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डॉ. मृणाल वल्लरी से विशेष बातचीत।
स्त्री अस्मिता के सवाल लोकप्रिय देह-विमर्शों में सिमटे: मृणाल वल्लरी।
हिंदी अखबारों व पत्रिकाओं के पन्ने स्त्री सुबोधिनी युग से आगे नहीं आए।
अरुण कुमार कैहरबा
साहित्यकार एवं वरिष्ठ पत्रकार डॉ. मृणाल वल्लरी ने कहा कि पिछले दशकों के दौरान अंग्रेजी से होते हुए क्षेत्रीय भाषाओं तक के मीडिया ने महिला की देह को अहम कंटेंट के तौर पर स्थापित किया है और स्त्री अस्मिता के प्रश्र भी लोकप्रिय देह विमर्शों में सिमट कर रह गए हैं। उन्होंने कहा कि मीडिया बाजार का हथियार बनकर पूंजीवादी हितों की साधना कर रहा है। इसमें महिलाओं को परंपरा के आईने से ही देखा जा रहा है और पितृसत्तात्मक रीतियों का पोषण करके कत्र्तव्यों की इतिश्री की जा रही है। वे गांव रम्बा स्थित बुद्धा कॉलेज ऑफ एजूकेशन में आयोजित संगोष्ठी के दौरान मीडिया में औरत विषय पर विशेष बातचीत कर रही थी।
मृणाल ने कहा कि मीडिया में महिलाओं की हिस्सेदारी नाममात्र ही है। जो हैं उन्हें संपादकीय नीतियां निर्धारित करने में शामिल नहीं किया जाता है। महिलाओं के लिए निर्धारित फीचर पन्नों में सजने-संवरने, पाक शास्त्र, खान-पान, स्वेटर बुनाई या पितृसत्तात्मक परंपराओं को पोषित करने जैसे विषयों का साम्राज्य होता है और अधिकतर महिला पत्रकारों को ये पन्ने तैयार करने के काम में लगा दिया जाता है। उन्होंने कहा कि हिंदी अखबारों व पत्रिकाओं के पन्ने स्त्री सुबोधिनी युग से आगे नहीं जा पाए हैं। फिल्मी दुनिया से संबंधित अखबारों की पत्रिकाओं में हिरोईनों की प्रेम कथाओं और देह पर चर्चा केन्द्रित रहती है।
उन्होंने कहा कि कईं बार लगता है कि मीडिया की जिम्मेदारी को संभालने वाली महिला पत्रकार अपनी जिम्मेदारी नहीं संभाल पाएंगी। ऐसा दरअसल होता नहीं है, माहौल बनाया जाता है ताकि मीडिया में जो महिलाएं कार्य कर रही हैं, उनके मन में असुरक्षा बोध बना रहे। अपने बूते जीने की कोशिश में लगी स्त्री प्रेम करने या अपना जीवन साथी चुनने वाली स्त्री, अपनी जिंदगी में स्वतंत्रता की खोज में लगी स्त्री, शादी या मां बनने से इतर भी समाज में अपनी भूमिका तलाश करने में लगी स्त्री, हमारे मीडिया में स्वस्थ बहस का मुद्दा क्यों नहीं बनती। संस्कृति या धार्मिकता के संदर्भ में जब भी स्त्री को कैद रखने के लिए उस पर अत्याचार किए जाते हैं तो हमारा मीडिया अपनी जुबान सिल लेता या धृतराष्ट्र की भूमिका में खड़ा हो जाता है।
उन्होंने कहा कि महिलाओं से संबंधित कवरेज में मीडिया बेपरवाह होकर शब्द-प्रस्तुति करता है। उन्होंने कहा कि भंवरी कांड की कवरेज में दलित समुदाय की महिला को महत्वाकांक्षी और ब्लैकमेलर के रूप में प्रस्तुत किया गया। उन्होंने कहा कि ‘बलात्कार’ की जगह ‘दुश्कर्म’ या ‘इज्जत लूट लेना’ जैसे शब्दों प्रयोग संगत नहीं है। उन्होंने कहा कि जब दिल्ली में रेलगाड़ी में महिलाओं के लिए डिब्बा आरक्षित किया जाता है तो पत्रकार खबरों में इसे बराबरी की अवधारणा के खिलाफ बताया जाता है।
जब उनसे इलेक्ट्रिोनिक मीडिया में महिलाओं की स्थिति के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा कि प्रिंट की तुलना में इलेक्ट्रिोनिक मीडिया में महिलाओं की हिस्सेदारी थोड़ी अधिक दिखाई देती है लेकिन इसमें बाजार की जरूरतों के हिसाब से महिलाओं का इस्तेमाल किया जाता है। उन्होंने कहा कि यहां पर आधुनिक दिखाई देने पर जोर दिया जाता है, आधुनिक होने को नज़रंदाज किया जाता है। सामाजिक परिवर्तन के काम में लगी महिलाओं के संघर्षों को दिखाने की बजाय महिलाओं को सेक्स सिंबल के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। वहां स्त्री अस्मिता के सवालों को लेकर कोई जद्दोजहद नहीं दिखाई देती। असली मामला चेतना का है, जागरूकता का है। बहुत आधुनिक होना और देखना बहुत अलग-अलग चीजें हैं। उन्होंने कहा कि मीडिया को स्त्री अस्मिता के सवालों को सकारात्मक ढंग से उठाना चाहिए।
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