Sunday, June 29, 2014
Wednesday, June 11, 2014
विश्व बाल श्रम विरोधी दिवस (13जून) पर विशेष
स्कूल जाने की बजाय बोझा ढ़ोता बचपन
अरुण कुमार कैहरबा
खुशहाली और अच्छे दिनों की चर्चाओं के बीच पेट पालने के लिए बच्चों को मजदूरी करते देखना और अधिक परेशान करने वाला है। जिन नन्हें हाथों में कॉपी, पैंसिल व किताब होनी चाहिए थी, उन हाथों को कड़ा काम करते हुए हम जहाँ-तहाँ देख रहे हैं। चाय की दुकान या ढ़ाबों पर छोटू-छोटू कह कर उन्हें पुकारा जा रहा है। चाय का कप गिरने और टूटने पर दुकान का मालिक सबके सामने पिटाई करके उनकी गरिमा को आहत कर रहा है। यही नहीं गालियों व ‘निकम्मा’ आदि शब्दों से उसकी लानत-मलानत कर रहा है। ईंट भ_ों पर मिट्टी में सने बच्चे मिट्टी तोडऩे, गारा सानने, ईंटों में ढ़ालने और रेहड़ी या सिर पर ईंटों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जा रहे हैं। खेतों व घरों में काम करते बच्चों को बिना कुछ कहे देखने के आदी हो चुके हम यदि अपनी दृष्टि का विस्तार करें तो माचिस-बीड़ी बनाना, पटाखे बनाना, कालीन बुनना, वेल्डिंग करना, ताले बनाना, पीतल उद्योग, कांच उद्योग, हीरा उद्योग, पत्थर खदानों में, सीमेंट उद्योग व दवा उद्योग में बेहद कठिन व स्वास्थ्य के लिए खतरनाक स्थितियों में बच्चे काम कर रहे हैं। इनके अलावा भी कूड़ा बीनना व गन्दे नालों में हाथ डाल कर पॉलीथीन व प्लास्टिक इक_ी करते वे दिखाई देंगे। जिन मासूम बच्चों को स्कूल में खेलते हुए पढऩा चाहिए था, वे लाचारी में अपने हाथ फैलाए भीख माँग रहे हैं। इन बच्चों को शारीरिक व मानसिक प्रताडऩाएँ दी जा रही हैं। इनके लिए ना माँ की लोरियां हैं, ना पिता का दुलार, न खिलौने हैं, ना स्कूल का आँगन है और ना ही वहाँ पर मनाया जाने वाला बाल दिवस। बीड़ी के अधजले टुकड़े की भाँति इन बच्चों को हम अनजाने नरक में फैंक कर खुशहाली व अच्छे दिनों की बातें करने में लगे हुए हैं। वाह खुशहाली, वाह अच्छे दिन।आँकड़ों की ही बात करें तो भारत में यह संख्या 2 करोड़ करोड़ के करीब है। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार तो लगभग 5 करोड़ बच्चे बाल श्रमिक हैं। इनमें से 19 प्रतिशत के लगभग घरेलू नौकर हैं, ग्रामीण और असंगठित क्षेत्रों में तथा कृषि क्षेत्र से लगभग 80 प्रतिशत जुड़े हुए हैं। लाचारी में बच्चों के अभिभावक भी बहुत थोड़े पैसों में उनको ऐसे ठेकेदारों के हाथ बेच देते हैं जो अपनी व्यवस्था के अनुसार उन्हें काम पर लगा देते हैं। कईं बार उनसे थोड़ा खाने को देकर मनमाना काम कराया जाता है। 18 घंटे या उससे भी अधिक काम करना, आधे पेट भोजन और मनमाफिक काम न होने पर पिटाई से वे नारकीय जीवन जीने को मजबूर हैं। फैक्ट्री के खतरनाक वातावरण व धूल-धूआँ बच्चों की साँसों में घुल रहा है। मुनाफे की होड़ में लगे पूंजीपतियों की फैक्ट्रियों व कार्यस्थलों पर काम करते हुए दुर्घटनाएँ होना आम बात है, जिसमें बच्चों को आँखें व शरीर के अन्य अंग गँवाने पड़ रहे हैं। जहरीली गैसों से बच्चे घातक रोगों-फेफड़ों का कैंसर, टी.बी.आदि का शिकार बन रहे हैं। भरपेट भोजन व नींद न मिलने से शारीरिक दुर्बलताएँ व खून की कमी सहित नन्हें बच्चों की अनगिनत समस्याएँ हैं।
बच्चे किसी भी देश का भविष्य होते हैं। इन बच्चों के विकास पर ही देश की तरक्की निर्भर करती है। यदि देश की आबादी में शुमार करोड़ों बच्चे बाल श्रम की भ_ी में झोंक दिए जाएँगे, तो भला कैसे हम उज्ज्वल भविष्य का निर्माण कर सकते हैं? आज़ादी के 67वर्षों के इतिहास में हमारे राजनेताओं ने वोट हासिल करने के लिए नारे उछाले और वादे किये। सत्ता हासिल करने के बाद भी काम करने की बजाय जहाँ तक हो सका लच्छेदार भाषणों से लोगों का पेट भरने की कोशिशें करते रहे। काम किया तो कारपोरेट घरानों को खुश करने के लिये। ताकतवर वर्ग का जिस कानून से अहित हो या सत्ताधारियों पर जिम्मेदारी तय हो, वह कानून या तो बनाया नहीं गया या उसे नख-दंत विहीन रख दिया गया। भारतीय संविधान के समता, न्याय एवं जनकल्याण जैसे मूल्यों को भी लगातार कमजोर किया गया है। ऐसा नहीं है कि बाल श्रम रोकने के लिए कोई कानून नहीं बनाया गया हो। भारतीय संविधान ने बाल मजदूरी को प्रतिबंधित किया है। संविधान की धारा 24 के अनुसार 14साल से कम उम्र का कोई भी बच्चा किसी फैक्टरी या खदान में काम करने के लिए नियुक्त नहीं किया सकता और न ही किसी अन्य खतरनाक नियोजन में नियुक्त किया जा सकता। फैक्टरी कानून 1948 के द्वारा भी 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों को काम पर लगाया जाना निषिद्ध किया गया। इसके बाद बाल श्रम निषेधकानून 1986 के अंतर्गत दोषी व्यक्ति को दस हज़ार से बीच हज़ार रुपये के अर्थदंड सहित एक वर्ष की सजा का भी प्रावधान किया गया। मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 बनाकर छह से 14वर्ष तक के बच्चों को शिक्षा का अधिकार दिया गया। मध्याह्न भोजन योजना के माध्यम से स्कूलों में आठवीं तक के सभी बच्चों के लिए पोषक भोजन की व्यवस्था की गई। इसी प्रकार समेकित बाल विकास परियोजना के तहत आंगनवाडिय़ों में छह वर्ष तक के सभी बच्चों के लिए पोषाहार की व्यवस्था की गई। लेकिन समस्या की जड़ गरीबी और गैर-बराबरी पर शिद्दत से प्रहार नहीं किया गया।
बाल मजदूरी की बात करें, तो आम समाज ने भी बाल अधिकारों के हनन के दृश्य उदासीनता भरी निगाहों से देखने के अलावा कुछ नहीं किया। हमें अपने घर के बच्चे अपने बच्चे लगते हैं। दूसरों के बच्चे दूसरों के लगते हैं। हमें सभी बच्चे देश के बच्चे नहीं लगते। लड़कियों को पराया धन मानने वाले लोग बच्चों के प्रति एक सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाते हुए उनके शिक्षा, स्वास्थ्य व पोषण के अधिकार पर कोई सकारात्मक हस्तक्षेप कर पाएंगे, इसकी उम्मीद भला कैसे की जा सकती है? अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन ने बाल श्रम और बाल अधिकारों के प्रति पूरी दुनिया में जागरूकता लाने के मकसद से 2002 में 12जून को विश्व बाल श्रम प्रतिषेध दिवस मनाए जाने की शुरूआत की थी। इस वर्ष बाल मजदूरी के उन्मूलन के लिए सामाजिक सुरक्षा को मुख्य विषय बनाया गया है। सामाजिक सुरक्षा हर एक बच्चे का मानवाधिकार है और यह गरीबी, असमानता, सामाजिक अलगाव और असुरक्षा को रोकने के लिए बेहद जरूरी है। बाल मजदूरी की त्रासदी से देश व दुनिया को मुक्ति दिलाने के लिए जहाँ सरकारी स्तर पर ठोस उपाय किए जाने चाहिएं व सामाजिक पहलकदमियाँ भी की जानी चाहिएं।
Tuesday, June 10, 2014
Monday, June 9, 2014
Sunday, June 8, 2014
Thursday, June 5, 2014
विश्व पर्यावरण दिवस (5जून ) पर विशेष
विश्व पर्यावरण दिवस (5जून ) पर विशेष
मनुष्य की स्वार्थपरता से पर्यावरण का संकट गहराया
अरुण कुमार कैहरबा
समस्त जैविक और अजैविक तत्वों, घटनाओं व प्रक्रियाओं को पर्यावरण कहा जाता है। अक्सर मनुष्य द्वारा इस शब्द का प्रयोग इस तरह से किया जाता है, जैसे वह इससे अलग और ऊपर है। लेकिन पर्यावरण हमारे चारों ओर है तथा मनुष्य व सभी प्रकार के जीव-जंतु पर्यावरण का अविभाज्य हिस्सा हैं। विज्ञान और तकनीकी क्षमताओं से लैस होकर घमंड से भरा मनुष्य तात्कालिक रूप से पर्यावरण को नियंत्रित कर लेता है। यही कारण है कि वह अपने आप को पर्यावरण से अलग और उससे बड़ा मानने की भूल कर बैठता है। तकनीकी रूप से विकसित मनुष्य द्वारा आर्थिक उद्देश्य और जीवन में विलासिता के लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु प्रकृति के साथ व्यापक छेड़छाड़ के क्रियाकलापों ने प्राकृतिक पर्यावरण का संतुलन बिगाड़ कर रख दिया है। जलवायु परिवर्तन, ग्लोबल वार्मिंग और प्रदूषण के चलते पूरा विश्व एक बड़े संकट के मुहाने पर है। इस संकट की घड़ी में सभी जीवों में सर्वोत्तम होने का दावा करने वाला मनुष्य अपनी जिम्मेदारी कैसे निभाता है? यह एक ज्वलंत प्रश्र है।
लगातार ऊँचाईयाँ छूने की चाह और कोशिशों ने मनुष्य को औद्योगिकरण और शहरीकरण की तरफ बढ़ाया। उसके सकारात्मक परिणाम भी आए हैं। लेकिन फैक्ट्रियों से निकले कचरे, धूल और धूएं का प्रबंधन करने की दिशा में कोताही बरती गई। आर्थिक लाभ बढ़ाने के लिए तकनीक का जितना इस्तेमाल किया गया, उतना कचरे का प्रबंधन करने की दिशा में नहीं किया गया। कारखानों, बिजलीघरों और मोटरवाहनों में खनिज ईंधनों (डीजल, पेट्रोल, कोयला आदि) का अंधाधुंध प्रयोग होता है। इनको जलाने पर कार्बन डाइऑक्साईड, मीथेन, नाइट्रस आक्साइड आदि गैसें निकलती हैं। इन जहरीली गैसों ने मिट्टी, पानी और हवा के प्राकृतिक स्वरूप को नष्ट कर दिया है। पृथ्वी के तापमान में अप्रत्याशित वृद्धि हो रही है। पिछले सौ वर्षों में वायुमंडल के तापमान में 3 से 6 डिग्री सैल्सियस की बढ़ौत्तरी हुई है। समुद्र के तापमान में भी इज़ाफा हो रहा है। अगर समुद्र का जलस्तर दो मीटर बढ़ गया तो मालद्वीप और बांग्लादेश जैसे निचाई वाले देश डूब ही जाएंगे। मानव निर्मित जहरीली गैस के उत्सर्जन से उच्च वायुमंडल की आजोन परत को नुकसान हो रहा है। यह परत सूर्य की खतरनाक पैराबैंगनी विकिरणों को धरती पर पहुँचने से रोकती है।
प्रदूषक गैसें मनुष्य और जीवधारियों में अनेक जानलेवा बीमारियों का कारण बन रही हैं। एक अध्ययन के मुताबिक वायु प्रदूषण से केवल 36 शहरों में प्रतिवर्ष 51,779 लोगों की अकाल मृत्यु हो जाती है। कलकत्ता, कानपुर तथा हैदराबाद में वायु प्रदूषण से होने वाली मृत्युदर पिछले 3-4 सालों में दुगुनी हो गई है। एक अनुमान के अनुसार हमारे देश में प्रदूषण के कारण हर दिन करीब 150 लोग मरते हैं और सैकड़ों लोगों को फेफड़े और हृदय की जानलेवा बीमारियां हो रही हैं। कारखानों का रासायनिक कचरा और प्रदूषित पानी तथा शहरी कूड़ा-करकट नदियों में छोड़ दिया जाता है। इससे नदियां अत्यधिक प्रदूषित हो गई हैं। इनमें पवित्र गंगा भी शामिल है। पानी में जहरीली गैसों के उत्सर्जन से जलीय जीवों पर भी खतरे के बादल मंडरा रहे हैं। प्रदूषित पानी पीने से ब्लड कैंसर, जिगर कैंसर, त्वचा कैंसर, हड्डी-रोग, हृदय एवं गुर्दों की तकलीफें और पेट की अनेक बीमारियां हो सकती हैं, जिनसे हमारे देश में हजारों लोग हर साल मरते हैं।
जंगल पर्यावरण में मौजूद कार्बन डाईऑक्साईड व जहरीली गैसों का उपभोग करते हैं और शुद्ध हवा देकर प्रकृति का वरदान बनते हैं। मनुष्य ने खेती योग्य भूमि का फैलाव करने और कंकरीट के जंगल उगाने के लिए जंगलों व पेड़ों पर भी कुल्हाड़ा चला रखा है। विश्व में प्रति वर्ष 1.1 करोड़ हेक्टेयर वन काटा जाता है। अकेले भारत में 10 लाख हेक्टेयर वन काट दिया जाता है। वनों के विनाश के कारण वन्यजीव लुप्त हो रहे हैं। वनों के क्षेत्रफल में लगातार होती कमी के कारण बड़े पैमाने पर भूमि का कटाव और रेगिस्तान का फैलाव हो रहा है। फसल का अधिक उत्पादन लेने के लिए बड़े पैमाने पर रासायनिक खादों व कीटनाशकों का उपयोग किया जाना भी पर्यावरण के लिए बड़ा खतरा पैदा कर रहा है। अधिक मात्रा में कीटनाशकों के इस्तेमाल से जमीन के जैविक चक्र को नुकसान हो रहा है। हानिकारक कीटों के साथ मकड़ी, केंचुए, मधुमक्खी सहित अनेक मित्र कीट भी मर रहे हैं। सबसे अधिक चिंता की बात यह है कि फल, सब्जी और अनाज में कीटनाशकों का जहर मिल गया है, जोकि मनुष्य के स्वास्थ्य के लिए घातक है। कीटनाशकों के अंधाधुंध इस्तेमाल से जैव विविधता को भी खतरा पैदा हो गया है। बहुत से पक्षी और मित्र कीट परिदृश्य से गायब होते जा रहे हैं। भारत में पॉलिथीन भी पर्यावरण के लिए खतरा बना हुआ है। इसका प्रबंधन नहीं होने के कारण पॉलीथीन व प्लास्टिक की थैलियाँ नालियों व सिवरेज के प्रवाह को रोक देती हैं। जहरीले रसायनों से बने रंगीन पॉलीथीन में खाद्य पदार्थ रखना कैंसर जैसे खतरनाक रोगों का कारण बन सकता है। जगह-जगह लगे कचरे के अम्बार हमारे प्रबंधन तंत्र को ठेंगा दिखा रहे हैं। कूड़े-कचरे के इन ढ़ेरों के पास रहने वाली आबादी नारकीय जीवन बिता रही है। हमारे देश में कचरा प्रबंधन में विफल हो चुकी नगरपालिकाओं व नगरनिगमों को व्यंग्य के साथ नरक पालिका व नरक निगम कहा जाता है। लेकिन इसके बावजूद नीति निर्माताओं के सिर पर जूं नहीं रेंगती है। हालांकि सारी जिम्मेदारी नीति-निर्माताओं पर डाल देना भी उचित नहीं है।
पर्यावरण संरक्षण के लिए अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर 1972 में स्टॉकहोम सम्मेलन से आज तक अनेक सम्मेलन हो चुके हैं। 1982 में नैरोबी सम्मेलन, 2009 में कोपेनहेगन सम्मेल, 2011 में डरबन सम्मेलन और 2013 में वॉरसा सम्मेलन सहित सम्मेलनों का अनंत सिलसिला है। पर्यावरण संरक्षण के लिए उपयों पर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सहमति बनाते मिलकर काम किए जाने की ज़रूरत है। यह तय हो चुका है कि पर्यावरण असंतुलन की सबसे बड़ी जिम्मेदारी इन्सान की है। हर स्थान पर छोटे-छोटे गाँवों से लेकर बड़े स्तर पर पर्यावरण बचाव के लिए पौधारोपण-पौधापोषण अभियान चलाना, जंगलों, जल स्रोतों का संरक्षण करना और हवा में जहरीली गैसों को छोड़े जाने से रोकने के लिए तकनीक को अमल में लाने की हम सभी को पहल करनी चाहिए।
हिन्दी प्राध्यापक, राजकीय वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय, पटहेड़ा, जि़ला-करनाल (हरियाणा)
घर का पता-वार्ड नं.-4, रामलीला मैदान, इन्द्री, जि़ला-करनाल, हरियाणा
मो.नं.-09466220145
लगातार ऊँचाईयाँ छूने की चाह और कोशिशों ने मनुष्य को औद्योगिकरण और शहरीकरण की तरफ बढ़ाया। उसके सकारात्मक परिणाम भी आए हैं। लेकिन फैक्ट्रियों से निकले कचरे, धूल और धूएं का प्रबंधन करने की दिशा में कोताही बरती गई। आर्थिक लाभ बढ़ाने के लिए तकनीक का जितना इस्तेमाल किया गया, उतना कचरे का प्रबंधन करने की दिशा में नहीं किया गया। कारखानों, बिजलीघरों और मोटरवाहनों में खनिज ईंधनों (डीजल, पेट्रोल, कोयला आदि) का अंधाधुंध प्रयोग होता है। इनको जलाने पर कार्बन डाइऑक्साईड, मीथेन, नाइट्रस आक्साइड आदि गैसें निकलती हैं। इन जहरीली गैसों ने मिट्टी, पानी और हवा के प्राकृतिक स्वरूप को नष्ट कर दिया है। पृथ्वी के तापमान में अप्रत्याशित वृद्धि हो रही है। पिछले सौ वर्षों में वायुमंडल के तापमान में 3 से 6 डिग्री सैल्सियस की बढ़ौत्तरी हुई है। समुद्र के तापमान में भी इज़ाफा हो रहा है। अगर समुद्र का जलस्तर दो मीटर बढ़ गया तो मालद्वीप और बांग्लादेश जैसे निचाई वाले देश डूब ही जाएंगे। मानव निर्मित जहरीली गैस के उत्सर्जन से उच्च वायुमंडल की आजोन परत को नुकसान हो रहा है। यह परत सूर्य की खतरनाक पैराबैंगनी विकिरणों को धरती पर पहुँचने से रोकती है।
प्रदूषक गैसें मनुष्य और जीवधारियों में अनेक जानलेवा बीमारियों का कारण बन रही हैं। एक अध्ययन के मुताबिक वायु प्रदूषण से केवल 36 शहरों में प्रतिवर्ष 51,779 लोगों की अकाल मृत्यु हो जाती है। कलकत्ता, कानपुर तथा हैदराबाद में वायु प्रदूषण से होने वाली मृत्युदर पिछले 3-4 सालों में दुगुनी हो गई है। एक अनुमान के अनुसार हमारे देश में प्रदूषण के कारण हर दिन करीब 150 लोग मरते हैं और सैकड़ों लोगों को फेफड़े और हृदय की जानलेवा बीमारियां हो रही हैं। कारखानों का रासायनिक कचरा और प्रदूषित पानी तथा शहरी कूड़ा-करकट नदियों में छोड़ दिया जाता है। इससे नदियां अत्यधिक प्रदूषित हो गई हैं। इनमें पवित्र गंगा भी शामिल है। पानी में जहरीली गैसों के उत्सर्जन से जलीय जीवों पर भी खतरे के बादल मंडरा रहे हैं। प्रदूषित पानी पीने से ब्लड कैंसर, जिगर कैंसर, त्वचा कैंसर, हड्डी-रोग, हृदय एवं गुर्दों की तकलीफें और पेट की अनेक बीमारियां हो सकती हैं, जिनसे हमारे देश में हजारों लोग हर साल मरते हैं।
जंगल पर्यावरण में मौजूद कार्बन डाईऑक्साईड व जहरीली गैसों का उपभोग करते हैं और शुद्ध हवा देकर प्रकृति का वरदान बनते हैं। मनुष्य ने खेती योग्य भूमि का फैलाव करने और कंकरीट के जंगल उगाने के लिए जंगलों व पेड़ों पर भी कुल्हाड़ा चला रखा है। विश्व में प्रति वर्ष 1.1 करोड़ हेक्टेयर वन काटा जाता है। अकेले भारत में 10 लाख हेक्टेयर वन काट दिया जाता है। वनों के विनाश के कारण वन्यजीव लुप्त हो रहे हैं। वनों के क्षेत्रफल में लगातार होती कमी के कारण बड़े पैमाने पर भूमि का कटाव और रेगिस्तान का फैलाव हो रहा है। फसल का अधिक उत्पादन लेने के लिए बड़े पैमाने पर रासायनिक खादों व कीटनाशकों का उपयोग किया जाना भी पर्यावरण के लिए बड़ा खतरा पैदा कर रहा है। अधिक मात्रा में कीटनाशकों के इस्तेमाल से जमीन के जैविक चक्र को नुकसान हो रहा है। हानिकारक कीटों के साथ मकड़ी, केंचुए, मधुमक्खी सहित अनेक मित्र कीट भी मर रहे हैं। सबसे अधिक चिंता की बात यह है कि फल, सब्जी और अनाज में कीटनाशकों का जहर मिल गया है, जोकि मनुष्य के स्वास्थ्य के लिए घातक है। कीटनाशकों के अंधाधुंध इस्तेमाल से जैव विविधता को भी खतरा पैदा हो गया है। बहुत से पक्षी और मित्र कीट परिदृश्य से गायब होते जा रहे हैं। भारत में पॉलिथीन भी पर्यावरण के लिए खतरा बना हुआ है। इसका प्रबंधन नहीं होने के कारण पॉलीथीन व प्लास्टिक की थैलियाँ नालियों व सिवरेज के प्रवाह को रोक देती हैं। जहरीले रसायनों से बने रंगीन पॉलीथीन में खाद्य पदार्थ रखना कैंसर जैसे खतरनाक रोगों का कारण बन सकता है। जगह-जगह लगे कचरे के अम्बार हमारे प्रबंधन तंत्र को ठेंगा दिखा रहे हैं। कूड़े-कचरे के इन ढ़ेरों के पास रहने वाली आबादी नारकीय जीवन बिता रही है। हमारे देश में कचरा प्रबंधन में विफल हो चुकी नगरपालिकाओं व नगरनिगमों को व्यंग्य के साथ नरक पालिका व नरक निगम कहा जाता है। लेकिन इसके बावजूद नीति निर्माताओं के सिर पर जूं नहीं रेंगती है। हालांकि सारी जिम्मेदारी नीति-निर्माताओं पर डाल देना भी उचित नहीं है।
पर्यावरण संरक्षण के लिए अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर 1972 में स्टॉकहोम सम्मेलन से आज तक अनेक सम्मेलन हो चुके हैं। 1982 में नैरोबी सम्मेलन, 2009 में कोपेनहेगन सम्मेल, 2011 में डरबन सम्मेलन और 2013 में वॉरसा सम्मेलन सहित सम्मेलनों का अनंत सिलसिला है। पर्यावरण संरक्षण के लिए उपयों पर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सहमति बनाते मिलकर काम किए जाने की ज़रूरत है। यह तय हो चुका है कि पर्यावरण असंतुलन की सबसे बड़ी जिम्मेदारी इन्सान की है। हर स्थान पर छोटे-छोटे गाँवों से लेकर बड़े स्तर पर पर्यावरण बचाव के लिए पौधारोपण-पौधापोषण अभियान चलाना, जंगलों, जल स्रोतों का संरक्षण करना और हवा में जहरीली गैसों को छोड़े जाने से रोकने के लिए तकनीक को अमल में लाने की हम सभी को पहल करनी चाहिए।
हिन्दी प्राध्यापक, राजकीय वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय, पटहेड़ा, जि़ला-करनाल (हरियाणा)
घर का पता-वार्ड नं.-4, रामलीला मैदान, इन्द्री, जि़ला-करनाल, हरियाणा
मो.नं.-09466220145
Wednesday, June 4, 2014
Monday, June 2, 2014
विश्व तम्बाकू निषेध दिवस (31मई) पर विशेष
विश्व तम्बाकू निषेध दिवस (31मई) पर विशेष
मौत के मुंह में धकेल रही तम्बाकू से होने वाली बीमारियाँ
अरुण कुमार कैहरबा
तम्बाकू व तम्बाकू से बने उत्पाद इसके उपभोक्ताओं के स्वास्थ्य को बुरी तरह से प्रभावित कर रहे हैं। इनसे होने वाली बीमारियाँ लोगों को मौत के मुँह में धकेल रही हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा जारी किए गए आँकड़ों पर नज़र दौड़ाएँ तो दुनियाभर में तम्बाकू से संबंधित बीमारियों के कारण हर साल कऱीब 50 लाख लोगों की मौत हो रही है। विकासशील देशों में हर साल 8 हज़ार बच्चों की मौत अभिभावकों द्वारा किए जाने वाले धूम्रपान के कारण होती है। दुनिया के किसी अन्य देश के मुक़ाबले में भारत में तम्बाकू से होने वाली बीमारियों से मरने वाले लोगों की संख्या बहुत तेज़ी से बढ़ रही है। यदि इस समस्या को नियंत्रित करने की दिशा में कोई प्रभावी क़दम नहीं उठाया गया तो वर्ष 2030 में धूम्रपान के सेवन से मरने वाले व्यक्तियों की संख्या प्रतिवर्ष 80 लाख से अधिक हो जायेगी। धूम्रपान, इसका सेवन करने वालों में से आधे व्यक्तियों की मृत्यु का कारण बन रहा है और औसतन इससे उनकी 15 वर्ष आयु कम हो रही है। हर प्रकार का धूम्रपान 90 प्रतिशत से अधिक फेफड़े के कैंसर, ब्रैन हैम्ब्रेज और पक्षाघात का प्रमुख कारण है। दुनियाभर में 80 प्रतिशत पुरुष तम्बाकू का सेवन करते हैं, लेकिन कुछ देशों की महिलाओं में तम्बाकू सेवन की प्रवृत्ति तेज़ी से बढ़ रही है। दुनियाभर के धूम्रपान करने वालों का कऱीब 10 फ़ीसदी भारत में हैं। भारत में कऱीब 25 करोड़ लोग गुटखा, बीड़ी, सिगरेट, हुक्का आदि के ज़रिये तम्बाकू का सेवन करते हैं।
स्वास्थ्य को भारी नुकसान पहुँचाने वाला तम्बाकू व इससे बने खतरनाक पदार्थों के राजनैतिक व आर्थिक आयाम भी हैं। यही कारण है कि दुनिया के 125 देशों में तम्बाकू का उत्पादन होता है। हर साल 5.5 खरब सिगरेट का उत्पादन होता है और एक अरब से ज़्यादा लोग इसका सेवन करते हैं। भारत में 10 अरब सिगरेट का उत्पादन होता है। भारत में 72 करोड़ 50 लाख किलो तम्बाकू की पैदावार होती है। भारत तम्बाकू निर्यात के मामले में ब्राज़ील, चीन, अमरीका, मलावी और इटली के बाद छठे स्थान पर है। आंकड़ों के मुताबिक़ तम्बाकू से 2022 करोड़ रुपए की विदेशी मुद्रा की आय हुई थी। ऐसे में तम्बाकू मुक्त समाज की कल्पना का साकार होना मुमकिन नहीं लगता है। भारत में तम्बाकू का सेवन करने वालों की संख्या लगातार बढ़ रही है। स्टेटस सिंबल के साथ जोड़ दिए जाने के कारण बड़ी संख्या में छोटे बच्चे, किशोर व युवा नशे की गिरफ्त में आ रहे हैं। हरियाणा ग्रामीण विकास संस्थान में रिसोर्स पर्सन एवं सामाजिक कार्यकर्ता गुंजन का कहना है कि फिल्मों एवं टीवी ने नशे को बढ़ाने में योगदान किया है। जब अभिनेता नशे को महिमामंडित करते हुए दिखाए जाएँगे तो युवाओं में इसका प्रयोग करके देखने की प्रवृत्ति होगी ही। यही नहीं अपने उत्पाद को प्रोमोट करने और अधिक मुनाफा कमाने के लिए बच्चों को इसका शिकार बनाया जा रहा है। उन्होंने कहा कि मिथ्या धारणाओं के कारण भी नशे की प्रवृत्ति बढ़ रही है। हास्यास्पद बात तो यह है कि कब्ज दूर करने के लिए लोग बीड़ी/सिगरेट पीने की बात कहते हैं। महिलाएँ भी बड़ी संख्या में इसकी गिरफ्त में आ रही हैं।
कानूनों पर ग़ौर करें तो सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान करना वर्जित है। यही नहीं खुले में बीड़ी-सिगरेट का टुकड़ा फैंकना और तम्बाकू थूकना भी दंडनीय अपराध है। तंबाकू बेचने वाली कोई भी दुकान/प्रतिष्ठान को ‘अठारह साल से कम आयु वाले व्यक्ति को तंबाकू बेचना एक दंडनीय अपराध है’ का चेतावनी बोर्ड अवश्य लगाना होगा। शैक्षणिक संस्थानों को भी शैक्षणिक संस्थान से सौ गज की परिधि के भीतर क्षेत्र में सिगरेट और अन्य तंबाकू वस्तुओं की बिक्री करना निषेध है तथा एक अपराध है। लिखित चेतावनी बोर्ड अवश्य प्रदर्शित/ लगाना होगा। इन नियमों की धड़ल्ले से अवहेलना होते हम हर रोज देखते हैं। बस अड्डे पर ही नहीं, बल्कि बस व रेलगाड़ी में बीड़ी पीते व तम्बाकू का सेवन करते लोग हमें दिख जाएँगे। हरियाणा की बसों में तो चालक व परिचालक अपनी ड्यूटी के दौरान बीड़ी का कश लेकर यात्रियों के लिए परेशानी खड़ी करते दिखाई दे जाते हैं। धूम्रपान के आदी हो चुके कर्मचारी कार्यालय में धड़ल्ले से बीड़ी/सिगरेट पीते हैं। कानून है तो उसकी पालना भी होनी चाहिए। क्या कोई बता सकता है कि उक्त कानूनों की पालना में कितने लोगों पर केस दर्ज किए गए हैं? निश्चय ही यह संख्या नगण्य होगी। हमारे देश में औपचारिकतावश बहुत से कानून व नियम बनाए गए हैं। यही हाल तम्बाकू व नशा निषेध के लिए बनाए गए नियमों व कानूनों का है।
अध्यापक व सामाजिक कार्यकर्ता महिन्द्र कुमार का कहना है कि यदि हम बच्चों को तम्बाकू की आदत से बचा लें तो हम आने वाली पीढ़ी को बचा सकते हैं। बच्चों को भावनात्मक सहारा दिया जाना जरूरी है। बच्चों पर नजर रखने की ज़रूरत है ताकि वे किसी ऐसे बच्चे के सम्पर्क में ना आएँ, जोकि नशे का आदि हो। खेलों व रचनात्मक गतिविधियों में बच्चों को लगाए जाने की जरूरत है, जिससे उन्हें नशे जैसे सहारे की ज़रूरत ना पड़े। तम्बाकू व नशे से बचाव के लिए व्यापक जागरूकता अभियान चलाए जाने की भी ज़रूरत है।
-हिन्दी प्राध्यापक, राजकीय वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय, पटहेड़ा, जि़ला-करनाल (हरियाणा)मो.नं.-09466220145
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