सहज तौर पर गढ़ी जाती हुई प्रतीत होती हैं। इन मुहावरों से उनकी भाषा और अधिक प्रभावी हो गई है-
आँखें फोड़ना, होंठ सिलना, सपने देखना, जंजीरों में जकड़े हाथ, रास्ते खोजना, सीमाएँ तोड़ना, पिंजरा टांगना, झूठ से पर्दा उठना, छाती पर जेब, ऊँचा नाम, ऊँची शान, कहाँ राजा भोज कहाँ गंगू तेली, हैरान-परेशान, मुँह अंधेरे उठना, झूठे-सच्चे वायदे, मुक्ति का रास्ता, खून बहाना, मुंह में राम बगल में तलवार, क्या जानें किस रूप में नारायण मिल जाएं, खाक छानना, दरवाज़े के बाहर खड़े समय की पदचाप, तिनकों का नीड़ बुनना आदि।
4.1.3 अलंकारों का प्रयोग-
जयपाल की कविताओं में उनका वैचारिक पक्ष पूरी प्रमुखता से उजागर होता है। अपनी कविता के शृंगार के लिए वे किसी भी बनावटी और सजावटी अलंकार के पक्ष में नहीं हैं। लेकिन अभिव्यक्ति में सहज ही अनेक अलंकारों ने उनकी कविता की साज-सज्जा कर दी है। वे पहाड़ सी जिंदगी कह कर उपमा अलंकार का सुंदर प्रयोग करते हैं।
अपनी कविता ‘समय से आगे’ में कविता का सुंदर मानवीकरण कर देते हैं-
कविता खोजती है हमारे आकाश के नये रास्ते
कविता तोड़ती है हमारे रास्तों की सीमाएँ
कविता सौंपती है हमें हमारे पंख
कविता बोलती है धीरे-धीरे चुपचाप
‘जाले’ कविता में भी युग जाले बुनता और चुनता मिल जाता है। ‘हवा’ कविता में हवा का मानवीकरण बहुत ही सुंदर बन पड़ा है। इस कविता में प्रेमचंद की कहानियों जैसी हवा बैठक और आंगन के बीच दौड़ती हुई/कभी कभी यह चली जाती थी घर के भीतरी कोनों तक/ घर की औरतों को गले मिल आती थी चुपचाप।
उनकी कविता ‘गाँव’ में गांव का मानवीकरण सुंदर बन पड़ा है।
कविता में पुनरूक्ति प्रकाश अलंकार की छटा अद्भुत है। अनेक स्थानों पर
कभी-कभी, सवेरे-सवेरे, किस-किस, कुछ कुछ, साफ-साफ, अपने-अपने, नए-नए, बड़े-बड़े, दो-दो, अपनी-अपनी, तरह-तरह, कण-कण, दूर-दूर, साथ-साथ, छिप-छिप, ठा-ठा, बुरा-बुरा व अच्छा-अच्छा जैसी पुनरूक्ति द्वारा उन्होंने अपनी कविता में प्रभाव पैदा कर दिया है।
अनुप्रास अलंकार का भी सहज तौर पर प्रयोग हुआ है। कुछ उदाहरण देखिए-
चमके चमड़े, शेव बनी कुछ सलीके से, सगे-संबंधी, शराब-सिगरेट, डिगरियाँ-पदवियाँ, कार-कोठी, जमीन-जेवर, बैंक बैलेंस, पत्र-पत्रिकाओं में, घर-बार के लिए, काम करते बच्चे, लुटते-पिटते, शहर की सूरत-संवारते हैं, हताश-निराश, हाथ में लाठी लेकर, मजदूर माँ, सारे शहर की सड़कें, सफल हुए संघर्ष, दाएँ-बाएँ, आस-पड़ोस, बूढ़े-बुज़ुर्गों, मौत का मौसम, सबकी सेवा, कभी-कभार, मंत्रियों-संत्रियों की सिफारिशें, स्वतंत्रता-संग्राम, अचानक आकर, बजरी बन, फाँसी का फंदा, फूलों और फलों, बहु-बेटियों, मालिक-मकान, स्वर्ण-सामंत, उंगली उठाने वाले, साहित्य-संस्कृति, खेत-खलिहानों, बाग-बगीचों, बूढ़े-बाप, मक्खी-मच्छर, साँप-सपालिए, राम राज, कैसी करतूत, मैंने कहा-क्यों क्या हुआ, नाज़-नखरों, परमपिता परमेश्वर, बीवी-बच्चे, सगे-संबंधी, अनादि-अनंत आदि।
4.1.4 छंद प्रयोग-
जयपाल के संग्रह दरवाज़ों के बाहर में संकलित कुल 63 कविताओं में से 61कविताएं छंद मुक्त हैं। काव्य-संग्रह की दो कविताएं ‘राम के दोहे’ और ‘गुजरात के दोहे’ छंदयुक्त हैं। दोनों कविताओं में सात-सात दोहे हैं। दोहा छंद का जयपाल का प्रयोग बहुत ही शानदार बन पड़ा है-
राम राज के नाम पर, रावण की करतूत।
कैसा कलियुग आ गया, ये कैसे राम कू दूत।।
गोडसे गुजरात में करते हैं अब सैर।
मोदी जी का राज है गाँधी की नहीं खैर।।
छंद का प्रयोग करते हुए जयपाल के लिए छंदों की बजाय विचार महत्वपूर्ण हैं। छंदों का प्रयोग करने में दक्ष होने के बावजूद जयपाल अपने विचारों के लिए अडिग हैं। अपनी कविताओं को वे सामाजिक संघर्षों में वंचित-शोषित वर्ग के हथियार की तरह इस्तेमाल करना चाहते हैं।
4.2 बिंब विधान-
जयपाल अपनी कविताओं में जाने-पहचाने चित्रों का इस्तेमाल करते हैं, जिनसे लोगों का हररोज ही वास्ता पड़ता है। जब कविता इस रोज वास्ता पड़ने वाली साधारण सी वस्तुओं को असाधारण व ऐतिहासिक अर्थ देने वाले चित्रों व प्रतीकों में बदलती है तो ये इस चेतना के स्थायी वाहक बन जाते हैं और स्वत: ही पाठक की जीवन-दृष्टि को प्रभावित करने लगती है। अपनी कविता में जनजीवन के चित्रों-बिम्बों-प्रतीकों-शब्दों को नए अर्थ देती कविताओं की शक्ति इसीलिए अधिक होती है। इनकी स्मृति स्थायी होती है। इसके विपरीत जो बिम्ब-प्रतीक जीवन का अभिन्न हिस्सा नहीं होते और कवि उनसे कविताएं निर्मित करता है वे लक्षित-इच्छित अर्थ देने में तो सक्षम होते हैं, लेकिन उनका प्रभाव भी दूज के चांद की तरह होता है जो एक बार प्रकाशमान होकर ओझल हो जाता है। सामाजिक शक्तियों में व्याप्त अन्तर्विरोधों व संघर्षों को जयपाल की कविता स्पष्ट करती है। साम्राज्यवादी-पूंजीवादी व्यवस्था में कई स्तरों पर संघर्ष चलता है, जिसे शोषक वर्ग कभी नजरअंदाज नहीं करता, लेकिन शोषित वर्ग इस जटिल प्रक्रिया को नहीं समझ पाता। ‘बगुला और मछली’ के माध्यम से शोषक-शासक व वर्चस्वशाली वर्ग के घाघपन व चालाकियों को उद्घाटित किया है और उनके आपसी द्वन्द्वों, संघर्षों को भी दर्शाया है। बगुला और मछली का ऐसा बिम्ब दिया है जो पाठक पर अपना स्थायी प्रभाव छोड़ता है।
बगुला केवल मछली को ही नहीं देखता
पानी को भी देखता है
कितने पानी में है मछली
बगुला केवल मछली को ही नहीं देखता
साथ घूम रही दूसरी मछलियों को भी देखता है
बगुला केवल मछली को ही नहीं देखता
दृश्य बिंब के आम दिखाई देने वाले चित्र उनकी कविता में हैं। ये चित्र जयपाल ने कल्पना लोक या आसमान से नहीं उकेरे हैं, बल्कि समाज की ठोस परिस्थितियों से लिए हैं। कुछ उदाहरण देखिए-
प्रतिरोध में उठते हाथ, जलूस में चलना, फड़फड़ाते सिले होठ, तमाशा दिखाता है बच्चा/रस्सी पर चलता है बच्चा/आग में कूदता है बच्चा/हवा में उछलता है बच्चा/मालिक की तरफ देखता है बच्चा/ सहम जाता है बच्चा, रजाइयों को मुड़ मुड़ कर देखते हुए/दो मजदूर बाज़ार में एक दूसरे से टकरा गए, एक आदमी खड़ा है चुपचाप आदि।
फटाक से खिड़की बंद कर दी, नौकर रामदीन इस हफ़्ते कुछ ज़्यादा ही खाँस गया है आदि श्रव्य बिंब के उदाहरण हैं।
4.3 प्रतीक विधान:-
जयपाल प्रकृति के प्रतीकों के माध्यम से मानव जीवन के संघर्षों को प्रकट करने में माहिर हैं। ‘मजदूर औरत’ कविता में उन्होंने सुबह, दोपहर शाम और रात के माध्यम से मजदूर औरत की व्यथा-कथा को दर्शाया है-
खिली हर सुबह
तपी हर दोपहर
ढ़ली हर शाम
अँधकार में दबी रही रात भर।
‘पेड़ और दलित’ कविता में बड़े ही सुंदर ढ़ंग से पेड़ को दलित का प्रतीक बताया गया है।
पेड़ और दलित लगभग एक जैसे होते हैं
कुछ लेते हैं ज़मीन से
कुछ देते हैं ज़मीन को
लेकिन अगर हाथ में पत्थर लेकर
उनकी जड़ों पर किया जाए प्रहार
उनकी मिट्टी को किया जाए लांछित
उनकी चमड़ी को देखकर गढ़ी जाए सौंदर्य की परिभाषा
उनकी शाखाओं और पत्तों को उछाल दिया जाए हवा में
फूलों और फलों पर बिठा दिया जाए पहरा
उनकी छाती पर आरी ना भी चलाई जाए
तो भी
कितने दिनों तक हरे रहेंगे दोनों
कितने दिनों तक खड़े रहेंगे दोनों
क्या ज़मीन से लेंगे
और
क्या ज़मीन को देंगे?
4.4 घटनात्मकता एवं कथात्मकता-
कहानी में कविता लिखना जयपाल की सबसे बड़ी शक्ति है। इस अर्थ में जयपाल की कविता कविता के बने-बनाए शिल्प के साथ छेड़छाड़ करती है। वे कविता में गद्य का सार्थक इस्तेमाल करते हैं। घटना का आख्यान और उसके बीच कविता की चमक दिखाई देती है, जिसमें विसंगतियों को तार-तार किया जाता है। जयपाल की कविताएं हमारे समय की वास्तविकताओं को परत दर परत खोलती हैं। वे घटनाओं का वर्णन-विवरण नहीं देते, लेकिन घटनाएं उनकी कविता में चिपकी होती हैं, वे अपने कथ्य से इसे इस तरह संयोजित करते हैं कि घटनाएं न रहकर पूरा परिदृश्य उद्घाटित करने लगती हैं। सीधी-सरल घटना या कथा में बहुत ही आसानी से वे तीखा व्यंग्य और गहरे भाव व्यक्त करने में सक्षम हैं।
‘एक रूपये का सिक्का’ कविता में तनख्वाह खत्म होने पर जेब में सिर्फ एक रूपये का सिक्का बचा है। पूरे परिवार और उसमें अलग-अलग सदस्यों की जरूरतें पूरी करने के लिए यह सिक्का नाकाफी है। यह खबर परिवार के सदस्यों को लग गई है कि अब सिर्फ एक रूपया ही बचा है। ऐसे में पत्नी बिजली-पानी के बढ़े दामों का रोना रो रही है। माँ पोते को एक रूपये की महिमा सुना रही है, जब इससे क्या-क्या आ जाता था। पिता और बेटे को भी रूपये की जरूरत है, लेकिन क्या करें। इस सारी स्थिति से घर में कमाने वाला व्यक्ति परेशान होकर घर से बाहर निकलता है, लेकिन घर से बाहर भी बाज़ार है। मित्र भी जेब की तरफ देखते हैं तो कवि दर्जियों पर गुस्सा करता है, जोकि जेब को छाती पर टांग देते हैं। आखिर में कवि घर पहुंच कर एक रूपये के सिक्के को जेब से निकाल कर कानस पर उछाल देता है। कथा सूत्र में पिरोई गई यह कविता उन निम्नमध्यम वर्गीय परिवारों की स्थितियों को उजागर करती है, जिन बड़े परिवारों में कमाने वाला सिर्फ एक है। तनख्वाह का सारा पैसा उधारी चुकाने में चला जाता है और फिर मुश्किलों में पूरा महिना बीतता है।
‘इन्टरव्यू’ कविता में इंटरव्यू देने की घटना के बार-बार दोहराए जाने से पैदा होने वाली उम्मीद और उम्मीदों के टूटने पर होने वाली निराशा को कथात्मक शैली में व्यक्त किया गया है।
‘मेज, कुर्सी और आदमी’ कविता वर्तमान राज्य-व्यवस्था की कार्य प्रणाली को उजागर करती है कि सरकारें चाहे जो भी आएं लेकिन उनकी चाल व चरित्र एक सा रहता है-
एक जमाने से
एक मेज रखी है साहित्य अकादमी के दफ्तर में
दूरदर्शन, आकाशवाणी और अखबार के सम्पादकीय विभाग में
स्कूल-कालेज-विश्वविद्यालय की पाठ्यक्रम समिति में
यह मेज न हिलती है, न डुलती है
न देखती है, न सुनती है
एक जमाने से यह मेज एक जगह स्थिर है
इसके आगे एक कुर्सी रखी है
यह कुर्सी भी बेजान है
बड़ी रहस्यपूर्ण और सुनसान है
इस कुर्सी पर एक आदमी बैठा है
उसके आंख और कान सिरे से गायब हैं
शरीर के बाकी अंगों पर लकवे का असर है
एक जमाने से
इस आदमी की यही पहचान है
सरकारें आती हैं
चली जाती हैं
लेकिन इस बात पर सभी सहमत हैं
कि-
मेज, कुर्सी और आदमी
तीनों अपना काम बड़ी जिम्मेवारी से निभा रहे हैं।
‘कहाँ मानते हैं बच्चे’ कविता में समाज को जोड़ने में बच्चों की भूमिका को कहानी की तरह से ही बताया गया है कि जब बच्चे खेलते-कूदते हैं तो वे किसी भी जात-पात व धर्म की संकीर्णताओं को नहीं मानते हैं। ‘चपड़ासी’ कविता भी लघु-कथा की तरह है, जिसमें चपड़ासियों की जिंदादिली और अन्य लोगों की ईर्ष्या-वृत्ति को उजागर किया गया है। देखिए यह कविता कैसे शुरू होती है-
मेरे दफ्तर के बाहर
एक चपड़ासी बैठता है
उनकी कविता ‘बगुला और मछली’, ‘एक थी चिड़िया’, ‘पंद्रह अगस्त की तैयारी’, ‘पेड़ और दलित’ का शीर्षक ही किसी कहानी का संकेत देता है।
4.5 प्रश्नात्मक शैली-
वर्तमान दौर की विसंगतियां और विडंबनाएं अनेक प्रकार के सवाल खड़े करती हैं। इन्हीं सवालों से कवि जूझता है। कईं बार तो ये सवाल ही काव्य-रचना का मार्ग प्रशस्त करते हैं। अपनी कविताओं में भी कवि अक्सर सवाल खड़े करते हैं। जयपाल ने अनेक कविताओं में प्रश्नात्मक शैली का परिचय दिया है। उनकी कविता ‘उनका सवाल’ प्रश्नों से बुनी गई कविता है। दलित वर्ग के मन के सवालों को इस कविता के माध्यम से जयपाल मुखरित करते हैं, तो पाठकों की चेतना को झकझोर कर रख देते हैं। दलितों में भी दलित, वंचितों में भी वंचित लोगों के सवालों को अक्सर गंभीरता से नहीं क्यों नहीं लिया जाता है। यह सवाल भी कविता को और अधिक सशक्त बना देता है-
वे पूछते हैं-
आज भी उनके सिर पर गंदगी का टोकरा क्यों रखा है
उनकी बस्ती शहर या गाँव से बाहर ही क्यों होती है
उनके मंदिर-गुरूद्वारों में दूसरे लोग क्यों नहीं आते
अनपढ़ता बेकारी और गरीबी उनकी बस्ती में ही क्यों रहता है
उनकी बहु-बेटियों को लोग खाने-पीने की चीज़ें क्यों समझते हैं
उनके महापुरूष दूसरों के लिए उपहास पुरूष क्यों होते हैं
स्कूल में अध्यापक उन्हीं की जाति को क्यों याद रखता है
अन्तर्जातीय विवाह से उनकी जाति अभी तक बाहर क्यों है
उन्हें किराएदार रखने में मालिक-मकान को क्या परेशानी है
उनकी जाति को गाली में क्यों बदल दिया गया है
अंत में वे एक सवाल और पूछते हैं-
उनके सवाल को आखिर सवाल क्यों नहीं माना जाता।
इसी तरह की एक कविता ‘उनका कहना है’ में कवि ने सवालों की झड़ी लगाई है। वह/एक दलित बस्ती में पैदा हो गया/इससे ज़्यादा वह अब और क्या कहे/कहने को अब बचा ही क्या है/अगर वह कुछ कहेगा भी/तो आप कितना सुनोगे/थोड़ा बहुत सुन भी लिया तो विश्वास कितना करोगे। दलित विमर्श की एक कविता ‘उसका गाँव’ में प्रश्नों के ज़रिये कविता आगे बढ़ती है। जिस गाँव की सीमा में प्रवेश करती ही/कवि-लेखक-शिक्षक डॉ. चन्द्रप्रकाश/अचानक चंदा चमार हो जाता है/वह उस गाँव में क्या मुँह लेकर जाए/कैसे दोस्तों को बताए/कि उस गाँव में उसका बचपन बीता। ‘अंबेडकर और रविदास’ कविता में प्रश्न दलित नहीं पूछता बल्कि दलित से सवर्ण पूछते हैं, तो समाज का भेदभावपूर्ण तानाबाना उजागर होता चला जाता है। जयपाल की कविताएं ‘भूखे पेट क्या होता है’ और ‘कब तय करेंगे’ ऐसी कविताएं हैं, जिनके शीर्षक भी प्रश्नसूचक हैं। ‘एक रूपये का सिक्का’ में कवि कहता है-
मुझे दर्जी भाईयों पर गुस्सा आया
आखि़र ये लोग जेब छाती पर क्यों टाँग देते हैं।
‘आधुनिक नगर’ में प्रश्न का तीखपन देखिए-
एक आधुनिक नगर में कितने श्मशान।
‘पड़ोसी’ कविता में आम प्रचलित कहावत अपने अलग नाजो-नखरे के साथ पेश होती है-
कहाँ राजा भोज
कहाँ गंगू तेली।
‘माँ’ कविता में कवि प्रश्न करता है-
वह कब खो गई थी
कहाँ खो गई थी
किसलिए खो गई थी
उसे भी नहीं पता।
‘आज़ादी’ कविता में कवि पूछता है कि
वह आज़ादी कहाँ है
जिसके नाम पर
दो-दो स्वतंत्रता संग्राम लड़े गए
‘एक थी चिड़िया’ कविता में कवि कहता है-
क्या करे चिड़िया
किस-किस से लड़े
किस-किस से भिड़े
‘पेड़ और दलित’ में कवि के सवाल कुछ इस प्रकार से हैं-
कितने दिनों तक हरे रहेंगे दोनों
कितने दिनों तक खड़े रहेंगे दोनों
क्या ज़मीन से लेंगे
और
क्या ज़मीन को देंगे?
‘बंद दरवाजे़’ कविता में कवि गड्मड् और बेहद मुश्किल होते जा रहे प्रश्नों से जूझता है-
मैं क्या करूँ
किसको खोलूँ, किसको तोडूँ
दरवाज़े कहाँ हैं
दरवाजें कैसे हैं
हैं भी या नहीं
कुछ पता नहीं चलता
‘प्रार्थना’ कविता का निष्कर्ष देखिए-
क्या तुम उनके लिए अब भी
अपनी वही पुरानी प्रार्थना दोहराओगे?
‘राम के दोहे’ और ‘गुजरात के दोहे’ में जयपाल प्रश्न पूछ कर पाठकों को सोचने के लिए मजबूर कर दिया है-
राम राज के नाम पर, रावण की करतूत।
कैसा कलियुग आ गया, ये कैसे राम के दूत।।
मुँह में उनके राम हैं, बगल में है तलवार।
राम जी तेरे नाम पर, ये कैसी सरकार।।
एक हिरण को देखकर, ठगे गए थे राम।
हिरणों के अब झुण्ड हैं, कैसे बचेंगे राम।।
नरमुण्डों के ढ़ेर पर सेवक करते मौज।
राम जी तेरे नाम की कैसी है ये फौज।।
औरत का उपहास है बच्चों का चीत्कार।
ये कैसा राम का राज है ये कैसी सरकार।।
खून का बदला खून है आग का बदला आग।
बदले की इस आग में ये कैसा खून का फाग।।
रामभक्त मदमस्त हैं रुदन करे गुजरात।
रामजी तेरे नाम पर ये कैसा उत्पात।।
4.6 निष्कर्ष-
शिल्प विचारों का परिधान है। यह वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा कवि अपनी अनुभूति को अभिव्यक्ति का रूप देता है। भाषा भावाभिव्यक्ति का मुख्य साधन है। जयपाल की भाषा खड़ी बोली हिन्दी है। इसके शब्द भंडार में तत्सम, तद्भव, देशी-विदेशी और हरियाणवी शब्दों का समावेश है। काव्य भाषा सरल-सहज ढं़ग से प्रभावी अभिव्यक्ति करने में सक्षम है। प्रश्नानुकूलता भाषा का एक गुण है। उनकी भाषा में मुहावरों और सूक्तियों का प्रयोग हुआ है। जयपाल अपनी भाषा के माध्यम से युग की विसंगतियों और विद्रूपताओं को बहुत ही सहजता से व्यक्त करते हैं। उन्होंने आम जन-जीवन से बिंब और प्रतीक उठाए हैं। अधिकतर कविताएं छंदमुक्त हैं, लेकिन दो कविताएं दोहा छंद पर आधारित हैं। संक्षेप में कहा जा सकता है कि कवि जयपाल का शिल्प उनकी अनुभूति के अनुरूप सजीव, सार्थक एवं सशक्त है।
पंचम अध्याय
उपसंहार
जयपाल मानवतावादी एवं प्रगतिवादी चेतना के कवि हैं। ‘दरवाज़ों के बाहर’ उनका पहला और अब तक का एकमात्र काव्य संग्रह है। लेकिन उनकी रचनाएं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में समय-समय पर प्रकाशित होती रहती हैं। गांव के एक पिछड़े और गरीब परिवार में उनका जन्म हुआ। अन्तर्मुखी प्रवृत्ति एवं संकोची स्वभाव को उन्होंने अपनी कमजोरी नहीं बनने दिया, बल्कि इसी के बल पर वे किताबों से दोस्ती के सुनहरी सफर पर चल निकले हैं। वे मौखिक तौर पर भले ही कम बोलते हुए नज़र आते हैं, लेकिन इसकी क्षतिपूर्ति वे अभिव्यक्ति के लिखित रूप से कर लेते हैं। वैचारिक रूप से उनकी अभिव्यक्ति पूरी तरह से स्पष्ट है। वे हरियाणा के बेहद सशक्त और संभावनाशील कवि हैं।
ग्रामीण पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण उनके पास आंचलिक अनुभवों की भरमार है। घर-परिवार, खेत-क्यार, डांगर-ढ़ोर के जीवन को उन्होंने जिया है और अपनी पैनी दृष्टि से विसंगतियों को पहचाना है। गांव के समाज में जात-पात, ऊँच-नीच, भेदभाव और शोषण के विभिन्न रूपों को उन्होंने अपनी आंखों से देखा और भुगता है। लेकिन यही नहीं नगरीय जीवन की विडंबनाओं तथा गांव व शहर के रिश्तों में बाज़ार की घुसपैठ पर उनकी नज़र है। शहर को शहर बनाने में कैसे गांव का योगदान है। शहर की पॉश कालोनियों को रहने लायक बनाने के लिए शहर से कुछ दूरी पर बनी बस्ती के गरीब बाशिंदों का योगदान है। वे शहर को खूबसूरत बनाने के लिए अथक मेहनत करते हैं, लेकिन इसके बावजूद वे अनचिन्हे और उपेक्षित रह जाते हैं। जयपाल समाज की जातीय संरचना और उसमें हो रहे जातीय उत्पीड़न को समझते हैं। साम्प्रदायिक ने किस तरह से देश की सांझी विरासत और सामाजिक ताने-बाने को नुकसान पहुंचाया है। देश के इतिहास में राम मंदिर के नाम पर साम्प्रदायिकता का तांडव किया गया। गुजरात में नरसंहार और उड़ीसा में ग्राह्म स्टेंस व उसके बच्चों को जिंदा जला दिया गया। इन घटनाओं ने देश को झकझोर दिया था। जयपाल की कविताओं में इन घटनाओं की सटीक आलोचना की गई है। जयपाल महिलाओं, दलितों, अल्पसंख्यकों, युवाओं और बच्चों को समाज-परिवर्तन की धुरी मानते हुए उनकी जीवन-स्थितियों पर प्रकाश डालते हैं।
सामाजिक-आर्थिक गैरबराबरी, भेदभाव और शोषण के विविध रूपों को वे पहचानते हैं और वंचित-शोषित तबकों की पक्षधरता करते हैं। अपनी कविताओं को उन्होंने उनके हक में हथियार के तौर पर खड़ा किया है, ताकि न्याय और बराबरी पर आधारित व्यवस्था का निर्माण हो सके।
जयपाल के पास समाज और व्यवस्था पर पड़ रहे वैश्विक प्रभावों को पहचानने की गहरी दृष्टि और समझ है। जयपाल हमारे समय के बहुत जरूरी कवि हैं, जिनकी सीधी-सरल कविताएँ मुख्यत: समाज के उपेक्षित, पीड़ित, वंचित वर्ग पर केन्द्रित हैं। उनके पास कविता की बहुत गहरी पकड़ है। अपने आकार में कविता चाहे कितनी ही छोटी या विशालकाय हो, वह एक मुकम्मल विचार, स्थिति, भावना का वर्णन करती है। वे जटिल से जटिलतर होती जा रही परिस्थितियों पर बहुत ही सहजता से कलम चलाते हैं।
सामाजिक परिवर्तन के लिए वे बच्चों, युवाओं, महिलाओं, दलितों और अल्पसंख्यकों को संभावनाशील तबका मानते हैं। मध्यम वर्ग ने देश व दुनिया में समय-समय पर हुए परिवर्तनों में अग्रणी भूमिका निभाई है। लेकिन आज पूंजीवादी व्यवस्था द्वारा पेश की जा रही अंधउपभोक्तावादी संस्कृति के जाल में वह फंसता जा रहा है। संघर्ष और विमर्श से बचते हुए परिवर्तन में उसकी भूमिका भी कुंठित हो गई है। लोकजीवन के विविध पक्ष भी उनकी कविता में जीवंत हो उठते हैं।
संवेदना ही नहीं शिल्प की दृष्टि से भी जयपाल की कविता सशक्त है। वे विचार और शिल्प में पूरी तरह से कसावट बनाकर रखते हैं। अपनी कविता में वे एक विचार सूत्र को विभिन्न कोणों से देखते हुए न तो डोरी टूटने देते हैं और ना ही ढ़ीली होने देते हैं। कविता की उचित कसावट पर कवि की मेहनत उल्लेखनीय है। उन्होंने भावनााओं में बहकर अपनी कविताएं नहीं लिखी हैं, बल्कि कविताओं में वैचारिक मेहनत साफ झलकती है। जयपाल की कविताएं बहुत ही सरल हैं। जिसमें न तो जटिल प्रतीक हैं, न ही शब्दों की घुमावदार सीढि़याँ हैं और न ही विचारधारा की महीन कताई है। जयपाल की कविता सहज है, जो परिप्रेक्ष्य उद्घाटित कर देती है। सच्चाई उनकी कविता की विश्वसनीयता का आधार है। यहां कुछ भी काल्पनिक नहीं है। सच्चाई को कविता का रूप देने में सृजनात्मक कल्पना का सहारा लिया गया है। काव्य की परंपरागत रूपक योजना एवं प्रतीक विधान का परित्याग कर जयपाल ने अपनी भाषा एवं शैली दोनों ही दृष्टियों से सपाट बयानी को अपनी कविता का आधार बनाया।
भाषा भावाभिव्यक्ति का प्रमुख व सशक्त माध्यम होने के कारण काव्य-शिल्प का महत्वपूर्ण अंग है। भाव और भाषा में अटूट संबंध है। भावहीन काव्य को यदि काव्य नहीं कहा जा सकता तो कोरे विचार भी उत्कृष्ट भाषा के अभाव में प्रभावोत्पादक नहीं हो सकते। वस्तुत: काव्य में भाव और भाषा का मणि-कांचन योग ही उसके अन्तर और बह्य को प्रकाशित कर, सहृदय के अन्त:स्थल में बिम्ब उपस्थित करता है। सामान्यत: जो वाणी से व्यक्त होती है, उसे भाषा कहते हैं। जयपाल की भाषा सीधी-सरल और सपाट है। उसमें लोक जीवन और लोक भाषा के रंग हैं। उनकी भाषा में एक खास प्रकार का गुरूत्वाकर्षण है। उन्होंने अपने भावों पर भाषा थोंपी नहीं है, बल्कि उनकी भाषा सहज तौर पर ही भावों की अनुगामिनी बन कर सामने आई है। उनकी भाषा में जहां तत्सम प्रधान शब्दों का प्रयोग किया गया है, वहीं उर्दू के शब्दों को भी कविता में इतनी शिद्दत से पिरोया गया है कि हिन्दी और उर्दू की पहचान करनी मुश्किल हो जाती है। वे विचार के स्तर पर जहाँ साम्प्रदायिकता के खिलाफ खड़े होते हैं, वहीं भाषा के स्तर पर हिन्दू-उर्दू का प्रयोग करके दोनों भाषाओं में सद्भाव का संदेश देते हैं। उनकी कविताओं में लोक भाषा के देशज शब्दों का भी प्रचूर मात्रा में प्रयोग किया गया है।
संक्षेप में कहा जा सकता है कि जयपाल हमारे समय के बहुत ही जरूरी कवि हैं। उनका आलोच्य काव्य संग्रह भी काफी चर्चित हुआ है। भविष्य में उनसे और अधिक सशक्त रचनाओं और काव्य-संग्रहों की उम्मीद है।
संदर्भ-ग्रंथ सूची
क) आधार ग्रंथ
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ख) सहायक ग्रंथ
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ग) पत्रिकाएँ
1. आलोचना (अंक जुलाई-सितम्बर, 2012), नामवर सिंह (प्र.सम्पादक)
2. इतिहासबोध (अंक जुलाई-सितम्बर, 2004), लाल बहादुर वर्मा (सम्पादक)
3. देस हरियाणा, डॉ. सुभाष चंद्र (सम्पादक)
4. नया पथ (अंक जुलाई-सितंबर, 2013), मुरली मनोहर प्रसाद सिंह एवं चंचल चौहान (सम्पादक)
5. रेतपथ (जुलाई14-दिसम्बर2015) अमित मनोज (सम्पादक)
6. समकालीन भारतीय साहित्य, विश्वनाथ प्रसाद तिवारी (सम्पादक)
शोधकर्ता-अरुण कुमार कैहरबा