Monday, January 27, 2014
Saturday, January 18, 2014
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जावेद अख्तर
जब छाए तेरा जादू कोई बच ना पाए
बहुमुखी प्रतिभासम्पन्न कलकार हैं जावेद अख्तर।
अरुण कुमार कैहरबा
हिन्दी सिनेमा को शोले व जंजीर जैसी ब्लाकबस्टर फिल्में देने वाले जावेद अख्तर बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न कलाकार हैं। वे एक संवेदनशील शायर हैं, गीतकार हैं, पटकथा लेखक व सामाजिक कार्यकर्ता हैं। वे जहां फिल्मों में गीतों और संवादों का जादू बिखेर कर लोगों का मनोरंजन कर रहे हैं, वहीं देश के प्रगतिशील साहित्य एवं कला आंदोलन की विरासत को सहेजने और उसे आगे बढ़ाने का महत्वपूर्ण काम कर रहे हैं।जावेद अख़्तर का जन्म 17 जनवरी, 1945 को ग्वालियर में हुआ। पिता जांनिसार अख्तर प्रसिद्ध प्रगतिशील कवि और माता सफिया अख्तर मशहूर उर्दू लेखिका तथा शिक्षिका थीं। उनके घर शेरो-शायरी की महफिलें सजा करती थीं, जिन्हें वे बड़े चाव से सुना करते थे। यही कारण है कि बचपन में ही शायरी से उनका गहरा रिश्ता बन गया। लेकिन ऐसा नहीं है कि उनके जीवन में उतार-चढ़ाव व दिक्कतें नहीं थी। उनके जन्म के कुछ समय के बाद उनका परिवार लखनऊ आ गया। उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा लखनऊ से पूरी की। कुछ समय तक लखनऊ रहने के बाद जावेद अख्तर अलीगढ़ आ गए, जहां वह अपनी खाला के साथ रहने लगे। वर्ष 1952 में जावेद अख्तर को गहरा सदमा पहुंचा जब उनकी मां का इंतकाल हो गया। जावेद अख्तर ने अपनी मैट्रिक की पढ़ाई अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से पूरी की। इसके बाद उन्होंने अपनी स्नातक की शिक्षा भोपाल के साफिया कॉलेज से पूरी की, लेकिन कुछ दिनों के बाद उनका मन वहां नहीं लगा और वह अपने सपनों को नया रूप देने के लिए वर्ष 1964 में मुंबई आ गए। जावेद अख्तर ने जि़ंदगी के उतार-चढ़ाव को बहुत करीब से देखा, जिससे उनकी शायरी में जि़ंदगी के फसाने को बड़ी शिद्दत से महसूस किया जा सकता है।
मुंबई पहुंचने पर जावेद अख्तर को कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। मुंबई में कुछ दिनों तक वह महज 100 रुपये के वेतन पर फिल्मों में डॉयलाग लिखने का काम करने लगे। इस दौरान उन्होंने कई फिल्मों के लिए डॉयलाग लिखे, लेकिन इनमें से कोई फिल्म बॉक्स आफिस पर सफल नहीं हुई। इसके बाद जावेद अख्तर को अपना फिल्मी कॅरियर डूबता नजर आया, लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और अपना संघर्ष जारी रखा। धीरे-धीरे मुंबई में उनकी पहचान बनती गई। मुंबई में उनकी मुलाकात सलीम खान से हुई, जो फिल्म इंडस्ट्री में बतौर संवाद लेखक अपनी पहचान बनाना चाह रहे थे। इसके बाद जावेद अख्तर और सलीम खान संयुक्त रूप से काम करने लगे। वर्ष 1970 में प्रदर्शित फिल्म अंदाज की कामयाबी के बाद जावेद अख्तर कुछ हद तक बतौर डॉयलाग राइटर फिल्म इंडस्ट्री में अपनी पहचान बनाने में सफल हो गए। फिल्म अंदाज की सफलता के बाद जावेद अख्तर और सलीम खान को कई अच्छी फिल्मों के प्रस्ताव मिलने शुरू हो गए।
फिल्म सीता और गीता के निर्माण के दौरान उनकी मुलाकात हनी ईरानी से हुई और जल्द ही जावेद अख्तर ने हनी ईरानी से निकाह कर लिया। हनी इरानी से उनके दो बच्चे हुए फरहान अख्तर और जोया अख्तर। लेकिन हनी इरानी से उन्होंने तलाक लेकर साल 1984 में शबाना आजमी से शादी कर ली।
वर्ष 1973 में उनकी मुलाकात निर्माता-निर्देशक प्रकाश मेहरा से हुई जिनके लिए उन्होंने फिल्म जंजीर के लिए संवाद लिखे। फिल्म जंजीर में उनके द्वारा लिखे गए संवाद दर्शकों के बीच इस कदर लोकप्रिय हुए कि पूरे देश में उनकी धूम मच गई। इसके साथ ही फिल्म के जरिए फिल्म इंडस्ट्री को अमिताभ बच्चन के रूप में सुपर स्टार मिला। इसके बाद जावेद अख्तर ने सफलता की नई बुलंदियों को छुआ और एक से बढक़र एक फिल्मों के लिए संवाद लिखे। जाने माने निर्माता-निर्देशक रमेश सिप्पी की फिल्मों के लिए जावेद अख्तर ने जबरदस्त संवाद लिखकर उनकी फिल्मों को सफल बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनके संवाद के कारण ही रमेश सिप्पी की ज्यादातार फिल्में आज भी याद की जाती हैं. इन फिल्मों में खासकर सीता और गीता( 1972), शोले(1975), शान(1980), शक्ति(1982) और सागर (1985) जैसी सफल फिल्में शामिल हैं। रमेश सिप्पी के अलावा उनके पसंदीदा निर्माता-निर्देशकों में यश चोपड़ा, प्रकाश मेहरा प्रमुख रहे हैं। वर्ष 1980 में सलीम-जावेद की सुपरहिट जोड़ी अलग हो गई। इसके बाद भी जावेद अख्तर ने फिल्मों के लिए संवाद लिखने का काम जारी रखा।
जावेद अख्तर को पटकथा लेखन व गीतों के लिए अनेक बार सम्मानित किया गया। सबसे पहले वर्ष 1994 में प्रदर्शित फिल्म ‘1942 ए लव स्टोरी’ के गीत ‘एक लडक़ी को देखा तो ऐसा लगा.. ’क े लिए सर्वश्रेष्ठ गीतकार के फिल्मफेयर पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इसके बाद जावेद अख्तर वर्ष 1996 में प्रदर्शित फिल्म ‘पापा कहते हैं’ के गीत ‘घर से निकलते ही..’(1997), बार्डर के गीत ‘संदेशे आते हैं’ 2000), ‘रिफ्यूजी’ के गीत ‘पंछी नदिया पवन के झोंके..’ (2001), लगान के ‘सुन मितवा.. (2003), कल हो ना हो (2004), वीर जारा के ‘तेरे लिए’ के लिए भी जावेद अख्तर सर्वश्रेष्ठ गीतकार के पुरस्कार से सम्मानित किए गए।
वर्ष 1999 में साहित्य जगत में जावेद अख्तर के बहुमूल्य योगदान को देखते हुए उन्हें राष्ट्रपति द्वारा पद्म श्री से नवाजा गया। वर्ष 2007 में उन्हें पद्म भूषण सम्मान से नवाजा गया। जावेद अख्तर को उनके गीत के लिए वर्ष 1996 में फिल्म साज, 1997 में बार्डर, 1998 में गॉड मदर, 2000 में फिल्म रिफ्यूजी और साल 2001 में फिल्म लगान के लिए नेशनल अवार्ड से भी सम्मानित किया गया। उनके अब तक दो $गज़ल व नज्म संग्रह प्रकाशित हुए हैं-तरकश व लावा। उन्हें साहित्य अकादमी सम्मान भी मिला है। अपनी शायरी के बारे में कहते हैं-
जिधर जाते हैं सब, जाना उधर अच्छा नहीं लगता
मुझे पामाल रस्तों का सफ़र अच्छा नहीं लगता।
ग़लत बातों को खामोशी से सुनना, हामी भर लेना
बहुत हैं फायदे इसमें, मगर अच्छा नहीं लगता।
मुझे दुश्मन से भी खुद्दारी की उम्मीद रहती है
किसी का भी हो सर, क़दमों में अच्छा नहीं लगता।
Wednesday, January 15, 2014
मार्टिन लूथर किंग
जयंती विशेष
मानवाधिकारों के अमर सेनानी: मार्टिन लूथर किंग
मार्टिन लूथर किंग जूनियर का जन्म 15 जनवरी, 1929 को अमेरिका के अट्लांटा में हुआ था। डॉ. किंग ने संयुक्त राज्य अमेरिका में नीग्रो समुदाय के प्रति होने वाले भेदभाव के विरुद्ध सफल अहिंसात्मक आंदोलन का संचालन किया। 1955 का वर्ष उनके जीवन का निर्णायक मोड़ था। इसी वर्ष कोरेटा से उनका विवाह हुआ, उनको अमेरिका के दक्षिणी प्रांत अल्बामा के मांटगोमरी शहर में डेक्सटर एवेन्यू बॅपटिस्ट चर्च में प्रवचन देने बुलाया गया और इसी वर्ष मॉटगोमरी की सार्वजनिक बसों में काले-गोरे के भेद के विरुद्ध एक महिला रोज पाक्र्स ने गिरफ्तारी दी। इसके बाद ही किंग ने प्रसिद्ध बस आंदोलन चलाया, जिसमें उन्होंने गोरे और काले लोगों के लिए अलग-अलग बसों और अलग-अलग सीटों के प्रावधान की आलोचना की। लगभग एक वर्ष तक चले इस सत्याग्रही आंदोलन के बाद अमेरिकी बसों में काले-गोरे यात्रियों के लिए अलग-अलग सीटें रखने का प्रावधान खत्म कर दिया गया। बाद में उन्होंने धार्मिक नेताओं की मदद से समान नागरिक कानून आंदोलन अमेरिका के उत्तरी भाग में भी फैलाया।
28अगस्त, 1963 को मार्टिन लूथर किंग ने वाशिंगटन में रंगभेद के विरूद्ध इकट्ठा हुए दो लोगों लोगों को सम्बोधित करते हुए ‘मेरा सपना है’ भाषण दिया था, जोकि मानवाधिकारों के पूरी दुनिया में जाना जाता है। इस भाषण में उन्होंने कहा था, ‘‘मैं खुश हूँ कि मैं आज ऐसे मौके पे आपके साथ शामिल हूँ जो इस देश के इतिहास में स्वतंत्रता के लिए किये गए सबसे बड़े प्रदर्शन के रूप में जाना जायेगा। सौ साल पहले, एक महान् अमेरिकी (अब्राहम लिंकन), जिनकी प्रतीकात्मक छाया (मूर्ति) में हम सभी खड़े हैं, ने एक मुक्ति उद्घोषणा पर हस्ताक्षर किये थे। इस महत्त्वपूर्ण निर्णय ने अन्याय सह रहे लाखों गुलाम नीग्रोज़ के मन में उम्मीद की एक किरण जगा दी थी। यह ख़ुशी उनके लिए लम्बे समय तक अन्धकार की कैद में रहने के बाद दिन के उजाले में जाने के समान था। परन्तु आज सौ वर्षों बाद भी, नीग्रोज़ स्वतंत्र नहीं हैं। सौ साल बाद भी, एक नीग्रो की जि़न्दगी अलगाव की हथकड़ी और भेद-भाव की जंजीरों से जकड़ी हुई है। सौ साल बाद भी नीग्रो समृद्धि के विशाल समुन्द्र के बीच गरीबी के एक द्वीप पे रहता है। सौ साल बाद भी नीग्रो, अमेरिकी समाज के कोनों में सड़ रहा है और अपने देश में ही खुद को निर्वासित पाता है। इसीलिए आज हम सभी यहाँ इस शर्मनाक इस्थिति को दर्शाने के लिए इकठ्ठा हैं।’’ अपने इस यादगार भाषण में उन्होंने कहा कि ‘‘मेरा एक सपना है कि एक दिन यह देश ऊपर उठेगा और सही मायने में अपने सिद्धांतों को जी पायेगा। हम इस सत्य को प्रत्यक्ष मानते हैं कि सभी इंसान बराबर पैदा हुए हैं। मेरा एक सपना है कि एक दिन जार्जिया के लाल पहाड़ों पे पूर्व गुलामों के पुत्र और पूर्व गुलाम मालिकों के पुत्र भाईचारे की मेज पे एक साथ बैठ सकेंगे।मेरा एक सपना है कि एक दिन मिसिसिप्पी राज्य भी , जहाँ अन्याय और अत्याचार की तपिश है, एक आजादी और न्याय के नखलिस्तान में बदल जायेगा।’’
उन्हें 1964 में विश्व शांति के लिए सबसे कम उम्र में नोबेल पुरस्कार से नवाजा गया। कई अमेरिकी विश्वविद्यालयों ने उन्हें मानद उपाधियां दीं। धार्मिक व सामाजिक संस्थाओं ने उन्हें मेडल प्रदान किए। टाइम पत्रिका ने उन्हें 1963 का मैन ऑफ द इयर चुना। 1959 में उन्होंने भारत की यात्रा की थी। डॉ. किंग ने अखबारों में कई आलेख लिखे। ‘स्ट्राइड टुवर्ड फ्रीडम’ (1958) तथा ‘व्हाय वी कैन नॉट वेट’ (1964) उनकी लिखी दो पुस्तकें हैं। चार अप्रैल,1968 को गोली मारकर उनकी हत्या कर दी गई। लेकिन उनके किए गए प्रयासों का फल आज अमेरिका के अश्वेत लोगों को ही नहीं बल्कि दुनिया के सभी वंचित लोगों और मानवाधिकार की लड़ाई लड़ रहे लोगों को हौंसले के रूप में मिल रहा है। रंगभेद की दलदल में फंसे अमेरिका में 2008 के चुनाव में अश्वेत बराक ओबामा का राष्ट्रपति निर्वाचित होना भी मार्टिन लूथर किंग के कार्यों का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष परिणाम है।
मानवाधिकारों के अमर सेनानी: मार्टिन लूथर किंग
अमेरिका के गांधी के रूप में जाने जाते हैं मार्टिन
अरुण कुमार कैहरबा पूरी दुनिया में पूंजीवाद के अगुवा के तौर पर विख्यात अमेरिका अमानवीय रंगभेद व विषमताओं के लिए कुख्यात रहा है। लेकिन लोकतंत्र, समानता और न्याय के लिए संघर्ष करने वालों की भी कमी नहीं है। उनमें मार्टिन लूथर किंग का नाम अग्रणी है, जिन्होंने मानवाधिकारों की आवाज बुलंद करके अपने देश की दशा और दिशा को बदलने में अहम भूमिका निभाई। उन्होंने रंगभेद के दंश को गहराई से महसूस किया और अपने विचारों के द्वारा अमेरिका की सरकार व जनता को झकझोर कर रख दिया। अमेरिका में अमानवीय प्रथा को समाप्त करने के लिए उनके प्रयासों ने पूरी दुनिया के मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को प्रभावित एवं प्रेरित किया। मानवाधिकारों का अमर सेनानी मार्टिन लूथर किंग भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में महात्मा गाँधी के कार्यों एवं विचारों से वे लूथर किंग खासे प्रभावित थे, जिस कारण उन्हें अमेरिका का गाँधी कह कर पुकारा जाता है।
अमेरिका में नीग्रो लोगों का दर्द भरा इतिहास रहा है। जब गोरों ने अमरीका को अपना उपनिवेश बना लिया तो प्राप्त विशाल भूमि का सम्यक रूप से दोहन-शोषण करने के लिए उन्हें मजदूरों की जरुरत महसूस हुई। इसलिए मांग हुई कि दास लाये जायं। उस समय अफ्रीका बहुत पिछड़ा हुआ था। वहां की कोई, खबर सभ्य जगत में नहीं पहुंचती थी तो भ्रष्ट और रंगे रूप में कि वहां के लोग खूंखार और मनुष्य के रूप में पशु है। कहा गया है कि ऐसे लोगों को, यहां तक कि ऐशिया के सुसभ्य लोगों को, सभ्य बनाने का काम श्वेतांग लोगों का है। इसका एक दर्शनशास्त्र बन गया, जिसको व्हाइट मैंस बर्डन यानी श्वेतांग जाति का नैतिक बोझ करार दिया जाता है। इसी श्वेतांग जातियों के बोझ का एक नग्न रूप अफ्रीका के युवकों और युवतियों को छल, बल, कौशल से पकड़ और बांधकर अमरीका के जमीन्दारों के सुपुर्द करने के रूप में सामने आया। जिस प्रकार से लोग शिकार करते है, उसी प्रकार से अफ्रीका में नीग्रो लोगों का शिकार करके अमरीका की दासमंडियों में ले जाकर बेच दिया जाता था। यह है अमेरिका सहित विकसित एवं सभ्य कहे जाने वाले देशों का इतिहास। 1863 में राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने दासों की स्वतंत्रता की घोषणा की। 1868 में संविधान में 14वां संशोधन कर सभी अफ्रीकी-अमेरिकी नागरिकों को पूर्ण नागरिकता को देने का प्रावधान किया गया।1870 को अश्वेत पुरुषों को मताधिकार दिया गया। लेकिन कानूनी प्रावधानों के बावजूद भेदभाव बना हुआ था। भेदभाव को समाप्त करके अश्वेतों के नागरिक अधिकारों के लिए नए सिरे से जागरूकता लाने का श्रेय मार्टिन लूथर किंग को जाता है।मार्टिन लूथर किंग जूनियर का जन्म 15 जनवरी, 1929 को अमेरिका के अट्लांटा में हुआ था। डॉ. किंग ने संयुक्त राज्य अमेरिका में नीग्रो समुदाय के प्रति होने वाले भेदभाव के विरुद्ध सफल अहिंसात्मक आंदोलन का संचालन किया। 1955 का वर्ष उनके जीवन का निर्णायक मोड़ था। इसी वर्ष कोरेटा से उनका विवाह हुआ, उनको अमेरिका के दक्षिणी प्रांत अल्बामा के मांटगोमरी शहर में डेक्सटर एवेन्यू बॅपटिस्ट चर्च में प्रवचन देने बुलाया गया और इसी वर्ष मॉटगोमरी की सार्वजनिक बसों में काले-गोरे के भेद के विरुद्ध एक महिला रोज पाक्र्स ने गिरफ्तारी दी। इसके बाद ही किंग ने प्रसिद्ध बस आंदोलन चलाया, जिसमें उन्होंने गोरे और काले लोगों के लिए अलग-अलग बसों और अलग-अलग सीटों के प्रावधान की आलोचना की। लगभग एक वर्ष तक चले इस सत्याग्रही आंदोलन के बाद अमेरिकी बसों में काले-गोरे यात्रियों के लिए अलग-अलग सीटें रखने का प्रावधान खत्म कर दिया गया। बाद में उन्होंने धार्मिक नेताओं की मदद से समान नागरिक कानून आंदोलन अमेरिका के उत्तरी भाग में भी फैलाया।
28अगस्त, 1963 को मार्टिन लूथर किंग ने वाशिंगटन में रंगभेद के विरूद्ध इकट्ठा हुए दो लोगों लोगों को सम्बोधित करते हुए ‘मेरा सपना है’ भाषण दिया था, जोकि मानवाधिकारों के पूरी दुनिया में जाना जाता है। इस भाषण में उन्होंने कहा था, ‘‘मैं खुश हूँ कि मैं आज ऐसे मौके पे आपके साथ शामिल हूँ जो इस देश के इतिहास में स्वतंत्रता के लिए किये गए सबसे बड़े प्रदर्शन के रूप में जाना जायेगा। सौ साल पहले, एक महान् अमेरिकी (अब्राहम लिंकन), जिनकी प्रतीकात्मक छाया (मूर्ति) में हम सभी खड़े हैं, ने एक मुक्ति उद्घोषणा पर हस्ताक्षर किये थे। इस महत्त्वपूर्ण निर्णय ने अन्याय सह रहे लाखों गुलाम नीग्रोज़ के मन में उम्मीद की एक किरण जगा दी थी। यह ख़ुशी उनके लिए लम्बे समय तक अन्धकार की कैद में रहने के बाद दिन के उजाले में जाने के समान था। परन्तु आज सौ वर्षों बाद भी, नीग्रोज़ स्वतंत्र नहीं हैं। सौ साल बाद भी, एक नीग्रो की जि़न्दगी अलगाव की हथकड़ी और भेद-भाव की जंजीरों से जकड़ी हुई है। सौ साल बाद भी नीग्रो समृद्धि के विशाल समुन्द्र के बीच गरीबी के एक द्वीप पे रहता है। सौ साल बाद भी नीग्रो, अमेरिकी समाज के कोनों में सड़ रहा है और अपने देश में ही खुद को निर्वासित पाता है। इसीलिए आज हम सभी यहाँ इस शर्मनाक इस्थिति को दर्शाने के लिए इकठ्ठा हैं।’’ अपने इस यादगार भाषण में उन्होंने कहा कि ‘‘मेरा एक सपना है कि एक दिन यह देश ऊपर उठेगा और सही मायने में अपने सिद्धांतों को जी पायेगा। हम इस सत्य को प्रत्यक्ष मानते हैं कि सभी इंसान बराबर पैदा हुए हैं। मेरा एक सपना है कि एक दिन जार्जिया के लाल पहाड़ों पे पूर्व गुलामों के पुत्र और पूर्व गुलाम मालिकों के पुत्र भाईचारे की मेज पे एक साथ बैठ सकेंगे।मेरा एक सपना है कि एक दिन मिसिसिप्पी राज्य भी , जहाँ अन्याय और अत्याचार की तपिश है, एक आजादी और न्याय के नखलिस्तान में बदल जायेगा।’’
उन्हें 1964 में विश्व शांति के लिए सबसे कम उम्र में नोबेल पुरस्कार से नवाजा गया। कई अमेरिकी विश्वविद्यालयों ने उन्हें मानद उपाधियां दीं। धार्मिक व सामाजिक संस्थाओं ने उन्हें मेडल प्रदान किए। टाइम पत्रिका ने उन्हें 1963 का मैन ऑफ द इयर चुना। 1959 में उन्होंने भारत की यात्रा की थी। डॉ. किंग ने अखबारों में कई आलेख लिखे। ‘स्ट्राइड टुवर्ड फ्रीडम’ (1958) तथा ‘व्हाय वी कैन नॉट वेट’ (1964) उनकी लिखी दो पुस्तकें हैं। चार अप्रैल,1968 को गोली मारकर उनकी हत्या कर दी गई। लेकिन उनके किए गए प्रयासों का फल आज अमेरिका के अश्वेत लोगों को ही नहीं बल्कि दुनिया के सभी वंचित लोगों और मानवाधिकार की लड़ाई लड़ रहे लोगों को हौंसले के रूप में मिल रहा है। रंगभेद की दलदल में फंसे अमेरिका में 2008 के चुनाव में अश्वेत बराक ओबामा का राष्ट्रपति निर्वाचित होना भी मार्टिन लूथर किंग के कार्यों का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष परिणाम है।
Wednesday, January 8, 2014
Tuesday, January 7, 2014
Thursday, January 2, 2014
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