Wednesday, July 28, 2021

Mirabai Chanu, Silver Medal Winner in Tokyo Olympic

 मीराबाई चानू ने ओलंपिक में रचा इतिहास

टोक्यो ओलंपिक में चानू के पदक से भारत में आई खुशियां

मीराबाई चानू बनी महिला शक्ति की प्रतीक

अरुण कुमार कैहरबा
jansandesh times 27-7-2021

भारत की महिला भारोत्तोलक मीराबाई चानू ने भारत के ओलंपिक इतिहास में गरिमामयी उपस्थिति दर्ज कर ली है। शनिवार को टोक्यो ओलंपिक में भारोत्तोलन स्पर्धा में 49 किलोग्राम भार वर्ग में चानू ने रजत पदकी जीता। इस तरह से वह भारोत्तोलन में ओलंपिक का रजत पदक जीतने वाली पहली खिलाड़ी हो गई हैं। इससे पहले 2000 में हुए सिडनी ओलंपिक में कर्णम मल्लेश्वरी ने इसी खेल में कांस्य पदक जीता था। टोक्यो ओलंपिक में पदक जीत कर चानू ने ना केवल भारत का खाता खोल दिया, बल्कि किसी ओलंपिक में खेलों के पहले दिन पदक जीतने वाली भी वह पहली खिलाड़ी बन गई हैं। इसके साथ ही वह देश की जनता विशेष रूप से खेल प्रेमियों की आंखों का तारा बन गई है।
मीराबाई चानू ने 2016 में हुए रियो ओलंपिक में भी हिस्सा लिया था। लेकिन बेहद खराब प्रदर्शन के साथ वह निराशा और हताशा का शिकार हो गई थी। एक बार तो वह खेल से विदा लेने के बारे में भी सोचने लगी थी। निराशा से निकलने के लिए चानू को मनोवैज्ञानिकों की सेवाएं लेनी पड़ी। जल्द ही उसने वापसी की और एक के बाद एक पदक के बाद आखिर उसने विश्व की सबसे प्रतिष्ठित खेल स्पर्धाओं में अपनी शारीकि और मानसिक मजबूती को साबित कर दिया। रियो ओलंपिक के आंसूओं को उसने टोक्यो में खुशियों में बदल दिया।
चानू का पूरा नाम साइखोम मीराबाई चानू है। 8 अगस्त, 1994 को इंफाल से काफी दूरी पर स्थित नोंगपेक काकचिंग नाम के छोटे से गांव में उसका जन्म हुआ। पारिवारिक पृष्ठभूमि की बात करें तो उसका संबंध साधारण परिवार से रहा है। व छह भाई-बहनों में सबसे छोटी है। बचपन में वह अपने घर में चूल्हा जलाने के लिए जंगल से लकडिय़ां बीनती थी। लकडिय़ों के ग_र उठाकर घर लेकर आना उसके लिए आम बात थी। लकडिय़ों के यह ग_र ओलंपिक के वजन उठाने के खेल में परिवर्तित होना सुखद है। आम स्कूल में ही उसने शिक्षा ग्रहण की। बचपन में वह तीरंदाज बनना चाहती थी। लेकिन कक्षा आठ तक आते-आते उसने तीरंदाज बनने की इच्छा छोड़ कर भारोत्तोलक बनने की इच्छा पाल ली। इसके पीछे स्कूल की किताब में मणिपुर में ही जन्मी भारत की मशहूर भारोत्तोलक कुंजरानी देवी पर आधारित पाठ ने प्रेरक की भूमिका निभाई। पाठ्य-पुस्तकों में संकलित पाठ किस तरह से प्रेरणा देने का काम कर सकते हैं, उसका यह ज्वलंत उदाहरण है। कुंजरानी देवी से ही प्रेरणा लेकर चानू ने भारोत्तोलक बनने की ठान ली। अब अभ्यास के लिए सुविधाओं की जरूरत होती है। लेकिन वे सुविधाएं कैसे उपलब्ध हों? लेकिन जहां चाह होती है, वहां राह भी मिल ही जाती है। विकल्प खोज लिए जाते हैं। ऐसा ही मीराबाई चानू ने किया। वजन उठाने के लिए लोहे की बार नहीं थी तो उसने बाँस से अभ्यास किया। उनके गांव में उस समय प्रशिक्षण केन्द्र की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती थी तो वह लंबी यात्रा तय करके प्रशिक्षण प्राप्त करने जाती थी। भार उठाने के खेल में दम लगता था। शरीर की जरूरत पूरी करने के लिए जिस भोजन की जरूरत थी, वह भी नहीं मिलता था। इस तरह के अभावों में चानू ने अपने जोश, जज्बे, जनून व प्रतिभा का लोहा मनवाया। 11 साल की उम्र में ही चानू भारोत्तोलन में अंडर-15 विजेता बन गई। बाद में जूनियर चैंपियन हो गई।
मीराबाई चानू की मेहनत ने असर करना शुरू किया। 2014 में ग्लास्गो कॉमनवेल्थे खेलों में उसने रजत पदक जीता। अपने अच्छे प्रदर्शन के बूते रियो ओलंपिक में जगह बनाई। रियो में उसका प्रदर्शन उम्मीदों पर खरा नहीं उतरा। उसकी निराशा से निकलते हुए उसने 2017 में विश्व भारोत्तोलन प्रतियोगिता में शानदार प्रदर्शन किया। 2018 के कॉमनवेल्थ खेलों में फिर से सोना जीत कर अपनी श्रेष्ठता प्रदर्शित की। एशियन चैंपियनशिप में कांस्य पदक जीत कर उसने टोक्यो ओलंपिक के लिए क्वालीफाई किया था। भारत सरकार द्वारा उन्हें पद्म श्री व राजीव गांधी खेल रत्न पुरस्कार से नवाजा जा चुका है। टोक्यो ओलंपिक के लिए भारोत्तोलन में क्वालीफाई करने वाली भारत की इकलौती खिलाड़ी थी। देश को उससे उम्मीदें भी थी। वह उन उम्मीदों पर खरी उतरी। उसने स्नैच में 87 कि.ग्रा., क्लीन एंड जर्क में 115कि.ग्रा. और कुल 202 कि.ग्रा. वजन उठाया। चानू के कान में ओलंपिक के छल्लों के आकार की बालियां चमक उठी। ये बालियां रियो ओलंपिक से पहले साइखोम ओंगबी तोंबी लीमा ने पैसा बचाकर बनवाई थी। इन बालियों का अशीर्वाद भी रजत जीतने के साथ ही फलित हो गया। पदक जीतने की खबर सुनते ही पिता साइखोम कृति मेइतेई की आंखें खुशी के आंसूओं से छलक उठी। परिजन व रिश्तेदार ही नहीं सारे भारतवासी खुशी से झूम उठे।
himachal dastak 28-7-2021


मीराबाई चानू की इस उपलब्धि से ओलंपिक में हिस्सा लेने वाले भारत के अन्य खिलाडिय़ों में भी उत्साह का माहौल बन गया है। पूरे देश में खुशी है। उम्मीद है कि टोक्यो ओलंपिक में देश के खाते में रिकॉर्ड पदक आएंगे। यह खुशी ऐसे समय में आई है, जब देश और दुनिया कोरोना की महामारी के दौर से गुजर रही है। खेलों के दौरान भी टोक्यो में महामारी का साया है। खिलाडिय़ों को भी उचित दूरी बरतने की हिदायतें दी जा रही हैं। ऐसे समय में सामूहिक खुशी का यह अवसर और उम्मीदें काफी मायने रखती हैं।
भारत का बड़ा हिस्सा लड़कियों व महिलाओं की प्रतिभा को कम करके आंकने का आदी है। आज भी पितृसत्तात्मक समाज में उन्हें शारीरिक रूप से कमजोर माना जाता है। हालांकि महिलाओं की मजबूती और उपलब्धियां समाज की घिसी-पिटी मानिकसता को झुठलाती आई हैं। लेकिन मीराबाई चानू की उपलब्धि ने एक बार फिर से महिलाओं की शक्ति और प्रतिभा से भेदभावपूर्ण सोच पर करारी चोट मारने का काम किया है। आशा है ऐसी सोच बदलेगी और लड़कियों के लिए और अधिक मौकों के रास्ते खुलेंगे। जरूरत इस बात की है कि देश के युवाओं को उनकी रूचि के अनुसार आगे बढऩे के बराबर मौके दिए जाएं।


अरुण कुमार कैहरबा
हिन्दी प्राध्यापक, लेखक व स्वतंत्र पत्रकार
वार्ड नं.-4, रामलीला मैदान, इन्द्री,
जिला-करनाल, हरियाणा
मो.नं.-9466220145
vir arjun 26-7-2021

subah savere 26-7-2021

NATURE CONSERVATION DAY 28 JULY

 विश्व प्रकृति संरक्षण दिवस विशेष

प्रकृति व पर्यावरण बचाने से ही जीवन बचेगा

प्रकृति के अनुकूल हो विकास

अरुण कुमार कैहरबा
DAILY NEWS ACTIVIST 28-7-2021

प्रकृति मां की गोद सबके लिए जीवनदायिनी है। धरती, पानी, जंगल, हवा, जीव-जंतु व इनसे बना प्राकृतिक परिवेश मनुष्य के जन्म, जीवन, विकास और आनंद में अहम भूमिका निभाता है। पेड़ों की हरियाली, पंछियों का कलरव, पहाड़, घाटियां, कल-कल बहता नदियों व झरनों का पानी हमें सहज ही अपनी ओर आकर्षित करता है। लेकिन आज प्रकृति और इसके संतुलन को लेकर चिंताएं बढ़ गई हैं। बढ़ती ग्लोबल वार्मिंग के खतरे हमारे सामने हैं। विभिन्न प्रकार के प्राकृतिक संकट, आपदाएं और बीमारियां इसका संकेत हैं। लेकिन मानव विकास के पीछे पड़ा है। ऐसा विकास जो प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन व शोषण पर आधारित है। देश व दुनिया में विकास बिगड़ा हुआ सांड बनकर सब पेड़ों और प्रकृति को उजाडऩे पर तुला हुआ है। मनुष्य इस स्थिति को देख भी रहा है। लेकिन नासमझी व स्वार्थ के कारण विकास पर मंत्रमुग्ध हो रहा है और अपने कुकृत्यों पर तालियां बजा रहा है। आज हमें ऐसे विकास की जरूरत है, जो पर्यावरण व प्रकृति के अनुकूल हो और उसके साथ तालमेल करके आगे बढ़े।


अधिकाधिक लाभ प्राप्त करने के लिए खेती का ऐसा स्वरूप विकतिस किया जा रहा है, जिसमें थोड़े समय में ज्यादा फसलें ली जा सकें। फसल विविधिकरण की बातों के बावजूद व्यावहारिक रूप से ऐसी फसलें अधिक उगाई जाती हैं, जिनकी सिंचाई में पानी का बहुत ज्यादा इस्तेमाल होता है। हरियाणा व पंजाब के कितने ही ऐसे इलाके हैं, जिनमें साठी धान लगाई जाती है। खेती व उद्योगों में बेतहाशा इस्तेमाल से जल स्तर लगातार रसातल की ओर जा रहा है। आज जो व्यक्ति चालीस साल से ऊपर के हैं, उन्होंने पानी से लबालब रहने वाले क्षेत्रों को पानी के अकाल से जूझते भली-भांति महसूस किया है। जिन स्थानों पर पानी बहुतायत में मिलता था, वहां पर अब सबमर्सीबल भी फेल हो रहे हैं। ऐसे क्षेत्रों को डार्क जोन घोषित कर दिया गया है। उपजाऊ धरती बंजर बनने की तरफ बढ़ रही है। उद्योग-धंधों ने तो धड़ल्ले से कोहराम मचा रखा है। फैक्ट्रियों का गंदा पानी नालों के रास्ते नहरों व नदियों में मिलकर सारे पानी को जहर मिलाने पर तुला हुआ है। जल प्रदूषण के कारण प्राकृतिक जीवन के लिए विख्यात रहे गांवों में कैंसर व हैपीटाइटस के मरीजों के कारण मौतें आम बात हो गई हैं।
शुद्ध पानी की आपूर्ति से सरकार का जन स्वास्थ्य विभाग निजीकरण की नीति के तहत जल्द से जल्द पिंड छुड़ाने के मूढ़ में है। हरियाणा में गांवों के जलापूर्ति केन्द्रों को पंचायतों को सौंपने की योजना पर तेजी से अमल किया जा रहा है। ट्यूबवैल के संचालन व रखरखाव के लिए एकमुश्त राशि पंचायत को दे दी जाती है। यह राशि ऊंट के मुंह में जीरे के समान है। ट्यूबवैल खराब होने पर महीनों तक गंदे पानी की सप्लाई होती रहती है। पंचायतों के पास पैसे नहीं होते। जन स्वास्थ्य विभाग पंचायतों की जिम्मेदारी कह कर पल्ला झाड़ लेता है। शुद्ध पानी की आपूर्ति के प्रति जवाबदेह व्यवस्था का अभाव देखने को मिल रहा है। गांवों में कूएं खत्म हो चुके हैं। तालाब दूषित हो चुके हैं। अधिकतर गांवों के तालाबों में गांव की निकासी का गंदा पानी छोड़ा जाता है। जिससे उनकी पवित्रता खत्म हो चुकी है। बिना इस्तेमाल किए पानी को व्यर्थ बहाए जाने से समस्या विकराल रूप धारण करती जा रही है।
आए दिन बड़े-बड़े विज्ञापनों के साथ शुरू की जा रही कथित विकास परियोजनाएं जंगलों को लील रही हैं। जंगल का क्षेत्र भी सिमटता जा रहा है। जंगलों में रहने वाले जीव-जंतुओं पर भी खतरे के बादल मंडरा रहे हैं। भोजन व आवास का संकट गहराने के कारण बंदर बंदों की बस्तियों में कोहराम मचा रहे हैं। नील गाय सहित कुछ जंगली जानवर खेतों में फसलों को उजाड़ते हैं। किसान उन्हें दुश्मन मान कर बंदूक उठाए खड़े हैं। मूल कारण तो यह है कि मनुष्य ने पहले उनके जंगलों को उजाड़ा, फिर वे हमारी बस्तियों व खेतों में आए। खेती में रसायनिक खादों व कीटनाशकों का इस्तेमाल और आवास के रूप में जंगलों का कटाव होने से वन्य प्राणियों की जान पर बन आई है। वन्य प्राणियों की कितनी ही प्रजातियां लुप्त हो चुकी हैं और कितनी लुप्त होने के कगार पर पहुंच गई हैं।
जमीन का सबसे बड़ा दुश्मन बना है- पोलिथीन व प्लास्टिक का कचरा। पोलिथीन का गैर-जरूरी इस्तेमाल हो रहा है। उससे भी दुखद और विडंबनाजनक यह है कि इस्तेमाल के बाद उसका प्रबंधन सही नहीं होता है। पोलिथीन व प्लास्टिक के कचरे को गलनशील कचरे में मिलाकर जमीन पर डाल दिया जाता है। इस तरह से मनुष्य ने पोलिथीन की परतें धरती पर बिछा दी हैं। इनसे धरती में जलभरण के रास्ते रूक गए हैं। हम धरती से पानी ले तो रहे हैं। लेकिन धरती में पानी जाने के रास्ते बंद कर दिए गए हैं। चारों ओर खुले में फैला पोलिथीन राक्षस की तरह से हंस रहा है और उसके आगे नागरिकों के साथ-साथ नगरपालिकाओं, पंचायतों व सरकारों ने बेबसी व उदासीनता धारण कर ली है। जरूरत के अनुसार पोलिथीन का इस्तेमाल हम भले ही कर लें, लेकिन उसके पुनर्चक्रीकरण की व्यवस्था करना भी हमारी जिम्मेदारी है। अमेरिका में भारत की तुलना में पोलिथीन का प्रति व्यक्ति इस्तेमाल कहीं अधिक है, लेकिन वहां पर हमें पोलिथीन खुले में फैंका हुआ नहीं दिखाई देगा। हमारे यहां हम असली पहाड़ों को खत्म करने पर तुले हैं, लेकिन कचरे के पहाड़ बना डाले हैं। उन पहाड़ों पर हर तरह का कचरा शामिल है। खुले में फैंक दिया गया यह कचरा दुर्गंध, किटाणु व बिमारियां पैदा कर रहा है। हमारे यहां पोलिथीन का गैर-जरूरी इस्तेमाल भी देखने में आता है।


ये सारी स्थितियां प्राकृतिक असंतुलन का कारण बन रही हैं। पेड़ लगाने के नाम पर ढ़ोंग और दिखावे का बोलबाला है। एक पौधा रोप कर कईं-कईं व्यक्ति कईं-कईं बार फोटो खिंचवाकर सोशल मीडिया पर डाल कर पर्यावरण प्रेमी बन जाते हैं। कईं बार लगाए गए पौधों की देखभाल नहीं हो पाती है और वे सूख जाते हैं। इसलिए पौधारोपण के साथ-साथ पौधापोषण की योजना पर गंभीरता से जुटने की जरूरत है। जंगलों को संरक्षित करने की जरूरत है। विकास के जो तौर-तरीके हमने अपना लिए हैं, उन पर पुनर्विचार की जरूरत है। विकास योजनाओं को आगे बढ़ाते हुए प्रकृति व पर्यावरण का ध्यान रखा जाना अत्यंत जरूरी है।


अरुण कुमार कैहरबा
पर्यावरण चिंतक, हिन्दी प्राध्यापक, लेखक व स्तंभकार
वार्ड नं.-4, रामलीला मैदान, इन्द्री,
जिला-करनाल, हरियाणा, पिन-132041
मो.नं.-9466220145 

Sunday, July 18, 2021

Nelson Mandela symbol of struggle against apartheid

 मंडेला दिवस विशेष

नस्लभेद व रंगभेद के विरूद्ध संघर्ष के प्रतीक नेल्सन मंडेला

अरुण कुमार कैहरबा

असमानता व भेदभाव ने दुनिया की बड़ी आबादी के आगे बढऩे के अवसरों को अवरूद्ध किया है। वहीं से समानता व न्याय के लिए आंदोलन भी हुए हैं।  कितनी ही ऐसी शख्सियतें हुई हैं, जिन्होंने भेदभाव व बुराईयों के विरूद्ध अथक संघर्ष किया। दक्षिण अफ्रीका के पहले राष्ट्रपति नेल्सन मंडेला भी ऐसे ही प्रेरक व्यक्तित्व हैं, जिन्होंने नस्लभेद व रंगभेद के विरूद्ध निर्णायक संघर्ष किया। उन्हें क्रूर सत्ता का दमन सहना पड़ा। कईं सालों तक उन्होंने कठोर कारावास के दौरान अनेक प्रकार की यातनाएं सही। जेल की सजा काटते हुए ही वे दुनिया भर में मानवाधिकार व रंगभेद के विरूद्ध संघर्ष के प्रतीक के रूप में प्रसिद्ध हुए। आजादी के बाद वे चुनावों में दक्षिण अफ्रीका के पहले अश्वेत राष्ट्रपति बने। देश के पुनर्निमाण में अपना योगदान दिया।
नेल्सन रोहिल्हाला मंडेला का जन्म 18 जुलाई, 1918 को इस्टर्न केप के म्वेजो में गेडला हेनरी म्फ़ाकेनिस्वा और उनकी तीसरी पत्नी नेक्यूफी नोसकेनी के घर हुआ था। वे अपने पिता की कुल 13 संतानों में तीसरे नंबर पर थे। मंडेला के पिता हेनरी म्वेजो कस्बे के जनजातीय सरदार थे। स्थानीय भाषा में सरदार के बेटे को मंडेला कहा जाता था, जिससे उन्हें अपना उपनाम मिला। पिता ने मंडेला को रोहिल्हाला नाम दिया। जिसका अर्थ होता है-पेड़ की डालियों को तोडऩे वाला प्यारा और शैतान बच्चा। 12 साल की उम्र में मंडेला के पिता चल बसे।
मंडेला को बचपन में ही रंगभेद का सामना करना पड़ा। स्कूल में भी उन्हें काला रंग होने के कारण भेदभावकारी नियमों की पालना करने के लिए कहा जाता था। सडक़ पर चलते हुए सीना तान कर चलने तक पर पाबंदी थी। यदि कोई काला व्यक्ति ऐसा करता था तो उन्हें जेल में भेजा जा सकता था। ऐसी स्थितियों में मंडेला सोचने को विवश हुए और उनके अन्दर क्रांतिकारी जन्म लेने लगा, जो भेदभाव, शोषण व दमन पर आधारित व्यवस्था को बदल देना चाहता है। स्कूली शिक्षा के बाद हेल्डटाउन में मंडेला की आगामी शिक्षा हुई। यहां एक ऐसा कॉलेज था जोकि काले लोगों के लिए ही बनाया गया था। यहीं पर मंडेला की मुलाकात ऑलिवर टांबो से हुई और दोनों ने मिलकर रंगभेद के विरूद्ध क्रांतिकारी गतिविधियों की शुरूआत कर दी। कॉलेज प्रशासन को इस बात का पता चल गया तो दोनों को कॉलेज से निकाल दिया गया और परिसर में उनके प्रवेश करने पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया। इस स्थिति में मंडेला अपने घर आ गए। उनके क्रांतिकारी विचारों को देखकर घर वाले भी परेशान हो गए। नजदीकी लोगों ने पारिवारिक जिम्मेदारियों के बोझ तले लाकर उन्हें सुधारने की कोशिश की। एक अच्छी सी लडक़ी देखकर शादी की तैयारियां शुरू हो गई। लेकिन मंडेला ने अपने निजी जीवन पर सार्वजनिक जीवन को तरजीह दी। वे भाग कर जोहांसबर्ग आ गए।
जोहान्सबर्ग में उन्होंने एक खादान में चौकीदार की नौकरी की। वे अलेक्सेंडरा नाम की एक छोटी सी बस्ती में रहने लगे। बाद में उनकी मां भी उनके साथ आ गई। यहां पर वॉल्टर सिसुलू और वॉल्टर एल्बरटाइन के विचारों से मंडेला खासे प्रभावित हुए। हर तरह के भेदभाव के विरूद्ध स्वतंत्रता, समानता व बंधुत्व के विचारों से जुड़ते हुए राजनीतिक सरगर्मियां भी बढऩे लगी। मंडेला ने एक कानूनी फर्म में क्लर्क की नौकरी शुरू कर दी। अपने संघर्षों के दौरान ही वे पढ़ भी रहे थे। उन्होंने वकालत की शिक्षा पूरी की। 1944 में वे अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस में शामिल हो गए और कांग्रेस द्वारा चलाए जा रहे रंगभेद के विरूद्ध सांगठनिक आंदोलन से जुड़ गए। इस पार्टी के अपने साथियों के साथ मिलकर उन्होंने अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस यूथ लीग की स्थापना की। 1947 में वे यूथ लीग के सचिव चुने गए। वे क्रांतिकारी गतिविधियों से जुड़ गए थे। अल्जीरिया में जाकर उन्होंने सैन्य प्रशिक्षण प्राप्त किया। वे रंगभेद विरोधी सरकार को अपने देश उखाड़ फेंकना चाहते थे। 1961 में उन्होंने नेशनल कांग्रेस उम्खोतों वे सिजवे नाम से सशस्त्र शाखा की शुरूआत की और वे इसके कमांडर इन चीफ थे। उन्होंने अंग्रेजी गोरों लोगों के नस्लवाद और रंगभेद की नीतियों को समाप्त करने और लोगों को संगठित करने के लिए देशभर में यात्राएं की। अश्वेतों के साथ भेदभाव करने वाले कानूनों को बदलने के लिए उन्होंने आवाज बुलंद की।  वे सरकार के विरूद्ध हथियार उठाने के लिए लोगों को तैयार कर रहे थे। 12 जुलाई, 1962 को इन्हीं संघर्षों के कारण उन्हें आजीवन कारावास की सजा दे दी गई। रॉबेन द्वीप की जेल में उन्होंने 27 साल बिताए। यहां पर उन्हें अनेक प्रकार की यातनाएं दी जाती थी। जेल की सजा के दौरान उन्हें काफी कुछ पढऩे का मौका मिला। वे गांधी जी के विचारों से खासे  प्रभावित हुए। गांधी जी के सत्य और अहिंसा के विचारों को उन्होंने अपना लिया।
11 फरवरी, 1990 में उनकी रिहाई हुई। जेल में रहते हुए ही वे मानवाधिकार की मुखर आवाज के रूप में पूरी दुनिया में पहचाने जाने लगे थे। जेल से रिहाई के बाद उन्होंने समझौते और संधि की नीति अपनाई और एक लोकतांत्रिक व बहुजातीय अफ्रीका की नींव रखी। 1994 के चुनावों के बाद वे देश के पहले अश्वेत राष्ट्रपति बने। उन्होंने ऊंचे मूल्यों पर आधारित देश का संविधान बनाया और लागू किया। देश के विकास के लिए अनेक प्रकार की संस्थाओं का गठन किया। देश के आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक विकास की नींव डाली। हालांकि जल्दी ही वे सक्रिय राजनीति से अलग हो गए। लेकिन उनके विचारों और व्यवहार ने देश व दुनिया के लोगों पर गहरा  प्रभाव डाला।
हालांकि मंडेला एक समय में साम्यवादी दर्शन और क्यूबा के परिवर्तन से भी प्रभावित हुए। लेकिन गांधीवाद ने उन्हें सबसे ज्यादा प्रभावित किया। वे महात्मा गांधी को अपना प्रेरणास्रोत मानते थे। गांधी जी से उन्होंने अहिंसा व सत्याग्रह के विचार ग्रहण किए। अफ्रीका के लोग तो उन्हें राष्ट्रपिता, लोकतंत्र के संस्थापक व मुक्तिदाता मानते हैं। 1993 में उन्हें दक्षिण अफ्रीका के पूर्व राष्ट्रपति फ्रेडरिक विलेम डी क्लार्क के साथ संयुक्त रूप से नॉबेल शांति पुरस्कार दिया गया। नवंबर 2009 में उनके जन्मदिन को संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा रंगभेद विरोधी संघर्ष में मंडेला दिवस घोषित किया गया। भारत में उन्हें भारत रत्न व गांधी शांति पुरस्कार से नवाजा गया। इसके अलावा भी उन्हें पूरी दुनिया से उनके योगदान के लिए सम्मानित किया गया। 5 दिसंबर, 2013 में फेफड़ों में संक्रमण से उनकी मृत्यु हो गई। लेकिन उनके संघर्षों और विचारों को दुनिया भर में सदा याद रखा जाएगा।
आज दक्षिण अफ्रीका में पूर्व राष्ट्रपति जैकब जुमा को जेल की सजा के विरोध में हिंसा और अशांति का माहौल है। इस अशांति का लाभ उठाकर कुछ उपद्रवियों ने भारतीयों को निशाना बनाया है। दक्षिण अफ्रीका में करीब 14 लाख भारतीय रहते हैं। उनका योगदान देश की अर्थव्यवस्था के लिए बहुत महत्वपूर्ण भी है। ऐसे में नेल्सन मंडेला के देश में हम उनके विचारों के अनुकूल शांति की कामना करते हैं।

अरुण कुमार कैहरबा
हिन्दी प्राध्यापक, लेखक व स्तंभकार
वार्ड नं.-4, रामलीला मैदान, इन्द्री,
जिला-करनाल, हरियाणा
मो.नं.-9466220145
VIR ARJUN 18-7-2021

JAGAT KRANTI 18-7-2021


Saturday, July 10, 2021

Development & Papulation / Article on Papulation Day

 जनसंख्या दिवस विशेष

सबको शिक्षा, स्वास्थ्य व विकास से ही होगा जनसंख्या नियंत्रण

स्वस्थ दृष्टिकोण व जन केन्द्रित विकास के मॉडल की जरूरत
JANSANDESH TIMES 10-7-2021

अरुण कुमार कैहरबा

बढ़ती जनसंख्या को लेकर देश और दुनिया में अनेक प्रकार से चिंताएं जताई जाती हैं। भारत आज जनसंख्या के मामले में विश्व भर में दूसरे नंबर पर है। इसके बढऩे का सिलसिला यूंही चलता रहा तो निश्चय ही कुछ सालों में भारत जनसंख्या के मामले में नंबर-1 स्थान हासिल कर लेगा। कायदे से तो जनता किसी भी देश की ताकत होनी चाहिए। मानव संसाधन की अवधारणा भी इसी बात पर बल देती है कि मुनष्य किसी देश पर बोझ नहीं हैं, बल्कि उसके संसाधन हैं। बच्चों व युवाओं को कुशल नागरिक के रूप में विकसित करने के लिए देश में मानव संसाधन विकास मंत्रालय बनाया गया है। इसके बावजूद जनसंख्या को लेकर जागरूकता के कार्य कर रहे लोगों में एकांगी नजरिये से जनसंख्या वृद्धि की बजाय जनसंख्या पर चिंता जताई जाती है, जोकि कईं बार बहुत अखरता है।
सबसे महत्वपूर्ण सवाल यही है कि जनसंख्या को कैसे देखा जाए। जनसंख्या का मुद्दा विकास के साथ जुड़ा हुआ है। जनसंख्या बढऩे के कारणों की तह में जाएं तो गरीबी, पिछड़ापन, अशिक्षा व असुरक्षा आदि इसके मुख्य कारक मिलेंगे। समाज में जिन भी लोगों को पढऩे का मौका मिल गया, उनमें परिवार का आकार छोटा दिखाई देता है। जो आबादियां शिक्षा व विकास में पिछड़ गई, उनकी आबादी आज भी ज्यादा है।
हमारे आस-पास ही ऐसी बहुत सी सुविधाहीन बस्तियां होंगी। उनके घरों में झांका जाए तो हमें काफी बच्चे दिखाई देंगे। ज्यादा बच्चों वाले कुछ परिवारों का ही अध्ययन कर लें तो हमें स्पष्ट हो जाएगा। गरीबी और असुरक्षा को मिटा दें और शिक्षा के अवसर दे दें तो उस परिवार में जनसंख्या नियंत्रण की समझ अपने आप आ जाएगी। किसी ने सही ही कहा है कि विकास सबसे बड़ा गर्भ निरोधक है।
जनसंख्या को नियंत्रित करने के लिए सबसे पहले विकास के मॉडल पर बात करनी पड़ेगी। आज देश में जो विकास का मॉडल अपनाया जा रहा है, वह गैर-बराबरी को कम करने की बजाय बढ़ाने वाला है। आज देश की पूंजी का बड़ा हिस्सा कुछ लोगों की जेबों व तिजोरियों में सिमट गया है। गरीब लोग और अधिक गरीब होते जा रहे हैं। कोरोना महामारी ने ही देश के लाखों लोगों को बेरोजगार कर दिया है। बेरोजगार हुए लोगों को रोजगार देने के लिए बनाई गई योजना के तहत श्रम कानूनों में बदलाव किए गए। यह बदलाव मजदूरों को ध्यान में रखकर नहीं किए गए, उद्योगपतियों को ध्यान में रखकर किए गए। यह है विकास की अधोगति। सरकारों को गरीब लोगों की भलाई दिखाई नहीं दे रही है। सभी लोगों को रहने, खान-पान, स्वास्थ्य व शिक्षा की सुविधाएं और मान-सम्मान का जीवन मिले, इसकी कोशिशें होती हुई दिखाई नहीं दे रही हैं। लोगों को साम्प्रदायिक आधार पर बांटने के लिए ऐसी व्याख्याएं प्रचारित की जाती हैं, जिनमें जनसंख्या वृद्धि का ठीकरा अल्पसंख्यकों व गरीब लोगों के सिर फोड़ दिया जाता है। इन व्याख्याओं का परिणाम यह होता है कि जन कल्याण की योजनाओं के लिए जिम्मेदार सरकारी ताना-बाना बच निकलता है।
ऐसा नहीं है कि समाज में जनसंख्या वृद्धि के अन्य कारण नहीं हैं। समाज में लैंगिक भेदभाव भी जनसंख्या बढऩे का महत्वपूर्ण कारण है। लड़कियों की प्रतिभा के अनेक उदाहरणों के बावजूद आज भी हमारे समाज में लड़कियों को बोझ माना जाता है। पुत्र लालसा के वशीभूत होकर परिवार में लड़कियां पैदा होती जाती हैं या फिर उन्हें गर्भ में ही मौत के घाट उतार दिया जाता है। लड़कियों को बोझ मानने की सोच के कारण भी लड़कियों का बाल विवाह कर दिया जाता है। गैर-कानूनी होने के बावजूद बाल विवाह भी जनसंख्या बढ़ौतरी का कारण बन जाता है। नन्हीं उम्र में जब बच्चों को पढऩा और भावी जीवन को समझना होता है, परिवार की चक्की में वे ही बच्चों के मां-बाप बन जाते हैं। विवाह से पूर्व युवाओं को आगामी जीवन लिए तैयार करना या शिक्षित करना समाज  की एक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है।
संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम द्वारा 1989 में विश्व स्तर पर जनसंख्या दिवस मनाए जाने की शुरूआत हुई थी। 11 जुलाई, 1987 वह दिन माना जाता है जबकि दुनिया की आबादी पांच अरब होने का पता चला था। उसी वर्ष पहली बार जनसंख्या दिवस मनाया गया। जनता के सभी वर्गों को उच्च शिक्षा, स्वास्थ्य व रोजगार के अवसर मिलें, यही जनसंख्या शिक्षा का सार है। इसके लिए विकास के मॉडल को अंतिम जन केन्द्रित करना होगा। जन-जन में जनसंख्या शिक्षा फैलाने के अलावा जनसंख्या दिवस का दिन सरकारों पर ऐसी नीतियां बनाने के लिए दबाव बनाने का भी है, जिससे हाशिये के लोगों को विकास का लाभ मिल सके।    
हमारे देश में जनसंख्या संबंधी आंकड़े जुटाने के लिए दस साल बाद जनगणना की जाती है। लॉकडाउन से पहले ही देश में जनगणना-21 की तैयारियां शुरू हो चुकी थी। गांव स्तर पर आंकड़े जुटाने के लिए प्रगणकों व पर्यवेक्षकों की ड्यटी भी लगा दी गई थी, लेकिन लॉकडाउन के विभिन्न चरणों व अनलॉक के दौरान पूरी दुनिया का ध्यान कोरोना पर केन्द्रित हो गया है, जिससे जनगणना का कार्य बाधित हो गया है। अभी भी कोरोना की तीसरी लहर की आशंकाएं जताई जा रही हैं। ऐसे में कोरोना महामारी के जाल से निकलने पर ही जनगणना का कार्य शुरू हो पाएगा।  
जनसंख्या वृद्धि की बात की जाए तो दुनिया की आबादी को एक अरब तक बढऩे में सैकड़ों-हजारों साल लगे। फिर सिर्फ 200 साल या उससे भी ज्यादा समय में, यह सात गुना बढ़ गई। 2011 में विश्व की जनसंख्या 7 अरब के अंक तक पहुंच गई। और आज यह लगभग 7.7 अरब हो गई है। इसके 2030 में लगभग 8.5 अरब, 2050 में 10 अरब के आस-पास पहुंचने की उम्मीद है। ऐसे में जनसंख्या नियंत्रण के लिए ठोस उपाय विकास में ही छिपे हुए हैं। जनसंख्या वृद्धि की दृष्टि से संवेदनशील वर्गों को राजनीतिक रूप से निशाना साधने की बजाय उनके विकास पर ध्यान केन्द्रित किया जाना चाहिए ताकि वे परिवार नियोजन के उपायों को स्वेच्छा से अपना सकें।
अरुण कुमार कैहरबा
प्राध्यापक, लेखक व स्तंभकार
घर का पता-वार्ड  नं.-4, रामलीला मैदान,
इन्द्री, करनाल, हरियाणा
मो.नं.-9466220145 

Sunday, July 4, 2021

हरियाणा का सामाजिक-सांस्कृतिक परिदृश्य / Haryana social-cultural environment

 रिपोर्ट

डॉ. ओमप्रकाश ग्रेवाल स्मृति व्याख्यान

हरियाणा का सामाजिक-सांस्कृतिक परिदृश्य

अरुण कुमार कैहरबा

हरियाणा के प्रसिद्ध चिंतक व बुद्धिजीवी डॉ. ओमप्रकाश ग्रेवाल जी की स्मृति में 2006 में कुरुक्षेत्र में स्थापित किए गए डॉ. ओमप्रकाश ग्रेवाल अध्ययन संस्थान के तत्ववाधान में हरियाणा का सामाजिक-सांस्कृतिक परिदृश्य विषय पर वार्षिक डॉ. ओमप्रकाश ग्रेवाल ऑनलाइन स्मृति व्याख्यान आयोजित किया गया। ग्रेवाल जी के साथियों में से एक प्रसिद्ध सामाजिक चिंतक, अर्थशास्त्री एवं शिक्षाविद् डॉ. टी.आर. कुंडू ने मुख्य व्याख्यान रखते हुए हरियाणा के इतिहास, भूगोल, समाज के विभिन्न वर्गों, विकास के अन्तर्विरोधों के संदर्भ में हरियाणा के समाज व संस्कृति के विविध आयामों से परिचित करवाया। व्याख्यान का संचालन संस्थान के सचिव डॉ. रविन्द्र गासो ने किया और अध्यक्षता संस्थान के अध्यक्ष दयाल सिंह कॉलेज करनाल में अंग्रेजी विभागाध्यक्ष के पद से सेवानिवृत्त हुए विनोद भूषण अबरोल ने की।

खालीपन को भरकर प्रेरित करती है संस्कृति: प्रो. टी.आर. कुंडू

कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र विभाग से सेवानिवृत्त जाने-माने चिंतक प्रोफेसर टी.आर. कुंडू ने कहा कि हरियाणा दो-तीन दशकों में आर्थिक, तकनीकी व विविध क्षेत्रों में बहुत तेजी से बदला है। लेकिन उसकी सांस्कृतिक-सामाजिक पहचान बहुत धुुंधली है। समाज मूल रूप से एक नैतिक इकाई है, जो सामूहिकता में बसती है। उसकी सामूहिक चेतना होती है। उसका एक सामूहिक मिजाज होता है। यह एक सूपर ओरगैनिक कृति है। हर समाज का एक विशिष्ट ढ़ांचा होता है। उसमें अनेक समूह होते हैं, जिनके अपने-अपने हित होते हैं और उन्हें पूरा करने के लिए अपना-अपना सामथ्र्य होता है, पावर होती है। पावर के कईं स्रोत हैं। धन, सामाजिक-राजनैतिक हैसियत, ज्ञान एवं कौशल, परिस्थिति के अनुसार व्यवहार करने के कौशल आदि शक्ति के स्रोत हैं। जिसके पास सबसे अधिक शक्ति होती है, वह रूलिंग इलीट कहलाता है। बाकी जनता कहलाती है। हर समाज का आधार उसकी संस्कृति होती है। संस्कृति के बारे में टैगोर ने कहा था- ‘संस्कृति खूबसूरत व्यवहार है।’ खूबसूरती हर समाज की अलग होती है। हर समाज में खूबसूरती की अवधारणा भी अलग हो सकती है। खूबसूरत व्यवहार के बारे में 

कोई भी आचरण, जो आपके आत्मसम्मान में वृद्धि करे, वह खूबसूरत नैतिकता है।

लेकिन वह आचरण जो दूसरे के आत्मसम्मान में वृद्धि करे, वह खूबसूरत मैनर है।

हर संस्कृति के कुछ आधारभूत मूल्य होते हैं, जिन्हें हम अहमियत देते हैं। जो हमारे खालीपन को भरते हैं, जो हमें प्रेरित करते हैं। ऐसे मूल्य जो हमारे आदर्श होते हैं, उन्हें हम अपने संविधान में भी शामिल करते हैं। जैसे बंधुता, मानवता, स्वतंत्रता, समानता, वैज्ञानिक सोच आदि हमारे संवैधानिक मूल्य हैं। कुछ व्यवहार के नियम होते हैं और कुछ मानक होते हैं। जैसे- अभिव्यक्ति की आजादी हमारा मूल्य है और इस आजादी की हमें रक्षा करनी चाहिए, यह मानक है। जिन मानकों को हम अत्यधिक महत्व देते हैं, उन्हें हम मूल्य व्यवस्था का हिस्सा बना लेते हैं। बाकी हमारी परंपराएं, रीति-रिवाज हैं, जिन्हें समाज की लोक लाज के लिए अपनाते हैं।  

टीएस इलियट के अनुसार- संस्कृति और कुछ नहीं है, मूल्य हैं। संस्कृति हमारे जीवन को अर्थ देती है। 

मोटे तौर पर संस्कृति को दो भागों में बांट सकते हैं-एक भौतिक संस्कृति, जो हमारे खान-पान में झलकती है। दूसरी, बौद्धिक संस्कृति, जिसे आध्यात्मिक संस्कृति भी कहा जा सकता है। हमारा काव्य, साहित्य, विचार-विमर्श बौद्धिक संस्कृति का हिस्सा हैं। सामान्य रूप से एक पश्चिम की संस्कृति है, जो भौतिकवाद से  प्रेरित है। एक पूर्वी संस्कृति है, जोकि अध्यात्मिकता से अधिक प्रेरित है। एक मिली-जुली संस्कृति है, जिसमें भौतिकता भी है और आध्यात्मिकता दोनों है और दोनों के बीच संघर्ष होता रहता है।

भौगोलिक स्थिति संस्कृति के निर्माण में योगदान करती है। संस्कृति एक सीखा हुआ व्यवहार है, जिसे हम सीखते रहते हैं। संस्कृति एक सुंदर ओरगेनिक संस्कृति है। जब हम ऊपर उठ कर जीने की कोशिश करते हैं, वही संस्कृति है। यह बात सत्य है, भौगोलिक स्थिति हमारी भौतिक संस्कृति को प्रभावित करती है। भौतिक संस्कृति की बात करें तो हमारे यहां पर कितना कुछ बदला है। माक्र्स के अनुसार आर्थिक स्थिति भी संस्कृति को प्रभावित करती है। आज हम वैश्विक युग में रह रहे हैं। एक संस्कृति का दूसरी संस्कृति पर प्रभाव पड़ता है। रूलिंग इलीट भी बदलता रहता है। एक विद्वान ने कहा है- इतिहास रूलिंग इलीट का कब्रिस्तान है। सत्ताधारी संभ्रांत वर्ग कभी अपनी ताकत के बल पर आगे आ जाता है और कभी अपनी छल-कपट की रणनीति से भी सत्ता में आता है। रूलिंग इलीट के खिलाफ कईं बार सामाजिक असंतोष व आक्रोश बढ़ जाता है तो क्रांतियां होती हैं। 

सांस्कृतिक मंच बताता है कि क्या होना चाहिए। वहीं, सामाजिक मंच ताकत का मंच भी हो सकता है, जहां पर तरह-तरह की टकराहटें हो सकती हैं। रूलिंग इलीट मूल्यों को अपने हिसाब से बदलने की कोशिश करता है ताकि उन्हें बिना विरोध के स्वीकार किया जा सकता है। इसे कैसे आंकें कि जो बदलाव हुआ है, वह कैसे हुआ है। किसके हक में है। अच्छे के हक में हुआ या बुरे के लिये। संवैधानिक मूल्य इसमें भूमिका निभाते हैं। क्या हम समानता, मानवता, वैज्ञानिक सोच आदि के आधार प्रगति कर पाए, यह हमारा महत्वपूर्ण मापदंड है। दूसरा मापदंड है कि हम कितने मानवीय बने हैं। क्या हमारी संवेदनाएं अपने तक ही सीमित रहे या उनका दायरा बढ़ा। समाज में क्या अपराध बढ़ा है या घटा है। अपराध बीमार समाज का प्रतीक है। हमने उसे कैसे डील किया?

सामाजिक समूह में इसकी गतिशीलता क्या है? क्या कोई एक समूह से दूसरे समूह में जा सकता है। उसकी समूह सदस्यता क्या है? हमारे नागरिकों की समूहों में हिस्सेदारी जितनी अधिक होगी, उससे सांस्कृतिक विकास उतना अधिक होगा। हम जब एक दूसरे से मिलते हैं तो एक दूसरे से अपना आचरण सांझा करते हैं। अपनी संस्कृति व व्यक्तित्व भी सांझा करते हैं। हम एक दूसरे का हिस्सा बन जाते हैं। यह संवाद केवल आमने-सामने ही नहीं होता, आज के दौर में यह ऑनलाइन भी हो सकता है। साहित्य के द्वारा भी हम संवाद करते हैं। एक साहित्यकार अपने साहित्य के जरिये अपनी संस्कृति सांझा करता है। विचार-विमर्श और समूहों में हिस्सेदारी हमारी संस्कृति का अंग है।

शहरीकरण व उपभोक्तवाद की जकड़ में हरियाणा-

संस्कृति सबसे धीमी गति से परिवर्तित होती है। हरियाणा की संस्कृति को इसकी राज्य के रूप में स्थापना के वर्ष 1966 से लेते हैं। संस्कृति को समझने के तीन तरीके हैं- मूल रूप से संस्कृति साहित्य का विषय है। समाजशास्त्री संस्कृति को अलग तरह से समझता है। समाजशास्त्री लिप्त नहीं होता। वह अपने इमोशन को नियंत्रित करके देखता है। साहित्यकार की संवेदनाएं बहुत गहरी होती हैं। जो संवेदनाएं हम पकड़ नहीं  पाते, उसे साहित्यकार पकड़ता है। वह अपने साहित्य के द्वारा संवेदनाओं का विस्तार करता है। साहित्य में साहित्यकार की कल्पनाएं और दर्शन भी होता है। तीसरा, जिस देश व संस्कृति का हम अध्ययन कर रहे हैं, उसके बारे में लोक क्या कह रहा है। लोकगीत क्या कह रहे हैं। 

दुर्भाग्य से हरियाणा के बारे में कम लिखा गया है, लेकिन इसके बावजूद लिखा गया है। यदि हम हरियाणा के बारे में लिखे गए साहित्य का अध्ययन करें तो हमें बहुत-सी चीजें समझ आएंगी। समाजशास्त्री के नाते मैं कैसे हरियाणा को देखता हूँ। जब हरियाणा बना तब 82 प्रतिशत लोग गांवों में रहते थे और 18 प्रतिशत शहरों में रहते थे। जो अपने हाथों से काम नहीं करते थे, वे शहरों में रहते थे और जो हाथ से काम करते थे वे गांवों में रहते थे। हाथ से काम नहीं करने वाले जैंटलमैन कहलाते थे। यह माना जाता है कि जैंटलमेन केवल पढ़ते-लिखते हैं। वे हाथ से बहुत कम काम करते हैं। जब करते हैं तो कईं बार विनाश करते हैं। हमारे हरियाणा में जातिवादी व्यवस्था बहुत मजबूत है।

पुराने दौर की बात करें तो हरियाणा में सबर का फल मीठा माना जाता था। जिन आकांक्षाओं को पूरा नहीं कर सकते थे, उस पर अंकुश लगाते थे। चादर में ही पैर रखने की बात की जाती थी। संगीत- घड़वे, तुंबे, बीन, बांसुरी आदि भी कम संसाधनों में अधिक काम लेने के प्रतीक हैं। हरियाणा में किसान, बैल, गड्डे और हल होते थे। किसान की खेती बैलों के बिना नहीं होती थी। बैल गाय से आते थे। गाय पालते थे तो दूध-दही मिलता था, यही हमारे खाने का मूल स्रोत था। आर्य समाज से प्रभावित थी हरियाणा की संस्कृति। आडंबरों से मुक्त था हरियाणा का समाज। आत्मा, परमात्मा, करणी-भरणी आदि केन्द्र में थे।

हरियाणा कैसे सोचता था। कहावतों के नजरिये से देखें तो-‘काम प्यारा है चाम प्यारा नहीं है।’ काम सर्वोत्तम था। श्रम को महत्व मिलता था। ‘सबर का धन सबसे बड़ा धन’- अभाव की संस्कृति से डील करने का सुंदर उदाहरण है यह कहावत। हमारी आकांक्षाओं व बेसब्री पर हम अंकुश लगाते थे और संतोष को सबसे बड़ा धन बताते थे। ‘करके खा लिया, ले कर दे दिया’- मुफ्तखोरे नहीं है। मांगना धिक्कार है। मुफ्त का घी पीने वाले नहीं हैं हम। अगर कोई साहूकार का कर्जा नहीं चुकाता है तो साहूकार उसके अंदर से पीपल बनकर उगेगा, यह माना जाता था। ‘पहले मारा सो जीतै’- हरियाणा का आदमी दब कर नहीं खेलता है। ‘दाबा करै खराबा’- परिणाम नहीं देखते, दबाव नहीं मानते। हरियाणा का बंदा साहसी, वीर होता है। साक्षी मलिक ने कुश्ती के आखिरी पांच सैकेंड में बाजी पलट दी। हरियाणा की संस्कृति को समझने के लिए हमारे मुहावरे, लोकगीत को खंगालने की जरूरत है।

हरियाणा का जन्म हरित क्रांति में हुआ। 1970 के दशक में हरियाणा में ढ़ांचागत विकास हुआ। गांव-गांव में बिजली पहुंचाई। 80 का दशक आते-आते हमारी रसोई व ड्राईंग रूम में परिवर्तन होने लगता है। 1990 के बाद स्थिति बिल्कुल बदल जाती है। अर्थव्यवस्था को खोल देते हैं। आयात-निर्यात होने लगता है। सरकार अपनी भूमिका कम करने लगती है। निजी क्षेत्र की भूमिका बढऩे लगती है। पूंजीपति हितैषी सोच को बढ़ावा देती है सरकार। आगे पाठ्यक्रम में क्या चीज शामिल की जाएगी, यह उपयोगिता पर निर्भर करेगा। आज का विकास जीडीपी ग्रोथ केन्द्रित हो गया है। जीडीपी ग्रोथ का स्वभाव है कि असमानताएं बढ़ेंगी तो यह बढ़ेगी। इससे पहले विकास का मतलब होता था असमानताएं कम करना। हमारे नीति-नियंताओं ने उपभोक्ता संस्कृति के लिए मैदान तैयार किया। हरियाणा उपभोक्ता संस्कृति के लिए मुख्य भूमि बनती है। यहां की मिडल व अपर क्लास का तेजी से विकास होता है। संस्कृति के नाम पर मैदान बिल्कुल खाली है। पुरानी संस्कृति आउटडेटिड हो गई है। जब उपभोक्ता संस्कृति का विकास किया जा रहा था, तब कुछ नए मूल्य इजाद किए जाने चाहिएं थे। शहरीकरण हुआ। नई क्लास का उभार हुआ। इस तरह से हरियाणा उपभोक्तावाद का शिकार होता है। 

हरियाणा के वर्तमान परिदृश्य डॉ. रणबीर सिंह दहिया ने कहा हरियाणा तीन ढ़ाल का- एक पीछे रह गया हरियाणा, एक आगे बढ़ता हरियाणा और एक मस्त हरियाणा। अंदर से खालीपन को भरने के लिए दिखावा किया जा रहा है। अपराधबोध से ग्रस्त हैं। मंदिर में अपराधी की तरह जाते हैं। अपराध भावना से बचने के लिए जगराते करवाते हैं। दान करते हैं। मूलरूप से सरकार के साथ सांठगांठ करते हैं। ठेके लेते हैं। पीपीपी के नाम पर सरकार अपने लोगों को ठेके देती है। सरकार के अपराध में भागीदार है। अवैध कॉलोनियां, अवैध खनन, कानून को अपने पक्ष में करने की कोशिश करता है। तीन कृषि कानून भी एक वर्ग ने सरकार से अपने हितों के लिए बनवा लिए हैं। बेलगाम हरियाणा समाज से कटा हुआ है और सरकार से मिला हुआ है।

आगे बढ़ता हरियाणा शहरी क्षेत्र में है। हरियाणा में शहरीकरण बहुत तेज गति से हुआ है। पूरे देश में यह मिसाल बना है शहरीकरण की। पंजाबी समुदाय के लोग देहात से आए। यह महत्वाकांक्षी लोग हैं। इसमें छोटे व बड़े किसान हैं। कोई आढ़तिया बन गया है, किसी का पोल्ट्री फार्म है। 

हालांकि पहले की तुलना में शहरी हरियाणा ज्यादा विवेकशील है। पंजाबियों के पास सिखाने के लिए बहुत कुछ है। ब्रिटिशों के बाद पंजाबी बड़े कॉलोनाइजर हैं। इनमें गजब का लचीलापन है।

मस्त हरियाणा को मैं लाचार हरियाणा कहता हूँ। 1991 में आर्थिक सुधार में खेती शामिल नहीं थी। न्यूनतम समर्थन मूल्य को मानने के लिए कोई तैयार नहीं है। स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट को लागू करने के लिए भी कोई तैयार नहीं है। कृषि क्षेत्र के साथ सौतेला व्यवहार किया गया। ग्रामीण क्षेत्र के मंझोले व बड़े किसान शहरों में आ गए। छोटे किसान गांव में रह गए। कृषक समाज एक तनाव की स्थिति से गुजर रहा है। इसलिए मैं इसे लाचार हरियाणा कहता हूँ।

इसके साथ ही एक उड़ता हरियाणा भी है। चिट्टा व मोबाइल का नशा युवाओं पर तारी है। आज मां-बाप के पास कोई समय नहीं है। पहले जैसे बच्चों को सुलाने के लिए अफीम देते थे, आज मोबाइल बच्चों के हाथ में दे दिए गए हैं। मोबाइल व ऑनलाइन माध्यमों के जरिये संवाद स्थाई संवाद नहीं है। युवा वर्ग अपनी भाषा भी खो चुका है। जिसके पास कुछ नहीं है, वह नशा कर लेता है।

संवैधानिक मूल्य पीछे धकेल दिए गए हैं। उनके बारे में कोई बात नहीं करता। 1990 से पूर्व समता पर जोर था। आज समानता जैसे संवैधानिक मूल्य हाशिये पर ढक़ेल दिए गए हैं। स्वतंत्रता बाद के हमारे नेताओं ने जाति को कम करके आंका। नेहरू मानते थे कि जैसे-जैसे आर्थिक विकास होगा। उद्योग-धंधे बढ़ेंगे। परिवहन के साधन बढ़ेंगे। आपस में मिलकर कार्य करने की संस्कृति के जरिये जाति घिस-घिस कर खत्म हो जाएगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। जाति बलवान होती चली गई। राजनीति का एक हथियार बन गई। राजनीति का जातिकरण हुआ। जाति का राजनीतिकरण हुआ। जाति और साम्प्रदायिकता ने मिलकर सोच को बुरे तरह से प्रभावित किया है। आज जाति बड़ा फैक्टर बन कर उभरी है। हरियाणा में 36 बिरादरी मानी जाती हैं। जाति ने मानवता व लोकतंत्र को पीछे खिसका दिया है। लोकतंत्र का सार इस बात पर निर्भर करती है कि अपने प्रतिनिधियों का चुनाव कैसे करें और उन पर नियंत्रण कैसे करें। ना तो हमारा प्रतिनिधियों को चुनने में हाथ रह गया है और ना ही उसे नियंत्रित करने में। जाति-सम्प्रदाय बड़े कारक बन गए हैं। डॉ. भीमराव अंबेडकर का यह विचार था कि लोकतंत्र से समनता आ जाएगी। आरक्षण भी वंचित समुदायों को सशक्त बनेगा, जिससे बंधुत्व आ जाएगा। सांवैधानिक मूल्यों की सारी जिम्मेदारी राजनीति पर छोड़ दी गई। और कोई प्रयास ही नहीं किया गया। जाति दिवार बन कर खड़ी हो गई। जाति से टकराने में हमारा लोकतंत्र फेल हुआ है। ऐसे ही सांस्कृतिक स्वतंत्रता के मामले में भी हम पीछे रह गए। जाति बहुत से लोगों के स्टेटस व आत्मविश्वास को कम कर देता है। 

महिलाओं के साथ भी ऐसा ही हुआ है। एक समूह से दूसरे समूह में जाने के मामले में भी हम पीछे रहे हैं। वैज्ञानिक सोच के साथ भी यही हुआ है। यह सोच भी गलत साबित हुई कि शिक्षा के प्रसार के साथ-साथ विवेकशील सोच व तार्किकता बढ़ेगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। मानवीय मूल्य और संवेदनाएं क्या हमारी अपनों तक ही सीमित रह गई है। क्या दूसरों की वेदनाओं की गूंज भी हममें है। हरियाणा में अपराध बहुत बढ़ा है। महिलाओं के लिए यह सबसे असुरक्षित स्थान साबित हुआ है। दुलीना, मिर्चपुर कांंड आदि जैसी घटनाएं दलितों पर अत्याचार की क्रूररतम घटनाएं हैं। हम अपने समाज को मानवीय चेहरा नहीं दे पाए। हमारा महानिर्वाण जाति के विनाश में है। ऐसे में जरूरी है कि सामाजिक-सांस्कृतिक बदलाव व नवजाकरण के लिए मिलजुल कर प्रयास किए जाएं। स्वतंत्रता, समानता व बंधुत्व के मूल्यों को साकार करने के लिए विचार-विमर्श की प्रक्रिया को तेज किया जाए।

सवाल-जवाब व टिप्पणियों का सत्र- 

लोक इतिहास के जानकार सुरेन्द्रपाल सिंह ने कहा कि प्रबुद्ध वक्ता ने 1966 से हरियाणा के सामाजिक-सांस्कृतिक परिदृश्य पर विचार रखे हैं। जबकि इसे प्राचीन काल से शुरू किया जाना चाहिए। ताकि हरियाणा के प्राचीन इतिहास के संदर्भ में हरियाणा के समाज व संस्कृति को समझा जा सके।

चंडीगढ़ में रह रहे प्रसिद्ध हिन्दी साहित्यकार सत्यपाल सहगल ने हरियाणा के अलग-अलग भौगोलिक खंडों, दिल्ली से सटे गुडग़ांव, फरीदाबाद और नजदीकी क्षेत्र, पंजाब से जुड़े अंबाला से छछरौली तक का क्षेत्र और अन्य हिस्सों के संदर्भ में हरियाणा को समझने की जरूरत को रेखांकित किया। 

कॉलेज प्राचार्य के पद से सेवानिवृत्त हुए हरियाणा के जाने-माने साहित्यकार डॉ. ओमप्रकाश करुणेश ने हरियाणा के वंचित वर्गों व घुमंतु समुदायों की जीवन-स्थितियों को हरियाणा के समाज व संस्कृति में समावेशित करने की जरूरत जताई।

हरियाणा के साक्षरता आंदोलन के अग्रणी नेता एवं कॉलेज में एसोसिएट प्रोफेसर प्रमोद गौरी ने कहा कि हरियाणा की मुख्यधारा का मानस ज्यादा चर्चा में आया है। समाज की संरचना में छोटी-छोटी धाराओं का अहम योगदान है। हरियाणा में 20 प्रतिशत से ज्यादा दलित आबादी है, जोकि श्रमिक संस्कृति का निर्माण करती है। हरियाणा में राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान जो संघर्ष की संस्कृति उभरी। आया राम गया राम की संस्कृति सभी को अध्ययन का विषय बनाना चाहिए। उन्होंने कहा कि आज के हरियाणा को व्यापकता में देखने की जरूरत है। आज शहरीकरण का मैट्रापोलिटन चरित्र उभर कर सामने आया है। प्रवासी मजदूरों की संख्या बहुत अधिक है। इससे क्या सामाजिक अंतरविरोध पैदा होंगे? हरियाणा में प्राचीन काल के अवशेष तो आज भी दिखाई देते हैं। सांस्कृतिक विरासत को समृद्ध करने वाली संस्थाओं का अभाव है। 

अर्थशास्त्र के अध्यापक डॉ. सुनील कुमार ने कहा कि हरियाणवी संस्कृति की बात करते हैं तो गलोरिफिकेशन की बात करते हैं। प्राचीन से बेहतर है आधुनिक, लेकिन बातचीत में प्राचीन बेहतर दिखाया जाता है। 

डॉ. आबिद अली व गजानन पांडेय ने कहा कि व्याख्यान के जरिये उन्हें हरियाणा को बेहतर ढ़ंग से समझने का मौका मिला है। 

अध्यक्षीय टिप्पणी करते हुए वी.बी. अबरोल ने कहा कि आज से 30 साल पहले सर्च राज्य संसाधन केन्द्र की त्रैमासिक पत्रिका हरकारा में डॉ. ग्रेवाल ने हरियाणा के सामाजिक सांस्कृतिक परिवेश पर अपना सारगर्भित लेख लिखा था। आज कुंडू साहब ने आज के संदर्भ में इस पर चर्चा की है। उन्होंने कहा कि हरियाणा में आज कहीं ज्यादा अंतर्विरोध व विसंगतियां हैं। विकास के फल आज आम आदमी तक पहुंचने की बजाय कुछ राजनेताओं और नौकरशाहों तक ही पहुंचे हैं। उच्च वर्गीय वर्चस्व ने भ्रष्टाचार को कईं गुणा बढ़ा दिया है। इस ठोस वास्तविकता के संदर्भ में लगातार बदल रहे परिवेश पर और अधिक चर्चाओं की जरूरत है। डॉ. रविन्द्र गासो व डॉ. अबरोल ने व्याख्यान में शामिल हुए सभी प्रबुद्ध नागरिकों का आभार जताते हुए कहा कि हरियाणा के सामाजिक-सांस्कृतिक विमर्श पर लगातार चर्चाएं आयोजित की जाएंगी। 


-अरुण कुमार कैहरबा

हिन्दी प्राध्यापक, संस्कृतिकर्मी एवं स्तंभकार

वार्ड नं.-4, रामलीला मैदान, इन्द्री

जिला-करनाल, हरियाणा, पिन-132041

मो.नं.-9466220145