Monday, December 17, 2018
Wednesday, December 12, 2018
Saturday, December 8, 2018
Friday, December 7, 2018
SEMINAR ON DR. B.R. AMBEDKAR IN GSSS CAMP YAMUNANAGAR
डॉ. आंबेडकर ने आजादी की लड़ाई में सामाजिक न्याय की आवाज को किया बुलंद यमुनानगर, 6 दिसंबर
बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर देश के पहले कानून मंत्री और संविधान निर्माता से भी अधिक पिछड़ेपन के कारणों की छानबीन करने वाले दार्शनिक और सामाजिक चिंतक हैं, जिन्होंने समाज के सबसे कमजोर तबकों को मुक्ति की राह दिखाई। स्वतंत्रता आंदोलन में उन्होंने सामाजिक न्याय की विषय वस्तु दी। यह बात हिन्दी प्राध्यापक अरुण कुमार कैहरबा ने राजकीय वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय कैंप में बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर के परिनिर्वाण दिवस पर आयोजित विचार गोष्ठी में कहीं। बारहवीं कक्षा के विद्यार्थियों के बीच में आंबेडकर के 'श्रम विभाजन एवं जाति प्रथा' निबंध का वाचन किया गया।अरुण कैहरबा ने कहा कि आंबेडकर को बचपन में जाति प्रथा की अनेक प्रकार की बाधाओं का सामना करना पड़ा। स्कूल में भी उन्हें अलग बैठना पड़ता था। इन बाधाओं को समाप्त करने के लिए उन्होंने शिक्षा को ही हथियार बनाने का संकल्प किया। इतिहास गवाह है कि उन्होंने इतनी डिग्रियां हासिल की जो कि एक रिकार्ड है। उन्होंने कहा कि जाति प्रथा का समर्थन करने वालों के तर्कों को आंबेडकर ने तार्किक ढंग से जवाब दिया। महात्मा बुद्ध, संत कबीर और महात्मा फुले के विचारों से प्रेरणा लेते हुए आंबेडकर ने शिक्षित बनो, संगठित बनो और संघर्ष करो का संदेश दिया।
डॉ. भीमराव आंबेडकर के परिनिर्वाण दिवस (6दिसंबर) पर विशेष
एक बेहतर समाज निर्माण का संघर्ष करने वाले युगपुरूष डॉ. आंबेडकर
अरुण कुमार कैहरबा
बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर एक बहुमुखी प्रतिभाशाली शख्सियत हैं, जिन्होंने भारत में जाति-वर्ण की बेडिय़ों को तोडऩे के लिए अथक संघर्ष किया। दलित एवं अछूत समझी जाने वाली जाति में पैदा होने के कारण उनके रास्ते में बाधाओं के पहाड़ खड़े थे। अपनी प्रतिभा के बल पर उन्होंने सभी रूकावटों को पछाड़ कर आगे बढऩे के रास्ते बनाए। उन्होंने जाति की जंजीरों में बुरी तरह से जकड़े भारतीय समाज में शिक्षा, संगठन व संघर्ष का जोश व जज़्बा जगाया। डॉ. आंबेडकर को आजाद भारत के पहले कानून मंत्री, भारतीय संविधान के शिल्पकार, आधुनिक भारत के निर्माता, शोषितों, दलितों, मजदूरों, महिलाओं के मानवाधिकारों की आवाज बुलंद करने वाले समता पुरूष के रूप में जाना जाता है। उन्होंने महात्मा बुद्ध, संत कबीर व महात्मा ज्योतिबा फुले से प्रेरणा लेकर उनके विचारों और क्रांतिकारी परंपराओं को आगे का काम किया।
भीमराव रामजी आंबेडकर का जन्म 14 अप्रैल, 1891 में तत्कालीन केन्द्रीय प्रांत और आधुनिक मध्य प्रदेश में महू में रामजी मालोजी सकपाल और भीमाबाई की 14वीं संतान के रूप में हुआ था। उनका परिवार मराठी था और वो महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले के अंबावडे नामक स्थान से संबंध रखता था। वे अछूत समझी जाने वाली महार जाति से संबंध रखते थे। रामजी सकपाल भारतीय सेना की महू छावनी में सूबेदार के पद पर तैनात थे। सामाजिक रूप से निचले पायदान पर स्थित होने के बावजूद उनकी अपने बच्चों को पढ़ाने की बहुत इच्छा थी। उन्होंने बच्चों को सरकारी स्कूल में दाखिल किया। लेकिन जाति की जकडऩ के कारण शिक्षा की डगर आसान नहीं थी। भीमराव व अन्य अछूत मानी जाने वाली जातियों के बच्चों को स्कूल में अलग बिठाया जाता था। स्कूल में बहुत ऊपर से पात्र द्वारा पानी कोई डालता तो भीमराव प्यास बुझाता। इसी कारण कईं बार बच्चों को प्यासे रह जाना पड़ता था। इस तरह के भेदभाव के बावजूद भीमराव की प्रतिभा को देखते हुए कुछ अध्यापकों का स्नेह भी उन्हें मिला। एक अध्यापक ने तो उनके नाम से सकपाल नाम हटाकर परिवार के मूल गांव अंबावडे के आधार पर आंबेडकर नाम जोड़ दिया।
1894 में रामजी सकपाल सेवानिवृत्त हो जाने के बाद सपरिवार सतारा चले गए और इसके दो साल बाद 1896 में भीमराव की मां की मृत्यु हो गई। बेहद कठिन परिस्थितियों में आंबेडकर के दो भाई और दो बहनें ही जीवित बचे। 1904 में आंबेडकर ने एल्फिंस्टोन हाई स्कूल में दाखिला लिया। 1907 में मैट्रिक परीक्षा पास करने के बाद उन्होंने बंबई विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया और इस तरह वो भारत में कॉलेज में प्रवेश लेने वाले पहले अस्पृश्य बन गये। 1913 में पिता की मृत्यु के बावजूद उन्होंने पढ़ाई जारी रखी। गायकवाड शासक ने संयुक्त राज्य अमेरिका के कोलंबिया विश्वविद्यालय में जाकर अध्ययन के लिये आंबेड
शोषितों की आवाज को बुलंद करने के लिए उन्होंने मूकनायक, बहिष्कृत भारत जैसे अखबार निकाले। आजादी की लड़ाई को उन्होंने अपनी सरगर्मियों और विचारों के जरिये नई विषय-वस्तु दी। राजनैतिक आजादी से भी पहले उन्होंने सामाजिक और आर्थिक आजादी का सवाल उठाया। सार्वजनिक स्थानों, कूओं व तालाबों पर जाने के दलितों के अधिकार के लिए आंदोलन चलाए। जाति के नाम पर चल रहे भेदभाव को लेकर उन्होंने बहुत ही सशक्त ढ़ंग से अपने विचार व्यक्त किए। उन्होंने सामाजिक न्याय के लिए गहरा विमर्श किया। उन्हें संविधान सभा का सदस्य चुना गया। देश की आजादी के बाद उन्हें देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने अपने मंत्रीमंडल में कानून मंत्री की जिम्मेदारी दी। उन्हें संविधान की प्रारूप समिति का अध्यक्ष नियुक्त किया गया। स्वतंत्रता आंदोलन के शहीदों के सपनों और जनता की आकांक्षाओं के अनुकूल देश के संविधान का निर्माण एक बड़ी चुनौती था। संविधान सभा के सदस्यों का नेतृत्व करते हुए आंबेडकर ने इस चुनौती को स्वीकार किया। संविधान निर्माण के लिए उन्होंने दुनिया के 60 से अधिक देशों के संविधान का अध्ययन किया और देश संचालन के लिए एक बहुत ही बेहतर संविधान का निर्माण किया। संविधान बनाने में उनके महत्वपूर्ण योगदान के कारण ही उन्हें संविधान निर्माता की संज्ञा दी जाती है।
देश की आजादी के बाद भी जात-पात की बुराई के बरकरार रहने के कारण वे बहुत ही व्यथित थे। उन्होंने हिंदू धर्म की ब्राह्मणवादी वर्ण व्यवस्था की कड़ी आलोचना प्रस्तुत की। जाति से त्रस्त हिन्दु धर्म से जब वे बेचैन हो गए तो अपने लाखों अनुयायियों को लेकर उन्होंने 14अक्तूबर, 1956 को बौद्ध धर्म ग्रहण किया। 6दिसंबर, 1956 को आंबेडकर का महापरिनिर्वाण हो गया। देहांत के बावजूद अपने विचारों एवं संघर्षों के जरिये उन्होंने देश की राजनीति को गहरे तक प्रभावित किया है। आंबेडकर भारतीय इतिहास की महात्मा बुद्ध, महात्मा ज्योतिबा फुले व कबीर के विचारों और उनकी परंपराओं को आगे बढ़ाने वाली शख्सियत हैं। एक जातिमुक्त समतावादी एवं न्यायसंगत समाज बनाने का सपना उन्होंने देखा था। अपने इस सपने के लिए उन्होंने जीवन भर काम किया।
मो.नं.-09466220145
Monday, December 3, 2018
Saturday, December 1, 2018
जागरूकता से ही रोकी जा सकती है एड्स की महामारी
विश्व एड्स दिवस पर विशेष
अरुण कुमार कैहरबा
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DAINIK HARIBHOOMI 1/12/2018 |
दुनिया में एचआईवी/एड्स एक महामारी का रूप लेता जा रहा है। इस जानलेवा विषाणु के बारे में जागरूकता की कमी भारत सहित विकासशील देशों की सबसे बड़ी विडंबना है। आज भी एचआईवी संक्रमित या एड्स पीडि़त व्यक्तियों के साथ भयानक भेदभाव होता है। यह भेदभाव अनपढ़ लोगों द्वारा ही नहीं होता, बल्कि चिकित्सा के पेशेधारी लोगों के द्वारा भी इस प्रकार का भेदभाव देखने को मिलता है।
एचआईवी और एड्स दोनों शब्द एक साथ बोले जाते हैं। बहुत से लोगों को इसमें अंतर समझ में नहीं आता है। इनके बारे में भ्रम बहुत ज्यादा हैं। एचआईवी मतलब ह्यूमन इम्यूनोडेफिशिएंसी वायरस एक ऐसा विषाणु है, जिससे रोग प्रतिरोधक क्षमता कम होने लगती है। इस वायरस की चपेट में आने के बाद यदि समय पर इसकी पहचान हो जाए तो चिकित्सकों के मार्गदर्शन और उपचार से बेहतर जीवन जिया जा सकता है। लेकिन यदि एचआईवी की समय पर पहचान ना हो तो यह एड्स मतलब एक्वायरड इम्यूनो डेफिसियेंसी सिंड्रोम में रूपांतरित हो सकता है। एड्स का कोई उपचार नहीं है। एड्स होने के बाद रोग प्रतिरोधक क्षमता पूरी तरह से क्षीण हो जाती है और कोई भी बिमारी होने पर वही मृत्यु का कारण बन सकती है। इस तरह एक एचआईवी संक्रमित व्यक्ति जरूरी नहीं वह एड्स से भी पीडि़त हो।
ह्यूमन इम्यूनोडेफिसिएंसी वायरस की खोज के लिए चिकित्सा वैज्ञानिकों ने काफी संघर्ष किया है। 1983 में फ्रांस के लुक मॉन्टेगनियर और फ्रांसोआ सिनूसी ने एलएवी वायरस की खोज की। इसके एक साल बाद अमेरिका के रॉबर्ट गैलो ने एचटीएलवी 3 वायरस की पहचान की। 1985 में पता चला कि ये दोनों एक ही वायरस हैं। 1985 में मॉन्टेगनियर और सिनूसी को नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 1986 में पहली बार इस वायरस को एचआईवी यानी ह्यूमन इम्यूनो डेफिशिएंसी वायरस का नाम मिला। लोगों को एड्स के प्रति जागरूक करने के मकसद से 1988 से हर वर्ष एक दिसम्बर को विश्व एड्स मनाया जाता है। 1991 में पहली बार लाल रिबन को एड्स का निशान बनाया गया। इस निशान को एड्स पीडि़त लोगों के खिलाफ दशकों से चले आ रहे भेदभाव को खत्म करने की एक कोशिश के रूप में देखा जाता है। भारत में एचआईवी का पहला मामला 1996 में दर्ज किया गया था।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार आज तक सात करोड़ से अधिक लोग एचआईवी से संक्रमित हो चुके हैं। करीब तीन करोड़ पचास लाख लोग एड्स के कारण मौत के मुंह में चले गए हैं। करीब चार करोड़ लोग पूरे विश्व में एचआईवी से पीडि़त हैं। भारत पूरे विश्व में एचआईवी पीडि़तों की आबादी के मामले तीसरे स्थान पर है। राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संगठन द्वारा जारी एड्स आकलन रिपोर्ट 2017 के अनुसार भारत में एचआईवी/एड्स पीडि़त लोगों की संख्या लगभग 21.40 लाख थी, इनमें वयस्क पीडि़त की संख्या 0.22 फीसदी थी। वर्ष 2017 में एचआईवी संक्रमण के लगभग 87,580 नए मामले सामने आए और 69,110 लोगों की एड्स से संबंधित बीमारियों से मौत हुई। 2005 में एड्स के कारण हुई मौतों की अधिकता की तुलना में 71 फीसदी की कमी आई है। सबसे अच्छी बात यह है कि भारत में 10 सितंबर, 2018 से एचआईवी/एड्स अधिनियम लागू हो गया है, जिसके अनुसार एचआईवी संक्रमित व एड्स पीडि़त व्यक्ति से भेदभाव करना अपराध घोषित किया गया है। अधिनियम के तहत मरीज को एंटी-रेट्रोवाइरल थेरेपी का न्यायिक अधिकार है और प्रत्येक एचआईवी मरीज को एचआईवी प्रिवेंशन, टेस्टिंग, ट्रीटमेंट और काउंसलिंग सर्विसेज का अधिकार मिलेगा।
विश्व एड्स दिवस को मनाते हुए 30वां साल शुरू हो रहा है। 2030 तक एड्स को समाप्त करने का लक्ष्य स्वास्थ्य संगठन ने निर्धारित कर रखा है। लेकिन करीब 11 लाख लोग प्रतिवर्ष एचआईवी से संक्रमित हो रहे हैं। आज तक एचआईवी संक्रमित सभी लोगों की पहचान नहीं हो पाई है। ऐसे में एड्स को समाप्त करने का लक्ष्य निर्धारित समय तक पूरा होना संदिग्ध ही लगता है। लेकिन जहां चाह होती है, वहीं राह होती है। मजबूत इरादों से बड़े से बड़ा लक्ष्य पूरा हो सकता है। अच्छी बात यह है कि आज एचआईवी संक्रमित 75प्रतिशत लोगों का परीक्षण हो चुका है, जोकि 2005 में 10प्रतिशत ही था। आज 60प्रतिशत उपचार की सुविधा भी ले रहे हैं। भारत में भी एचआईवी टेस्टिंग और उपचार की सुविधाओं का निरंतर फैलाव हो रहा है।
सभी लोगों के एचआईवी टेस्ट को लक्षित करते हुए 2018 में ‘अपनी स्थिति जानो’ को मुख्य विषय रखा गया है। यह बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि चार में से एक व्यक्ति आज भी अपनी एचआईवी संक्रमण की स्थिति से अनभिज्ञ है। जन जागरूकता से ही लोगों में एचआईवी संक्रमण के मूल कारणों के बारे में चेताया जा सकता है। असुरक्षित यौन संबंध, एक ही टीके से कईं लोगों द्वारा मादक पदार्थों का सेवन, संक्रमित सुई से टीका, एक ही ब्लेड से शेव, संक्रमित रक्त का दूसरे व्यक्तियों को दिया जाना और संक्रमित मां द्वारा बच्चे को जन्म दिए जाने आदि कारणों के प्रति सजगता की जरूरत है। इन सभी से बचा जा सकता है। एचआईवी एड्स के बारे में जानकारी ही बचाव है। एचआईवी की रोकथाम के लिए जानकारी व सुविधाएं उपलब्ध करवानी होंगी। एचआईवी के लिए संवेदनशील तबकों की जीवन-परिस्थितियों को सुधारने के लिए सरकार को उपाय करने चाहिएं।
सबसे महत्वपूर्ण यह है कि किसी कारण से एचआईवी से संक्रमित हो गए लोगों के प्रति भेदभाव को समाप्त करना। जनजागरूकता की कमी के कारण ही बहुत बड़ी आबादी को एचआईवी पॉजिटिव होने पर भी यह बात छुपानी पड़ती है। आज भी बहुत से लोगों को यह लगता है कि एचआईवी पॅाजिटिव व्यक्ति को देखने से ही उन्हें संक्रमण हो जाएगा, तो यह अंधेरी सोच की इंतहा ही है। इसलिए एचआईवी एड्स ने एक सामाजिक संकट का रूप ले लिया है। दूसरी कोई बीमारी होने पर बीमार को इस तरह के संकट से दो-चार नहीं होना पड़ता, लेकिन एचआईवी/एड्स के मामले में लोगों सारी करुणा और दया की भावना धराशायी क्यों हो जाती है। आपदा की चपेट में आए लोगों की तो मदद करते हैं, लेकिन एचआईवी/एड्स से पीडि़त व्यक्ति को लोगों का भेदभाव क्यों झेलना पड़ता है।
मो.नं-09466220145
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